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आलेख : भारत में बेरोजगारी के बढ़ते कदम।

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Unemployed-india
भारत मे बढ़ती हुई बेरोजगारी आज एक बहुत बड़ा मुद्दा बन चुका है । एक ऐसा विषय जिस पर हर व्यक्ति सरकार की आलोचना करता हुआ नजर आता है। कि सरकार ने ऐसे योजना नही बनाई जिससे युवाओं को रोजगार मिल सके । सरकार ने वेसी योजना नही बनाई जिससे हर युवा लाभन्वित हो। आखिरकार हर गलतियों का कारण हम सरकार पर ही क्यों थोप देते है। क्या हमारे अपने कुछ दायित्व नही है।  हमारे भारत के संविधान में एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात वर्णित है वह यह है कि भारत का स्रोत भारत की जनता है। अर्थात भारत जनता के लिए, जनता के द्वारा , जनता का शासन है । शायद इस बात से तो लोग भली भांति परिचित होंगे। लेकिन इसके अर्थ से परिचित नही है। ऐसा इसलिए कि अगर हमारे भारत मे कोई छोटा सा मुद्दा आगे चलकर बड़ा हो जाता है तो उसके लिए हम सिर्फ सरकार को जिम्मेदार ठहराते है।  कभी कभी हम लोग इस बात को भूल जाते है कि जिस सरकार की वह आलोचना कर रहे है वह लोगो द्वारा ही बनाई गई सरकार है। हम समस्या की जड़ तक पहुंचने का प्रयास ही नही करते। हम केवल ऊपरी सिरे का आँकलन करने लग जाते है। कि यह ऊपरी सिरा ही मुद्दे की मुख्य जड़ है। क्या कभी हम यह सुनते है कि पौधा जड़ से नह ऊपर से बनना शुरू होता है। नही ना 


यह एक निरथर्क सी बात लगती है। क्योंकि समस्या चाहे जैसी भी कोई भी क्यों न हो। उसके कारण की जड़ जानना बहुत जरूरी है। इसी प्रकार जो बेरोजगारी की समस्या है अगर उसकी जड़ में जाये तो हम यह समझ पाएंगे कि इसकी जड़ भी हम लोग है।  सामान्यतया एक बात सोचे तो बेरोजगारी का सबसे प्रमुख कारण है जनसँख्या वृद्धि । अब जनसँख्या वृद्धि बढ़ेगी तो रोजगार के अवसर घटेंगे, और रोजगार के अवसर घटेंगे तो बेरोजगारों की संख्या में वृद्धि होना तो सामान्य सी बात है ही।  अतः यहां हमे यह जानना आवश्यक है कि बेरोजगारी की आधे से ज्यादा समस्याओं को हम खुद ही खत्म कर सकते है। हम पूर्णतः सरकार पर ही आश्रित होकर न बैठ जाये की हर तरह के निराकरण सिर्फ सरकार ही करे। हालांकि सरकार ने अपनी तरफ से कई ऐसे कार्यक्रम और योजनाए शुरू की है जिससे बेरोजगारी काफी हद तक खत्म हो सके । लेकिन वह पर्याप्त रूप से प्रभावी नही हो पाई। क्योंकि उसका एकमात्र कारण यही था कि हम लोगो की उसमे भागीदारी नही थी। कुछ उदाहरण के लिए सरकार के प्रयासों की गणना करे तो सरकार ने स्वयं रोजगार के लिए प्रशिक्षण इंटीग्रेटेड रूरल डेवलपमेंट प्रोग्राम , स्वर्ण जयंती रोजगार योजना, रोजगार आश्वासन योजना, जवाहर रोजगार योजना, नेहरू रोजगार योजना, आदि ऐसे कई योजनाये है जो सरकार ने चलाई है लेकिन यह उस हद तक प्रभावी नही हो पाई जिस सीमा तक इन्हें होना चाहिए था ।  इन कार्यक्रमो के अलावा सरकार शिक्षा के महत्व को भी संवेदित कर रही है। और बेरोजगार लोगो को कौशल प्रशिक्षण प्रदान कर रही है। लेकिन इतनी पहल करने के बावजूद भी समस्या वैसी की वैसी है क्योंकि शिक्षा पद्धति में अब तक कोई परिवर्तन ही नही किया गया है। शिक्षा पद्धति का विकसित न हो पाना भी बेरोजगारी का एक सबसे बड़ा कारण है ।


दूसरा कारण लघु उद्योगों का नष्ट हो जाना । आज वर्तमान में लघु उद्योगों की उपयोगिता भी खत्म हो जाना बेरोजगारी का मूल कारण है । वही बेरोजगारी के आंकड़ों की बात करे तो 1983 से 2013 तक भारत मे बेरोजगारी की दर महिलाओं के लिए 8.7 प्रतिशत हुई और पुरुषों के लिए 4.37 प्रतिशत दर्ज की गई है। और 2017 की संयुक्त राष्ट्र अंतराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट में भी बेरोजगारों की संख्या लगभग 1.78 करोड़ मानी गयी है । यह भविष्य में उभरता हुआ एक बड़ा संकट है। और इससे निपटने के लिए भारत सरकार को और भारत की जनता को मिलकर कदम उठाने की आवश्यकता है। अतः हम सबको जनसँख्या वृद्धि जैसी भारी समस्याओ से निजात पाने की कोशिश करनी चाहिए। वही सरकार को हर सम्भव प्रयास करने की आवश्यकता है जिससे आर्थिक विकास का परिदृश्य सुधरे ।वरना ऐसी कितनी ही जीएसटी क्यो न लगा दी जाए जब तक ऐसे समस्याएं खत्म नही होंगी आर्थिक विकास पिछड़ा ही रहेगा।  अतः भारत की जनता एवम भारत को सरकार दोनों को ही इस प्रयास में आगे आने का कदम उठाना चाहिए। इसीलिए सरकार को इन पद्धतियों में परिवर्तन करने की आवश्यकता है।





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ज्योति मिश्रा
Freelance journalist gwalior m.p.

Jmishra231@gmail.com

गुजरात चुनाव : गुजरात के भाल पर चुनावी महासंग्राम

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Modi in gujrat
गुजरात विधानसभा के चुनाव घोषित होते ही देश में उसके संभावित परिणामों को लेकर उत्सुकता बढ़ गई है। वैसे तो सभी चुनाव चुनौतीपूर्ण होते हैं, परंतु गुजरात चुनावों को लेकर कुछ ज्यादा ही उत्सुकता है, क्योंकि वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गृहराज्य है। इस बार के वहां के चुनाव परिणाम देश की भावी राजनीति की दिशा भी तय करेगा। न केवल भावी राजनीति की बल्कि मोदी की भी दिशा तय होने वाली है। इसलिये विभिन्न राजनीति दल पूरी जोर आजमाइश कर रहे हैं। नेता न सिर्फ एक खेमे से दूसरे खेमे में आ-जा रहे हैं बल्कि एक-दूसरे के खिलाफ आग भी उगलने लगे हैं। लोक-लुभावन घोषणाएं भी बहुत हो चुकी है। चुनावी माहौल काफी गरमा गया है। गुजरात चुनाव को लेकर जनता में इतनी उत्सुकता पहले कभी नहीं दिखी। इसे गुजरात की चुनावी राजनीति में महत्वपूर्ण मोड़ के रूप में देखा जा रहा है। वहां के नतीजे क्या होंगे? कैसे होंगे? कौन जीतेगा? कौन हारेगा? यह तो मायने रखता ही है- इससे भी ज्यादा मायने रखता है कि इस बार जो लोगों की आकांक्षाएं बनी हैं, वह कौन, किस तरह पूरी करेगा? कांग्रेस तो इस चुनाव को लेकर गंभीर हुई है, लेकिन भाजपा को गंभीर होना होगा। यदि ऐसा नहीं हुआ तो आगामी विधानसभा, बल्कि 2019 के लोकसभा चुनावों पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है।

Gujrat election
जनमत का फलसफा यही है और जनमत का आदेश भी यही है कि चुने हुए प्रतिनिधि मतदाताओं के मत के साथ उनकी भावनाओं को भी उतना ही अधिमान दें। जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक सही अर्थों में लोकतंत्र का स्वरूप नहीं बनेगा तथा असंतोष किसी-न-किसी स्तर पर व्याप्त रहेगा। यक्ष प्रश्न यह है कि गुजरात के मतदाता के समक्ष राज्य सरकार चुनने के संबंध में क्या विकल्प हैं? लोकतंत्र में मतदाता को किसी एक पार्टी को चुनते-चुनते ऊब-सी हो जाती है और वह तब बदलाव चाहने लगता है जब लंबे समय तक सत्ता में रहने वाली पार्टी और सरकार जनता के प्रति अत्यंत संवेदनशील और समर्पित न हो। लेकिन गुजरात में अभी ऐसे हालात तो नजर नहीं आ रहे हैं। गुजरात को भाजपा का गढ़ माना जाता है। नरेन्द्र मोदी का यहां का इतिहास समृद्ध और गौरवशाली रहा है। गुजरात के विकास की मिसाल देकर उन्होंने देश भर में वोट मांगे। लेकिन पिछले कुछ समय से विकास के गुजरात मॉडल को गुजरात में ही चुनौती दी जाने लगी है। मोदी गुजरात के लिए ताबड़तोड़ घोषणाएं किए जा रहे हैं, लेकिन सतह पर इसका ज्यादा प्रभाव नहीं दिख रहा है। कभी उन्होंने यहां के लोगों पर एक जादुई प्रभाव छोड़ा था, लेकिन अभी उनकी सभाओं में भीड़ कम आ रही है। बीजेपी के सबसे बड़े समर्थक पटेल समुदाय का एक तबका बीजेपी के खिलाफ बोल रहा है। गाय को लेकर ऊना में दलितों के साथ हुई मारपीट के बाद से इस तबके में गुस्सा है। ऊपर से बाढ़ ने भी काफी नुकसान किया है। किसान उपज का सही मूल्य न मिलने से पहले ही नाराज थे। बाढ़ से उनकी हालत और खराब हो गई है। राहत में सुस्ती दिखने के कारण भी कुछ इलाकों में सरकार के प्रति गुस्सा है। नोटबंदी एवं जीएसटी ने व्यापारियों की कमर तोड़ दी है। आदिवासी समुदाय भी इसलिये नाराज है कि उनके अधिकारों को गलत तरीकों से दूसरों को दिया गया है, दस लाख से अधिक फर्जी आदिवासी बना दिये गये हैं। जाहिर है, यह चुनाव हिंदुत्व और मोदी लहर, दोनों के लिए एक बड़ी परीक्षा जैसा है। हिंदुत्व के अजेंडे को बेलाग-लपेट आगे बढ़ाने के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लगाया गया है। कांग्रेस की हालत गुजरात में काफी खस्ता मानी जाती रही है, लेकिन अभी उसके खेमे में उत्साह दिख रहा है। राज्य सभा चुनाव में अहमद पटेल की जीत से भी उसका हौसला बढ़ा है। स्थानीय चुनावों में उसकी जीत से भी हौसले बुलन्द हैं। इधर राहुल गांधी में कुछ परिपक्वता के दर्शन हो रहे हैं, कुछ राजनीति दांवपेच उनके पक्ष में गये हैं। यही कारण है और ऐसा पहली बार ही हो रहा है कि जहां-जहां राहुल गांधी जा रहे हैं, वहां बाद में मोदी को भी जाना पड़ रहा है। जाहिर है, यह चुनाव राहुल और मोदी, दोनों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। जल्द ही राहुल को कांग्रेस का नेतृत्व संभालना है। अगर गुजरात में कांग्रेस चमत्कार कर सकी तो उनकी आगे की राह आसान हो जाएगी। लेकिन यह डगर उनके लिये आसान नहीं है। 

भाजपा एवं मोदी के लिये गुजरात एक चुनौती बन गया हैं। पंद्रह दिन पहले बीजेपी में शामिल हुए पाटीदार नेता निखिल सवानी ने पार्टी पर खरीद-फरोख्त का आरोप लगाते हुए इस्तीफा दे दिया है, जबकि इससे पहले एक और पाटीदार नेता नरेंद्र पटेल ने बीजेपी पर एक करोड़ का लालच देने का आरोप लगाया है। पिछड़ा-दलित-आदिवासी एकता मंच के नेता अल्पेश ठाकौर पूरे तामझाम के साथ कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं। बीजेपी के लिए यह सब किसी झटके से कम नहीं है, हालांकि इस राज्य में उसकी ताकत इतनी बड़ी है कि ऐसी खबरें उसे विचलित नहीं कर सकतीं। गुजरात का चुनाव इस मायने में भाजपा के लिये अहम है कि विभिन्न सहयोगी विचारधाराएं एवं अन्दरूनी शक्तियां ही विद्रोह की मुद्रा में खड़ी हैं।  दलितों के नेता माने जाने वाले जिग्नेश मेवानी तथा पाटीदार आरक्षण आंदोलन समिति के संयोजक हार्दिक पटेल कांग्रेस के पक्ष में आ चुके हैं। भले ही पटेल ने चुनाव लड़ने के कांग्रेस के प्रस्ताव को ठुकरा दिया है, लेकिन वह बीजेपी के विरुद्ध प्रचार कर रहे हैं। बीजेपी के विरुद्ध प्रचार का मतलब है कांग्रेस का समर्थन। एक निष्कर्ष यह निकाला जा रहा है कि अगर पिछड़ों, दलितों और पाटीदारों यानी पटेलों का एक बड़ा वर्ग कांग्रेस के साथ आ गया तो फिर बीजेपी के लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं। लेकिन क्या यह उतना ही आसान है जितना बताया या समझा जा रहा है। इसमें दो राय नहीं कि तीन युवा नेताओं का कांग्रेस के साथ खड़ा होना निराश कांग्रेस में उम्मीदें लेकर आया है। कुछ महीने पहले तक जिस कांग्रेस को छिड़क देने वालों का तांता लगा था, उसकी ओर ऐसे लोगों के आने का एक संदेश यह निकलता है कि शायद जनता का झुकाव धीरे-धीरे उसकी ओर हो रहा है। दरअसल लोग मान कर चल रहे हैं कि इन तीनों युवाओं का अपने समुदायों पर अच्छा-खासा असर है और ये किसी को भी उनके एकमुश्त वोट दिला सकते हैं। गुजरात में ओबीसी की 146 जातियों का हिस्सा 51 प्रतिशत के करीब है। यह बहुत बड़ी आबादी है। कई राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि 182 में से 110 सीटों पर इनका प्रभाव है। 60 सीटों पर इनकी भूमिका निर्णायक है। पिछड़ों में एक जाति विशेष के खिलाफ कुछ जातियों में असंतोष भी है। 
गुजरात में पाटीदार और दलित समुदाय की आबादी 25 प्रतिशत है। कांग्रेस मानती है कि आदिवासी समुदाय के बीच उसका जनाधार पहले से है। गुजरात आम तौर पर व्यापार बहुल राज्य माना जाता रहा है। गुजरात में छोटे यानी मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय व्यापारियों की संख्या काफी ज्यादा है। ये सब मोटे तौर पर लंबे समय से बीजेपी को वोट करते आ रहे थे। नोटबंदी के तत्काल बाद जीएसटी लागू कर दिए जाने से उनके अंदर भी असंतोष दिख रहा है। कांग्रेस इसका भी लाभ उठाना चाहती है। वह नोटबंदी और जीएसटी को जमकर कोस रही है। राहुल गांधी अपने हर भाषण में इसका विस्तार से जिक्र करते हैं। चुनाव मात्र राजनीति प्रशासक ही नहीं चुनता बल्कि इसका निर्णय पूरे अर्थतंत्र, समाजतंत्र आदि सभी तंत्रों को प्रभावित करता है। लोकतंत्र में चुनाव संकल्प और विकल्प दोनों देता है। चुनाव में मुद्दे कुछ भी हों, आरोप-प्रत्यारोप कुछ भी हांे, पर किसी भी पक्ष या पार्टी को मतदाता को भ्रमित नहीं करना चाहिए। ”युद्ध और चुनाव में सब जायज़ है“। इस तर्क की ओट में चुनाव अभियान को निम्न स्तर पर ले जाने वाले किसी का भी हित नहीं करते। पवित्र मत का पवित्र उपयोग हो। गुजरात के भाल पर लोकतंत्र का तिलक शुद्ध कुंकुम और अक्षत का हो। मत देते वक्त एक क्षण के लिए अवश्य सोचंे कि आपका मत ही गुजरात रूपी चमन को सही बागवां देगा।

