मुखमण्डल पर दाढ़ी, मस्तक पर जटाएँ, भालप्रदेश पर चन्दन का टीका, कंधे पर भिक्षा के लिए झोली तथा एक हाथ में जपमाला व कमण्डलु और दूसरे हाथ में योगदण्ड (कुबड़ी) लिए व पैरों में लकड़ी की पादुकाएँ धारण किये भक्ति, ज्ञान व वैराग्य से ओत-प्रोत व्यक्तित्व के स्वामी समर्थ रामदास भारत के ऐसे सन्त हैं, जिनकी महाराष्ट्र तथा सम्पूर्ण दक्षिण भारत में प्रत्यक्ष हनुमान जी के अवतार के रूप में पूजा की जाती है । भारत के साधु-सन्तों व विद्वत समाज में लोकख्यात आध्यात्मिक सत्पुरुष गुरु समर्थ स्वामी रामदास के जन्म स्थल जाम्ब गाँव में तो उनकी मूर्ति मन्दिर में स्थापित की गयी है। कहा जाता है कि समर्थ रामदास के मूर्ति स्थापना के समय अनेक विद्वानों ने कहा कि मनुष्यों की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा देवताओं के समान नहीं की जा सकती, परन्तु समर्थ रामदास के हनुमान जी के अवतार वाली जन मान्यता के सम्मुख उन्हें झुकना पड़ा। योगशास्त्र के अनुसार उनकी भूचरी मुद्रा थी। मुख में सदैव रामनाम का जाप चलता था और बहुत कम बोलते थे। समकालीन ग्रंथों में उल्लेखित प्रसंगों के अनुसार वे संगीत के उत्तम जानकार थे। उन्होनें अनेकों रागों में गायी जाने वाली रचनाएँ की हैं। वे प्रतिदिन बारह सौ सूर्य नमस्कार लगाते थे। इस कारण शरीर अत्यंत बलवान था। जीवन के अंतिम कुछ वर्ष छोड़ कर पूरे जीवन में वे कभी एक जगह पर नहीं रुके। उनका वास्तव्य दुर्गम गुफाएँ पर्वत शिखर, नदी के किनारें तथा घने अरण्य में रहता था। बचपन से ही किसी बात को एक बार सुनकर याद कर लेने की अद्भुत शक्ति उनमें विद्यमान थी। रामदास स्वामी ने अपने जीवन काल में बहुत से ग्रंथ लिखे। इनमें दासबोध प्रमुख है। उन्होंने मानव मन को भी 'मनाचे श्लोक'के द्वारा संस्कारित करने का कार्य किया । इनके इस ग्रन्थ में मात्र छः श्लोकों में ही मन को वश मे रखने के लिये अनेक शिक्षाप्रद उदहारण दिये गये है ।
महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त और हिन्दू पद पादशाही के संस्थापक छत्रपति शिवाजी के गुरु एवं मराठी ग्रन्थ दासबोध के रचयिता समर्थ रामदास (1608-1682) का जन्म महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले के जाम्ब नामक स्थान पर चैत्र शुक्ल नवमी अर्थात रामनवमी को विक्रम सम्वत् 1665 तदनुसार शालिवाहन शके 1530 (1608 ई0) को दोपहर में जमदग्नी गोत्र के देशस्थ ऋग्वेदी ब्राह्मण परिवार में हुआ था । समर्थ रामदास का मूल नाम नारायण सूर्य (सूर्या) जी पंत कुलकर्णी (ठोसर) था । बाल्यकाल में उन्हें नारायण कहकर पुकारा जाता था । श्री राम के जन्म दिन श्रीरामनवमी के दिन इनका जन्म होने के कारण इनका नाम रामदास रखा गया । एक अन्य कथा के अनुसार, बचपन में ही उन्हें साक्षात प्रभु श्रीराम के दर्शन हुए थे। इसलिए वे अपने आपको रामदास कहलाते थे। समर्थ रामदास के पिता का नाम सूर्यजी पन्त तथा उनकी माता का नाम राणुबाई था। सूर्याजी पन्त सूर्यदेव के उपासक थे और प्रतिदिन 