महालक्ष्मी सांसारिक, दैहिक, दैविक और भौतिक दृश्य-अदृश्य सभी प्रकार की संपत्तियों एवं निधियों की अधिष्ठात्री है। दीपावली का दिन महालक्ष्मी की पूजा का श्रेष्ठ दिन है। इस दिन शास्त्रोक्त विधान से किया गया लक्ष्मी पूजन व्यक्ति को समस्त भौतिक सुख-समृद्धि प्रदान कर वर्ष भर आने वाली आर्थिक समस्याओं को दूर करता है। भगवान गणेश सिद्धि-बुद्धि एवं शुभ-लाभ के दाता तथा सभी अमंगलों एवं अशुभों के नाशक हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि बिना बुद्धि और ज्ञान के लक्ष्मी प्राप्ति असंभव है। अतः लक्ष्मी के साथ बुद्धिमता गणेश एवं ज्ञान की देवी मां सरस्वती का पूजन अनिवार्य है।
दीपावली सिर्फ उत्सव या त्योहार भर ही नहीं, बल्कि किसी की पूरी जिंदगी व तमाम जिंदगियों का उजाला भी है। शायद यही वजह भी है कि दीवाली के दिन इसकी रौनक देखने लायक बनती है। अर्श से लेकर फर्श तक चमचमाते नजर आते है। मकान-दुकान-दफतर सबके कोने-काने में स्वच्छता झलकती है। बच्चे हो या फिर बड़े-बुजुर्ग या फिर नौजवान, सबके सब खुशियों से इस कदर इठलाते-मुस्कारते-झुमते नजर आते है जैसे मानों पूरा जहान उनकी मुठ्ठी में समाया हो। चाहे वह अमीर हो या गरीब सभी के चेहरे की रौनक अट्हास करती दिखती है। मतलब दीपावली जिंदगी को प्रकाश से रु-ब-रु कराने के अलावा अच्छाई की ओर ले जाने के साथ ही साफ-सफाई का भी सिख उसी तरह देता है, जिस तरह शरद की अमावस्या की कालरात्रि को भेदकर कण-कण प्रकाशित करता है। वैसे भी दीपावली एक पर्व श्रृंखला की शुरुवात है। धनतेरस, नरकचतुर्दशी से प्रारंभ होकर दीपावली, गोवर्धन पूजा, यमद्वितीया के बाद छठ पूजा की गहमागहमी के बाद क्षीर सागर में चीर नीद्रा में सो रहे भगवान विष्णु भी जाग उठते है। बाजारों में रौनक तो देखते ही बनती है। महालक्ष्मी सांसारिक, दैहिक, दैविक और भौतिक दृश्य-अदृश्य सभी प्रकार की संपत्तियों एवं निधियों की अधिष्ठात्री है। दीपावली का दिन महालक्ष्मी की पूजा का श्रेष्ठ दिन है। इस दिन शास्त्रोक्त विधान से किया गया लक्ष्मी पूजन व्यक्ति को समस्त भौतिक सुख-समृद्धि प्रदान कर वर्ष भर आने वाली आर्थिक समस्याओं को दूर करता है। कहा यह भी जाता है कि लक्ष्मी पूजन का यह पर्व चोर-साहूकार सबके लिए समान फलदायी है। साधु-असाधु सभी लक्ष्मी की चकाचैंध में लिप्त होते है।
भगवान गणेश सिध्दि-बुध्दि एवं शुभ-लाभ के दाता तथा सभी अमंगलों एवं अशुभों के नाशक हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि बिना बुद्धि और ज्ञान के लक्ष्मी प्राप्ति असंभव है। अतः लक्ष्मी के साथ बुद्धिमता गणेश एवं ज्ञान की देवी मां सरस्वती का पूजन अनिवार्य है। दीपावली की रात्रि को महानिशीथ के नाम से जाना जाता है। और इस रात्रि में कई प्रकार के तंत्र-मंत्र से महालक्ष्मी की पूजा-अर्चना कर पूरे साल के लिए सुख-समृद्धि और धन लाभ की कामना की जाती है। दीपावली का सामाजिक और धार्मिक दोनों दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है। इसे दीपोत्सव भी कहते हैं। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अर्थात् ‘अंधेरे से ज्योति अर्थात प्रकाश की ओर जाइए’ यह उपनिषदोंकी आज्ञा है। इसे सिख, बौद्ध तथा जैन धर्म के लोग भी मनाते हैं। दीपावली से दो दिन पूर्व धनतेरस का त्योहार आता है। इस दिन बाजारों में चारों तरफ जनसमूह उमड़ पड़ता है। बरतनों की दुकानों पर विशेष साज-सज्जा व भीड़ दिखाई देती है। धनतेरस के दिन बरतन खरीदना शुभ माना जाता है अतैव प्रत्येक परिवार अपनी-अपनी आवश्यकता अनुसार कुछ न कुछ खरीदारी करता है। इस दिन तुलसी या घर के द्वार पर एक दीपक जलाया जाता है। इससे अगले दिन नरक चतुर्दशी या छोटी दीपावली होती है। इस दिन यम पूजा हेतु दीपक जलाए जाते हैं। अगले दिन दीपावली आती है। इस दिन घरों में सुबह से ही तरह-तरह के पकवान बनाए जाते हैं। बाजारों में खील-बताशे, मिठाइयाँ, खांड़ के खिलौने, लक्ष्मी-गणेश आदि की मूर्तियाँ बिकने लगती हैं। स्थान-स्थान पर आतिशबाजी और पटाखों की दूकानें सजी होती हैं। सुबह से ही लोग रिश्तेदारों, मित्रों, सगे-संबंधियों के घर मिठाइयाँ व उपहार बाँटने लगते हैं। पूजा के बाद लोग अपने-अपने घरों के बाहर दीपक व मोमबत्तियाँ जलाकर रखते हैं। चारों ओर चमकते दीपक अत्यंत सुंदर दिखाई देते हैं। रंग-बिरंगे बिजली के बल्बों से बाजार व गलियाँ जगमगा उठते हैं। बच्चे तरह-तरह के पटाखों व आतिशबाजियों का आनंद लेते हैं। रंग-बिरंगी फुलझडि़याँ, आतिशबाजियाँ व अनारों के जलने का आनंद प्रत्येक आयु के लोग लेते हैं। देर रात तक कार्तिक की अँधेरी रात पूर्णिमा से भी से भी अधिक प्रकाशयुक्त दिखाई पड़ती है। दीपावली से अगले दिन गोवर्धन पर्वत अपनी अँगुली पर उठाकर इंद्र के कोप से डूबते ब्रजवासियों को बनाया था। इसी दिन लोग अपने गाय-बैलों को सजाते हैं तथा गोबर का पर्वत बनाकर पूजा करते हैं। अगले दिन भाई दूज का पर्व होता है। दीपावली के दूसरे दिन व्यापारी अपने पुराने बहीखाते बदल देते हैं। वे दूकानों पर लक्ष्मी पूजन करते हैं। उनका मानना है कि ऐसा करने से धन की देवी लक्ष्मी की उन पर विशेष अनुकंपा रहेगी। कृषक वर्ग के लिये इस पर्व का विशेष महत्त्व है। खरीफ की फसल पक कर तैयार हो जाने से कृषकों के खलिहान समृद्ध हो जाते हैं। कृषक समाज अपनी समृद्धि का यह पर्व उल्लासपूर्वक मनाता हैं। अंधकार पर प्रकाश की विजय का यह पर्व समाज में उल्लास, भाई-चारे व प्रेम का संदेश फैलाता है। यह पर्व सामूहिक व व्यक्तिगत दोनों तरह से मनाए जाने वाला ऐसा विशिष्ट पर्व है जो धार्मिक, सांस्कृतिक व सामाजिक विशिष्टता रखता है। कार्तिक मास की अमावस्या के दिन भगवान विष्णु क्षीरसागर की तरंग पर सुख से सोते हैं और लक्ष्मी जी भी दैत्य भय से विमुख होकर कमल के उदर में सुख से सोती हैं। इसलिए मनुष्यों को सुख प्राप्ति का उत्सव विधिपूर्वक करना चाहिएं।
पूजन सामग्री
महालक्ष्मी पूजन में केसर, रोली, चावल, पान का पत्ता, कुंकम, मौली, सुपारी, फल, फूल, दूध, खील, बतासे, सिन्दूर, सूखे मेवे, मिठाई, दही गंगाजल धूप, कपूर, अगरबत्ती दीपक रुई, कलावा, अक्षत, हल्दी, लौंग, इलायची, पंचामृत यज्ञोपवीत, वस्त्र, नैवेद्य, आसन, पंचपात्र, नारियल और कलश होना चाहिए।
पूजन की तैयारी
थाल में या भूमि को शुद्ध करके नवग्रह बनाएं या नवग्रह का यंत्र स्थापित करें। इसके साथ ही एक ताम्बे का कलश रखें, जिसमें गंगाजल, दूध, दही, शहद, सुपारी, सिक्के और लौंग आदि डालकर उसे लाल कपड़े से ढक कर उसपर एक कच्चा नारियल कलावे से बांध कर रख दें। जहां पर नवग्रह यंत्र बनाया है, वहां पर रुपया, सोना या चांदी का सिक्का, लक्ष्मी जी की मूर्ति या मिट्टी के बने हुए लक्ष्मी-गणेश सरस्वती या ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवी देवताओं की मूर्तियां या चित्र सजायें। कोई धातु की मूर्ति हो तो उसे साक्षात रूप मानकर दूध, दही और गंगाजल से स्नान कराकर अक्षत, चंदन का श्रृंगार करके फल-फूल आदि से सजाएं। इसके दाहिने ओर एक पंचमुखी दीपक अवश्य जलायें जिसमें घी या तिल का तेल प्रयोग किया जाता है। दीवाली के दिन की विशेषता लक्ष्मी जी के पूजन से संबन्धित है। इस दिन हर घर, परिवार, कार्यालय में लक्ष्मी जी के पूजन के रूप में उनका स्वागत किया जाता है। दीवाली के दिन जहां गृहस्थ और कारोबारी धन की देवी लक्ष्मी से समृद्धि और धन की कामना करते हैं, वहीं साधु-संत और तांत्रिक कुछ विशेष सिद्धियां अर्जित करने के लिए रात्रिकाल में अपने तांत्रिक कर्म करते हैं।
गणेश-लक्ष्मी पूजा विधि