नरेन्द्र मोेदी एवं अमित शाह राजनीति के धुरंधर खिलाड़ी है। उन्होंने अपनी राजनीति चालों से कांग्रेस मुक्त देश के नारे को सफलता दी है, जिन राज्यों में कांग्रेस की गहरी जड़े थी, उन्हें भी उखाड़ फेंका है, तो गुजरात पर अपनी पकड़ को वो कैसी ढ़िली पडने देंगे? बीजेपी ने इसकी जवाबी रणनीति पहले ही तैयार कर ली थी। जिस दिन गुजरात कांग्रेस के अध्यक्ष भरत सिंह सोलंकी ने हार्दिक पटेल को चुनाव लड़ने का निमंत्रण दिया, उसी दिन पाटीदार आरक्षण आंदोलन समिति यानी ‘पास’ के प्रवक्ता वरुण पटेल तथा प्रमुख महिला नेता रेशमा पटेल अपने 40 समर्थकों के साथ बीजेपी में शामिल हो गए। इसके बाद पूरे प्रदेश में हार्दिक पटेल के संगठन से लोगों को बीजेपी में शामिल करने का अभियान शुरू हो गया है। हार्दिक बीजेपी के खिलाफ प्रचार करेंगे तो ये लोग उनके खिलाफ बोलेंगे।  जब से गुजरात के पूर्व-मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के प्रधानमंत्री पद की बागडोर संभाली है तब से वहां एक राजनीतिक शून्य-सा बना है। पहले आनंदीबेन पटेल और फिर विजय रुपाणी गुजरात में उस शून्य को भरने में सफल नहीं हुए। कुछ दिनों पूर्व साबरमती आश्रम से गांधीजी के जन्मस्थान पोरबंदर और ग्रामीण गुजरात की यात्रा में एक खास बात यह देखने को मिली कि अभी भी वहां के जनमानस में मोदी एक सशक्त और लोकप्रिय नेता के रूप में व्याप्त हैं। इसलिये मोदी का जादू तो इस बार भी चलना तो है ही। इस बात की झलक चुनाव के पूर्वानुमानों में सामने आ रही हैं। अभी तो भाजपा को ही स्पष्ट बहुमत मिलने के ही संकेत मिल रहे हैं। पिछले चुनाव में नरेंद्र मोदी का राजनीतिक संगठन कौशल और रणनीति बीजेपी के काम आई थी, पर इस बार वह राज्य की सियासत में मौजूद नहीं हैं। इसका कुछ असर पड़ सकता है, पर वह परिदृश्य से गायब भी नहीं हुए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह एक दिन का तूफानी गुजरात दौरा कर ताबड़तोड़ परियोजनाओं का उद्घाटन किया, उससे एक बार फिर जाहिर हुआ कि भाजपा में अपना गढ़ बचाने की बेचैनी बढ़ गई है। ऐसे में प्रधानमंत्री विभिन्न योजनाओं-परियोजनाओं-सेवाओं का उद्घाटन और विकास के सपने दिखा कर आम गुजरातियों का मन बदलने में शायद ही कामयाब हो पाएं। इसके लिए भाजपा को जमीनी स्तर पर उतर कर लोगों का भरोसा जीतना होगा, पर इसके लिए उसके पास समय अब बहुत कम है। अपनी गुजरात यात्राओं में वे सवाल उठा रहे हैं कि कांग्रेस ने सरदार पटेल और उनकी पुत्री के साथ कैसा व्यवहार किया? पटेलों को कांग्रेस के विरुद्ध खड़ा करने की इस रणनीति की क्या कांग्रेस के पास कोई काट है? जीएसटी में आवश्यक संशोधन कर व्यापारियों के असंतोष को कम करने का प्रयास किया गया है। स्वयं प्रधानमंत्री ने कहा है कि अभी जो कठिनाई है उसे कम किया जाएगा। साढे छह करोड़ गुजरातवासियों की भी अपनी किस्मत है, हम तो मंगल की ही कामना कर सकते हैं कि कोई भी आये, पर विकास आये, स्थायित्व आये, प्रामाणिकता आये, राष्ट्रीय चरित्र आये, मतदाता का जीवन कष्टमुक्त बने।



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(ललित गर्ग)
60, मौसम विहार, तीसरा माला, 
डीएवी स्कूल के पास, दिल्ली-110051
फोनः 22727486, 9811051133

विशेष : राजा से रंक औऱ रंक से राजा बनाता है शनि ग्रह !!

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गृह ही राज्य देते हैं एवं गृह राज्य का हरण कर लेते हैं राजा से रंक एवं रंक से राजा बनाने वाला शनि ग्रह जो अखंड ब्रम्हांड का सर्वोच्च न्यायाधीश है दिनांक 26 अक्टूबर 2017 को 12:00 बजे वृश्चिक राशि छोड़कर धनु राशि में प्रवेश कर रहे हैं क्योंकि शनि को न्यायाधीश की पदवी दी गई है यह जिस राशि में आते हैं उच्च राशि से संबंधित व्यक्तियों को तरह तरह की परेशानियां होती है तथा इनकी जहां पर दृष्टि होती है वहां पर भी भारी बाधाएं निर्मित होती हैं इस बार शनि महाराज के राशि परिवर्तन होने के कारण धर्म की राशि धनु जिसका स्वामी गुरु है प्रभावित होगा इसके प्रभाव से धार्मिक क्षेत्र में न्यायिक शिकंजा संकट पैदा करेगा धार्मिक क्षेत्रों में अवैध रूप से कब्जा कब्जाधारी साधु-संत परेशानियों का सामना करेंगे इस दौरान धार्मिक कार्यों में अवरोध पैदा होगा धार्मिक क्षेत्रों की बारीकी से जांच होगी इसके साथ ही सामाजिक क्षेत्र शिक्षा का क्षेत्र एवं पत्र पत्रिका प्रिंट मीडिया से संबंधित क्षेत्र की राशि भी धनु है यह भी प्रभावित होगी इस से संबंधित वास्तविक लोग ही शनि के प्रभाव से मुक्त रहेंगे अन्य लोगों को इस के कुप्रभाव झेलने पड़ेंगे धनु राशि का स्वामी गुरु धार्मिक ग्रह इस पर शनि का प्रभाव होना धार्मिक उन्माद पैदा करता है धनु राशि पर शनि 24 जनवरी 2020 ईस्वी तक रहेगा अर्थात  शनि धनु राशि पर 2 वर्ष 2 माह 28 दिन रहेगा या शीघ्रगामी हो करके इस राशि में ढाई वर्ष से कम समय रहेगा ऐसी स्थिति में शनि का भ्रमण राशियों के लिए भी प्रभावशील होगा वृश्चिक राशि वालों को उतरते हुए शनि का प्रभाव पैरों पर होगा इस राशि वालों को व्यापार में प्रगति धन धान की समृद्धि राज्य पक्षी से सम्मान रुके हुए कार्य एवं परिवार में मांगलिक कार्यों का आयोजन होंगे दूसरी राशि धनु राशि इस राशि वालों को शनि का प्रभाव हृदय में रहेगा इनको परिश्रम अधिक करना पड़ेगा वाहन से भय रहेगा हृदय संबंधी बीमारी स्त्री संतान चिंता के साथ परिश्रम अधिक करना पड़ेगा मकर राशि पर साढ़ेसाती का प्रभाव चढ़ता हुआ मस्तक पर होगा जिससे उन्हें शारीरिक पीड़ा रक्तविकार परिश्रम मध्य करना पड़ेगा बाहन से सावधानी रखें अब आग शनि का प्रभाव 2 राशियों पर भी रहेगा कन्या राशि एवं वृष राशि कन्या राशि को लाभकारी प्रभाव रहेगा स्त्री पुत्र सुख भवन सुख के साथ उन्नति पदोन्नति के योग बनेंगे वृष राशि वालों के लिए कठिन परिश्रम बाला समय रहेगा ग्रह शांति कराने से इन्हें लाभ होगा शनि शांति के उपाय इन राशि वालों को शनि का प्रभाव साढ़ेसाती का है उन्हें अनिष्ट फल के प्रभाव को रोकने के लिए शनि की शांति शनि का दान लोहा धारण बजरंगबली की पूजा एवं शनिवार को व्रत करना एवं तिल के तेल उड़द काला कपड़ा अर्पण कर सनी को प्रसन्न करना चाहिए शनि का जाप 23,000 संखया मंत्र ओम शनिश्चराय नमः का जाप करना भी हितकर रहेगा अन्य राशि वालों के लिए इस ग्रह का राशि परिवर्तन सामान्य फल कारी रहेगा शनि का यह परिवर्तन 5 राशियों को प्रभावित करेगा 7 राशियों मैं मेष राशि मिथुन राशि कर्क राशि सिंह राशि तुला राशि कुंभ राशि मीन राशि बालों को शनि का प्रभाव सामान्य गोचर अनुसार नक्षत्र के भ्रमण पर शुभाशुभ प्राप्त होगा 




अनुसंधानकर्ता ज्योतिषाचार्य पंडित विनोद गौतम 
ज्योतिष मठ नेहरू नगर भोपाल 
मोबाइल  98273 220 68

विशेष : जम्हूरियत पर हावी वसुंधरा राज शाही

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Vasundhra-non-democratic
भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकने ,न खाएंगे न खिलाएंगे, सबका साथ सबका विकास जैसे लोक लुभावन नारों के मृगतृष्णा से जनता को आत्ममुग्ध कर सत्ता में आई भारतीय जनता पार्टी अब अपने "मूल"नारों से ही भटकती नजर आ रही है.राजस्थान में वसुंधरा राजे की सरकार के ताजा फरमान से तो यही मुगालता हो रहा है कि हम वाकई लोकतंत्र में हैं या किसी राजशाही में.वसुंधरा राजे  सरकार ने नयी व्यवस्था दी है कि राज्य में किसी जज ,अधिकारी ,लोकसेवक के  भ्रष्टाचार में संलिप्तता पाए जाने पर बिना राज्य सरकार कि अनुमति के उस अधिकारी पर कोई भी व्यक्ति न तो प्राथमिकी दर्ज करवा सकता है न ही मीडिया में उसकी रिपोर्टिंग की  जा सकती है. यहाँ तक कि सोशल मीडिया में भी आम नागरिक या भुक्तभोगी अपनी व्यथा जाहिर नहीं कर सकते. 

जहाँ तक मीडिया रिपोर्टिंग की बात है यह सीधे तौर पर अभिव्यक्ति की आज़ादी के मामले से जुड़ा हुआ मुद्दा है और किसी भी मामले की रिपोर्टिंग के पहले सरकार या किसी अन्य व्यक्ति,संस्था की मंजूरी आवश्यक नहीं है.लोकतान्त्रिक व्यवस्था की मजबूती और पेशेवर सिद्धांतों के अंतर्गत हम समाचार प्रकाशन के पहले सम्बंधित व्यक्ति या संस्था से उनका पक्ष पूछते हैं और उन्हें भी समाचारों में उतनी ही प्रमुखता से स्थान दिया जाता रहा है. दूसरी तरफ जब मानहानि के दावे का रास्ता सर्वसुलभ है तो फिर "घोषित आपातकाल"क्यों? क्या वसुंधरा राजे को लगता है इससे वे मीडिया पर अंकुश लगा पाएंगी या फिर वो भ्रष्ट अधिकारियों का बचाव चाहती हैं?

भारतीय संविधान के अनुच्छेद १९ में अभिव्यक्ति की आज़ादी का स्पष्ट उल्लेख है.इसमें साफ़ कहा गया है कि पत्रकार,मीडिया कर्मी सहित प्रत्येक भारतीय को प्रेस या सार्वजनिक मंच के माध्यम से अपनी बात और विचारों को व्यक्त करने का पूर्ण अधिकार है.हालाँकि १९७६ के आपातकाल में प्रेस की आज़ादी  पर आघात और उसके बाद १९७८ में उस कानून को जनता सरकार द्वारा निरस्त किये जाने के बाद संविधान में जनता सरकार ने अभिव्यक्ति की आज़ादी को विनयमित करने के लिए नया  अनुच्छेद ३६१ ए जोड़ा. दूसरी तरफ किसी भी तरह के आपातकाल के समय संविधान के  अनुच्छेद ३५८ के अंतर्गत अनुच्छेद १९ को अनुच्छेद ३५२ सेंसरशिप से बदला जा सकता है.

 तो क्या हम मान कर चले कि राजस्थान में ऐसे किसी आपातकाल का आगाज हो चुका है ? क्या हम मान लें कि वसुंधरा राजे सरकार राजस्थान में भ्रष्ट नौकरशाहों,न्यायायिक पदाधिकारियों ,लोकसेवकों को संरक्षण देने को तत्पर है ?क्या हम मान लें कि वसुंधरा राजे सरकार अब राज्य की जम्हूरियत पर राजशाही का चाबुक चलाने का मन बन चुकी है ? क्या हम मान लें कि वसुंधरा राजे सरकार के इस अलोकतांत्रिक फैसले को भाजपा केंद्रीय नेतृत्व का वरदहस्त प्राप्त है ?क्या हम मान लें कि वसुंधरा राजे सरकार राजस्थान में मीडिया पर अंकुश लगाकर जनता की आवाज़ दबाने को आतुर है ?



*विजय सिंह*

आलेख : अतिथि देवो भवः की परम्परा पर दाग लगना

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India-and-tourisam
अतिथि देवो भवः तो हम सदियों से कहते आए हैं लेकिन अतिथि के साथ हम क्या -क्या करते हैं, किस तरह हम इस आदर्श परम्परा को धुंधलाते हैं, किस तरह हम अपनी संस्कृति को शर्मसार करते हैं, इसकी एक ताजा बानगी स्विट्जरलैंड से आए एक युगल के साथ हुई मारपीट एवं अभद्र घटना से सामने आयी है। इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं कि पर्यटन पर्व के दौरान फतेहपुर सीकरी में इस युगल को पीट-पीटकर अधमरा किया गया और लोग मदद करने के बजाय उनकी फोटो खींचते रहे। यह ठीक है कि इस घटना के बाद संबंधित अफसर से लेकर मंत्री तक दुख जताने के साथ कठोर कार्रवाई की बात कह रहे हैं, लेकिन जरूरत इसकी है कि हमारी राष्ट्रीयता एवं अतिथि को देव मानने के भाव को शर्मसार करती ऐसी घटनाओं को रोकने के ठोस उपाय किए जाएं। संस्कृति को तार-तार करने वाली इस घटना को पूरा राष्ट्र अत्यंत विवशता एवं निरीहता से देख रहा है। कब तक हम संस्कृति एवं परम्परा का यह अपमान एवं अनादर देखते रहेंगे? कब हम सुधरेंगे? कब टूटेगी हमारी यह मूच्र्छा? नैतिकता का तकाजा है कि हमारा कोई आचरण ऐसा न हो जो किसी भी विदेशी मेहमान की भावना को ठेस पहुंचाए या उसके साथ हिंसा करें।

देश को शर्मसार करने वाली यह घटना उस वक्त की है, जब यह युवा जोड़ा- क्वेंटिन जर्मी क्लर्क (24) और उनकी मित्र मैरी ड्रोज (24) आगरा के पास फतेहपुर सीकरी में रेलवे ट्रैक के किनारे चल रहा था, तभी बदमाशों ने उन पर हमला कर दिया। आरोप है कि पर्यटकों पर पत्थर बरसाने के साथ ही उन्हें डंडों से पीटा गया। इससे क्वेंटिन के सिर और कान के पास गंभीर चोटें आयी एवं फ्रैक्चर हुआ है, जबकि मैरी ड्रोज के हाथ में चोट लगी थी। खून से लथपथ दोनों पर्यटक काफी देर तक वहां पड़े रहे थे, तड़पते रहे, कोई भी उनकी सहायता के लिये आगे नहीं आया। क्लर्क का आरोप है कि हमलावर उनके साथ सेल्फी लेने की कोशिश कर रहे थे। काफी दूर तक वे दोनों का पीछा करते रहे। मैरी ने उन्हें ऐसा करने से रोका तो हमलावर अश्लील टिप्पणी करने लगे। उन्होंने मैरी के साथ छेड़छाड़ भी की। दोनों ने इसका विरोध किया तो उन्होंने हमला कर दिया। दोनों को सड़क पर घायल देखकर भी वहां मौजूद लोग पुलिस को जानकारी देने के बजाय उनका वीडियो बनाते रहे। काफी देर बाद कुछ लोगों ने उनको पहले सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में भर्ती कराया। वहां से उन्हें आगरा के एसएन मेडिकल कॉलेज रेफर कर दिया गया। पीड़िता ने पत्थर मारने वालों के फोटो सीकरी पुलिस को दिए थे। इसके आधार पर पुलिस ने पांच आरोपियों की पहचान कर तत्परता से उन्हें गिरफ्तार कर लिया है। यह घटना चार दिन बाद प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के आगरा में ताजमहल दौरे के दिन सामने आई। इस युगल को प्राथमिक उपचार के बाद दिल्ली के अपोलो लाया गया। 

इस घटना ने अनेक गंभीर सवाला खड़े किये हैं, आखिर पर्यटन पुलिस क्या करती है और पर्यटन के चुनिंदा ठिकानों पर भी पर्यटकों को ठगने-लूटने का सिलसिला क्यों नहीं थम रहा? क्यों विदेशी पर्यटकों को घूरा जाता है? क्यों भारत की छवि विदेशियों के बीच असामान्य बनी है? विदेशी मेहमानों विशेषकर महिला पर्यटकों पर क्यों कुनिगाहें डाली जाती है? क्यों उन पर कमेंट पास किये जाते? क्यों नहीं भारत के लोगों पर विदेशी विश्वास करते? आज जब पर्यटन रोजगार और राजस्व का बड़ा जरिया है तब फतेहपुर सीकरी जैसी घटनाएं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने सरीखी ही हैं। इन दुर्भाग्यपूर्ण एवं अतिश्योक्तिपूर्ण स्थितियों को विदेशी भारत का कल्चर मानने लगे हैं, इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी? भारत में पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए मनाए जा रहे पर्यटन पर्व के समारोह के समापन पर इस तरह की हिंसक, अराजक एवं त्रासद घटना का होना गंभीर चिन्ता का विषय है। यह हम भारतीयों के लिए शर्मिदगी की बात है। यह सामान्य तौर पर कानून व्यवस्था का मामला हो सकता है, लेकिन ऐसी घटना आत्ममंथन का अवकाश चाहती है। न संस्कृति आसमान से उतरती है, न व्यवस्था धरती से उगती है। इसके लिये पूरे राष्ट्र का एक चरित्र बनना जरूरी है। अन्यथा हमारा प्रयास अंधेरे में काली बिल्ली खोजने जैसा होगा, जो वहां है ही नहीं।

