यह मेरे अपने जाने पहचाने लोगों की फिल्म है। अनारकली ऑफ आरा देखने के बाद यह मेरा अपना वक्तव्य भी है और मेरी नितांत निजी अनुभूति भी जो मुझे इस फिल्म को देखने के बाद हुयी। जब मैं यह कहता हूँ कि अनारकली एक मेरे अपने जाने पहचाने लोगों की फिल्म है तो इसके अनेक संदर्भ हैं। मूर्त रूप में भी और अमूर्त भी। उन अनेक संदर्भों में न केवल इस फिल्म की कहानी है, कहानी की सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनैतिक पृष्ठभूमि है, इस कहानी में अमानुषिकरण के शिकार हुये किरदारों का आर्तनाद है और उनका प्रतिरोध है बल्कि इस महागाथा की रचना में जीवित मनुष्यों का जो समूह लगा रहा है उन्हें और उनकी वैचारिक मेहनतकशी से भी मैं प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से परिचित हूँ। फिल्म की कहानी आरा ज़िले की क्स्बाई ऑर्केस्ट्रा पार्टी में नाच गाकर अपना जीवन यापन करने वाली पुश्तैनी अदाकारा अनारकली की है जो शक्ति के मद में लिप्त एक स्थानीय महाविद्यालय के वाइस चांसलर और उसके गुर्गों द्वारा शारीरिक, भावनात्मक और मानसिक रूप से उत्पीड़न का शिकार होती है। यह उत्पीड़न इस कदर होता है कि अनारकली को उसकी अपनी बनाई हुयी सामाजिक जगह से विस्थापित भी होना पड़ता है और दिल्ली आना पड़ता है। उत्पीड़न का वह साया यहाँ भी उसका पीछा नहीं छोडता और वह आरा से पहले ही पलायन कर के दिल्ली आए हुये हीरामन की मदद से अपने लिए सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ती है। एक ऐसी लड़ाई जिसकी वकील वह खुद है और जज भी खुद। और न्यायालय है ऑर्केस्ट्रा का मंच।
मेरी राय में एक अच्छी फिल्म वह होती है जो बहुत ही सादगी के साथ अपने प्रेक्षक को उसके अनुभव जगत में वापस ले जाती है और वहाँ जो विसंगत है अन्यायपूर्ण है उसकी तफतीश करने को प्रेरित करती है। उत्पीड़न के उस रूप का जिसका शिकार अनारकली इस फिल्म में होती है उसका वाजिब अंदाज़ा लगाने के लिए पुरुषों को कम से कम एक औरत होना होगा जो वे इस जनम में तो हो नहीं सकते और अगला जन्म कभी होता नहीं। मगर एक छोटे मोटे पुरुष नाटक कलाकार के तौर पर मैं उत्पीड़न के अन्य मामूली से रूप से अनारकली के उत्पीड़न के उस अनुभव से ज़रूर साझा करता हूँ जिसमें समाज मुझे और मेरे पेशे की वजह से हमेशा दोयम या निकृष्ट दर्जे का गिनने में कोई कसर नहीं छोडता। भांड, नौटकिया, ड्रामेबाज़, नाटकिया और बुद्धिजीवी जैसे शब्द कैसे गालियों के रूप में इस्तेमाल होते हैं यह बात हम सभी जानते हैं। कौन हैं वे लोग जिनके पास हमारे नाचने गाने के शौक पर गरियाने का अधिकार है? कहाँ से मिलता है इन्हें इसका लाइसेन्स? फिल्म बड़ी ही सादगी से सहजता से भरी भाषा में मेरे जहन में यह सवाल उठाने में मदद करती है और इसीलिए यह फिल्म मुझे मेरे अपने लोगों के बीच ले जाती है। अविनाश जो कि इस फिल्म के लेखक-निर्देशक हैं उनसे मेरी रूबरू मुलाक़ात गिनती की सिर्फ एक है उसके बात जितनी भी मुलाकातें हुयी वे या तो फोन पर या उनके ब्लॉग पर उनके लिखे हुये के माध्यम से। एक छोटी सी मुलाक़ात में किसी व्यक्ति के रवैये को देखकर और उसके द्वारा लिखे जा रहे लेखों को पढ़कर उस व्यक्ति को पहचानने की मेरी क्षमता यदि दुरुस्त है तो मैं कह सकता हूँ कि अविनाश सामाजिक सरोकारों से भरे एक ऐसे सहज और दिलेर इंसान हैं जिन्होनें तंग गलियों की घुटन को न केवल महसूस किया है बल्कि उस घुटन भरे जीवन से खुद बाहर निकलने और लोगों को बाहर निकालने का संघर्ष भी किया है। विषयवस्तु का चुनाव, कहानी का गठन, किरदारों की जीवंतता, लोकेशन का चुनाव, दृश्य निर्माण और सिनेमाई तत्वों के संयोजन से लेकर टीम को साथ लेकर चलने और पर्दे पर लाने तक के सफर में उनका यह व्यक्तित्व कहीं बिखरता हुआ नज़र नहीं आता।