घर के बड़े-बुजुर्गों को या नित्य पूजा-पाठ करने वालों को महालक्ष्मी पूजन के लिए व्रत रखना चाहिए। घर के सभी सदस्यों को महालक्ष्मी पूजन के समय घर से बाहर नहीं जाना चाहिए। सभी सदस्य स्नान करके पवित्र आसन पर बैठकर आचमन, प्राणायाम करके स्वस्ति वाचन करें। फिर लक्ष्मी-गणेशजी का स्मरण करें कि-‘पदमासनां, पद्मकरां पद्ममाला विभूषितां। क्षीर सागरसंभूतां हेमवर्ण समप्रभां। क्षीरवर्ण समं वस्त्रं दधानां हरिवल्लभां। भावने भक्तियोगेन भार्गवीं कमलां शुभा।। श्री महालक्ष्म्यै नमः ध्यानं समर्पयामि।’ इसके बाद अपने दाहिने हाथ में गन्ध, अक्षत, पुष्प, दूर्वा, द्रव्य और जल आदि लेकर दीपावली महोत्सव के निमित्त गणेश, अम्बिका, महालक्ष्मी, महासरस्वती, महाकाली, कुबेर आदि देवी-देवताओं के पूजनार्थ संकल्प करें। कुबेर पूजन करना लाभकारी होता है। कुबेर पूजन करने के लिये सबसे पहले तिजोरी अथवा धन रखने के संदूक पर स्वास्तिक का चिन्ह बनायें, और कुबेर का आह्वान करें। सबसे पहले गणेश और अम्बिका का पूजन करें, फिर कलश स्थापन, षोडशमातृका पूजन और नवग्रह पूजन करके महालक्ष्मी आदि देवी-देवताओं का पूजन करें। पूजन के बाद सभी सदस्य प्रसन्न मुद्रा में घर में सजावट और आतिशबाजी का आयोजन करें। हाथ में अक्षत, पुष्प, जल और धन राशि ले लें। यह सब हाथ में लेकर यह संकल्प मंत्र को बोलते हुए संकल्प कीजिए कि ‘मैं अमुक व्यक्ति अमुक स्थान और समय पर अमुक देवी-देवता की पूजा करने जा रहा हूं जिससे मुझे शास्त्रोक्त फल प्राप्त हो’। सबसे पहले गणेश जी और गौरी का पूजन कीजिए। हाथ में थोड़ा-सा जल ले लें और भगवान का ध्यान करते हुए पूजा सामग्री चढ़ाएं। हाथ में अक्षत और पुष्प ले लें। अंत में महालक्ष्मी जी की आरती के साथ पूजा का समापन करें। घर पूरा धन-धान्य और सुख-समृद्धि हो जाएगा। दीपावली का विधिवत-पूजन करने के बाद घी का दीपक जलाकर महालक्ष्मी जी की आरती की जाती है। आरती के लिए एक थाली में रोली से स्वास्तिक बनाएं। उस में कुछ अक्षत और पुष्प डालें, गाय के घी का चार मुखी दीपक चलायें और मां लक्ष्मी की शंख, घंटी, डमरू आदि के बीच ॐ न तत्र सूर्याभति न चंद्रतारकं। नेमा विद्युतो भान्ति कृतोयमग्निः। तमेव भान्त। अनुभाति सर्व तस्यभाषा सर्व मिदं विभाति॥ श्री महालक्ष्मै नमः नीराजनं समर्पयामि।’ का गान करते हुए आरती उतारें। आरती करते समय परिवार के सभी सदस्य एक साथ होने चाहिए। परिवार के प्रत्येक सदस्य को माता लक्ष्मी के सामने सात बार आरती घूमानी चाहिए। सात बार होने के बाद आरती की थाली को लाइन में खड़े परिवार के अगले सदस्य को दे देना चाहिए। यही क्रिया सभी सदस्यों को करना चाहिए। दीपावली पर सरस्वती पूजन करने का भी विधान है। इसके लिए लक्ष्मी पूजन करने के पश्चात मां सरस्वती का भी पूजन करना चाहिए। दीपावली एवं धनत्रयोदशी पर महालक्ष्मी के पूजन के साथ-साथ धनाध्यक्ष कुबेर का पूजन भी किया जाता है। कुबेर पूजन करने से घर में स्थायी सम्पत्ति में वृद्धि होती है और धन का अभाव दूर होता है। पूजन कार्य प्रसन्नचित्त होकर श्रध्दा-भक्तिपूर्वक, पूर्वाभिमुख या फिर उत्तर की ओर मुंह करके करें।
बही-खाता आदि का पूजन
बही खातों, लैपटाप, कंप्यूटर आदि का पूजन करने के लिए पूजा मुहुर्त समय अवधि में नवीन खाता पुस्तकों व इससे संबंधितों पर केसर युक्त चंदन से या फिर लाल कुमकुम से स्वास्तिक का चिन्ह बनाना चाहिए। इसके बाद इनके ऊपर ‘श्री गणेशाय नमरू’ लिखना चाहिए। फिर एक नई थैली लेकर उसमें हल्दी की पांच गांठे, कमलगट्ठा, अक्षत, दुर्गा, धनिया व दक्षिणा रखकर, थैली में भी स्वास्तिक का चिन्ह लगाकर सरस्वती मां का स्मरण करना चाहिए। मां सरस्वती का ध्यान करें, जो मां अपने कर कमलों में घटा, शूल, हल, शंख, मूसल, चक्र, धनुष और बाण धारण करती हैं, चन्द्र के समान जिनकी मनोहर कांति है, जो शुंभ आदि दैत्यों का नाश करने वाली है। ‘वाणी’ जिनका स्वरुप है, तथा जो सच्चिदानन्दमय से संपन्न हैं, उन भगवती महासरस्वती का मैं ध्यान करता हूं। ध्यान करने के बाद बही खातों का गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्ध से पूजन करना चाहिए। जहां पर नवग्रह यंत्र बनाया गया है वहां पर रुपया, सोना या चांदी का सिक्का, लक्ष्मी जी की मूर्ति या मिट्टी के बने हुए लक्ष्मी-गणेश-सरस्वती जी की मूर्तियां सजायें। कोई धातु की मूर्ति हो तो उसे साक्षात रुप मानकर दूध, दही ओर गंगाजल से स्नान कराकर अक्षत, चंदन का श्रृंगार करके फूल आदि से सजाएं। इसके दाहिने और एक पंचमुखी दीपक अवश्य जलायें, जिसमें घी या तिल का तेल प्रयोग किया जाता है। पूजन के बाद घर के सभी कोनों में एक-एक दीप जलता हुआ रख दें। साथ ही नदी, तालाब या कुंए के किनारे, मंदिर के द्वार तथा वृक्ष के नीचे भी दिया जला कर रख दें।
