हमारा देश एक विविधताओं से भरा देश है, जहाँ का खान-पान, बोल-चाल, रहन-सहन, पहनावा-ओढावा सब कुछ दुरी के हिसाब से बदलती रहती है | अगर हम खान-पान की बाते करे तो शाकाहारियों और मांसाहारियों के बीच फर्क तो है ही, लेकिन मांसाहारियों के बीच भी अलग अलग प्रकार के खांचे बटे हुए है | भारतीय बाजार के नजरिया से देखा जाय तो बीफ उद्योग और इसका निर्यात बहूत पुरानी बात नही है | हमारे देश में अंतिम दो दशको से इसका प्रभाव काफी बढा है, जिसे एक अच्छी अर्थव्यवस्था की रीढ़ के रूप में भी देखा जा सकता है | वही दूसरी ओर इसे धार्मिक परिपेक्ष में नकारा भी जाता रहा है | इसी धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र की सियासत से कभी कभी राजनितिक सियासत को भी अपनी रोटियां सेकने का मौका भी मिल जाता है | अमेरिका के कृषि विभाग के डेटा के मुताबिक, पांच वर्षो में कई बड़े देशो को पीछे छोड़ते हुए भारत दुनिया का नंबर एक देश बना है जिसमे ब्राजील और ऑस्ट्रेलिया जैसे प्रमुख निर्यातक देश भी शामिल है |
अगर हम आकड़ो की तरफ नजर गडाएंगे तो पाएंगे कि वित्त वर्ष 2014-15 में भारत ने 24 लाख टन बीफ का मांस निर्यात किया था। वहीं, ब्राजील ने इस दौरान 20 लाख टन और ऑस्ट्रेलिया ने 15 लाख टन बीफ निर्यात किया था। दुनिया में निर्यात होने वाले कुल बीफ में 58.7 फीसदी की हिस्सेदारी इन्हीं तीन देशों की है, जिसमें अकेले भारत 23.5 फीसीदी बीफ निर्यात करता है। पिछले वित्त वर्ष (2013-14) में भारत की भागीदारी 20.8 फीसदी की थी। इस लिहाज से बीफ एक्सपोर्ट में भारत ने प्रगति की है। अगर अर्थव्यवस्था के लिहाज से देखा जाए तो आने वाले समय में रीढ़ की हड्डी साबित हो सकती है उसके पीछे कारण यह है कि भारत में बीफ की खपत, आकर और जनसँख्या के हिसाब से बहूत कम है जबकी यहाँ पर पशुओ का उत्पादन काफी अच्छा है | अगर अनुपयोगी जानवरों से अर्थव्यवस्था को लाभ मिल सकता है और पशुपालन करने वाले किसानो को पूंजी, तो मुझे लगता है मीट निर्यात करने से दिक्कत नहीं होनी चाहिए, क्युकी खाने वाले लोग विदेशों में खाएँगे ही, वो बात अलग है हमारा बाजार किसी और के हाथो में चला जाएगा |
वैश्विक स्तर पर अगर भारत के बाजार को निहारे तो पाएंगे कि भारत मूलतः दक्षिण पूर्व एशिया के देशो जैसे वियतनाम, मलेशिया, फिलिपिन्स देशो को काफी मात्रा में मांस निर्यात करता है, इन देशों में विशेषतौर पर भैंस के मांसों को ज्यादातर पसंद किया जाता है | इसके अलावां भारत, खाड़ी देशो जैसे सऊदी अरब, मिश्र, सिरिया, इराक, इरान, क़तर जैसे देशो को भी निर्यात करते आया है | कुछ अफ्रीका महाद्वीप के देशों जैसे घाना, गैबन, अलोंग, अल्जरिया को भी निर्यात करता रहा है | आज के समय में इसकी मांग निरंतर तेज होती जा रही है |
राजनितिक रोटियां सकने के लिए एक प्रकार का अन्धविश्वास आस्था को लेकर लोगो के बीच फैलाया जाता है जिसमे धर्मशास्त्र का भरपूर इस्तेमाल किया जाता है | लेकिन कुछ ऐसे उदहारण आपको देखेंगे जिसमे बहूत सारी थ्योरी खूंटी पर टंगती नजर आएंगी, जिसमे स्वामी विवेकानन्द जी ने भी बीफ को लेकर आपत्ति नहीं जताई थी | रही बात आस्था की तो, उत्तर पूर्वी भारत को छोड़कर पुरे देश में गौ हत्या पर पूरी तरह बैन है यहाँ तक की कश्मीर में भी | आस्था की वजह से विदेशो में एक्सपोर्ट होने वाली मासों में गौ मांस का निर्यात नियमतः बिल्कुल नही होता | सामान्यतः तीन प्रकार की मीट का निर्यात होता है जिसमे पहला प्रकार भैंसों की मांस का है जो ज्यादातर वियतनाम, थाईलैंड, और मलेशिया जैसे देशो में निर्यात होता है | दूसरे केटेगरी में बकरे और भेंडीयो का मांस आता है और तीसरे प्रकार में पोल्ट्री का मांस आता है जिसे अलग अलग देशो में निर्यात किया जाता है | एक और विडम्बना धार्मिक परिपेक्ष में आता है कि ज्यादातर मुसलमान ही इस तरह का कारोबार करते है, जबकी सच्चाई यह है कि ज्यादातर कंपनियों के मालिक हिन्दू धर्म से सम्बन्ध रखते है |