यूं तो पूरी फिल्म में दृश्यों के चुनाव में सतर्कता बरती गई है किन्तु फिल्म में लेखकीय दृष्टि से मेरे सबसे पसंदीदा दृश्य ये दो है। पहला जिसमें वाइस चांसलर अपने गुर्गों से पूछता है कल रात मैंने क्या किया था?’ और दूसरा अंत में जब अनारकली वाइस चांसलर को ‘रंडी हो रंडी से कम हो या बीवी हो... आइंदा पूछ के हाथ लगाइएगा...’ ऐसा कहकर सुनसान गली में भी उन्मुक्त चाल के साथ निकल जाती है और अपना घाघरा लहराती है। किसी समय जयपुर में कॉफी हाउस में हमारी टेबल से कुछ दूर की टेबल पर बैठने वाले हमारे करीबी मित्र रामकुमार के एक गीत समेत सभी गीतकारों और संगीतकार का काम फिल्म की पृष्ठभूमि को जबर्दस्त तरीके से उभारता है। मेरी राय में न यह पिंक से आगे की फिल्म है और न ही पीछे की दोनों के संदर्भ और पृष्ठभूमि अपनी अपनी हैं और दोनों के कलेवर एकदम जुदा। मुझे लगता है बैक्ग्राउण्ड स्कोर पार्श्व ध्वनि के चयन और इस्तेमाल में निर्देशक और ध्यान दे सकते थे। मुझे लगा कि जहां जहां बैक्ग्राउण्ड स्कोर फिल्म के कथानक को और तीखा बना सकता था वहाँ वहाँ इसका इस्तेमाल बड़े ही उपेक्षित और फीके तरीके से किया गया है। संजय मिश्रा मुझे हमेशा से पसंद आते रहे हैं और पसंद आने की वजह एक अभिनेता के रूप में चरित्र के प्रति उनका किया गया बर्ताव है। यह मेरा अंदाज़ा है जो गलत भी हो सकता है मगर चरित्र के चित्रांकन में वे जिस मेथोड़ोलोजी को अपनाते हैं वह पंकज कपूर के काफी करीब दिखती है विशेष रूप से स्पीच के निरूपण में। अनारकली में वाइस चांसलर के रूप में उनका होना कहानी के प्रभाव को दोगुना कर देता है।
स्वरा इस फिल्म की जान हैं। उन्हें इश्क़ वाला आदाब। यूं तो स्वरा को राँझना और तनु वेड्स मनु समेत अनेक फिल्मों के लिए स्मृति में रखा जा सकता है मगर मुझे स्वरा संविधान की वजह से ज़्यादा रहती रही हैं और अब अनारकली की वजह से याद रहेंगी। दोनों ही जगह मैं उनके अभिनय में मैं एक समानता पाता हूँ वह यह है कि अभिनय करते हुये उनकी खुद पर जो नज़र रहती है मतलब वे क्या कर रही हैं? क्या कह रही हैं? और क्या सुन रही हैं इसे धैर्य के साथ ‘माइंड’ करना और प्रतिकृया देना वह लाजवाब है। अभिनय से इतर सामाजिकों हकों से जुड़े मुद्दों पर बेबाक राय उन्हें तमाम अभिनेत्रियों से अलग बनाती है। विजय कुमार, पंकज त्रिपाठी और इश्तेयाक खान तीनों ही अभिनेताओं को मैंने थिएटर और फिल्म दोनों में अभिनय करते हुये देखा है। और यह मानते हुये कि मैं दोनों ही माध्यमों का एक ठीक ठाक सा सुधि दर्शक हूँ अतः कह सकता हूँ तीनों की एक समान खूबी यह है कि ये तीनों अभिनेता किसी भी चरित्र में अपने सेल्फ को धीरे धीरे ऐसा घुसाते चले जाते हैं कि वह चरित्र और इनका सेल्फ एकाकार हो जाता है और उस चरित्र का वॉल्यूम कई गुना बढ़ जाता है। और अंत में हमारे शहर जयपुर की लड़की इप्शिता के बारे में। हालांकि उसके पास पूरी फिल्म में बहुत कम समय था मगर जितना भी था उसमें इप्शिता ने उसके चरित्र को निभाने में अपनी रचनात्मक एजेंसी स्थापित की है।
निरंतर जटिल होते जा रहे सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनैतिक जीवन के ताने बाने में किसी भी बात को सादगी और सहज भाषा में कहना सबसे मुश्किल काम है। यह काम तब और भी मुश्किल हो जाता है जब कहने वाले का सच अकेला पड़ रहा हो, जहां देखो वहाँ झूठ सर उठाकर खड़ा हो और कहे बिना रहा भी नहीं जा रहा हो। इस मामले में मैं अनारकली के निर्देशक और उनकी टीम को सौ में सौ नंबर देता हूँ। समीक्षा की शुरुआत में मैंने लिखा था कि ‘यह मेरे अपने जाने पहचाने लोगों कि फिल्म है’ मुझे उम्मीद है कि मैं इस फिल्म के बारे में अपनी अनुभूति को ठीक से आपके सामने रख पाया हूँ। ऐसे ही मेरे अपने जाने पहचाने लोगों की फिल्में और भी बनाते रहिए। हमें दिखाते रहिए।
अभिषेक गोस्वामी
जयपुर, राजस्थान