गांवों के देश भारत में कार्य की विशिष्ट सहभागी संस्कृति है। यद्यपि आधुनिकीकरण, मशीनीकरण से ग्रामीण कौशल में कमी आयी है, पर आज भी बढ़ई, लोहार, कुंभकार, दर्जी, शिल्पी, राज मिस्त्री, सोनार अपने कौशल को बचाये हुए हैं। ये विश्वकर्मा पुत्र हमारी समृद्धि के कभी आधार थे। आज विश्वकर्मा जयंती के अवसर पर इनकी कला को समृद्ध बनाने के संकल्प की जरूरत है। ग्रामीण ढांचागत विकास, गांव की अर्थव्यवस्था, जीविका के आधार, क्षमता वृद्धि, अर्थोपाय सबके बीच विश्वकर्मण के मूल्यों, आदर्शों की देश को जरूरत है। 17 सितंबर विश्वकर्मा जयंती के माध्यम से यदि वैश्विक इकोनोमी के इस दौर में भारतीय देशज हुनर, तकनीक को समर्थन, प्रोत्साहन मिला तो मौलिक रूप से देश उत्पादक होगा, समृद्ध होगा, सभी के पास उत्पादन का लाभ पहुंचेगा। विश्वकर्मा पुत्र निहाल होंगे और भारत उत्पादकता में पुनर्प्रतिष्ठित होगा
भारत पर्वों-उत्सवों का देश है। इसका सांस्कृतिक-आध्यात्मिक आधार है। विशेषकर जयंती मनाने के पीछे आदर्श, मूल्य, धरोहर और सामाजिक उपादेयता का अधिक महत्व है। हिंदू धर्म में मानव विकास को धार्मिक व्यवस्था के रूप में जीवन से जोड़ने के लिए विभिन्न अवतारों का विधान मिलता है। यही वजह है कि राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर से लेकर अन्य सभी महापुरुषों की जयंती प्रेरणा स्वरूप मनाते हैं। रामनवमी या कृष्ण जन्माष्टमी समाज को ऊर्जा देने वाले सांस्कृतिक-आध्यात्मिक आयाम हैं। तो विश्वकर्मा जयंती, राष्ट्रीय श्रम दिवस को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है। उन्हें दुनिया का इंजीनियर माना गया है। यानी पूरी दुनिया का ढांचा उन्होंने ही तैयार किया है। वे ही प्रथम आविष्कारक थे। हिंदू धर्म ग्रंथों में यांत्रिक, वास्तुकला, धातुकर्म, प्रक्षेपास्त्र विद्या, वैमानिकी विद्या आदि का जो प्रसंग मिलता है, इन सबके अधिष्ठाता विश्वकर्मा ही माने जाते हैं। विश्वकर्मा ने मानव को सुख-सुविधाएं प्रदान करने के लिए अनेक यंत्रों व शक्ति संपन्न भौतिक साधनों का निर्माण किया। इन्हीं साधनों द्वारा मानव समाज भौतिक सुख प्राप्त करता रहा है। विश्वकर्मा का व्यक्तित्व एवं सृष्टि के लिए किये गये कार्यों को बहुआयामी अर्थों में लिया जाता है। आज के वैश्विक सामाजिक-आर्थिक चिंतन में विश्वकर्मा को बड़े ही व्यापक रूप में देखने की जरूरत हैं, कर्म ही पूजा है, आराधना है। इसी के फलस्वरूप समस्त निधियां अर्थात ऋद्धि- सिद्धि प्राप्त होती हैं। कर्म अर्थात योग, कर्मषु कौशलम् योग का आधार कौशल युक्त कर्म, क्वालिटी फंक्सनिंग है। बाह्य और आंतरिक ऊर्जा के साथ गुणवत्ता पूर्ण कार्य की संस्कृति है। कहते हैं की भगवान