'आदित्यह्रदय'स्तोत्र का पाठ करते थे। वे गाँव के पटवारी थे लेकिन उनका अधिकांश समय सूर्योपासना में ही व्यतीत होता था। माता राणुबाई संत एकनाथ जी के परिवार की दूर की रिश्तेदार थी। वे भी सूर्य नारायण की उपासिका थीं। सूर्यदेव की कृपा से सूर्याजी पन्त को दो पुत्र गंगाधर स्वामी और नारायण (समर्थ रामदास) प्राप्त हुए। समर्थ रामदास के बड़े भाई का नाम गंगाधर को सब 'श्रेष्ठ'कहते थे। वे आध्यात्मिक सत्पुरुष थे। उन्होंने सुगमोपाय नामक ग्रन्थ की रचना की है। मामा भानजी गोसावी प्रसिद्ध कीर्तनकार थे।
बाल्यकाल में ही एक दिन माता राणुबाई ने नारायण से कहा, तुम दिन भर शरारत करते रहते हो, कुछ काम-धाम किया करो। नहीं देखते, तुम्हारे बड़े भाई गंगाधर अपने परिवार की कितनी चिंता किया करते हैं ? माँ की यह बात नारायण के मन में घर कर गई और दो-तीन दिन बाद नारायण अपनी शरारत छोड़कर एक कमरे में ध्यानमग्न बैठ गये । दिन भर नारायण के कहीं नहीं दिखलाई देने पर माता ने बड़े पुत्र गंगाधर से पूछा कि तुम्हारा अनुज नारायण कहाँ है ? गंगाधर के नारायण को नहीं देखने की बात कहने पर दोनों को इस बात की चिंता हुई और वे उन्हें ढूँढने निकल पड़े, परन्तु उनका कहीं कोई पता नहीं चला। शाम होने पर माता राणुबाई ने घर के एक कमरे में नारायण को ध्यानस्थ देखा तो उनसे पूछा, नारायण, तुम यहाँ क्या कर रहे हो? तब नारायण ने प्रत्युत्तर दिया, मैं सम्पूर्ण विश्व की चिंता कर रहा हूँ। कहा जाता है कि इस घटना के पश्चात नारायण की दिनचर्या ही बदल गई। सात वर्ष की अवस्था में उन्होंने हनुमान जी को अपना गुरु मान लिया। इसके बाद तो उनका अधिकांश समय हनुमान मन्दिर में पूजा में बीतने लगा। कहा जाता है कि, एक बार उन्होंने निश्चय किया कि जब तक मुझे हनुमान जी दर्शन नहीं देंगे, तब तक मैं अन्न जल ग्रहण नहीं करूँगा। यह संकल्प देखकर हनुमान जी प्रकट हुए और उन्हें श्रीराम के दर्शन भी कराये। रामचन्द्र जी ने उनका नाम नारायण से बदलकर रामदास कर दिया। समर्थ रामदास ने समाज के युवा वर्ग को यह समझाया कि स्वस्थ एवं सुगठित शरीर के द्वारा ही राष्ट्र की उन्नति संभव है। इसलिए युवाओं को व्यायाम एवं कसरत करने की नितांत आवश्यकता है ।इसके साथ ही उन्होंने शक्ति के उपासक हनुमानजी की मूर्ति की स्थापना की। समस्त भारत का उन्होंने पद-भ्रमण किया। जगह-जगह पर हनुमान की मूर्ति स्थापित की, स्थान-स्थान पर मठ एवं मठाधीश बनाए ताकि सम्पूर्ण राष्ट्र में नव-चेतना का निर्माण हो। उनके जीवन की विचित्र बात यह भी है कि बारह वर्ष की अवस्था में अपने विवाह के समय शुभमंगल सावधान में ‘शुभम लग्नम सावधानं भव’ सावधान शब्द सुनकर वे विवाह मंडप से निकल लापता हो गए । गृह त्याग करने के बाद बारह वर्ष के नारायण नासिक के पास नंदिनी और गोदावरी नदियों के संगम स्थल पर बसे टाकली नामक गाँव की भूमि को अपनी तपोभूमि बनाने का निश्चय करके वहाँ उन्होंने कठोर तप शुरू कर दिया ।