गौरतलब है कि नरेन्द्र मोदी सरकार सत्ता में आने के बाद से ही पर्यटन को बढ़ावा देने की हरसंभव कोशिश कर रही है। इसके लिए लगभग डेढ़ सौ देशों के पर्यटकों के लिए ई-वीजा की सुविधा भी शुरू की गई है। पर्यटन पर्व के दौरान सरकार ने यह दिखाने की कोशिश की थी कि पिछले तीन सालों में किस तरह से विदेशी पर्यटकों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। लेकिन राजनीति करने वाले एवं सत्ता पर काबिज लोगों को सोचना होगा कि दुनिया में भारत की संस्कृति एवं परम्परा पर लगने वाले इन दागों को कैसे धोए? अतिथि देवो भवः कोरा शब्द नहीं है बल्कि यह हमारी संस्कृति है, सम्यता है, कला है, प्रेम है, इतिहास है, विरासत है। जो सभी काले पड रहे हंै।  ऐसा प्रदूषण तब घना हो जाता है जब हम किसी विदेशी अतिथि की हिंसा करते, उस पर अश्लील कमेंट पास करते, उनको ठगते हैं। हम राष्ट्रीयता के नाम पर कभी गौवध को अनुचित मानते है, कभी राष्ट्रगान एवं ध्वज की अनिवार्यता के लिये आन्दोलन करते हैं, कभी भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाते हैं, लेकिन संस्कृति इन सबसे ऊपर बहुत ऊपर है, जिसके प्रदूषित होने का अर्थ है राष्ट्र का अस्तित्व एवं अस्मिता ही धुंधला जाना। क्या भारत अब अतिथि देवो भवः वाला देश नहीं है? वर्षों से हमारे देश के लिए कही जा रही इस संस्कृत की उक्ति पर ढंग से विचार करने का समय आ गया है।
जब किसी पश्चिमी देश से ये खबर आती है कि कोई भारतीय उपेक्षा या किसी हिंसा का शिकार हुआ है तो शायद हममें से सभी इसे भावनात्मक रूप से लेते हैं। हमें बुरा लगता है कि हमारे देश का कोई व्यक्ति दूर देश में किसी मुश्किल का शिकार हो रहा है या मुसीबत में है। कई बार गुस्सा भी आता है। जरूरत है कि अब हमें उतना ही दुख अपने देश में विदेशी टूरिस्ट या नागरिकों के साथ होने वाली हिंसा पर भी हो। सामान्य तौर पर होता भी है। जब भी अपने देश में किसी टूरिस्ट या विदेशी के साथ मारपीट की घटना होती है बहुत से लोग इसका प्रतिकार भी करते हैं। लेकिन थोड़े-थोड़े समय बाद इन त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण घटनाओं का होना दुखद हैं। हमें पर्यटन को केवल आर्थिक दृष्टि से ही नहीं बल्कि संस्कृति की दृष्टि से देखना होगा। एक आचार संहिता निर्मित करनी होगी और उसके प्रशिक्षण की व्यवस्था भी की जानी जरूरी है जिसमें विदेशी पर्यटकों-मेहमानों के साथ हमारे व्यवहार को सुनिश्चित किया जाए। आमिर खान भारतीय पर्यटन को बढ़ावा देने के लिये राजदूत बने, वे जब अतिथि देवो भवः के रूप में बोलते थे तो देश में व्यवहार सुधारने की ही बात करते थे। वे  भारत में लोगों के इधर-उधर थूकने की आदत पर भी तंज करते दिखाई दिए थे। वे सारे तंज हम भारतीयों के व्यवहार सुधारने के लिए थे। व्यवहार काफी सुधरा भी है। लेकिन स्विस जोड़े को पत्थरों और डंडे से पीटने की घटना ने एक बार फिर शर्मसार कर दिया। 

हमारी भारतीय संस्कृति की यह परम्परा रही है कि हम अपने अतिथियों को देवतुल्य मानते हैं और अपनी सामथ्र्य के अनुसार उनके स्वागत सत्कार और अभ्यर्थना में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते। अतिथियों के साथ सज्जनता से व्यवहार करना, उनकी आवश्यकताओं को समझ कर उनको पूरा करने के लिये प्रयत्नशील रहना, उनके मान- सम्मान और उनकी सुख-सुविधा का ध्यान रखना और उनके लिये यथासम्भव एक सुखद और सौहार्द्रपूर्ण वातावरण उपलब्ध कराना ही अब तक हमारी सर्वोपरि प्राथमिकता रही है और आज भी होनी चाहिये। लेकिन कहीं-न-कहीं इन मूल्यों का विघटन होने के कारण से विश्व बिरादरी के सामने हमें अक्सर शर्मिन्दगी का सामना करना पड़ता है। सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से भारत एक अत्यंत वैभवशाली और समृद्ध देश है। यहाँ के छोटे से छोटे गाँव या कस्बे से भी अतीत के गौरव की अनमोल गाथायें गुँथी हुई हैं। यहाँ के कण-कण में पर्यटकों को लुभाने और मोहित कर लेने की अद्भुत क्षमता है। हम अच्छी तरह से जानते हैं कि भारत एक विकासशील देश है और यहाँ की अर्थ व्यवस्था में पर्यटन व्यवसाय का बहुत अधिक महत्व है। यदि हम अपने देश में आने वाले पर्यटकों का विशिष्ट ध्यान रखें, उन्हें भारत भ्रमण के समय सम्पूर्ण निष्ठा और सद्भावनापूर्ण सहयोग के साथ उनकी सहायता करें तो इस व्यवसाय की आय में चार चाँद लग सकते हैं। यदि वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा को साकार करना है तो इस विचार को भी आत्मसात करना होगा कि विश्व के हर देश के लोग हमारे अतिथि हैं और हमें उन्हें वही आदर मान देना होगा जो एक अतिथि को दिया जाता हैं। तभी हमारे देश का गौरव बढ़ेगा, पर्यटकों की संख्या में भी आशातीत वृद्धि होगी, कमर टूटते पर्यटन व्यवसाय को भी सहारा मिलेगा और साथ ही देश की अर्थ व्यवस्था में भी कुछ सुधार आयेगा और तभी हमारी संस्कृृति गौरवान्वित होगी।


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(ललित गर्ग)
60, मौसम विहार, तीसरा माला, 
डीएवी स्कूल के पास, दिल्ली-110051
फोनः 22727486, 9811051133

गुजरात चुनाव : कांग्रेस को गुजरात में गठबंधन की तलाश

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मुस्लिम परस्ती से पीछा छुड़ा रही कांग्रेस 


लम्बे समय से हासिए की ओर जा रही कांग्रेस पार्टी गुजरात चुनाव के लिए गठबंधन की तलाश करती हुई दिखाई दे रही है। यह सब राहुल गांधी के नेतृत्व क्षमताओं पर सवाल खड़े करने के लिए काफी है। ऐसे में सवाल उठता है कि वर्तमान में कांग्रेस क्या इतनी कमजोर हो चुकी है कि उसे तिनके का सहारा ढूढ़ना पड़ रहा है। राज्य स्तरीय छोटे राजनीतिक दलों की ओर कांग्रेस का इस प्रकार का झुकाव निश्चित ही कांग्रेस की वर्तमान राजनीतिक स्थिति को दर्शा रहा है। कुछ दिनों पूर्व कांग्रेस के भविष्य के मुखिया राहुल गांधी ने मंदिरों में जाकर कांग्रेस को वोट दिलाने के लिए प्रार्थनाएं कीं, लेकिन यह प्रार्थनाएं परिणति में परिवर्तित हो जाएगी, यह कहना फिलहाल जल्दबाजी ही कही जाएगी। मंदिरों में राहुल गांधी का दर्शन करना संभवत: इस बात को ही उजागर करता हुआ दिखाई देता है कि कांग्रेस की अभी तक की छवि मुस्लिम परस्त की रही है। हम जानते हैं कि कांग्रेस नीत केन्द्र सरकार के संवैधानिक मुखिया डॉ. मनमोहन सिंह ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि भारत के संसाधनों पर सबसे पहला अधिकार मुसलमानों का है। यानी हिन्दुओं को दोयम दर्जे का नागरिक कांग्रेस मानती रही है। राहुल गांधी के मंदिर जाने का कार्यक्रम भी शायद मुस्लिम परस्त छवि से निकलने का एक प्रयास है।

इसी प्रकार अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए कांग्रेस ने देश में वास्तविक आतंकवाद को झुठलाने का गंभीर प्रयास किया। इसके लिए कांग्रेस के नेताओं ने भगवा आतंकवाद की परिभाषा को जन्म दे दिया। इसके तहत निर्दोष हिन्दुओं पर निर्दयता पूर्वक कार्यवाही को भी अंजाम दिया गया। लम्बे समय के बाद भी इन पर कोई भी आरोप सिद्ध नहीं होने के कारण इन्हें अभी हाल ही में बरी किया गया। अब सवाल यह आता है कि यह सब कांग्रेस में किसके इशारे पर किया गया। हिन्दुओं के लिए सर्वाधिक आस्था का केन्द्र माने जाने व्यक्तियों में से एक शंकराचार्य जी को केवल आरोपों के आधार पर सलाखों के पीछे ले जाया गया। जबकि देश ईसाईयों द्वारा मतांतरण की कार्यवाही लगातार चलती रहीं। इन्हें क्यों नहीं रोका गया?

कांग्रेस की वर्तमान राजनीतिक स्थिति का अध्ययन किया जाए तो यही दिखाई देता है कि कांग्रेस को हिन्दू विरोधी छवि का खामियाजा भुगतना पड़ा है। कांग्रेस की अभी तक की पूरी राजनीति केवल मुस्लिम परस्त की रही है। लेकिन यह कांग्रेस का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि देश के पूरे मुसलमान कांग्रेस का साथ नहीं देते। उसके पीछे का मूल कारण यही माना जा रहा है कि कांग्रेस ने केवल मुसलमानों को डराने का ही काम किया। उन्हें आगे बढ़ाने के लिए कोई भी सरकारी नीति नहीं बनाई। इसी कारण आज भी मुसलमानों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ। दूसरा सबसे बड़ा कारण यह भी है कि वर्तमान में देश की राजनीति में व्यापक परिवर्तन आया है। देश का हिन्दू समाज एकत्रित होने की ओर अग्रसर है। इसलिए कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने मंदिरों में जाना प्रारंभ किया है।

आगामी गुजरात चुनाव के लिए वर्तमान स्थिति का अध्ययन किया जाए तो यह साफ दिखाई देता है कि यह चुनाव प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए एक चुनौती है। क्योंकि जब से नरेन्द्र मोदी केन्द्र की राजनीति में उभर कर आए हैं, तब से गुजरात में भाजपा की जमीन खिसक रही है, इसे बचाए रखना ही भाजपा की चुनौती है। राजनीतिक दृष्टि से अध्ययन किया जाए तो यह सर्वथा नजर आता है कि गुजरात में कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है, लेकिन भाजपा के समक्ष अपनी यथा स्थिति को कायम रखने के लिए बहुत परिश्रम करने की चुनौती है। हालांकि यह चुनौती कांग्रेस ने पैदा की है, यह कहना ठीक नहीं होगा। क्योंकि तो स्वयं ही अपने उद्धार के लिए सहयोगी दलों की तलाश करने की मुद्रा में है। भारतीय जनता पार्टी के लिए चुनौती इसलिए मानी जा सकती है कि लम्बे समय से गुजरात में भाजपा की सरकार स्थापित है। कांग्रेस हर बार की तरह ही इस बार भी जोर लगा रही है। पिछले कुछ महीनों में गुजरात में नए नेताओं के रुप में उभर कर आने वाले हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और निग्नेश मेवानी अब कांग्रेस की ओर समझौते की राजनीति के तहत हाथ बढ़ा रहे हैं। इससे ऐसा ही लगता है कि इन तीनों ने केवल भाजपा का विरोध करने को ही अपना आधार बनाया। तीनों भाजपा विरोधी नेता कांगे्रस के अशोक गहलौत और भरत भाई सौलंकी से वार्ता कर गठबंधन की गुंजाइश तलाश रहे हैं। यह बात किसी से छिपी नहीं हैं कि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में कांग्रेस की हालत बहुत कमजोर है। लोकसभा चुनाव के बाद हुए अधिकतर विधानसभा चुनावों में कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के सहारे अपने उत्थान का मार्ग बनाने का प्रयास करती हुई दिखाई दी। आज भी कांग्रेस के हालात जस के तस दिखाई दे रहे हैं। कांग्रेस को आज भी गठबंधन की तलाश है। प्रश्न यह आता है कि क्या कांग्रेस के नेताओं के पास इतनी ताकत नहीं है कि वह अपने स्तर पर पार्टी को जीत दिला पाने में समर्थ हो सकें। अभी की स्थिति तो यही प्रदर्शित कर रही है कि कांग्रेस अकेले चुनाव लड़कर सम्माजनक स्थिति में नहीं पहुंच सकती। कांग्रेस के नेता भी लम्बे समय से सत्ता से दूर रहने के कारण हताश होने लगे हैं। यही हताशा कांग्रेस के भविष्य पर बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह उपस्थित कर रही है।

कांग्रेस को लेकर एक और सबसे बड़ा सच यह भी है कि कांग्रेस अपने उत्थान के लिए गठबंधन करने का प्रयास कर रही है, लेकिन गठबंधन में शामिल होने वाले दल सशंकित हैं। यह दल तमिलनाडु और उत्तरप्रदेश में किए गए गठबंधन के प्रयोग और उसके बाद मिली करारी पराजय के कारण मंथन की मुद्रा में हैं। इन दोनों प्रदेशों में कांग्रेस ने हम तो डूबे हैं सनम तुमको भी ले डूबेंगे वाली उक्ति ही चरितार्थ की। तमिलनाडु में जिस करुणानिधि की जीत पक्की मानी जा रही थी, उन्हें कांग्रेस के साथ रहने के कारण करारी हार का सामना करना पड़ा, इसी प्रकार उत्तरप्रदेश के हालात भी कमोवेश ऐसे ही रहे। विधानसभा चुनाव से पूर्व समाजवादी पार्टी सरकार बनाने का दावा कर रही थी, लेकिन कांग्रेस उसे भी ले डूबी। गुजरात के क्षेत्रीय दल भी इसी बात को लेकर भयभीत होंगे। कांग्रेस आज भले ही तिनके का सहारा ढूंढ़ रही हो, लेकिन कभी कभी ऐसा भी होता है कि तिनका भी डूब जाता है। यह भी सच है कि डूबते जहाज की सवारी कोई नहीं करना चाहता, लेकिन कांग्रेस ऐसे प्रयोगों को जन्म दे रही है। क्षेत्रीय दलों के सामने मजबूरी यही है कि उनकी पूरी राजनीति ही केवल भाजपा विरोध पर ही आधारित है, ऐसे में उन्हें तो केवल भाजपा विरोधी राजनीतिक दल को ही समर्थन देना है, दूसरा विकल्प उनके सामने नहीं है। इस प्रकार की राजनीति करना देश के लिए घातक ही कही जाएगी, क्योंकि केवल विरोध करने के लिए ही विरोध करना किसी भी प्रकार से ठीक नहीं कहा जा सकता।




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सुरेश हिन्दुस्थानी
ग्वालियर मध्यप्रदेश

मोबाइल-9425101815, 9770015780 

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)

बिहार : भूमिहारों का अखाड़ा ‘लूट’ लिया अखिलेश सिंह ने !