विश्वकर्मा की ज्योति से नूर बरसता हैं। जिसे मिल जाएं उसके दिल को शुकून मिलता हैं। जो भी लेता हैं भगवान विश्वकर्मा का नाम उसको कुछ न कुछ जरूर मिलता हैं। इनके दरबार से कोई भी खाली हाथ नहीं जाता हैं। विश्वकर्मा पूजा जन कल्याणकारी है। इसीलिए प्रत्येक व्यक्तियों को सृष्टिकर्ता, शिल्प कलाधिपति, तकनीकी ओर विज्ञान के जनक भगवान विशवकर्मा जी की पुजा-अर्चना अपनी व राष्टीय उन्नति के लिए अवश्य करनी चाहिए।
‘‘कर्म प्रधान विश्व करि राखा‘‘
यानी परिणाम तो कर्म का ही श्रेष्ठ है, अकर्म का नहीं। फिर विश्वकर्म अर्थात संर्पूणता में कर्म, वैश्विक कर्म, सर्वजन हिताय कर्म और कर्म के लिए सर्वस्व का न्योछावर। अर्थात विश्वकर्मा समस्त सृष्टि के लिए सृजन के देव हैं। उन्होंने सार्वदेशिक शोध आधारित सृजन की पृष्ठभूमि ही नहीं तैयार की, बल्कि सबके लिए उपादेय वस्तुओं का निर्माण किया। गीता में कृष्ण ने कर्म की सतत प्रेरणा दी है। निष्काम कर्म आज भी वही सफल है, जो कर्म को तकनीक आधारित अर्थात कौशल युक्त कर्म करता हुआ आगे आता है। विश्वकर्मा उसी कर्मजीवी समाज के प्रेरक देवता हैं। परंपरागत रूप में प्रत्येक शिल्प हस्तशिल्प, तकनीक युक्त कार्य, वास्तु, हैंडी क्राफ्ट सहित छोटे-बड़े सभी शिल्पों से जुड़े समाज के लोग विश्वकर्मा जयंती को अपूर्व व्यापकता के साथ मनाते हैं। इस दिन देश भर के प्रतिष्ठानों में अघोषित अवकाश रहता है। यही एक अवसर है, जब देश के प्रत्येक प्रतिष्ठान में समवेत पूजा होती है। यहां सर्व धर्म समभाव का अनूठा उदाहरण देखने को मिलता है। स्कंद पुराण प्रभात खंड के इस श्लोक की भांति किंचित पाठ भेद से सभी पुराणों में यह श्लोक मिलता है- ‘बृहस्पते भगिनी भुवना ब्रह्मवादिनी, प्रभासस्य तस्य भार्या बसूनामष्टमस्य च। विश्वकर्मा सुतस्तस्यशिल्पकर्ता प्रजापतिः।। महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र बृहस्पति की बहन भुवना जो ब्रह्मविद्या जानने वाली थी, वह अष्टम वसु महर्षि प्रभास की पत्नी बनी और उससे संपूर्ण शिल्प विद्या के ज्ञाता प्रजापति विश्वकर्मा का जन्म हुआ।
देवशिल्पी ने किया लंका और द्वारिका का निर्माण
प्राचीन शास्त्रों में वैमानकीय विद्या, नवविद्या, यंत्र निर्माण विद्या आदि का उपदेश भगवान विश्वकर्मा ने दिया। कहा जाता है कि प्राचीन काल में जितनी राजधानियां थी, अस्त्र और शस्त्र, भगवान विश्वकर्मा द्वारा ही निर्मित हैं। वज्र का निर्माण भी उन्होने ही किया था। यहां तक कि सतयुग का ‘स्वर्ग लोक‘, त्रेता युग की ‘लंका‘, द्वापर की ‘द्वारिका‘ और कलयुग का ‘हस्तिनापुर‘ आदि विश्वकर्मा द्वारा ही रचित हैं। ‘सुदामापुरी‘ की तत्क्षण रचना के बारे में भी कहा जाता है कि उसके