वे प्रातः ब्रह्ममुहूर्त में उठकर प्रतिदिन बारह सौ सूर्यनमस्कार लगाते, तत्पश्चात गोदावरी नदी में खड़े होकर राम नाम और गायत्री मंत्र का जाप किया करते थे। मध्याह्न काल अर्थात दोपहर में सिर्फ पाँच घर की भिक्षा माँग कर वह प्रभु श्रीराम को भोग लगाते थे। उसके बाद प्रसाद का भाग प्राणियों और पंछियों को खिलाने के बाद स्वयं ग्रहण किया करते थे। दोपहर में वे वेद, वेदांत, उपनिषद्, शास्त्र ग्रन्थोंका अध्ययन करते थे ।उसके बाद फिर नाम जप करते थे। कहा जाता है कि उन्होंने तेरह करोड़ राम नाम जप बारह वर्षों में पूरा किया । ऐसा कठोर तप बारह वर्षों तक करते हुए उन्होंने स्वयं एक रामायण लिखा। यही पर उन्होंने प्रभु श्रीरामचन्द्र की प्रार्थनायें रची हैं , जो आज करुणाष्टक नाम से प्रसिद्ध है । तप करने के बाद उन्हें आत्म साक्षात्कार हुआ, तब उनकी आयु मात्र चौबीस वर्षों की थी। टाकली में ही समर्थ रामदास ने प्रथम हनुमान का मंदिर स्थापन किया । यहीं उनका नाम रामदास पड़ा। वे सदैव जय जय रघुवीर समर्थ कहा करते अर्थात नारा लगाया करते थे। इसलिये लोग उन्हें समर्थ गुरु रामदास कहने लगे। आत्मसाक्षात्कार होने के बाद समर्थ रामदास तीर्थयात्रा पर निकल पड़े और बारह वर्षों तक भारत का भ्रमण करते रहे। घूमते-घूमते वे हिमालय पर पहुँचे और हिमालय का पवित्र वातावरण देखने के बाद मूलतः विरक्त स्वभाव के रामदास के मन का वैराग्यभाव जागृत हो गया । उनके मन में ऐसा विचार आया कि अब इस देह को धारण करने की क्या जरुरत है ? ऐसा विचार कर उन्होंने स्वयं को एक हजार फीट की ऊँचाई से मंदाकिनी नदी में झोंक दिया अर्थात नदी में कूद गये । लेकिन उसी समय प्रभुराम ने उन्हें ऊपर ही उठा अर्थात खींच लिया और धर्म कार्य करने की प्रेरणा व आज्ञा दी । इस पर अपने शरीर को धर्म के लिए अर्पित कर देने का निश्चय कर वे तीर्थ यात्रा के लिए निकल पड़े और यात्रा करते हुए वे श्रीनगर आ गये ।
श्रीनगर में उनकी भेंट सिखों के गुरु हरगोविंद सिंहजी महाराज से हुई । गुरु हरगोविंद महाराज ने उन्हें धर्म रक्षा हेतु शस्त्र सज्ज रहने का मार्गदर्शन किया । श्रीनगर प्रवास काल में उन्होंने हिन्दुओं की दुर्दशा तथा उन पर हो रहे मुसलमानों के भीषण अत्याचार को प्रत्यक्ष देखा । वे समझ गये कि हिन्दुओं के संगठन के बिना भारत का उद्धार नहीं हो सकता। हिन्दुओं की दुर्दशा देख समर्थ रामदास का हृदय संतप्त हो उठा और उन्होंने मोक्षसाधना के साथ ही अपने जीवन का लक्ष्य स्वराज्य की स्थापना द्वारा आततायी मुगल शासकों के अत्याचारों से जनता को मुक्ति दिलाना बना लिया। शासन के विरुद्ध जनता को संगठित होने का उपदेश देते हुए वे घूमने लगे। इसी प्रयत्न में उन्हें छत्रपति श्रीशिवाजी महाराज जैसे योग्य शिष्य का लाभ हुआ और स्वराज्य स्थापना के स्वप्न को साकार होते हुए देखने का सौभाग्य उन्हें अपने जीवनकाल में ही प्राप्त हो सका। उस समय महाराष्ट्र में मराठों का शासन था और शिवाजी महाराज समर्थ रामदास के कार्य से बहुत प्रभावित हुए । इतना प्रभावित कि जब इनका मिलन हुआ, तब