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पटना (बीएनवाई न्यूज़), ‘बिहार केसरी’ डॉक्‍टर श्रीकृष्‍ण सिंह की आज जयंती है। बिहार के प्रथम मुख्‍यमंत्री श्रीबाबू का बिहार के नवनिर्माण में महत्‍वपूर्ण योगदान है। पहले वे बिहार के नेता थे, अब भूमिहार के नेता बनकर रह गये हैं। उनकी जयंती पर समारोह का आयोजन भूमिहार नेता ही अपनी शक्ति प्रदर्शन के लिए करते हैं। आज भी लालू यादव समर्थक कांग्रेस नेता अखिलेश प्रसाद सिंह और भाजपा का आशीर्वाद प्राप्‍त भूतपूर्व विधान पार्षद महाचंद्र प्रसाद सिंह ने अलग-अलग जयंती समारोह का आयोजन किया था। दोनों कार्यक्रमों को आयोजित करने वाली संस्‍थान का नाम भी लगभग एक समान ही था।


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अखिलेश सिंह और महाचंद्र सिंह दोनों अपनी नयी जमीन और नया सत्‍ताकेंद्र की तलाश में हैं। अखिलेश सिंह कांग्रेस के प्रदेश अध्‍यक्ष बनना चाहते हैं तो महाचंद्र प्रसाद सिंह भाजपा में जाने की राह तलाश रहे हैं। दोनों के लिए शक्ति का प्रदर्शन जरूरी है। इस मामले में जयंती के मौके पर अखिलेश सिंह महाचंद्र सिंह पर भारी पड़ते दिखे। अखिलेश सिंह ने पूरे पटना को बैनर औ‍र होर्डिंग से पाट दिया था तो महाचंद्र सिंह का प्रचार कैंपेन जहां-तहां नजर आ रहा था। अखिलेश सिंह ने नवनिर्मित विशाल ‘बापू सभागार’ में जयंती समारोह का आयोजन किया तो महाचंद्र सिंह ने श्रीकृष्‍ण मेमोरियल हॉल में समारोह का आयोजन किया। आज बापू सभागार के तुरंत बाद हम श्रीकृष्‍ण मेमोरियल हॉल में गये तो बापू सभागर की तुलना एसकेएम हॉल काफी छोटा लग रहा था। जबकि पहले किसी कार्यक्रम की सफलता का माप ही एसकेएम हुआ करता था। बापू सभागार की गहमागहमी के बीच एसकेएम शांत लग रहा था।

अखिलेश सिंह ने अपने कार्यक्रम के मुख्‍य अतिथि के रूप में लालू यादव को आमंत्रित किया था। इस कारण मीडिया का आकर्षण भी बापू सभागार बन गया। जबकि महांचद्र प्रसाद सिंह के कार्यक्रम में मेघालय के राज्‍यपाल गंगा प्रसाद और पूर्व सीएम जीतनराम मांझी थे, लेकिन मंच की पहचान भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी ही थे। महांचद्र प्रसाद सिंह ने अपने कार्यक्रम को एनडीए के कार्यक्रम के रूप में प्रचारित किया था, लेकिन इसमें मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार नजर नहीं आये। महाचंद्र सिंह ने मुख्‍यमंत्री को आमंत्रित ही नहीं किया या सीएम ने आमंत्रण अस्‍वीकार कर दिया, स्‍पष्‍ट नहीं हो पाया है।

श्रीबाबू के नाम पर दोनों सभागारों से विरोधियों पर तीर भी छोड़े गये। श्रीबाबू के प्रति निष्‍ठा भी जतायी गयी, लेकिन भूमिहारों के अखाड़े में अखिलेश सिंह ही भारी पड़ते दिखे। भीड़ में भी और प्रचार में भी। सभागार तो खुद अपने आप में भारी बन गया है।

पत्रकार की मान्यता सरकार या एजेंसी नहीं संपादक करता है तय - विनायक लुनिया

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  • सच्चाई सामने रखने की साहस करने वाला बन सकता है पत्रकार

Journalist-recognition
उज्जैन : मीडिया और समाज के बिच सामंजस्य स्थापित करने के उदेश्य से स्व. श्री अशोक जी लुनिया द्वारा स्थापित आल मीडिया जर्नलिस्ट सोशल वेलफेयर एसोसिएशन के प्रदेश स्तरीय बैठक के दौरान उज्जैन में स्थित २ तालाब के समीप महाकाल ट्रेजर के तीसरे माला पर स्थित संगठन कार्यालय में पदाधिकारियों एवं कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए पत्रकारों एवं समाज से जुड़े मुद्दों पर चर्चा करते हुए संगठन के राष्ट्रिय अध्यक्ष विनायक अशोक जैन लुनिया ने कहा की मीडिया एक माध्यम है सच्चाई को आमजन एवं सरकार के समक्ष लाने का और सच कहने का साहस रखने वाला हर इन्शान पत्रकार बन सकता है, साथ ही श्री लुनिया ने कहा की पत्रकार की मान्यता कोई सरकार या एजेंसी नहीं देती है पत्रकार स्वतंत्र स्तम्भ है उसकी नियुक्ति अख़बार एवं चैनल एवं पोर्टल के संपादक करते है. चर्चा के दौरान कार्यक्रम के संचालक प्रदेश महासचिव पवन नाहर ने संस्थापक स्व. श्री अशोक जी लुनिया के नाम का विश्लेषण करते हुए बताया की ऐसे महान शक्शियत से आशीर्वाद लेकर आज हमें कार्यक्रम की शुरुवात करनी चाहिए कार्यक्रम की शुरुवात संस्थापक श्री अशोक जी लुनिया के चित्र पर मालार्पण कर किया गया. आयोजन में राष्ट्रिय महासचिव संतोष कुमार सोनी, राष्ट्रिय कार्यकारणी सदस्य सोमेश जी पांडे, महेंद्र यादव राष्ट्रीय सचिव, सचिन कासलीवाल जैन मीडिया राष्ट्रीय अध्यक्ष, मनीष कुमट राष्ट्रिय सचिव, भरतेश मोदी प्रदेश अध्यक्ष राष्ट्रीय कार्यकारणी सदस्य सहित प्रदेशभर से पधारे सदसयगण मौजूद थे. 
इन विषयों पर हुयी जम कर चर्चा
1- पत्रकार एवं समाज के बीच सामंजस्य स्थापित करना
2- प्रदेश में पत्रकारों को कैसे सुरक्षा मिले (विशेष चर्चा)
3- रेलवे स्टेशन बस स्टैंड पर संगठन द्वारा यात्री सहायता एवम भ्रस्टाचार विरोध समिति का गठन 
4- शिक्षा के क्षेत्र में शासकीय विद्यलयों को गोद लेने संदर्भ में चर्चा
5- आम जन को रोजगार से जोड़ने संबंध में चर्चा
6- टेक्नोलॉजी के आधार पर पुराने पत्रकार एवं केबल ऑपरेटर की समस्याओं पर चर्चा
7- पुलिस प्रसाशन ओर पत्रकार के सामंजस्य से द्वारा कैसे प्रदेश में अपराध कम हो पर चर्चा
8- रेलवे में यात्रा करने वाले प्रदेश के नागरिकों को यात्रा के लिए बिना भ्रष्टाचार सीट उपलब्ध करवाने के संदर्भ में चर्चा
9- आगामी विधानसभा चुनाव में संगठन का अहम भूमिका के संदर्भ में चर्चा
इन पदाधिकारियों का हुआ प्रमोशन 
भरतेश मोदी प्रदेश अध्यक्ष एवं जैन शक्ति संगठन राष्ट्रिय अध्यक्ष (पूर्व प्रभार प्रदेश अध्यक्ष एवं जैन शक्ति संगठन राष्ट्रिय महासचिव) 
मनीष कुमट - पूर्व प्रभार प्रदेश महासचिव वर्तमान प्रभार राष्ट्रिय सचिव
धर्मचंद जैन पूर्व प्रभार प्रदेश उपाध्यक्ष वर्तमान प्रभार राष्ट्रिय उपाध्यक्ष
पवन नाहर पूर्व प्रभार झाबुआ जिलाध्यक्ष वर्तमान प्रभार प्रदेश महासचिव 

इन पदाधिकारियों की हुयी नयी नियुक्ति 
सुनील डाबी झाबुआ जिलाध्यक्ष 
अतुल जैन शिवपुरी जिलाध्यक्ष 
आशीष जैन शिवपुरी जिला उपाध्यक्ष 
शिव चौरसिया प्रदेश सचिव 

मुख्य निर्णय - 3 माह के भीतर होंगे यह कार्य
1 - प्रदेश के समस्त जिलों में कार्यकारणी का गठन, 
2 - हर सदस्य बनाएंगे 10 नए सदस्य
3 - प्रदेश के समस्त रेलवे स्टेशन एवं बस स्टेशन के लिए यात्री सुरक्षा एवं भ्रष्टाचार विरोधी समिति का होगा गठन 
4 -  प्रदेश के समस्त जिलों में रहवासी सुरक्षा समिति का होगा गठन 
5 - प्रत्येक वार्ड, ब्लॉक, एवं ग्रामीण स्तर पर होगा संगठन की कार्यकारणी का गठन

विशेष : किसी राजा या रानी के डमरू नहीं हैं हम

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“किसी राजा या रानी के डमरू नहीं हैं हम, दरबारों की नर्तकी के घूँघरू नहीं हैं हम” वीररस के सुप्रसिद्ध कवि डॉ. हरिओम पंवार की उक्त पंक्तियां लोकतंत्र में राजशाही के रंग के प्रति तीक्ष्ण प्रहार है। इन पंक्तियों ने एक बार फिर अपनी प्रासंगिकता दर्ज की है। जिस तरह श्रृंगार के अत्यंत लोकप्रिय कवि और आम आदमी पार्टी के नेता कुमार विश्वास को राजस्थान की यशस्वी मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया के आदेश पर डूंगरपुर के कवि सम्मेलन से हटाया गया जो कि नितांत ही निंदनीय कृत्य है। हालांकि, इस विषय को लेकर कवि कुमार विश्वास ने अपनी फेसबुक पर लाइव वीडियो के जरिये बताया कि वे राजस्थान के डूंगरपुर का कवि सम्मेलन आयोजक नगर निगम के निवेदन पर नियत मानदेय से आधे मानदेय पर कर रहे थे। लेकिन, जैसे ही मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया का काफिला डूंगरपुर के समीप से गुजरा और उन्होंने होर्डिंग पर कुमार विश्वास के पोस्टर देखे तो तुरंत ही कुमार विश्वास के आने पर रोक लगा दी। मुख्यमंत्री के आदेश और राजनैतिक दबाव के बाद आयोजक को स्वयं शर्मिंदगीवश कुमार विश्वास को आने से मना करना पड़ा। इसे सत्ता का अहंकार कहा जाये या सत्ताधीशों की संकीर्ण सोच ? कवि पर अनुचित अंकुश लगाने वाली सत्ताएं यह भूल जाती है कि सत्ता की उम्र कविता की उम्र के आगे बेहद ही छोटी है। यह लोकतंत्र है और यहां कविताएं सत्ता के खिलाफ बगावत का भैरव नाद करती है, न कि किसी राजा और रानी की प्रशंसा में प्रयाग प्रशस्ति का सृजन करती हुई पायी जाती है।

लोकतंत्र में कवि स्वयं अपनी निष्पक्षता की अग्निपरीक्षा देते हुए कहता है - मैं वो कलम नहीं हूँ जो बिक जाती हो दरबारों में, मैं शब्दों की दीपशिखा हूँ अंधियारे चैबारों में, मैं वाणी का राजदूत हूँ सच पर मरने वाला हूँ, डाकू को डाकू कहने की हिम्मत करने वाला हूँ। और सत्ता के ठेकेदारों को यह कहते हुए खबरदार भी करती है - सत्ताधीशों की तुला के बट्टे भी नहीं हैं हम, कोठों की तवायफों के दुपट्टे भी नहीं हैं हम, अग्निवंश की परम्परा की हम मशाल हैं, हम श्रमिक के हाथ मे उठी हुई कुदाल हैं। कुछ लोग यह नहीं समझते है कि गुब्बारे की उडान और पक्षी की उडान में बडा अंतर होता है। क्योंकि बुलंदी का नशा संतों के जादू तोड़ देती है, हवा उड़ते हुए पंछी के बाजू तोड़ देती है ! सियासी भेड़ियों थोड़ी बहुत गैरत जरूरी है, तवायफ तक किसी मौके पे घुंघरू तोड़ देती है !

सत्ता की शराब में मदहोश राजनेता मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के उच्च पदों पर आसीन हो जाने के बाद भी खुद को पार्टी की चारदीवारी तक सीमित रखना पसंद करते है। ऐसे लोगों को इतिहास न माफ करेगा याद रहे, पीढियां तुम्हारी करनी पर पछतायेगी और बांध बांधने से पहले जल सूख गया, तो धरती की छाती पर दरार पड जायेगी। 

इसे लोकतंत्र का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि जहां हमारे सुने हुए जनप्रतिनिधि जनता की भावनाओं को दरकिनार करके अहंकार का आलिंगन कर अपने को जनता का प्रतिनिधि न मानकर मालिक या भगवान मनाने का भम्र पाल लेते है। भोली जनता हर बार वायदों की मार से छली जाती है। हर बार कोई न कोई खाद्दीधारी गुंडा जीतकर लोकतंत्र का चीरहरण करता जाता है। और गरीब हर पांच साल बाद यह ही कहता हुआ मिलता है - हमें तो अपनों ने लूटा, गैरों में कहाँ दम था, मेरी कश्ती वहां डूबी, जहां पानी कम था।

बड़े लोगों की इसी घटिया सोच को लेकर कवि ने कहा - मैं कई बड़े लोगों की निचाई से वाकिफ हूँ, बहुत मुश्किल है दुनिया में बड़े होकर बड़ा होना ! बड़ों की निचाई का नमूना इससे ज्यादा ओर क्या होगा, जहां सदी के महानायक कहे जाने अमिताभ बच्चन अपने पिता हरिवंशराय बच्चन की कविताओं पर एकाधिकार जमातेे हुए उनकी कविताओं के वाचन पर कॉपीराइट का मुकदमा चला देते है। तो कभी कोई महारानी कवि के बाल में पार्टी की खाल तलाशती नजर आती है। बरहाल, कितने ही पहरी बैठा दो मेरी क्रुध निगाहों पर, दिल्ली से बात करूंगा भीड़ भरे चैहारों पर की अपनी कविता में हुंकार भरने वाले रचनाधर्मी हर समय और काल में अपने कलम की धार से घमंडी सत्ताधीशों को सच का दर्पण दिखलाते ही मिलेंगे। 

जरूरत इस बात की है कि सरकारे हर फैसले से पहले थोडा मनन-मंथन और चिंतन करे। क्योंकि अब आप किसी पार्टी से भी ऊपर होकर जनमत से जीती हुई सरकार है। आपको केवल पार्टी का नहीं बल्कि हर एक जन का ख्याल रखना है। 




- देवेंद्रराज सुथार

गांधी चौक,  आतमणावास,  बागरा, 
जिला-जालोर, राजस्थान।  343025
लेखक जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर में अध्ययनरत है।


विशेष आलेख : मितव्ययिता है भारतीय संस्कृति का प्रमुख आदर्श

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प्रत्येक वर्ष 30 अक्टूबर को पूरी दुनिया में विश्व मितव्ययिता दिवस मनाया जाता है। वर्ष 1924 में इटली के मिलान में पहला अंतर्राष्ट्रीय मितव्ययिता सम्मेलन आयोजित किया गया था और उसी में एकमत से एक प्रस्ताव पारित कर विश्व मितव्ययिता दिवस मनाये जाने का निर्णय लिया गया। तभी से यह दिन दुनिया भर में बचत करने को प्रोत्साहन देने के लिए मनाया जाता है। मितव्ययिता दिवस केवल बचत का ही दृष्टिकोण नहीं देता है बल्कि यह जीवन में सादगी, संयम, अनावश्यक खर्चों पर नियंत्रण, त्याग एवं आडम्बर-दिखावामुक्त जीवन को प्राथमिकता देता है। महात्मा गांधी ने कहा- सच्ची सभ्यता वह है जो आदमी को कम-से-कम वस्तुओं पर जीना सीखाए। आधुनिक विचारक भी इसी तर्ज पर सोचने लगे हैं। प्रधामंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने इसी सोच को आकार दे रहे हैं और इसीलिये खादी और चर्खा उनकी प्राथमिकता बने हैं। उपयुक्त प्रौद्योगिकी की बात करते हुए इंग्लैंड के विचारक शूमाखर कहते हैं कि बड़े-बड़े कारखानों की अपेक्षा कम खर्च वाला गांधी का चर्खा कई दृष्टियों से अधिक उपयुक्त हैं।

आर्थिक विसंगतियों एवं विषमताओं को दूर करने के लिये मितव्ययिता जरूरी है। मोदी सरकार ने मितव्ययिता के लिये ही वीआईपी कल्चर पर नियंत्रण लगाया है। मंत्रियों की विदेश यात्राओं एवं अन्य भोग-विलास एवं सुविधाओं पर अंकुश लगाया गया है। सरकार ने मितव्ययिता एवं बचत का नारा दिया है। संचार माध्यमों से पानी बचाओ, बिजली बचाओ का उद्घोष प्रसारित हो रहा है। यह एक आवश्यक और उपयोगी कदम है, पर जब तक कोई भी आदर्श जीवनशैली का अंग नहीं बनता है, तब तक वह स्थायी नहीं बन पाता। समय के साथ वह बहुत जल्दी विस्मृत हो जाता है। इस प्रकार के अनेक उद्घोष सरकारी मंचों से जननेताओं द्वारा उद्घोषित होते रहे हैं, किन्तु उनका आधार गहरा नहीं होने के कारण वे जीवन से जुड़ नहीं सके। मितव्ययिता भारतीय संस्कृति का प्रमुख आदर्श रहा है। सुखी और स्वस्थ जीवन के लिए उसका बहुत बड़ा महत्व है। आज की उपभोक्तावादी एवं सुविधावादी जीवन-धारा में उसके प्रति किसी का भी लक्ष्य प्रतीत नहीं होता। यदि मितव्ययिता का संस्कार लोकजीवन में आत्मसात् हो जाये तो समाज एवं राष्ट्र में व्याप्त प्रदर्शन, दिखावा एवं फिजुलखर्ची पर नियंत्रण हो सकता है।