निर्माता विश्वकर्मा ही थे। उन्होंने अपने हाथों से जगन्नाथपुरी स्थित भगवान जगन्नाथ की काष्ठ की प्रतिमा को भी आकार दिया है। कहा जाता है कि सभी पौराणिक संरचनाएं, भगवान विश्वकर्मा द्वारा निर्मित हैं। भगवान विश्वकर्मा के जन्म को देवताओं और राक्षसों के बीच हुए समुद्र मंथन से माना जाता है। जबकि लंका के निर्माण के बाबत कहा जाता है कि भगवान शिव ने माता पार्वती के लिए एक महल का निर्माण करने के लिए भगवान विश्वकर्मा को कहा, तो भगवान विश्वकर्मा ने सोने के महल को बना दिया। इस महल के पूजन के दौरान, भगवान शिव ने राजा रावण को आंमत्रित किया। रावध, महल को देखकर मंत्रमुग्ध हो गया और जब भगवान शिव ने उससे दक्षिणा में कुछ लेने को कहा, तो उसने महल ही मांग लिया। भगवान शिव ने उसे महल दे दिया और वापस पर्वतों पर चले गए। इसी प्रकार, भगवान विश्वकर्मा की एक कहानी और है- महाभारत में पांडव जहां रहते थे, उस स्थान को इंद्रप्रस्थ के नाम से जाना जाता था। इसका निर्माण भी विश्वकर्मा ने किया था। कौरव वंश के हस्तिनापुर और भगवान कृष्ण के द्वारका का निर्माण भी विश्वकर्मा ने ही किया था। अंतः विश्वकर्मा पूजन, भगवान विश्वकर्मा को समर्पित एक दिन है। इस दिन का औद्योगिक जगत और भारतीय कलाकारों, मजबूरों, इंजीनियर्स आदि के लिए खास महत्व है। भगवान विश्वकर्मा की महिमा प्राचीन ग्रंथो, उपनिषद एवं पुराण आदि में है। वे आदि काल से ही विश्वकर्मा शिल्पी अपने विशिष्ट ज्ञान एवं विज्ञान के कारण ही न मात्र मानवों अपितु देवगणों द्वारा भी पूजित और वंदित है। माना जाता है कि पुष्पक विमान का निर्माण तथा सभी देवों के भवन और उनके दैनिक उपयोग में होने वाली वस्तुएं भी इनके द्वारा ही बनाया गया है। कर्ण का कुण्डल, विष्णु भगवान का सुदर्शन चक्र, शंकर भगवान का त्रिशूल और यमराज का कालदण्ड इत्यादि वस्तुओं का निर्माण भगवान विश्वकर्मा ने ही किया है। हमारे धर्मशास्त्रों और ग्रथों में विश्वकर्मा के पांच स्वरुपों और अवतारों का वर्णन है। विराट विश्वकर्मा, धर्मवंशी विश्वकर्मा, अंगिरावंशी विश्वकर्मा, सुधन्वा विश्वकर्म और भृंगुवंशी विश्वकर्मा।
सृष्टि के प्रथम सूत्रधार थे
वह सृष्टि के प्रथम सूत्रधार कहे गए हैं। विष्णुपुराण के पहले अंश में विश्वकर्मा को देवताओं का देव-बढ़ई कहा गया है तथा शिल्पावतार के रूप में सम्मान योग्य बताया गया है। यही मान्यता अनेक पुराणों में भी है। जबकि शिल्प के ग्रंथों में वह सृष्टिकर्ता भी कहे गए हैं। स्कंदपुराण में उन्हें देवायतनों का सृष्टा कहा गया है। कहा जाता है कि वह शिल्प के इतने ज्ञाता थे कि जल पर चल सकने योग्य खड़ाऊ तैयार करने में समर्थ थे। विश्व के सबसे पहले तकनीकी ग्रंथ विश्वकर्मीय ग्रंथ ही माने गए हैं। विश्वकर्मीयम ग्रंथ इनमें बहुत प्राचीन माना गया है, जिसमें न केवल वास्तुविद्या बल्कि रथादि वाहन और रत्नों पर विमर्श है। ‘विश्वकर्माप्रकाश’ विश्वकर्मा के मतों का जीवंत ग्रंथ है। विश्वकर्माप्रकाश को वास्तुतंत्र भी कहा जाता है। इसमें मानव और देववास्तु विद्या को गणित के कई सूत्रों के साथ बताया गया है। ये सब प्रामाणिक और प्रासंगिक हैं। पिता की भांति विश्वकर्मा भी वास्तुकला के अद्वितीय आचार्य बने।
कई रुपों में हैं भगवान विश्वकर्मा
भगवान विश्वकर्मा के एक-दो नहीं, बल्कि अनेक रूप हैं- दो बाहु वाले, चार बाहु एवं दस बाहु वाले तथा एक मुख, चार मुख एवं पंचमुख वाले। उनके मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी एवं दैवज्ञ नामक पांच पुत्र हैं। मान्यता है कि ये पांचों वास्तु शिल्प की अलग-अलग विधाओं में पारंगत थे और उन्होंने कई वस्तुओं का आविष्कार किया। इस प्रसंग में मनु को लोहे से, तो मय को लकड़ी, त्वष्टा को कांसे एवं तांबे, शिल्पी ईंट और दैवज्ञ को सोने-चांदी से जोड़ा जाता है। हिन्दूधर्म ग्रथों के अनुसार विश्वकर्मा के पांच अवतार का उल्लेख है। पहले नंबर पर विराट विश्वकर्मा थे, जिन्हें सृष्टि की रचयिता कहा जाता है। दुसरे नंबर पर धर्मवंशी विश्वकर्मा थे, जो महान शिल्प विज्ञान विधाता थे। अंगिरावंशी विश्वकर्मा, जिन्हें आदि विज्ञान विधाता वसु पुत्र बताया गया है। महान शिल्पाचार्य विज्ञान जन्मदाता अथवी ऋषि के पौत्र सुधन्वा विश्वकर्मा थे। भृंगुवंशी विश्वकर्मा जिन्हें धर्म ग्रंथों में उत्कृष्ट शिल्पशुक्राचार्य के पौत्र के रूप में उल्लेखित किया गया है।
पौराणिक मान्यताएं
एक कथा के अनुसार सृष्टि के प्रारंभ में सर्वप्रथम ‘नारायण‘ अर्थात साक्षात विष्णु भगवान सागर में शेषशय्या पर प्रकट हुए। उनके नाभि-कमल से चर्तुमुख ब्रह्मा दृष्टिगोचर हो रहे थे। ब्रह्मा के पुत्र ‘धर्म‘ तथा धर्म के पुत्र ‘वास्तुदेव‘ हुए। कहा जाता है कि धर्म की ‘वस्तु‘ नामक स्त्री से उत्पन्न ‘वास्तु‘ सातवें पुत्र थे, जो शिल्पशास्त्र के आदि प्रवर्तक थे। उन्हीं वास्तुदेव की ‘अंगिरसी नामक पत्नी से विश्वकर्मा उत्पन्न हुए। भगवान विश्वकर्मा के सबसे बडे पुत्र मनु ऋषि थे। इनका विवाह अंगिरा ऋषि की कन्या कंचना के साथ हुआ था। इन्होंने मानव सृष्टि का निर्माण किया है। इनके कुल में अग्निगर्भ, सर्वतोमुख, ब्रम्ह आदि ऋषि उत्पन्न हुये है। विश्वकर्मा वैदिक देवता के रूप में मान्य हैं, किंतु उनका पौराणिक स्वरूप अलग प्रतीत होता है। आरंभिक काल से ही विश्वकर्मा के प्रति सम्मान का भाव रहा है। उनको गृहस्थ जैसी संस्था के लिए आवश्यक सुविधाओं का निर्माता और प्रवर्तक माना गया है।
--सुरेश गांधी--