क्यों होती है आतिशबाजी
दीपावली के दिन आतिशबाजी की प्रथा के पीछे धारण यह है कि दीपावली-अमावस्या से पितरों की रात आरम्भ होती है। कहीं वे मार्ग भटक न जाएं, इसलिए उनके लिए प्रकाश की व्यवस्था इस रूप में की जाती है। इस प्रथा का बंगाल में विशेष प्रचलन है। दीपावली पर कहीं-कहीं जुआ भी खेला जाता है। इसका प्रधान लक्ष्य वर्ष भर के भाग्य की परीक्षा करना है। इस प्रथा के साथ भगवान शंकर तथा पार्वती के जुआ खेलने के प्रसंग को भी जोड़ा जाता है, जिसमें भगवान शंकर पराजित हो गए थे।
सूप पीटना
रात्रि की ब्रह्मबेला अर्थात प्रातःकाल चार बजे उठकर स्त्रियां पुराने सूप में कूड़ा रखकर उसे दूर फेंकने के लिए ले जाती हैं तथा सूप पीटकर दरिद्रता भगाती हैं। सूप पीटने का तात्पर्य यह है कि आज से लक्ष्मीजी का वास हो गया। दुख दरिद्रता का सर्वनाश हो। फिर घर आकर स्त्रियां कहती हैं- इस घर से दरिद्र चला गया है। हे लक्ष्मी जी! आप निर्भय होकर यहाँ निवास करिए।
क्यों होती है लक्ष्मी-गणेश की पूजा साथ-साथ
पौराणिक कथानुसार, एक राजा ने एक लकड़हारे पर प्रसन्न होकर उसे एक चंदन की लकड़ी का जंगल उपहार स्वरुप दे दिया पर लकड़हारा तो ठहरा लकड़हारा, भला उसे चंदन की लकड़ी का महत्व क्या मालूम, वह जंगल से चंदन की लकडि़यां लाकर उन्हें जलाकर, भोजन बनाने के लिये प्रयोग करता था। जब राजा को अपने गुप्तचरों से पता चला तो, उसकी समझ में आ गया कि, धन का उपयोग भी बुद्धिमान व्यक्ति ही कर पाता है। यही कारण है कि लक्ष्मी जी और श्री गणेश जी की एक साथ पूजा की जाती है। ताकि व्यक्ति को धन के साथ-साथ उसे प्रयोग करने कि योग्यता भी आयें। वैसे भी दर्शन के क्षेत्र में ज्ञान और अज्ञान विशिष्ट अर्थो में प्रकट होते है। देखा जाएं तो हमारे सब तरफ अज्ञान ही अज्ञान है। लाखों में से किसी एक को ज्ञान प्राप्त होता है। अज्ञान का मतलब है सांसारिकता। हम सभी की त्रासदी यह है कि हम सभी एक ढर्रेदार जिंदगी जीए चले जाते है। कभी भी यह नहीं जानना चाहते िकइस तमाम सारी भागदौड़ का मकसद क्या है? कभी यह प्रश्न नहीं पूछते कि वजह क्या रही होगी यहां दुनिया में आने की। नास्तित्व से अस्तित्व में हम आएं तो क्यों आएं। शायद यह प्रश्न हम डर के कारण नहीं पूछते। डर अर्थात अंधकार। यह डर हमारे भीतर कहां से आया है? यह डर उस अंधकार से आया है जिसे हमने जन्म के साथ झेला था। हम जिस अंधी सुरंग से होकर पृथ्वी पर गिरते है हमारी वह यात्रा अंधकार की दमघोटू माहौल में हुई थी। अंधकार का ऐसा तृक्ष्ण अनुभव हमें जिंदगी भर नहीं भूलता। लेकिन दीवाली की याद व अनुभव हमें दूनी जिजीविषा के साथ हर चुनौती को दूने साहस के साथ लड़ने की शक्ति भी प्रदान करता है और अंधकार की चर्चा से बचने की युक्ति भी सुझाता है।
राम के अयोध्या लौटने की खुखी में मनता है दीवाली
धार्मिक ग्रन्थ रामायण के अनुसार, जब 14 साल का वनवास काट कर राजा राम, लंका नरेश रावण का वध कर, वापस अयोध्या आये थे, उन्ही के वापस आने की खुशी में अयोध्या वासियों ने अयोध्या को दीयों से सजाया था। अपने भगवान के आने की खुशी में अयोध्या नगरी दीयों की रोशनी में जगमगा उठी थी। मतलब वह राम जो सबके है, भारत के इतिहास में रोशनी का प्रतीक है। राम ने रावण के अहंकार को चुनौती दी, उसकी आत्मा के अंदर व्याप्त अंधकार को भगाया। और इस तरह राम हम सबके दिलों में जगमगाएं यानी सारे समाज को अच्छाई के रास्ते पर चलने की प्रेरणा दी। भगवान श्रीकृष्ण ने दीपावली से एक दिन पहले नरकासुर का वध किया था। नरकासुर एक दानव था और उसके पृथ्वी लोक को उसके आतंक से मुक्त किया था। इसी कारण बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक के रूप में भी दीपावली पर्व मनाया जाता है। भगवान विंष्णु ने नरसिंह रुप धारणकर हिरण्यकश्यप का वध किया था। तथा इसी दिन समुद्रमंथन के पश्चात लक्ष्मी व धन्वंतरि प्रकट हुए।
जैन मतावलंबियों के अनुसार चैबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी का निर्वाण दिवस भी दीपावली को ही है।
सिक्खो की दीवाली
सिक्खों के लिए भी दीवाली महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसी दिन ही अमृतसर में वर्ष 1577 में स्वर्ण मन्दिर का शिलान्यास हुआ था। इसके अलावा 1619 में दीवाली के दिन सिक्खों के छठे गुरु हरगोबिन्द सिंह जी को जेल से रिहा किया गया था। नेपालियों के लिए यह त्योहार इसलिए महान है क्योंकि इस दिन से नेपाल संवत में नया वर्ष शुरू होता है। पंजाब में जन्मे स्वामी रामतीर्थ का जन्म व महाप्रयाण दोनों दीपावली के दिन ही हुआ। इन्होंने दीपावली के दिन गंगातट पर स्नान करते समय ओम कहते हुए समाधि ले ली। महर्षि दयानन्द ने भारतीय संस्कृति के महान जननायक बनकर दीपावली के दिन अजमेर के निकट अवसान लिया। इन्होंने आर्य समाज की स्थापना की। दीन-ए-इलाही के प्रवर्तक मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल में दौलतखाने के सामने 40 गज ऊँचे बाँस पर एक बड़ा आकाशदीप दीपावली के दिन लटकाया जाता था। बादशाह जहाँगीर भी दीपावली धूमधाम से मनाते थे। मुगल वंश के अंतिम सम्राट बहादुर शाह जफर दीपावली को त्योहार के रूप में मनाते थे और इस अवसर पर आयोजित कार्यक्रमों में वे भाग लेते थे। शाह आलम द्वितीय के समय में समूचे शाही महल को दीपों से सजाया जाता था एवं लालकिले में आयोजित कार्यक्रमों में हिन्दू-मुसलमान दोनों भाग लेते थे।
एक अन्य कथा के अनुसार एक गांव में एक साहूकार था, उसकी बेटी प्रतिदिन पीपल पर जल चढ़ाने जाती थी। जिस पीपल के पेड़ पर वह जल चढ़ाती थी, उस पेड़ पर लक्ष्मी जी का वास था। एक दिन लक्ष्मी जी ने साहूकार की बेटी से कहा ‘मैं तुम्हारी मित्र बनना चाहती हूं’। लड़की ने कहा की ‘मैं अपने पिता से पूछ कर आऊंगी’। यह बात उसने अपने पिता को बताई, तो पिता ने ‘हां’ कर दी। दूसरे दिन से साहूकार की बेटी ने सहेली बनना स्वीकार कर लिया। दोनों अच्छे मित्रों की तरह आपस में बातचीत करने लगे। एक दिन लक्ष्मीजी साहूकार की बेटी को अपने घर ले गई। अपने घर में लक्ष्मी जी उसका दिल खोल कर स्वागत किया। उसकी खूब खातिर की. उसे अनेक प्रकार के भोजन परोसे। मेहमाननवाजी के बाद जब साहूकार की बेटी लौटने लगी तो, लक्ष्मी जी ने प्रश्न किया कि अब तुम मुझे कब अपने घर बुलाओगी। साहूकार की बेटी ने लक्ष्मी जी को अपने घर बुला तो लिया, परन्तु अपने घर की आर्थिक स्थिति देख कर वह उदास हो गई। उसे डर लग रहा था कि क्या वह, लक्ष्मी जी का अच्छे से स्वागत कर पायेगीं। साहूकार ने अपनी बेटी को उदास देखा तो वह समझ गया, उसने अपनी बेटी को समझाया, कि तू फौरन मिट्टी से चैका लगा कर साफ-सफाई कर। चार बत्ती के मुखवाला दिया जला, और लक्ष्मी जी का नाम लेकर बैठ जा। उसी समय एक चील किसी रानी का नौलखा हार लेकर उसके पास डाल गया। साहूकार की बेटी ने उस हार को बेचकर भोजन की तैयारी की। थोड़ी देर में श्रीगणेश के साथ लक्ष्मी जी उसके घर आ गई। साहूकार की बेटी ने दोनों की खूब सेवा की, उसकी खातिर से लक्ष्मी जी बहुत प्रसन्न हुई। इसके बाद वो साहूकार बहुत अमीर बन गया।