एक सामाजिक और राष्ट्रीय संपदा का यह अर्थहीन अतिरिक्त भोग और दूसरी तरफ अनेक-अनेक व्यक्ति जीवन की मौलिक और अनिवार्य अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए भी तरसते रहते हैं। यह आर्थिक विषमता निश्चित ही सामाजिक विषमता को जन्म देती है। जहां विषमता है, वहां निश्चित हिंसा है। इस हिंसा का उद्गम है, पदार्थ का अतिरिक्त संग्रह, व्यक्तिगत असीम भोग, अनुचित वैभव प्रदर्शन, साधनों का दुरुपयोग। सत्ता का दुरुपयोग भी विलासितापूर्ण जीवन को जन्म देता है। जनता के कुछ प्रतिनिधि अपनी ही प्रजा के खून-पसीने की कमाई से किस कदर ऐशोआराम एवं भोग की जिन्दगी जीते हैं, यह भी सोचनीय है।  फिलीपींस के मारर्कोस दंपति जब देश छोड़कर भागे तो श्रीमती इमेल्दा मार्कोस के पास से इतनी जूतों की जोड़ियां मिली, जिन्हें वो एक जोड़ी को दूसरी बार पहने बिना नौ साल तक पहन सकती थी। उसके महल से एक गाऊन और छह ऐसी विशिष्ट पोशाकें बिल सहित मिलीं जिनका बिल राष्ट्रपति मार्कोस को राष्ट्रपति होने के नाते जो वार्षिक पगार मिलती थी, उससे 19 गुणा अधिक था। रोमानिया के पदच्युत राष्ट्रपति निकोलाई चाऊसेस्कू की कहानी भी कम विलासिता की नहीं है। जूतों की एड़ियों में कीमती हीरे लगे होने की बात तो ऐसे व्यक्तियों के लिए सामान्य हो सकती हैं। चालीस कमरों वाले उनके महल का प्रत्येक स्नानागार सोने के संसाधनों से परिपूर्ण था। आधुनिक भारत के अनेक राजनेताओं के भी ऐसे किस्से चर्चित हैं। 

किसके पास कितना धन है, यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्व इस बात का है कि अर्थ के प्रति व्यक्ति का दृष्टिकोण क्या है तथा उसका उपयोग किस दिशा में हो रहा है। प्रदर्शन एवं विलासिता में होने वाला अर्थ का अपव्यय समाज को गुमराह अंधेरों की ओर धकेलता है। विवाह शादियों में 35-40 करोड़ का खर्च, क्या अर्थ बर्बादी नहीं है। प्रश्न उठता है कि ये चकाचैंध पैदा करने वाली शादियां, राज्याभिषेक के आयोजन, राजनीतिक पार्टियां, जनसभाएं- मानवीय सभ्यता और संस्कृति के विनाश के ही कारण हैं। इस तरह की आर्थिक सोच एवं संरचना से क्रूरता बढ़ती है, भ्रष्टाचार की समस्या खड़ी होती है, हिंसा को बल मिलता है और मानवीय संवेदनाएं सिकुड़ जाती है। अर्थ केन्द्रित विश्व-व्यवस्था समग्र मनुष्य-जाति के लिये भयावह बन रही है। इसलिये विश्व मितव्ययिता दिवस जैसे उपक्रमों की आज ज्यादा उपयोगिता प्रासंगिकता है। मितव्ययिता का महत्व शासन की दृष्टि से ही नहीं व्यक्ति एवं समाज की दृष्टि से भी है। हमारे यहां प्राचीन समाज में मितव्ययिता के महत्व को स्वीकार किया जाता था। किसी सामान की बर्बादी नहीं की जाती थी और उसे उपयुक्त जगह पहुंचा दिया जाता था। भोग विलास में पैसे नहीं खर्च किए जाते थे, पर दान, पुण्य किए जाने का प्रचलन था। पुण्य की लालच से ही सही, पर गरीबों को खाना खिला देना, अनाथों को रहने की जगह देना, जरूरतमंदों की सहायता करना जैसे काम लोग किया करते थे। पर आज का युग स्वार्थ से भरा है, अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर सुंदर महंगे कपडे़ पहनना, फ्लाइट में घूमना, भोग विलास में आपना समय और पैसे जाया करना आज के नवयुवकों की कहानी बन गयी है। दूसरों की मदद के नाम से ही वे आफत में आ जाते हैं, अपने माता-पिता तक की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते, दाई-नौकरों और स्टाफ को पैसे देने में कतराते हैं, पर अपने शौक मौज के पीछे न जाने कितने पैसे बर्बाद कर देते हैं। अपने मामलों में उन्हें मितव्ययिता की कोई आवश्यकता नहीं होती, पर कंपनी का खर्च घटाने में और दूसरों के मामले में अवश्य की जाती है। क्या मितव्ययिता का सही अर्थ यही है ?

जैन धर्म में आदर्श गृहस्थ की जिस जीवनशैली का प्रतिपादन हुआ है, उसमें मितव्ययिता पर बहुत बल दिया गया है पर आज उसका जागरूकता के साथ अनुसारण करने वाले बहुत थोड़े हैं। महात्मा गांधी के विचारों पर जैन धर्म का गहरा प्रभाव था। जैनत्व के संयम प्रधान आदर्शों का उन्होंने अत्यंत श्रद्धा और निष्ठा से अनुसरण किया था। किसी भी वस्तु का आवश्यकता से अधिक उपयोग करना वे उचित नहीं समझते थे। आश्रमवासी कार्यकर्ताओं के द्वारा थोड़ा भी अपव्यय उन्हें सहन नहीं होता था। एक लोटे पानी से कुल्ला करने तथा हाथ-मुंह धोने का काम पूरा कर लेते थे। एक दिन पंडित जवाहरलाल नेहरू आश्रम में उनस मिलने आये। उनसे वार्तालाप करते समय गांधीजी से कुल्ले में अधिक पानी का उपयोग हो गया। उन्होंने पंडितजी के समक्ष इसका अफसोस प्रकट किया। पंडितजी ने कहा-‘आश्रम के पास नदी बह रही है। आप इतने से पानी के लिए क्या विचार करते हैं?’ गांधीजी ने कहा-‘देश में पानी की बहुत समस्या है, हमें एक-एक बूंद का उपयोग सावधानी से करना चाहिए। यह नदी मेरे लिए ही नहीं बहती, समस्त देशवासियों को इसके पानी पर अधिकार है।’ पंडित गांधीजी के इन विचारों से बहुत प्रभावित हुए।

जाॅन मुरैनी एक प्रसिद्ध संत हुए हैं। वे अपने स्थान पर रात्रि में लिख रहे थे। उस समय उनके पास दो दिये जल रहे थे। कुछ जिज्ञासु व्यक्ति उनसे मिलने आये। उनके बैठते ही संत ने एक दिया बुझा दिया। उन्होंने संत से पूछा-आपने ऐसा क्यों किया? मुरैनी ने कहा-लिखने के लिए अधिक उजाले की आवश्यकता होती है। आप लोगों से ज्ञान-चर्चा तो थोड़ी रोशनी में भी हो जाएगी। संत के इस व्यवहार से उन्हें एक नई पे्ररणा प्राप्त हुई। आज पानी और बिजली के प्रभाव की चर्चा सारे राष्ट्र में हो रही है, पर दूसरी ओर सड़कों पर जगह-जगह नल खुले रहते हैं। इस दिशा में सरकार और जनता दोनों में ही जागरूकता का अभाव है। इसी प्रकार बिजली का भी दुरुपयोग होता रहता है।  जब तक जन-जन को मितव्ययी जीवनशैली का व्यवस्थित प्रशिक्षण नहीं दिया जाएगा, तब तक इस प्रकार की त्रुटियों का सुधार नहीं हो पायेगा। यह तभी संभव है हम अर्थ के प्रति हमारा दृष्टिकोण बदलेगा एवं धन के प्रति व्यक्ति और समाज का दृष्टिकोण सम्यक् होगा। भगवान महावीर ने मितव्ययिता की दृष्टि से इच्छाओं के परिसीमन, व्यक्तिगत उपभोग का संयम एवं संविभाग यानी अपनी संपदा का समाजहित में सम्यक् नियोजन के सूत्र दिये हैं। पंूजी, प्रौद्योगिकी और बाजार के उच्छृंखल विकास को नियंत्रित कर, व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में सादगी एवं संयम को बल देकर, आर्थिक समीकरण एवं मानवीय सोच विकसित करके ही हम नया समाज दर्शन प्रस्तुत कर सकते हैं। ऐसा करके ही हम विश्व मितव्ययिता दिवस को मनाने की सार्थकता सिद्ध कर सकेंगे।

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(ललित गर्ग)
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विशेष : जीवन को खुशियों के उजास से भरे

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जिन्दगी हमसे यही चाहती है कि हम अपने उजाले खुद तय करें और उन पर यकीन रखे। सफल एवं सार्थक जीवन का सबसे बड़ा उजाला है सकारात्मकता।  जीवन को खुशियों के उजास से भरना कोई कठिन काम नहीं है, बशर्तें कि हम जिन्दगी की ओर एक विश्वासभरा कदम उठाने के लिये तैयार हो। डेन हेरिस एक सवाल पूछते हैं कि जब ‘खुशी हम सबकी जरूरत है और जिम्मेदारी भी तो क्यों हमारी यह जरूरत पूरी नहीं हो पा रही और क्या वहज है कि हम दुनिया को खुशियों से भर देने की जिम्मेदारी ठीक तरह से नहीं निभा पा रहे हैं?’ इस सवाल के बहुत से उत्तर हो सकते हैं, इसका मुख्य कारण है हमारी स्वयं की नकारात्मकता। हमें बस एक पल ठहरकर अपने भीतर झांकने की कोशिश करनी होगी, तभी मालूम होगा कि हम क्या बिसराए पड़े थे और क्या अनदेखा कर रहे थे। रूमीं ने तो ठीक ही कहा कि ‘जान लेने का मतलब किसी किताब को लफ्ज-दर-लफ्ज रट लेना नहीं, जान लेने का मतलब ये समझ जाना कि तुम क्या नहीं जानते।’ लेकिन समस्या यह है कि सौ में से सतहत्तर लोग जिंदगी को ऐसे जीते हैं, जैसे कोई किराने की दुकान का हिसाब पूरा करता हो। क्योंकि उनको नहीं मालूम कि उन्हें जिंदगी से शांति चाहिए या विश्राम। ईमानदारी चाहिए या पैसा। परोपकार चाहिए या स्वार्थपूर्ति..? जीवन के फल असीमित है, लेकिन सांसें तो सीमित हैं। इसलिए इसे अंधेरे में खर्च क्यों करें? क्यों दूसरों के विचारों के शोर में अपने अंतस की आवाज को डूबने दें? क्यों चिंता करें कि कल क्या होगा? करें तो बस इतना करें कि एक संकल्प लें विश्वास का, उजास का, कुछ नया करने का, कुछ बड़ा करने का।

जीवन का सबसे महत्वपूर्ण उजाला है सकारात्मकता। दृष्टिकोण जब सकारात्मक बन जाता है तो दुःख, क्षोभ, हताशा, निराशा, अभाव कुछ भी नहीं रह जाता। चित्त और मन आनंद तथा प्रसन्नता से परिपूर्ण रहता है। दुःख और शोक उपजता है नेगेटिव थिंकिंग से। संकल्प के द्वारा हम अपने दृष्टिकोण को सकारात्मक बनाएं। चेतना पर नकारात्मक भावों की जंग न लगने दें, उस पर आवरण न आने दें। ध्यान के द्वारा, मंत्र-जप के द्वारा चेतना को निर्मल बनाते रहें, साफ करते रहें। अगर ऐसा होता है तो जीवन में कभी दुःख, निराशा और दरिद्रता नहीं आएगी। जीवन पूर्ण समाधि और आनंद के साथ बीतेगा। मैक्स के अनुसार, ‘संघर्ष चाहे खुद से हो या किसी और से जिंदगी मे ंएक योद्धा की तरह खड़े होने के लिए आत्म-छवि में सुधार सबसे ज्यादा अहम है।’और केवल मैक्स नहीं, दुनिया के सभी मनोवैज्ञानिक इस बात से इत्तिफाक रखते हैं कि ‘संघर्ष के बिना जीवन नहीं, लेकिन इस जीवन संघर्ष में यदि व्यक्ति सकारात्मक सोच रखता है, तो परिणाम भी सकारात्मक हासिल करता है।’ सफलता, असफलता कुछ और नहीं हमारे विचारों का खेल भर है। यर्जुर्वेद में प्रार्थना के स्वर है कि ‘‘देवजन मुझे पवित्र करें, मन से सुसंगत बुद्धि मुझे पवित्र करें, विश्व के सभी प्राणी मुझे पवित्र करें, अग्नि मुझे पवित्र करे।’’  पवित्रता की यह कामना हर व्यक्ति के लिए काम्य है। इस पथ पर अविराम गति से वही व्यक्ति आगे बढ़ सकता है, जो चित्त की पवित्रता एवं निर्मलता के प्रति पूर्ण जागरूक हो। निर्मल चित्त ही अध्यात्म की गहराई तक पहुंच सकता है।

स्वामी विवेकानंद कहते है- ‘‘निर्मल हृदय ही सत्य के प्रतिबिम्ब के लिए सर्वोत्तम दर्पण है। इसलिए सारी साधना हृदय को निर्मल करने के लिए ही है। जब वह निर्मल हो जाता है तो सारे सत्य उसी क्षण उसमें प्रतिबिम्बित हो जाते हैं।’ पवित्रता के बिना आध्यात्मिक शक्ति नहीं आ सकती। अपवित्र कल्पना उतनी ही बुरी है, जितनी अपवित्र कार्य।’’ सामान्य व्यक्ति इस भाषा में सोच सकता है कि मैं अकारण दूसरों को सहन क्यों करूं? लेकिन एक साधक मानसिक पावित्र्य के कारण गालियों की बौछार एवं प्रतिकूलता में भी यही चिंतन करता है कि परिस्थितियों एवं कष्टों का उपादन मैं स्वयं हूं। अतः बाह्य निमित्तों से अप्रभावित रहना ही साधना की तेजस्विता है। मानसिक निर्मलता के लिए इंसान को हजरत मुहम्मद पैगम्बर की यह शिक्षा सतत स्मृति में रखनी चाहिए- ‘‘अच्छा काम करने की मन में आए तो तुम्हें सोचना चाहिए कि तुम्हारी जिंदगी अगले क्षण समाप्त हो सकती है। अतः काम तुरंत शुरू कर दो। इसके विपरीत अगर बुरे कामों का विचार आए तो सोचो कि मैं अभी वर्षों जीने वाला हूं। बाद में कभी भी उस काम को पूरा कर लूंगा।’’

बर्टेªड रसेल अपने अनुभूत सत्यों की अभिव्यक्ति इस भाषा में देते हैं- ‘‘अपने लम्बे जीवन में मैंने कुछ धु्रव सत्य देखें हैं- पहला यह है कि घृणा, द्वेष और मोह को पल-पल मरना पड़ता है। निरंकुश इच्छाएं चेतना पर हावी होकर जीवन को असंतुलित और दुःखी बना देती है।’’ एक सकारात्मक सोच वाला व्यक्ति आवश्यकता एवं आकांक्षा में भेदरेखा करना जानता है। इसलिए इच्छाएं उसे गलत दिशा में प्रवृत्त नहीं होने देतीं।’’ मानसिक निर्मलता सधने के बाद व्यक्ति चाहे एकांत में रहे या समूह में, चित्र देखे या प्रवचन सुने, मनोनुकूल भोजन पाए या रूखा-सूखा, वैभव में रहे या अभाव में, सत्ता में रहे या सत्ताच्युत- कोई भी स्थिति उसके मन में विक्षेप पैदा नहीं कर सकती। वह अपनी मानसिक पवित्रता को अक्षुण्ण बनाए रखता है। वह पवित्रता कर्म को भी सदैव पवित्र रखती है, क्योंकि विचार आचार को प्रभावित करता है और आचार विचार बनता है। अतः बुरे विचारों से आक्रान्त होकर अपने आदर्शों को छोड़ना सबसे बड़ी कमजोरी है। भगवान महावीर ने इन्हीं रास्तों पर चलकर अपना सफर तय किया वे जन्म से महावीर नहीं थे। उन्होंने जीवनभर अनगिनत संघर्षों को झेला, कष्टों को सहा, दुःख में से सुख खोजा और कृतकर्मों का भुगतान कर सत्य तक पहुंचे। वे हमारे लिए आदर्शों की ऊंची मीनार बन गए। उन्होंने समझ दी कि महानता कभी भौतिक पदार्थों की तुला पर नहीं तुलती, उसके लिए सच्चाई के साथ जीए गए अनुभवों के बटखरे चाहिए।