एक और बात बड़ी ही महत्वपूर्ण यह है कि कई राजनितिक पार्टीयों द्वारा यह दलील यह आता है कि मवेशियों से कई प्रकार से आर्युवैदिक सम्बन्ध और दूध उत्पादन का एक बड़ा जरिया भी है | जानवरों से निकलने वाले प्रोडक्ट को उर्वरक के रूप में भी देखा जाता है | अगर हम कृषि मंत्रालय के आकडे को मिलाएंगे तो पाएँगे कि 2007-2008 में दूध उत्पादन भारत में 10.7 करोड़ टन था वही 2010-2011 में बढ़कर 12.11 और 2011-2012 में 12.80 करोड़ टन हो गया | तो यह कहना बिल्कुल गलत होगा कि मीट निर्यात से दूध उत्पादन पर कोई बूरा असर पड़ा है | उसके पीछे कारण यह है कि एक संस्था है एपीडा जो की किसी कंपनी को मीट निकालने और निर्यात करने के लिए लाइसेंस प्रदान करती है | अगर आप इमानदारी से एपीडा नियम और कानूनों का जायजा लेगे, तो आप पाएँगे कि वहाँ प्रत्येक बातों का बहूत बखूबी ध्यान रखकर बनाया गया है | जिसमे धार्मिक सम्बन्ध कि वजह से गाय के मीट का निर्यात करना एक दंडनीय अपराध है इसपर सख्त कदम भी उठाए गये है जिसमे कंपनियों का लाइसेंस भी रद्द किए जाने का प्रावधान है और जिन बड़े जानवरों का उपयोग किया जाता है वो दुधारू नहीं होनी चाहिए |
यही नहीं, एपीडा में इस बात की भी पुष्टि की गई है कि सिर्फ उन्ही जानवरों का मांस उपयोग किया जाता है जिनका किसानों के लिए कोई उपयोग नहीं है और मेडिकली फिट हो जिससे उपभोक्ता के स्वस्थ्य पर बुरा असर न पड़े | पशुओ के निर्ममता का भी बखूबी ध्यान रखा जाता है और पूरी तरह से जांच पड़ताल कर लेने के बाद ही मांस निकालने का काम किया जाता है | ऐसे में मुझे नहीं लगता कि किसानों की बलि चढ़ती नजर आती हो या उनका कोई घाटा हो क्युकी अनुपयोगी पशुओ को बेचने से एक पूंजी उन्हें मिल जाती है जिससे वे नए पशुओ को आसानी से खरीदकर दूध उत्पादन में मदद कर सकते है | इसके अलावां बाईप्रोडक्ट में निकलने वाले हड्डियों का मेडिसिन बनाने के लिए और चमडो का तमाम वस्तुएं बनाने के लिए उपयोग किया जाता है | निकलने वाले ब्लड को मत्स्यपालन करने वाले किसानो के लिए काम आ जाता है जिसे मछलियों को आहार के रूप में दिया जाता है क्युकी उसमे प्रोटीन की मात्रा ज्यादा पाई जाती है | यही नहीं पर्यावरण को भी ध्यान में रखते हुए उसके बाईप्रोडक्ट्स को डिकोमपोज करने का प्रावधान भी नियम का एक हिस्सा है |
ये व्यवसाय राजनीती, धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र के समीकरण में बुरी तरह से उलझी हुई है जबकी होना ये चाहिए था कि इसे एक पोटेंशियल के रूप में देखा जाना चाहिए था | मै इसे राजनीती के रूप में इसलिए भी देखता हु क्युकी ये जब बैन किया जाता है तभी उनकी आवाजे उठनी शुरू होती है, जहाँ बैन नहीं है खासकर उत्तरपूर्वी राज्यों में वहाँ बैन करने की मांगे क्यों नहीं उठती क्युकी वर्तमान के वोटों का ध्रुवीकरण ही तमाम पार्टियों का प्राथमिक उद्देश्य रहता है, धर्मशास्त्र तो द्वितीय उद्देश्य में ही आता दिखता है | जबकी होना ये चाहिए, कि इसके लिए एक यूनिफार्म बिल पास करवानी चाहिए जिसमे स्वच्छता और निर्यात के लिए जाँच समिति की गठन करने की मांग की जाए | नए बुचडखानों को तब तक लाइसेंस न दी जाए जब तक पुराने बुचडखानों पर सक्रिय रूप से एपीडा का नियम नहीं लग जाता | मादा भैंसों को काटने पर प्रतिबन्ध और प्रदुषण से सम्बंधित बातो को ध्यान में रखकर कानून सख्त करने वाली जाँच समिति बनाने की मांग करनी चाहिए | हमें सिर्फ कटाक्ष करने के बजाए हल के माध्यम से किसी निष्कर्ष की ओर बढ़ने की कोशिश करनी चाहिए |
गौरव सिंह
वेल्लोर