एक अन्य कथा के अनुसार एक बार देवताओं के राजा इन्द्र से डर कर राक्षस राज बलि कहीं जाकर छुप गये। देवराज इन्द्र दैत्य राज को ढूंढते-ढूंढते एक खाली घर में पहुंचे, वहां बलि गधे के रूप में छुपे हुए थे। दोनों की आपस में बातचीत होने लगी। उन दोनों की बातचीत अभी चल ही रही थी, कि उसी समय दैत्यराज बलि के शरीर से एक स्त्री बाहर निकली। देवराज इन्द्र के पूछने पर स्त्री ने कहा कि ‘मै, देवी लक्ष्मी हूं। मैं स्वभाववश एक स्थान पर टिककर नहीं रहती हूं’। परन्तु मैं उसी स्थान पर स्थिर होकर रहती हूं, जहां सत्य, दान, व्रत, तप, पराक्रम तथा धर्म रहते हैं। जो व्यक्ति सत्यवादी होता है, ब्राह्मणों का हितैषी होता है, धर्म की मर्यादा का पालन करता है, उसी के यहां मैं निवास करती हूं। इसके अलावा यह भी कहा जाता है कि महाप्रतापी तथा दानवीर राजा बलि ने अपने बाहुबल से तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर ली, तब बलि से भयभीत देवताओं की प्रार्थना पर भगवान विष्णु ने वामन रूप धारण कर प्रतापी राजा बलि से तीन पग पृथ्वी दान के रूप में मांगी। महाप्रतापी राजा बलि ने भगवान विष्णु की चालाकी को समझते हुए भी याचक को निराश नहीं किया और तीन पग पृथ्वी दान में दे दी। राजा बलि की दानशीलता से प्रभावित होकर भगवान विष्णु ने उन्हें पाताल लोक का राज्य दे दिया, साथ ही यह भी आश्वासन दिया कि उनकी याद में भू लोकवासी प्रत्येक वर्ष दीपावली मनाएंगे। यह भी कहा जाता है कि ’राक्षसों का वध करने के लिए मां देवी ने महाकाली का रूप धारण किया। राक्षसों का वध करने के बाद भी जब महाकाली का क्रोध कम नहीं हुआ तब भगवान शिव स्वयं उनके चरणों में लेट गए। भगवान शिव के शरीर स्पर्श मात्र से ही देवी महाकाली का क्रोध समाप्त हो गया। इसी की याद में उनके शांत रूप लक्ष्मी की पूजा की शुरुआत हुई। इसी रात इनके रौद्ररूप काली की पूजा का भी विधान है। ईसा पूर्व चैथी शताब्दी में रचित कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार कार्तिक अमावस्या के अवसर पर मंदिरों और घाटों (नदी के किनारे) पर बड़े पैमाने पर दीप जलाए जाते थे। रात्रि के समय प्रत्येक घर में धनधान्य की अधिष्ठात्री देवी महालक्ष्मीजी, विघ्न-विनाशक गणेश जी और विद्या एवं कला की देवी मातेश्वरी सरस्वती देवी की पूजा-आराधना की जाती है। ब्रह्मपुराण के अनुसार कार्तिक अमावस्या की इस अंधेरी रात्रि अर्थात अर्धरात्रि में महालक्ष्मी स्वयं भूलोक में आती हैं और प्रत्येक सद्गृहस्थ के घर में विचरण करती हैं। जो घर हर प्रकार से स्वच्छ, शुद्ध और सुंदर तरीके से सुसज्जित और प्रकाशयुक्त होता है वहां अंश रूप में ठहर जाती हैं। इसलिए इस दिन घर-बाहर को खूब साफ-सुथरा करके सजाया-संवारा जाता है। दीपावली मनाने से लक्ष्मीजी प्रसन्न होकर स्थायी रूप से सद्गृहस्थों के घर निवास करती हैं।
धनतेरस
वास्तव में धनतेरस, नरक चतुर्दशी (जिसे छोटी दीवाली भी कहा जाता है) तथा महालक्ष्मी पूजन- इन तीनों पर्वों का मिश्रण है दीपावली। भारतीय पद्धति के अनुसार प्रत्येक आराधना, उपासना व अर्चना में आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक इन तीनों रूपों का समन्वित व्यवहार होता है। इस मान्यतानुसार इस उत्सव में भी सोने, चांदी, सिक्के आदि के रूप में आधिभौतिक लक्ष्मी का आधिदैविक लक्ष्मी से संबंध स्वीकार करके पूजन किया जाता हैं। घरों को दीपमाला आदि से अलंकृत करना इत्यादि कार्य लक्ष्मी के आध्यात्मिक स्वरूप की शोभा को आविर्भूत करने के लिए किए जाते हैं। इस तरह इस उत्सव में उपरोक्त तीनों प्रकार से लक्ष्मी की उपासना हो जाती है। हमारे देश में इस दिन से जुड़ी प्रचलित कथा के अनुसार राजा हिमा का 16-वर्षीय पुत्र अपनी शादी की चैथी रात को ही सांप के काटने के कारण लगभग मृत्युशैया पर पहुंच गया, परन्तु उसकी नवविवाहिता पत्नी ने अपने सभी आभूषण तथा सोने के सिक्के निकाले, अपने पति के शरीर के इर्द-गिर्द फैलाए, ढेरों दिये जलाकर चारों ओर रख दिए, तथा गीत गाने लगी... जिस समय मृत्यु के देवता यमराज राजा हिमा के पुत्र के प्राण