हम जिसकी आकांक्षा करते हैं और जिसे पाने के लिए अंतिम सांस तक मृगछौने की तरह भटकते हैं, महापुरुष उन्हें बोझ समझकर छोड़ देते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि परिग्रही चेतना का अंतिम परिणाम दुःख-परम्परा का हेतु है। जेफ ओल्सन की किताब ‘द स्लाइट एज’ में खुशी की तलाश का एक पूरा दर्शन छिपा है। ओल्सन का कहना है कि हर दिन तुम जो भी करते हो, उसमें बहुत कुछ निरर्थक लगता है, लेकिन जीवन में हर छोटी से छोटी बात का अर्थ होता है। आज तुम्हारे पास एक सिक्का है। अगर वो हर दिन दोगुना होता रहे, तो कुछ ही समय में वह बढ़ते-बढ़ते लाखों में तब्दील हो जाएगा। इसी तरह यदि तुम हर दिन एक दिशा में दोगुना न सही एक प्रतिशत भी बढ़ते रहो, तो एक साल में तुम खुद को तीन सौ पैंसठ गुना ज्यादा बेहतर स्थिति में पाओगे। हर बीतता हुआ क्षण तुम्हें, बेहतर बनने का अवसर दे रहा है, बशर्ते तुम होना चाहिए। लेकिन हम बहुत बार अपने द्वारा लिए गए निर्णय, संजोए गए सपने और स्वीकृत प्रतिज्ञा से स्खलित हो जाते हैं, क्योंकि हम औरों जैसा बनना और होना चाहते हैं। हम भूल जाते हैं कि औरों जैसा बनने मंे प्रतिस्पर्धा, संघर्ष, दुःख, अशांति व तनाव के सिवाय कुछ नहीं मिलने वाला है। इसीलिए महापुरुष सिर्फ अपने जैसा बनाना चाहते हैं। और यही वस्तु का सच्चा स्वभाव है- आवृत्त चेतना के अनावरण का शुभ संकेत। 

हमारी गलती यह है कि हम अपनी हर अनगढ़ता, हर अपूर्णता के लिए दुनिया को जिम्मेवार ठहराते हैं और अपनी छैनी-हथौड़ी लेकर उसकी काट-तराश में जुट जाते हैं। जबकि साक्षी भाव से देखें, तो दर्शन हो या विज्ञान सबका कहना यही है कि बाहर कुछ भी नहीं.. हमारी तमाम यात्राएं हमसे आरंभ होकर हम पर ही खत्म होती हैं। जैसे हम आसमान में सूरज और चांद को एक साथ नहीं देख पाते। उसी तरह हम नहीं देख पाते कि हमारी हर कहानी की पूर्णता हमारे भीतर लिखी थी। हमारे हर गीत की धुन, हमारे भीतर तैर रही थी और हमारे हर सवाल का उत्तर हमारे भीतर मौजूद था। हम उस समय बहुत बौने बन जाते हैं जब सुख-दुःख के परिणामों का जिम्मेदार ईश्वर को या अन्य किन्हीं निमित्तों को मान बैठते हैं। स्वयं की सुरक्षा में औरों की दोषी ठहराकर कुछ समय के लिए बचा जा सकता है किन्तु सचाई यह है कि हर प्राणी स्वयं सुख-दुःख का कत्र्ता, भोक्ता और संहर्ता है। तभी तो जिन महान् लोगों के लक्ष्य बड़े होते हैं, वे कर्म-क्षेत्र से भागते नहीं, वे पुरुषार्थ और विवेक के हाथों से कर्म की भाग्यलिपि बदलते हैं।

हमारा मन बहुत होशियार है। हम जब औरों के बीच अपनी योग्यता से व्यक्तित्व को नयी पहचान नहीं दे सकते, तब हमारा आहत मन दूसरों की बुराइयों को देख खुश होता है ताकि स्वयं की कुरूपताएं उसे सामान्य-सी नजर आएं। जिन लोगों के सपने बड़े होते हैं वे न अपनी गलती को नजरन्दाज करते हैं और न औरों की गलतियों को प्रोत्साहन देते हैं, क्योंकि चिनगारी भले ही छोटी क्यों न हो, आग बन जला सकती है। चाक पर मिट्टी को आकार देते हुए, नदी में जाल डालते हुए, जंग के मैदान में तलवार चलाते हुए या गुरु के सम्मुख बैठ किताबों की गंध महसूस करते हुए हम सुख, संतुष्टि और सत्य को किसी भी क्षण, किसी भी रास्ते से पा सकते हंै। बस हमारी तलाश की दिशा सकारात्मक होनी चाहिए। लेकिन हम विकास की ऊंचाइयों को छूते-छूते पिछड़ जाते हैं, क्योंकि हमारी सोच अंधविश्वासों, अर्थशून्य परम्पराओं, भ्रान्त धारणाओं और सैद्धान्तिक आग्रहों से बंधी होती है पर सफलता का इतिहास रचने वाले लोग कहीं किसी से बंधकर नहीं चलते, क्योंकि बंधा व्यक्तित्व उधारा, अमौलिक और जूठा जीवन जी सकता है किन्तु अपनी जिन्दगी में कभी क्रांतिकारी मौलिक पथ नहीं अपना सकता जबकि महानता का दूसरा नाम मौलिकता है। एक सबक हमेशा गांठ बांधकर रखें कि खेल छोड़ देने वाला कभी नहीं जीतता और जीतने वाला कभी खेल नहीं छोड़ता। यदि बड़े काम नहीं कर सकते, तो छोटे काम बड़े ढंग से करो। 


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क्या है सम्बन्ध? मधुमेह और लेटेंट टीबी, टीबी रोग, दवा प्रतिरोधक टीबी

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वैज्ञानिक शोध से यह तो प्रमाणित था कि मधुमेह होने से टीबी-रोग होने का ख़तरा 2-3 गुना बढ़ता है और मधुमेह नियंत्रण भी जटिल हो जाता है, पर "लेटेंट" (latent) टीबी और मधुमेह के बीच सम्बंध पर आबादी-आधारित शोध अभी तक नहीं हुआ था। 11-14 अक्टूबर 2017 को हुए अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन में, लेटेंट-टीबी और मधुमेह सम्बंधित सर्वप्रथम आबादी-आधारित शोध के नतीजे प्रस्तुत किये गए.


लेटेंट टीबी और टीबी रोग में क्या अंतर है? टीबी कीटाणु (बैक्टीरिया) वायु के ज़रिए संक्रमित होता है। संक्रमित व्यक्ति के फेफड़े में टीबी किटाणु लम्बे समय तक बिना रोग उत्पन्न किये रह सकते हैं। इसी को लेटेंट टीबी कहते हैं। पर कुछ लोगों में लेटेंट टीबी, टीबी-रोग उत्पन्न करता है जिसकी पक्की जाँच और पक्का इलाज आवश्यक है। लेटेंट टीबी से संक्रमित व्यक्ति अन्य लोगों को संक्रमित नहीं कर सकते हैं। फेफड़े के टीबी-रोग से ग्रसित लोगों को, यदि उचित इलाज न मिले, तो उनके द्वारा ही टीबी संक्रमण फैलता है। टीबी-रोग के उचित इलाज आरम्भ होने के चंद सप्ताह बाद ही (जब रोगी की जाँच स्प्यूटम/ बलगम नेगेटिव आए) तो टीबी संक्रमण फैलने का ख़तरा नहीं रहता।

लेटेंट टीबी और मधुमेह पर सर्वप्रथम आबादी-आधारित शोध

लेटेंट टीबी और मधुमेह के बीच क्या सम्बन्ध है, इस विषय पर, वैश्विक स्तर पर आबादी पर आधारित सर्वप्रथम शोध हुआ। इस शोध से यह सिद्ध हुआ कि मधुमेह होने से सिर्फ़ टीबी-रोग होने का ही ख़तरा नहीं बढ़ता, बल्कि लेटेंट टीबी का ख़तरा भी अनेक गुना बढ़ता है। यदि मधुमेह नियंत्रण उचित प्रकार से न किया जा रहा हो तो टीबी होने का ख़तरा और अधिक बढ़ जाता है.

लॉरेटो कॉन्वेंट कॉलेज की सेवानिवृत्त वरिष्ठ शिक्षिका और आशा परिवार एवं सीएनएस द्वारा संचालित स्वास्थ्य को वोट अभियान से जुड़ी शोभा शुक्ला ने बताया कि भारत में वैश्विक स्तर पर सबसे अधिक लेटेंट टीबी से संक्रमित लोग हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि 40-50 करोड़ लोगों को लेटेंट टीबी हो सकती है। भारत में सबसे अधिक टीबी रोगी भी हैं और अनुमानित 6.91 करोड़ लोगों को मधुमेह है। जन स्वास्थ्य की दृष्टि से यह अत्यंत आवश्यक है कि टीबी और मधुमेह कार्यक्रमों में तालमेल बढ़े जिससे कि मधुमेह के साथ जीवित लोग - टीबी-रोग और लेटेंट-टीबी - दोनों से मुक्त रहें।

फेफड़े के रोग सम्बंधी 48वें अन्तर्राष्ट्रीय अधिवेशन (48th Union World Conference on Lung Health) में लेटेंट टीबी और मधुमेह पर हुए इस शोध को सर्वप्रथम प्रस्तुत किया गया।

अमरीका के स्टान्फ़र्ड विश्वविद्यालय के चिकित्सा विभाग के शोधकर्ता डॉ लियोनार्डो मार्टिनेज़ ने सीएनएस (सिटीजन न्यूज़ सर्विस) को बताया कि मधुमेह नियंत्रण यदि उचित ढंग से न किया जा रहा हो तो लेटेंट टीबी होने का ख़तरा अत्याधिक बढ़ जाता है। इसलिए जन स्वास्थ्य के लिए हितकारी है कि जिन लोगों में मधुमेह नियंत्रण संतोषजनक न हो उनको लेटेंट टीबी की जाँच उपलब्ध करवाई जाए और यदि उनको लेटेंट टीबी हो तो लेटेंट टीबी का उपयुक्त इलाज (आइसोनियाजिड प्रिवेंटिव थेरेपी या आईपीटी) भी मुहैया करवाया जाए। यदि किसी व्यक्ति को लेटेंट टीबी से बचाया जाएगा तो उसे टीबी रोग होने का ख़तरा भी नहीं होगा - ज़रा ग़ौर करें कि यह जन स्वास्थ्य के लिए, और टीबी मुक्त दुनिया के सपने को पूरा करने की दिशा में भी, कितना महत्वपूर्ण क़दम होगा।

जब तक करोड़ों लोग लेटेंट टीबी से ग्रसित रहेंगे तो उनमें से कुछ को टीबी रोग होता रहेगा और जन स्वास्थ्य के समक्ष चुनौती बनी रहेगी। यदि टीबी मुक्त दुनिया का सपना पूरा करना है तो अन्य ज़रूरी जांच-उपचार आदि कार्यक्रमों के साथ-साथ लेटेंट टीबी की पक्की जाँच और पक्का इलाज भी उपलब्ध करवाना होगा।

डॉ लियोनार्डो ने बताया कि यह शोध 4215 लोगों पर अमरीका में हुआ जिनमें से 776 लोगों को मधुमेह था, 1441 लोगों में मधुमेह से पूर्व वाली स्थिति थी (प्री-डायबिटीज/ pre-diabetes), और 1998 लोगों को मधुमेह नहीं था। इस शोध से यह प्रमाणित हुआ कि उन लोगों की तुलना में जिन्हें मधुमेह न हो, मधुमेह के साथ जीवित लोगों में लेटेंट टीबी होने का ख़तरा अधिक होता है। जिन लोगों को मधुमेह न था उनमें लेटेंट टीबी का दर 4.1% था, जिन लोगों को प्री-डायबिटीज थी उनमें लेटेंट टीबी का दर 5.5% था, और जिन लोगों को मधुमेह था उनमें लेटेंट टीबी का दर 7.6% था। लेटेंट टीबी होने का ख़तरा सबसे अधिक उन लोगों को था जिन्हें मधुमेह तो था पर उनका मधुमेह नियंत्रण उचित ढंग से नहीं हो रहा था।

इस शोध से यह भी ज्ञात हुआ कि जिन लोगों को पता ही नहीं था कि उन्हें मधुमेह है, जिसके कारणवश उनका मधुमेह अनियंत्रित था, उनमें से 12% को लेटेंट टीबी थी। यह मधुमेह दर सामान्य आबादी से 3-4 गुना अधिक था।

मधुमेह नियंत्रण से, न केवल व्यक्ति स्वस्थ रहता है और मधुमेह सम्बंधित स्वास्थ्य पर पड़ने वाले कुप्रभावों के खतरों को कम करता है, बल्कि लेटेंट टीबी होने के ख़तरे में भी कमी आती है। मधुमेह नियंत्रण नि:संदेह स्वास्थ्य के लिए हितकारी है।

लेटेंट टीबी को नज़रंदाज़ किया तो नहीं होंगे लक्ष्य पूरे

भारत समेत 190 से अधिक देशों ने 2030 तक 17 सतत विकास लक्ष्यों (Sustainable Development Goals/ SDGs) को पूरा करने का वादा किया है। इन लक्ष्यों में टीबी समाप्त करना और मधुमेह से होने वाली असामयिक मृत्यु दर में एक-तिहाई कमी लाना शामिल है। यदि 2030 तक टीबी समाप्त करना है तो एक-तिहाई आबादी जो लेटेंट टीबी से संक्रमित है उसको नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता क्योंकि लेटेंट टीबी से ही तो टीबी रोग होगा! लेटेंट टीबी से संक्रमित लोगों को आइसोनियाजिड प्रिवेंटिव थेरेपी (आईपीटी) प्राप्त होनी चाहिए जिससे कि उनको टीबी होने का ख़तरा अत्यंत कम हो सके। यदि 2030 तक सतत विकास लक्ष्यों को पूरा करना है तो ठोस जन हितैषी क़दम तो उठाने ही होंगे।

टीबी और मधुमेह कार्यक्रमों में साझेदारी आवश्यक

मेक्सिको देश जहाँ अधिक वज़न के कारणवश होने वाला मधुमेह अत्याधिक है और टीबी दर भी चिंताजनक है, वहाँ के स्वास्थ्य विभाग के डॉ पाब्लो अंतोनियो क़ुरी मोरालेस ने सीएनएस (सिटीजन न्यूज़ सर्विस) को बताया कि मधुमेह और टीबी नियंत्रण कार्यक्रमों में समन्वयन अत्यंत आवश्यक है। समाज के हाशिए पर रह रहे लोग और सामाजिक और आर्थिक रूप से कमज़ोर तबके टीबी का अधिकांश प्रकोप झेल रहे हैं। परंतु अधिक वज़न के कारणवश हुए मधुमेह से वो लोग सबसे अधिक प्रभावित हैं जिनकी जीवनशैली अस्वस्थ है। इन चुनौतियों के बावजूद, टीबी और मधुमेह कार्यक्रमों को संयुक्त रूप से कार्य करना होगा, आपसी तालमेल और विचार-विमर्श से नीति बनानी होगी और उसको मिल कर क्रियान्वित करनी होगी जिससे कि दोनों रोग नियंत्रण कार्यक्रमों के नतीजे सुधरें।

मधुमेह और दवा प्रतिरोधक टीबी: कोई सम्बन्ध?

मेक्सिको के राष्ट्रीय टीबी नियंत्रण कार्यक्रम के प्रमुख डॉ मार्टिन कास्तेलानोस जोया ने विश्व स्वास्थ्य संगठन की टीबी अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी को संबोधित करते हुए कहा कि मेक्सिको में हर 1 में से 4 टीबी रोगी को मधुमेह है और हर 1 में से 2 दवा-प्रतिरोधक टीबी (मल्टी-ड्रग रेज़िस्टंट टीबी/ एमडीआर-टीबी) के रोगी को मधुमेह है।

डॉक्टर जोया ने कहा कि मधुमेह और टीबी नियंत्रण में कार्यरत सभी वर्गों को एकजुट होना होगा जिससे कि समन्वयित ढंग से अधिक प्रभावकारी रोग नियंत्रण हो सके। टीबी और मधुमेह कार्यक्रमों की योजना संयुक्त रूप से बने, प्रशिक्षण और मूल्यांकन आदि मिलजुल कर हो, कार्यक्रम सम्बंधी आँकड़े और अन्य आवश्यक रिपोर्ट आपस में साझा हों जिससे कि टीबी और मधुमेह दोनों के दरों में गिरावट आए और जन स्वास्थ्य लाभान्वित हो।

मेक्सिको में देश-व्यापी नीति है कि हर टीबी रोगी की मधुमेह जाँच हो और हर मधुमेह रोगी की टीबी जाँच। जिन लोगों को मधुमेह और टीबी दोनों होता है उनको टीबी और मधुमेह का इलाज साथ-साथ मिलता है। ऐसे लोगों का ग्लायसीमिक टेस्ट (Glycaemic test) हर हफ़्ते होता है और इन लोगों का मधुमेह इलाज यदि इंसुलिन आधारित हो तो बेहतर रहता है।

2003 से 2016 के बीच मेक्सिको में जिन लोगों को टीबी और मधुमेह दोनों है उनका दर 287% बढ़ गया है जो अत्यंत चिंताजनक है। इन लोगों के सफल इलाज का दर 89% है। डॉक्टर जोया ने कहा कि हर टीबी और मधुमेह रोगी तक उचित सेवाओं का पहुँचना अत्यंत आवश्यक है और सफल इलाज दर में बढ़ोतरी भी वांछनीय है।

आशा है कि 2017 विश्व मधुमेह दिवस के उपलक्ष्य में सरकारें मधुमेह और टीबी कार्यक्रमों में साझेदारी बढ़ाएँगी जिससे कि 2030 तक टीबी उन्मूलन और मधुमेह से होने वाली असामयिक मृत्यु दर में एक-तिहाई गिरावट आ सके।

बाबी रमाकांत, सीएनएस (सिटीजन न्यूज़ सर्विस)

(विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक द्वारा पुरुस्कृत, बाबी रमाकांत वर्त्तमान में सीएनएस (सिटीजन न्यूज़ सर्विस) के नीति निदेशक हैं

दीपावली का वास्तविक अर्थ समझे -ः मुनि जयंत कुमार:-

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भारतवर्ष में जितने भी पर्व हंै, उनमें दीपावली सर्वाधिक लोकप्रिय और जन-जन के मन में हर्ष-उल्लास पैदा करने वाला पर्व है। वैदिक प्रार्थना है- ‘तमसो मा ज्योतिर्गमयः।’ अर्थात् अंधकार से प्रकाश में ले जाने वाला पर्व है- ’दीपावली’। दीपावली के पूर्व लोग दुकानों व घरों की सफाई करते हैं, रगं-रोगन करते हैं। लोगों में यह भावना रहती हैं कि इस दिन श्री लक्ष्मीजी दुकान व घर में प्रवेश करती है। जीवन में धन का महत्व है, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। धन से मानव अपना रोज का जीवन व्यवहार चलाता है। अपनी आशा-आकांक्षाओं को पूरा करने की कोशिश में लगा रहता हैं। मनुष्य चाहता है- उसे अच्छा भोजन मिले, रहने को सुन्दर-सा घर हो और कभी वह बीमार पड़़ जाए, तो उसे अच्छी-से-अच्छी चिकित्सा मिले। इन सबकी पूर्ति के लिए ही वह श्री लक्ष्मी देवी की पूजा-अर्चना करता है। कामना करता है कि श्री लक्ष्मी देवी उसके भण्डार को धन-धान्य से परिपूर्ण कर दंे। लेकिन धन में बड़ा प्रमाद होता है, मद होता है, विकार होता है।

प्रायः लोग दीपावली के मात्र बाह्य प्रसंगांे का स्मरण कर पर्व मनाने की सफलता समझ लेते हैं। श्रीराम के अयोध्या प्रवेश को याद करते हैं, महर्षि दयानन्द सरस्वती के स्वर्गवास की स्मृति कर लेते हैं, राष्ट्र संत विनोबाजी के देहत्याग की गरिमा का गुणगान कर लेते हैं, किन्तु प्रकाश पर्व के उन आन्तरिक संदेशों को अनदेखा कर देते हैं, जो हमें अपनी आत्मा में निहित प्रकाश को उत्पन्न करने की प्रेरणा देते हैं। जैन दृष्टि से दीपावली त्याग तथा संयम का पर्व है। सांसारिक पर्व के साथ-साथ यह अध्यात्मिक पर्व भी है। इस दिन कार्तिक कृष्ण अमावस्या को चैबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर ने निर्वाण पद (मोक्ष, सिद्धावस्था) को प्राप्त किया था। जैन समाज भगवान की निर्वाण पद प्राप्ति की खुशी में बहुत प्राचीन काल से ही दीपावली पर्व मनाता आ रहा है। निर्वाण पद की प्राप्ति आसक्ति से नही, विरक्ति से, भोग से नही, त्याग से, वासना से नही, साधना से, बाहरी लिप्तता से नही, अहिंसा सयंम तप से होती है। समाज इस पर्व के आध्यात्मिक सन्देश को भूलकर सांसारिक, शारीरिक वासनाओं की तृप्ति में लिप्त हो रहा है। यही तो विडम्बना है। अच्छा खाना, अच्छा पहनना, आमोद-प्रमोद करना आदि तो दीपावली का बाहरी पक्ष है, जो सांसारिक दृष्टि से आकर्षक जरूर लगता है, किन्तु आत्मिक दृष्टि से कतई उचित नही हैं अनेक धर्म वाले जीवन का अन्तिम लक्ष्य-निर्माण (मोक्ष) प्राप्ति को ही मानते हैं।

आज हमारी नई पीढ़ी निर्माण पक्ष को प्रायः भूलती जा रही हैं तथा इस दिन होटलों में, पार्टियों में- अभक्ष्य भक्षण करना, जुआ खेलना, घोर हिंसा करने वाला पटाखों को छोड़ना तथा अन्य अनेक दुष्प्रवृत्तियों में लिप्त होकर मानव जीवन को खाई में ढकेल रहे हैं। दीपावली के दिन जुआ खेलना की परम्परा बहुत पहले से चली आ रही हैं। अज्ञानी लोग मानते हैं कि इस दिन जुआ खेलने से लक्ष्मी आती है- यह उनका भ्रम है। आतिशबाजी के कारण कितने ही छोटे-छोटे जीव मौत के मंुह में चले जाते हैं। यदि हम किसी को जीवन दे नहीं सकते तो, दूसरों के प्राण लेने का हमें क्या अधिकार? दूसरों के प्राणों की घात सबसे बड़ी हिंसा है। सबसे बड़ा पाप है। आतिशबाजी से कई जीवों की घात तो होती ही है, किन्तु कई लोग अपने प्राणों से भी हाथ धो बैठते हैं। प्रायः सुनते हैं कि आतिशबाजी के कारण अमुक जगह आग लग गई, लाखों-करोडों का नुकसान हो गया तथा अनेक लोगों के नेत्र की ज्योति चली जाती हैं, कइयों के हाथ-पांव जल जाते हैं, महिलाओं व पुरुषों के कीमती वस्त्र जल जाते हैं, कई अधजले होकर रह जाते हैं। यह कैसी बर्बादी हैं? तन की भी और धन की भी। आजकल दीपावली के दिन उद्योगपति, व्यापारी तथा अन्य लोग अपनी अनेक विवशताओं के कारण तत्सम्बन्धी अधिकारियों के पास बडे-बडे कीमती उपहार भेजते हैं, ये उपहार आन्तरिक खुशी से नही, बल्कि विभिन्न संकटों से अपनी सुरक्षा करने के लिए रिश्वत के रूप में भेजे जाते हैं, यह वास्तव में भ्रष्टाचार का ही एक रूप हैं।

दीपावली के समस्त सांसारिक आयोजन हमारी अनीकिनी के अज्ञानरूपी अधंकार के ही शोधक एवं सूचक हैं। दीपकों का प्रकाश, मिष्ठान सेवन एवं वितरण, मकान-दुकान की स्वच्छता, लक्ष्मी उपासना, परिग्रह का असीमित प्रदर्शन, पाँचों इन्द्रियों के भोगों का खुलकर सेवन करने के प्रवृत्ति, दुव्र्यसनों के प्रति आसक्ति अनादि जो भी आयोजन हम दीपावली के दिन करने के अभ्यस्त हो चुके हैं, वे सभी हमारे अज्ञानरूपी अधंकार के पोषक एंव सूचक ही हैं, उनसे कभी भी आत्मा का कल्याण सम्भव नहीं हैं। ये सभी दीपावली आयोजन ‘तमसो मा ज्योतिर्गमयः’ की भावना के पूर्णतया विपरीत हैं। आज समाज आत्म साधना और त्याग वृत्ति के पथ पर चलने के बजाय भोग और परिग्रह वृत्ति के प्रति झुक गया हैं। निर्वाण मार्ग के अनुसरण के बजाए संसार यानी भव भ्रमण के मार्ग को अपनाने लगा है और वैराग्य के स्थान पर राग को अपनाने लगा हैं। त्याग के पर्व को हमने भोग का पर्व बना दिया हैं। लोगों की देखा-देखी करते हुए दीपावली का पर्व विकृत हो गया हैं। जिस त्याग एवं साधना के बल पर महापुरूषों ने निर्वाण पद प्राप्त किया था, उस त्याग और साधना को भूलकर हम केवल बाहरी क्रिया कलापों पर अटक कर रह गए हैं। इसे अपनी बुद्धि का दीवाला ही तो कहेंगे। सारे विश्व को प्रकाश प्रदान करने वाला भारत आज कितने अंधकार में जी रहा हैं? क्या कभी हम एक ही क्षण के लिए भी इसका चिन्तन करते हैं? कौन पाल रहा हैं, भारत के अधिकार को? भारत पर अभी कोई विदेशी शासन नहीं हैं। भारतीय ही भारत पर शासन कर रहे हैं। हम ही देश के नैतिक पतन के जिम्मेदार हैं। हम ही भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन देते हैं, उसे पालते हैं। ईमानदारी और नैतिकता को हमने ही ध्वस्त कर दिया हैं। अपने स्वार्थ के पीछे हम अपनी अस्मिता तक से खिलवाड़ करने को तत्पर रहते हैं। राष्ट्रीयता का नारा हमारा वाणी विलास मात्र ही रह गया हैं। हम राष्ट्र के स्तर पर स्वतन्त्र होकर अंधकार के घने घेरे में कैसे चले गए हैं?

क्या यह अंधकार किसी दीपक से मिटाया जा सकता हैं? क्या सांसारिक रूप से दीपावली को धूमधाम से मनाकर अपने राष्ट्र की अन्तर आत्मा को प्रसन्न कर सकते हैं? तुच्छ स्वार्थो के पीछे अपनी चेतना (आत्मा) के समस्त प्रकाश को भुला कर के घने अंधकार में भटकने वाले हम क्या कभी दीपावली का सच्चा अर्थ समझ सकेंगे? क्या हम कभी स्वयं से पूछते हैं कि हम कहाँ? प्रकाश में या अधंकार में? यदि अधंकार में हैं, तो क्यों? हमारी तमसो मा ज्योतिर्गमयः की प्रार्थना असफल क्यों हो रही हैं?  सबसे बड़ा कारण हैं- हम अपनी आत्म ज्योति को बुझा करके जीते हैं।हम उसे प्रज्ज्वलित करना ही भूल गए। दीपावली हमें प्रेरणा दे रही हैं कि हम अपनी आत्म ज्योति को प्रज्ज्वलित करें। अपना दीपक स्वयं जलाएँ। अपनी आत्मा को ही दीपक बनाकर उसे जगमगाएँ। उसके लिए चाहिए- सिर्फ आत्मविश्वास।

इस विश्व गुरू भारत के नागरिक हैं, किन्तु संकीर्णता के गुलाम बनकर रह गए। हम अच्छे वक्ता अवश्य हैं, किन्तु आचरण में बहुत पिछड़ गए हैं। दुव्र्यसनों के जंगल में भटक गए है। हम पश्चिम के लज्जाविहीन संस्कारों के अनुकरण में लग गए हैं। आज भारतीय जन जीवन की अधिकांश ऊर्जा विकृतियों की गटर में बही जा रही हैं।  लोक जीवन के इस पतन के हम ही उत्तरदायी हैं। हम कभी अपना दोष स्वीकार नही करते। हम कभी समाज को, कभी सरकार को उत्तरदायी बताने लगते है, किन्तु समाज और राष्ट्र का निर्माण तो स्वयं से है। हम कर्तव्य परायण और नैतिक बनें, तभी तो स्वस्थ समाज या स्वच्छ सरकार का निर्माण होगा। सुधार तो स्वयं में लाना हैं। दीपावली से प्रेरणा ग्रहण करने की अवश्यकता है। ’परम्परागत भोग की दीपावली मानने के प्रति घृणा उत्पन्न करें और सावधान होकर आध्यात्मिक दीपावली मनाने के प्रति तैयार होवें।’ हम भोगों की आसक्ति को त्यागने तथा त्याग की ओर झुकने का प्रयास करें तथा राम, कृष्ण, बुद्ध, गांधी एवं महावीर द्वारा बताए गए अंहिसा, सत्य, अचैर्य, ब्रहाचर्य और अपरिग्रह के सिद्धांतों का परिपालन करने में अपने को तैयार रखें- यही अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का उपाय है। यह कार्य कठिन तो अवश्य है, किन्तु असम्भव नही हैं। पुरूषार्थ करें, सफलता अवश्य मिलेगी। 



(बरुण कुमार सिंह)
-ए-56/ए, प्रथम तल, लाजपत नगर-2
नई दिल्ली-110024
मो. 9968126797

व्यापार : टाटा डोकोमो बंद होगा

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Tata-docomo-will-be-history
टाटा डोकोमो शीघ्र ही टेलीकॉम बाजार में इतिहास बनने जा रही है.सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक टाटा घराना अब जल्दी ही टाटा टेली सर्विसेस कारोबार को समेटने की तैयारी कर चुकी है और शीर्ष प्रबंधन ने सरकार को अपने फैसले से अवगत भी करवा दिया है.ज्ञात हुआ कि टाटा घराने ने १९९६ में टाटा टेली सर्विसेज  नाम से शुरू किये गए टेलीकॉम व्यापार को बेचने की कोशिश भी की परन्तु साकारात्मक नतीजा नहीं निकलने के बाद इसे बंद करने का निर्णय लिया गया.  

व्यंग्य : भक्त, अंधभक्त और पागलपंत

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कल शर्मा जी गली के नुक्कड़ पर मिले। हमसे कहने लगे हमारी तो आस्था भगवान-वगवान में बिलकुल भी नहीं है। मैं तो बिलकुल ही घोर नास्तिक हूं। मैंने कहा - चलो, भाई ! जिसकी जैसी सोच। फिर अगले दिन शर्मा जी को मंदिर में अपनी धर्मपत्नी के साथ हवन कराते हुए देखकर मेरी आंखें फटी की फटी रह गयी। मैं शर्मा जी केे पास गया और बोला - यार ! शर्मा तुम कल तो गली के नुक्कड़ पर बडा ही अनास्था का ढोल पीट रहे थे। खुद को घोर नास्तिक होने का तमगा दे रहे थे। लेकिन, ऐसा क्या हुआ कि रातोंरात जिससे तुम्हारी फितरत ही बदल गयी। शर्मा ने मुझे अपनी पत्नी से थोडा दूर ले जाकर बताया कि भाई मैं नास्तिक तो कल भी था और मैं नास्तिक आज भी हूं। भले मेरी आस्था भगवान में न हो लेकिन पत्नी देवी में तो है। मैं समझ गया शर्मा पत्नी परमेश्वर का पक्का भक्त है। क्योंकि शर्मा की शादी को हुए कुछ ही दिन बीते है। अभी तो हाथ की मेंहदी भी नहीं उतरी है। मित्र शर्मा भक्त का उम्दा उदाहरण है। भक्त भाव से अपने भगवान की आराधना करता है। जैसे राम भक्त हनुमान थे। शर्मा से मुझे खतरा नहीं है। भक्त होना कोई बुरी बात नहीं है। मुझे खतरा तो अपने दूसरे मित्र वर्मा से है, जो शर्मा की तरह पत्नी-वत्नी का भक्त तो नहीं है, पर नेताओं का अंधभक्त पक्का है। वर्मा नेताओं को ही अपना आराध्य मानता है। किसी पार्टी विशेष का प्रशंसक है। उस पार्टी पर पूर्णतः मुग्ध है और खुद पर आत्ममुग्ध भी। बिलकुल ही अंधा है। यदि उसकी पसंद की राजनैतिक पार्टी और राजनेताओं को जरा भी गलत काम के लिए गलत कह दिया तो वो झगडने, लडने और मारने-कूटने पर उतर आता है। बस ! उसके लिए अपना ही दल और नेता सर्वश्रेष्ठ है। लगता है दल वालों ने उसके विवेक का अपहरण कर दिया है। आंखें फोड दी है और पार्टी का चश्मा पहना दिया है। उसकी रग-रग में जितना खून नहीं दौडता, उतना तो पार्टी के प्रति प्रेम उबाल मारता है। अब उसके सामने उसकी पार्टी के बारे में भला बुरा-भला कहने की कोई हिमाकत भी कर सकता है ! वर्मा तो उदाहरण मात्र है, ऐसे अंधभक्त भारत वर्ष में यत्र-अत्र-सर्वत्र मौजूद है। इनसे ही हर बार भारतीय लोकतंत्र ठगा जाता है। यह अंधभक्त चुनाव के समय बोतलों के भाव बिक जाता है। शर्मा और वर्मा के बाद मेरा तीसरा मित्र विश्वकर्मा है, जो इन दोनों से भी आगे जाकर पागलपंत की श्रेणी में है। यह बिलकुल ही पागल है। जैसे कोई दीवाना किसी की दीवानगी में पागल होता है। वैसे ही यह पार्टी के प्रेम में पागल है। यह पार्टी के लिए जान भी दे सकता है और ले भी सकता है। बडा ही खूनी किस्म का मजनूं है। इसको कितना भी समझाओ सबकुछ व्यर्थ है। अपना ही टाइम खराब करना है। यह इतना पागल है कि दूसरों को भी पागल कर सकता है। ऐसे पागलों की भी भारत में कोई कमी नहीं है। यह पागल जाति में, धर्म में, गौत्र में, वर्ग में, श्रेणीे आदि में है। ये पागलपंत खबरिया चैनलों पर एंकर की भावनाओं का अतिक्रमण करके उत्पात मचाते हुए नजर आता है, तो सोशल मीडिया पर अपनी पोस्टों व कमेंटों के माध्यम से अपने पागल होना का पक्का सबूत भी देता है। ऐसे मित्रों से दूरी ही भली है।



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- देवेंद्रराज सुथार

विशेष : बदलते उत्तर प्रदेश में बेचारे बछड़े ....!!