हरने पहुंचे, दियों की गहनों से आती चमकदार रोशनी से उनकी आंखें चुंधिया गईं, तथा उसके तुरन्त बाद उनके कानों में राजकुमार की पत्नी की कर्णप्रिय आवाज सुनाई दी, और वह मंत्रमुग्ध होकर सारी रात गीत सुनते रहे... सवेरा होते ही राजकुमार की मृत्यु का समय टल गया, और यमराज को खाली हाथ मृत्युलोक लौटना पड़ा... इस तरह राजकुमारी अपने पति को मृत्यु के मुख से वापस लाने में सफल रही... उसी समय से धनतेरस का पर्व यमोदीपदान के रूप में भी मनाया जाता है, और पूरी रात घर के बाहर दीप जलाकर रखते हैं, ताकि यमराज को घर में प्रवेश से रोका जा सके। धनतेरस से जुड़ी एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार समुद्र मंथन के दौरान इसी दिन देवताओं के वैद्य माने जाने वाले धन्वन्तरि अमृत कलश लेकर सुरों-असुरों के समक्ष उपस्थित हुए थे। धनतेरस का दिन धनागमन की दृष्टि से शुभ माना जाता है, तथा पुरानी मान्यताओं के अनुसार धनतेरस पर सोने-चांदी की खरीदारी लाभदायक होती है, और माना जाता है कि नया धन घर में धनागमन के प्रवेश का प्रतीक है। दो दिन बाद दीवाली की रात में लक्ष्मी पूजन के दौरान भी धनतेरस पर खरीदी गई वस्तुओं की पूजा की जाती है। धनतेरस के अवसर पर बर्तनों, वाहनों, तथा घरेलू सामान की भी खरीदारी की जाती है। रात के समय धन्वन्तरि भगवान की पूजा करते हैं, और दिया जलाकर घर के दरवाजे पर रखते है। उससे पूर्व संध्या के समय नदी, तालाब के किनारे, अथवा कुओं-बावडि़यों की जगत पर, तथा गोशालाओं-मंदिरों में भी दिये जलाए जाते हैं।
नरक चतुर्दशी
कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी (14वीं तिथि) को दीवाली पर्व का दूसरा दिन मनाया जाता है, जिसे नर्क चतुर्दशी अथवा नरक चैदस कहा जाता है। इस दिन को आम बोलचाल में छोटी दीवाली भी कहते हैं। इस दिन भी कुछ स्थानों पर पटाखे जलाए जाते हैं, तथा दीप प्रज्वलित किए जाते हैं। नरक चैदस पर सूर्योदय से पहले उठकर तेल मालिश के बाद स्नान को महत्वपूर्ण माना जाता है। यह भी माना जाता है कि दीवाली के दौरान तीन दिन तक (धनतेरस, नर्क चतुर्दशी तथा दीपावली) दीपक जलाकर विधिपूर्वक पूजन करने से मृत्यु के बाद यम यातना नहीं भोगनी पड़ती, तथा पूजन करने वाला सभी पापों से मुक्त होकर स्वर्ग को प्राप्त होता है। इस त्योहार को रूप चतुर्दशी भी कहा जाता है, और इसी दिन रामभक्त हनुमान का जन्म हुआ था। इस दिन से जुड़ी प्रचलित कथा के अनुसार प्रागज्योतिषपुर में नरकासुर नामक राजा हुआ करता था, जिसने युद्ध के दौरान देवराज इंद्र को परास्त करने के बाद देवमाता अदिति के कर्णफूल छीन लिए, तथा 16,100 देवपुत्रियों तथा मुनिपुत्रियों को रनिवास में कैद करके रख लिया। देवमाता अदिति देवलोक की शासक होने के साथ-साथ भगवान कृष्ण की पत्नी सत्यभामा की संबंधी थीं, जिन्हें इस घटना की सूचना मिलने पर बहुत क्रोध आया, तथा उन्होंने भगवान कृष्ण से नरकासुर को खत्म करने की अनुमति मांगी। कथानुसार नरकासुर की मृत्यु एक श्राप के कारण किसी स्त्री के हाथों ही हो सकती थी, सो, कृष्ण ने सारथि का स्थान ग्रहण कर सत्यभामा को नरकासुर से युद्ध का अवसर प्रदान किया, और अंततः सत्यभामा ने नरकासुर को पराजित कर मार डाला। जिन देवपुत्रियों तथा मुनिपुत्रियों को नरकासुर की कैद से मुक्ति दिलाई गई, भगवान कृष्ण ने उन सभी को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर उनका खोया सम्मान उन्हें लौटाया, तथा देवमाता अदिति के कर्णफूल भी उन्हें पुनः अर्पित कर दिए गए। विजय के प्रतीक चिह्न के रूप में भगवान कृष्ण ने नरकासुर के रक्त से अपने मस्तक पर तिलक किया, तथा नर्क चतुर्दशी की सुबह वह घर लौट आए, जहां उनकी पत्नियों ने उन्हें सुगंधित जल से स्नान करवाया तथा इत्र का छिड़काव किया, ताकि नरकासुर के शरीर की दुर्गन्ध भगवान के शरीर से चली जाए। ऐसी मान्यता है कि इसी कारण नर्क चतुर्दशी के दिन सायंकाल में स्नान की परम्परा आरम्भ हुई। नर्क चतुर्दशी पर संध्या के समय स्नान कर कुलदेवता तथा पुरखों की पूजा की जाती है, तथा उन्हें नैवेद्य चढ़ाकर दीप प्रज्वलित किए जाते हैं। माना जाता है कि नर्क चतुर्दशी की पूजा से घर-परिवार से नर्क अर्थात् दुरूख-विपदाओं को बाहर निकाल दिया जाता है। इस दिन घर के आंगन, बरामदे और द्वार को रंगोली से सजाया जाता है।
गोवर्धन पूजा
कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा, अर्थात कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की पहली तिथि, अर्थात दीवाली से अगले दिन गोवर्द्धन पूजा या अन्नकूट पूजा मनाया जाता है। श्रद्धालु इस दिन गाय के गोबर से गोवर्द्धन पर्वत के सम्मुख भगवान श्रीकृष्ण, गायों व बालगोपालों की आकृतियां बनाकर उनकी पूजा करते हैं। प्रचलित पौराणिक कथा के अनुसार गोकुलवासी वर्षा के देवता कहे जाने वाले इंद्र को प्रसन्न करने के लिए प्रत्येक वर्ष उनकी पूजा करते थे, लेकिन भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें ऐसा करने से रोककर गोवर्द्धन पर्वत की पूजा करने के लिए कहा। इस पर इंद्र ने क्रोधवश गोकुल पर भारी मूसलाधार बारिश करवा दी, जिससे ब्रजवासियों को बचाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने अपने हाथ की कनिष्ठा (सबसे छोटी अंगुली) पर सात दिन तक गोवर्द्धन पर्वत को उठाए रखा, तथा सभी ग्रामीणों, गोपी-गोपिकाओं, ग्वाल-बालों व पशु-पक्षियों की रक्षा की। सातवें दिन भगवान ने पर्वत को नीचे रखा और सभी गोकुलवासियों को प्रतिवर्ष गोवर्द्धन पूजा कर अन्नकूट उत्सव मनाने की आज्ञा दी। इसके बाद से ही श्रीकृष्ण भगवान गोवर्द्धनधारी के नाम से भी प्रसिद्ध हुए और इंद्र ने भी कृष्ण के ईश्वरत्व को स्वीकार कर लिया। इस दिन भगवान की पूजा के उपरान्त विविध खाद्य सामग्रियों से उन्हें भोग लगाया जाता है।
भैयादूज व चित्रगुप्त पूजा
दीपावली के पांच-दिवसीय महापर्व का अंतिम पड़ाव होता है- भैयादूज। यह भाई-बहन के अगाध प्रेम का प्रतीक है, तथा इस दिन बहनें अपने भाइयों को भोजन कराकर तिलक करती हैं तथा उनके कल्याण व दीर्घायु की कामना करती हैं, और भाई भी बहनों को आशीर्वाद देकर भेंट दिया करते हैं। यह भी कहा जाता है कि दीवाली का महापर्व भैयादूज के बिना सम्पूर्ण नहीं होता। कथानुसार यमराज इस दिन अपनी बहन यमुना के घर गए थे, जिसने यमराज की पूजा कर उनके मंगल, आनन्द तथा समृद्धि की कामना की, सो, तभी से सभी बहनें इसी दिन अपने भाइयों की रक्षा के लिए पूजा करती आई हैं। कहा यह भी जाता है कि इसी दिन भगवान महावीर ने निर्वाण प्राप्त किया था, जिससे उनके भाई राजा नंदीवर्द्धन बहुत व्यथित हुए... तब उनकी बहन सुदर्शना ने उन्हें काफी दिलासा दी, तथा उनकी सुख-शांति तथा रक्षा के लिए पूजा-अर्चना की। तभी से सभी महिलाएं भैयादूज मनाकर अपने भाइयों की रक्षा की प्रार्थना करती आई हैं। विधि के अनुसार बहनें इस दिन अपने भाई की दीर्घायु की कामना करते हुए उपवास रखती हैं, तथा सुबह स्नान के उपरान्त पूजा की थाली सजाकर भाई का तिलक करती हैं तथा बुरी नजर से बचाने के लिए उनकी आरती उतारती हैं। इसके एवज में भाई भी बहनों को उपहार दिया करते हैं। भैयादूज के दिन ही जीवों के पाप-पुण्य का लेखा-जोखा रखने वाले भगवान चित्रगुप्त की पूजा-अर्चना भी की जाती है, जिसे श्दवात पूजाश् के नाम से भी जाना जाता है, और कलम-दवात की पूजा की जाती है। मान्यता है कि सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा ने अपने शरीर के विभिन्न अंगों से 17 पुत्रों की रचना की तथी, जिनमें चित्रगुप्त अंतिम थे। चित्रगुप्त की उत्पत्ति ब्रह्मा जी के पेट से हुई मानी जाती है, सो, यही कारण है कि ब्रह्मा के अन्य पुत्रों से इतर चित्रगुप्त का जन्म पुरुष काया के साथ हुआ, और इसी कायाधारी होने के कारण ही इन्हें कायस्थ नाम से भी जाना जाता है।
(सुरेश गांधी)