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कहते हैं यात्राएं अपनी मर्जी से नहीं होती। ये काफी हद तक संयोग पर निर्भर हैं। क्या यही वजह है कि लगातार छह साल की अनुपस्थिति के बाद नवरात्र के दौरान मुझे इस साल तीसरी बार उत्तर प्रदेश जाना पड़ा। अपने गृहजनपद प्रतापगढ़  से  गांव बेलखरनाथ पहुंचने तक नवरात्र की गहमागहमी के बीच  सब कुछ मनमोहक लग रहा था। लेकिन जल्द ही जबरदस्त बिजली कटौती ने मुझे परेशान करना शुरू किया। रात के अंधेरे में बेचैनी से बिजली आने की प्रतीक्षा के बीच जगह - जगह से टिमटिमाती टार्च की रोशनी देख मैं चिंतित हो उठा। मुझे अनहोनी की आशंका होने लगी। क्योंकि बचपन के दिनों में अपने गृह प्रदेश की यात्राओं के दौरान चोर - डाकू के साथ जंगली जानवरों का खतरा भी लोगों पर रात का अंधेरा गहराते ही मंडराने लगता था। मुझे लगा क्या अब भी ऐसा खतरा बरकरार है।आखिर क्यों लोग इतने बेचैन हैं और किनसे रक्षा के लिए जगह - जगह से टार्च की रोशनी मारी जा रही है। बेचैनी से रात गुजरी और सुबह होने पर मैने संबंधियों से इसका जिक्र किया तो पता चला कि यह सब परित्यक्त बछड़ों व सांढ़ से बचाव के लिए किया जाता है। पिछले कुछ महीनों में जिनकी संख्या तेजी से बढ़ी है। परित्यक्त होने से ये बछड़े या सांढ़ आवारा घूमने को अभिशप्त हैं और रात का अंधेरा होते ही वे चारा व पानी की तलाश में गांवों में घुसने लगते हैं। उन्हें पूरी रात इधर से उधर खदेड़ा जाता है।  देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश का जिक्र आते ही हमारे मन - मस्तिष्क में वहां की कानून व्यवस्था से लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य , सड़कें व जल तथा बिजली आपूर्ति व्यवस्था की बात कौंधने लगती है। उत्तर प्रदेश की पहचान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के आभामंडल से लेकर अखिलेश यादव के खानदानी लड़ाई - झगड़े से भी होने लगी है। लेकिन राज्य के हालिया दौरे में मैने पाया कि वहां कई ऐसी समस्याएं हैं जो स्थानीय किसानों को परेशान कर रही है। लेकिन उसकी चर्चा कहीं नहीं होती। हमारे राष्ट्रीय चैन्ल्स बस उत्तर प्रदेश के नाम पर भाजपा बनाम अखिलेश - मायावती की चर्चा करके ही टीआरपी बढ़ाने की कोशिश करते रहते हैं। प्रदेश में रोजगार की तलाश में पलायन का सिलसिला बदस्तूर जारी है। वहीं तमाम दावों के बावजूद खेती अब भी घाटे का सौदा साबित हो रही है। विकल्पों के अभाव में खेती अधिया या तिहिया पर दी जा रही है। प्राकृतिक आपदा को छोड़ भी दें तो अब तक खेतों में खड़ी - फसल के नील गाय  और जंगली सुअर मुख्य शत्रु माने जाते थे। जिनसे बचाव के लिए किसानों को एड़ी - चोटी का जोर लगाना पड़ता है। अक्सर इनसे बचाव की तमाम कोशिशें बेकार ही साबित होती है। अब प्रतिद्वंदियों में मवेशी खास तौर से परित्यक्त बछड़े  और सांढ़ भी शामिल हो गए हैं। जो हर गांव में पालकों के अभाव में इधर - उधर भटकने को मजबूर हैं। पशु वध निषेध कानूनों के चलते पिछले कुछ महीनों में प्रदेश में मवेशियों की संख्या बेतहाशा बढ़ी है। जबकि किसान इनके पालन - पोषण पर होने वाले अत्यधिक खर्च से पहले से परेशान थे। यही वजह है कि प्रजनन के बाद बछड़ों को त्याग देने का जो सिलसिला पहले से चला आ रहा था, उसमें अब बेहिसाब बढ़ोत्तरी होने लगी है। क्योंकि मशीनीकरण के चलते बैलों की उपयोगिता पहले ही लगभग खत्म हो चुकी थी।  संख्या बढ़ने से उनके सामने नई मुसीबत खड़ी हो गई है। वे न तो इन्हें बेच सकते हैं और न अपने पास रख ही सकते हैं। लिहाजा उन्हें त्यागने के नए - नए तरकीब इजाद किए जा रहे हैं। बेटियों की तर्ज पर घर मे बछड़े के जन्म लेते ही मातम छा जाता है।  बूढ़ी गायों और बछड़ों के संरक्षण का धंधा शुरू हो जाने की चर्चा भी  ग्रामांचलों में सुनाई पड़ी। बूढ़ी गाय और बछड़ों से छुटकारे का जो तरीका संज्ञान में आया वह काफी पीड़ा दायक है। ग्रामीणों ने बताया कि त्याग दिए जाने वाले पशुओं को इकट्ठा कर उन्हें गांव से दूर किसी नदी के दूसरी ओर ले जाया जाता है। वहां सामान्य पूजा पाठ के बाद उनके नाजुक अंगों पर कुछ द्रव्य का छिड़काव किया जाता है। जिसकी जलन से मवेशी बेहताशा भागने लगते हैं। इसका बुरा असर उनकी याददाश्त पर भी पड़ता है और फिर वे अपने पालक के घर लौटने के बजाय इधर - उधर भटकने लगते हैं। इस प्रक्रिया से पालकों को भले राहत मिलती हो लेकिन बेचारे मवेशी कहां जाएं। वे घूम - धूम कर भोजन और पानी की तलाश में रिहायशी इलाकों में आते रहते हैं। जिनसे बचाव के लिए ग्रामीण पूरी - पूरी रात उन्हें इधर से उधर खदेड़ते रहते हैं। कदाचित इन्हीं कारणों से विद्युत संकट के बीच मुझे अपने गांव में रात भर अनेकों टार्च लाइट्स जगमगाते नजर आए। सच्चाई सेे अन्जान होने की वजह से  आज के जमाने में टार्च लाइट्स की रोशनी मुझे रहस्यमयी लगी थी। मैं अनहोनी की आशंका से परेशान होने लगा। लेकिन जब मुझे पता लगा कि यह अवांछित मवेशियों को खदेड़ने के लिए किया जा रहा है तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। बेचैन मन से मैने सत्ता समर्थक लोगों से इस पर बात की तो पता लगा कि समस्या के समाधान की कोशिश जारी है। जल्द ही राज्य में कान्हा योजना चलाई जाएगी। जिसमें इन परित्यक्त गो वंश को रखा जाएगा। इस पर होने वाले खर्च के जुगाड़ पर भी मंथन हो रहा है। इस आश्वासन से मुझे तनिक ही सही लेकिन राहत मिली। अब इंतजार है तो बस योजना के क्रियान्वयन की... 




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तारकेश कुमार ओझा, 
खड़गपुर (प शिचम बंगाल) 
संपर्कः 09434453934 , 9635221463

बाल अधिकार सप्ताह 16 से 20 तक

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16-20-child-right-weekनयी दिल्ली 11 नवंबर, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय 16 से 20 नवंबर तक बाल अधिकार सप्ताह का आयोजन करेगा और इस दौरान बाल देखभाल संस्थानों (सीसीआई) में रहने वाले बालकों के लिए विभिन्न कार्यक्रम आयोजित होंगे जिसमें ये बच्चे अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करेंगे । मंत्रालय की आज यहां जारी विज्ञप्ति के अनुसार बाल अधिकार सप्ताह को ‘हौसला-2017’ के रूप में मनाया जायेगा । इस दौरान इन बच्चों के लिए बाल संसद, चित्रकला प्रतियोगिता, एथलेटिक मीट, फुटबाल, शतरंज प्रतियोगिता और वाक लेखन जैसी प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाएगा। कार्यक्रम का समापन समारोह अंतरराष्ट्रीय बाल अधिकार दिवस 20 नवंबर को होगा जिसमें विजेता बच्चों को पुरस्कृत किया जाएगा। इस समारोह में क्रिकेटर वीरेंद्र सहवाग, गौतम गंभीर और सुश्री मिताली राज को आमंत्रित किया गया है। हौसला-2017’ सप्ताह के पहले दिन 16 नवंबर को यहां बाल संसद का आयोजन किया जाएगा। बाल संसद में सभी राज्यों तथा केन्द्र शासित प्रदेशों के बाल देखभाल संस्थानों के बच्चे प्रतिभागी करेंगे। कार्यक्रम में 14 से 18 आयु वर्ग के कुल 36 बच्चे हिस्सा लेगें। पहले दिन चित्रकला प्रतियोगिता का भी आयोजन होगा। कार्यक्रम के दूसरे दिन महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा एक ही पृष्ठ भूमि पर पूरे देश में चित्रकला प्रतियोगिता का आयोजन बाल देखभाल संस्थानों द्वारा किया जाएगा। प्रतियोगिता में हिस्सा लेने वाले बच्चो द्वारा बनायी गयी चित्रकलाओं का चयन तीन न्यायधीशों के पैनल द्वारा किया जाएगा। शेष दिनों में बच्चों के लिए एथलेटिक्स, शतंरज प्रतियोगिता और फुटबाल मैच आदि प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाएगा।

श्री श्री रविशंकर की भूमिका बताए सरकार : कांग्रेस

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नयी दिल्ली 13 नवंबर,  कांग्रेस ने आज कहा कि सरकार को यह बताना चाहिए कि अयोध्या मुद्दे के समाधान के लिए ऑर्ट ऑफ लिविंग के संस्थापक श्री श्री रविशंकर को किसने अधिकृत किया है। कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने यहां पार्टी की नियमित प्रेस ब्रीफिंग में संवाददाताओं के सवालों पर कहा “इस सवाल का विस्तृत जवाब देने से पहले हम सरकार ये पूछना चाहेंगे कि क्या श्री श्री रविशंकर जी सरकार के अधिकृत प्रतिनिधि हैं?।” उन्होंने कहा कि इस सवाल का जवाब आने पर ही पार्टी इस बारे में विस्तृतरूप से कुछ कह सकती है। इस ओर ध्यान दिलाने पर कि केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावडेकर ने कहा है कि श्री श्री रविशंकर सरकार की तरफ से अधिकृत प्रतिनिधि नहीं हैं, उन्होंने कहा कि फिर इस बारे में कोई सवाल नहीं बनता है। साथ ही कांग्रेस नेता चुटकी लेते हुए कहा कि उन्हें भरोसा है कि अयोध्या मसले का समाधान खोजने की बात कर रहे श्री श्री रविशंकर ने राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण के साथ अपने विवाद को हल कर लिया होगा। गौरतलब है कि श्री श्री रविशंकर की संस्‍था आर्ट ऑफ लिविंग के यहां यमुना तट पर आयोजित कार्यक्रम के कारण पर्यावरण को हुए को हुए नुकसान के लिए न्यायाधिकरण ने इस संस्‍था पर पांच करोड़ जुर्माना लगाया था।

बाबरी नहीं, बने मस्जिद-ए-अमन : शिया वक्फ बोर्ड

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अयोध्या/इलाहाबाद 13 नवम्बर, शिया सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने अयोध्या के विवादित धर्मस्थल पर भव्य राममंदिर निर्माण की वकालत करते हुए बाबरी मस्जिद के बजाय मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र में मस्जिद-ए-अमन तामीर कराने की मांग की है। बोर्ड के अध्यक्ष वसीम रिजवी ने इसी मसौदे पर दो दिन तक साधु-संतों से गहन विचार-विमर्श किया। वह कल अयोध्या में साधु-संतों से मिलने के बाद आज इलाहाबाद में अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष नरेन्द्र गिरि से मुलाकात की। श्री गिरि से वह कल अयोध्या में भी मिले थे। श्री रिजवी ने विवादित श्रीरामजन्मभूमि पर भव्य मंदिर का निर्माण की जोरदार वकालत की और कहा कि विवादित स्थल से हटकर मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र में मस्जिद का निर्माण होना चाहिये। जिसका नाम बाबरी के बजाय मस्जिद-ए-अमन रखा जाय। वह इसी मसौदे को आगामी पांच दिसम्बर को उच्चतम न्यायालय में पेश करने वाले हैं। श्री रिजवी ने इसी सिलसिले में आज अखिल भारतीय अखाडा परिषद के अध्यक्ष नरेन्द्र गिरि से इलाहाबाद में मुलाकात की। दोनों में करीब आधे घंटे चली एकान्त बातचीत में इस मसले पर चर्चा हुई। इससे पहले कल अयोध्या में श्री गिरि के साथ ही श्री रिजवी ने श्रीराम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष महंत नृत्यगोपाल दास, न्यास के सदस्य सुरेश दास,हनुमानगढ़ी के महंत धर्मदास, मंहत रामकुमार दास समेत कई संतों से मुलाकात कर उनके समक्ष समझौते का मसौदा पेश किया था। श्री रिजवी के अनुसार साधु-संतों ने उनके मसौदे को सही करार दिया है। उधर, मंदिर-मस्जिद विवाद के पक्षकार सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड ने श्री रिजवी के प्रयासों को महज सुर्खियां बटोरने का एक माध्यम बताया। सुन्नियों ने उनके प्रस्ताव को भी खारिज कर दिया। बाबरी मस्जिद के मुद्दई रहे हाजी मोहम्मद हाशिम अंसारी के उत्तराधिकारी मोहम्मद इकबाल अंसारी ने कहा कि श्री रिजवी मीडिया की सुर्खियां बटोरने के लिये बिना सिर पैर के मसौदे तैयार कर रहे हैें। उसका मुकदमें या मुसलमानों से कोई लेना-देना नहीं है। श्री इकबाल अंसारी ने कहा कि शिया सेंट्रल वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष वसीम रिजवी शिया तथा सुन्नी समुदाय के बीच नफरत पैदा करने के लिये मंदिर-मस्जिद विवाद के हल का प्रस्ताव लाये हैं। उन्होंने कहा कि बाबरी मस्जिद की देखभाल सुन्नी समुदाय के लोगों ने की है। यहाँ नमाज भी अता की थी। वसीम रिजवी ने कल शाम उन्हें बुलाया था। उन्होने समझौता प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करने की बात कही थी, लेकिन श्री रिजवी के प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करने के बजाय वह बैठक से उठकर ही चले गये थे। उन्होंने कहा कि वसीम रिजवी राजनीति कर रहे हैं। अपनी कुर्सी को बचाने में लगे हुए हैं। लोगों को लोकतंत्र पर भरोसा है। उन्होंने कहा कि फैजाबाद जिला न्यायालय और उच्च न्यायालय का आदेश होने के बाद उच्चतम न्यायालय में जब यह मामला पहुँचा तो अचानक शिया सेंट्रल वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष कहाँ से आ गये। इसके पहले वह कहां थे। उन्होने कहा कि इन लोगों ने शुरू से मामले की पैरवी क्यों नही की। योगी आदित्यनाथ सरकार शिया सेंट्रल वक्फ बोर्ड के चेयरमैन के खिलाफ जांच बैठा सकती है। इसीलिये उन्होंने प्रदेश की मौजूदा सरकार से नजदीकियां बढ़ाने के लिये अयोध्या आना-जाना शुरू कर दिया है। सुन्नी समुदाय को अयोध्या के संत-धर्माचार्य एवं मुस्लिम धर्माचार्यों पर पूर्ण रूप से भरोसा है।

संसद का शीतकालीन सत्र तुरंत बुलाए सरकार:कांग्रेस

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नयी दिल्ली 13 नवंबर, कांग्रेस ने संसद का शीतकालीन सत्र तुरंत बुलाने की मांग करते हुए आज आरोप लगाया कि मोदी सरकार ज्वलंत मुद्दों पर सवालों से बचने के लिए लोकतांत्रिक परंपरा काे तोड़कर गुजरात विधानसभा चुनाव के बहाने सत्र आयोजित करने में टालमटोल कर रही है। कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने यहां पार्टी की नियमित प्रेस ब्रीफिंग में संवाददाताओं से कहा कि नोटबंदी तथा आधे अधूरे जीएसटी को लागू करने से देश को हुए नुकसान, कश्मीर समस्या तथा डुकलान जैसे मुद्दों को लेकर उठने वाले वाले सवालों का संसद में जवाब देने से बचना चाहती है। उन्होंने कहा कि संसद का शीतकालीन सत्र अक्सर नवंबर के तीसरे सप्ताह में आयोजित होता है और सत्र शुरू होने से एक पखवाड़े पहले इस संबंध में सांसदों को सूचना भेज दी जाती है लेकिन अब तक कोई सूचना सांसदों को नहीं भेजी गयी है और इससे लगता है कि मोदी सरकार जनता के मुद्दों का जवाब देने की बजाय देश की लोकतांत्रिक परंपरा को तोड़ने की कोशिश कर रही है। प्रवक्ता ने कहा कि सत्र को समय पर बुलाना और इसके लिए सभी तैयारी करना सरकार की जिम्मेदारी है। पहले शीतकालीन सत्र के लिए नोटिस नवंबर के पहले पखवाड़े की शुरुआत में मिल जाते थे लेकिन इस बार पखवाड़ा खत्म हो रहा है और अब तक इस बारे में कोई सूचना नहीं दी गयी है।

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