शिवाजी महाराज ने अपना राज्य ही समर्थ रामदास की झोली में डाल दिया। इस पर रामदास ने शिवाजी से कहा- यह राज्य न तुम्हारा है न मेरा। यह राज्य भगवान का है, हम सिर्फ़ इसके न्यासी हैं। शिवाजी समय-समय पर उनसे सलाह-मशविरा किया करते थे। छत्रपति शिवाजी और रामदास स्वामी पहली बार 1674 ई० में मिले और शिवाजी ने रामदास स्वामी को अपना धार्मिक गुरु व मार्गदर्शक मान लिया था । उन्होंने शके 1603 तदनुसार सन 1682 में 73 वर्ष की अवस्था में महाराष्ट्र में सज्जनगढ़ नामक स्थान पर समाधि ली। मुर्दे में जान आ जाने की उनके जीवन से जुड़ी एक सच्ची घटना के अनुसार, एक घनी व्यक्ति श्री अग्निहोत्री की मृत्यु हो गई। अग्निहोत्रीजी की पत्नी ने सती होने का प्रण लिया हुआ। अतः वह समस्त आभूषणों से सुसज्जित अपने पति की चिता पर अपने को बलिदान करने जा रही थी । तभी संत समर्थ रामदास उधर से गुजर रहे थे और बिना शव को देखे ही उस महिला के प्रणाम करने पर उसको ‘अस्तापुत्र सौभाग्यवती भव‘ का आशीर्वाद दे डाला । स्त्री के द्वारा रोते-रोते संत को शव की ओर संकेत किये जाने पर पर समर्थ रामदास ने पास की बह रही गोदावरी नदी से चुल्लू भर पानी लिया और ईश्वर से प्राथना करते हुई वह जल शव पर झिड़क दिया। मुर्दे मे जान आ गयी और अग्निहोत्री जी उठ गये। उनके शिष्यमंडली में , कल्याण स्वामी, उध्दव स्वामी, दत्तात्रय स्वामी , आचार्य गोपालदास, भीम स्वामी, दिनकर स्वामी, केशव स्वामी, हणमंत स्वामी,रघुनाथ स्वामी,रंगनाथ स्वामी,भोला राम, वेणा बाई, आक्का बाई, अनंतबुवा मेथवडेकर, दिवाकर स्वामी, वासुदेव स्वामी, गिरिधर स्वामी,मेरु स्वामी,अनंत कवी, प्रभु दर्शन आदि भी शामिल हैं । समर्थ रामदास ने दासबोध, आत्माराम, मनोबोध, चौदह शतक ,जन्स्वभावा,पञ्च समाधी ,पुकाश मानस पूजा ,जुना राय बोध राम गीत आदि ग्रंथों की रचना की है। मानपंचक, पंचीकरण, चतुर्थमान, बाग़ प्रकरण, स्फूट अभंग इत्यादि समर्थ रामदास की अन्य रचनाएँ हैं। यह सभी रचनाएँ मराठी भाषा के ओवी नामक छंद में हैं। गुरु-शिष्य संवाद रूप में रचित समर्थ रामदास का प्रमुख ग्रन्थ दासबोध उन्होनें अपने परम शिष्य योगिराज कल्याण स्वामी के हाथों से महाराष्ट्र के शिवथर घल (गुफा) नामक रम्य एवं दुर्गम गुफा में लिखवाया। उनके द्वारा रची गयी 90 से अधिक आरतियाँ महाराष्ट्र के घर- घर में गायी जातीं हैं। आपने सैंकड़ो अभंग भी लिखें हैं। समर्थ स्वयं अद्वैत वेदान्ती एवं भक्तिमार्गी संत थे किन्तु उन्होंने तत्कालीन समाज की अवस्था देखकर ग्रंथों में राजनीति, प्रपंच, व्यवस्थापन शास्त्र, इत्यादि अनेक विषयों का मार्गदर्शन किया है । समर्थ रामदास ने सरल प्रवाही शब्दों में देवी देवताओं के 100 से अधिक स्तोत्र लिखें हैं।
अपने शिष्यों के द्वारा समाज में एक चैतन्यदायी संगठन खड़ा करने वाले समर्थ रामदास जी ने सतारा जिले में चाफल नामक गाँव में केवल भिक्षावृति से प्राप्त धन से भव्य श्रीराम मंदिर का निर्माण किया। कश्मीर से कन्याकुमारी तक उन्होंने 1100 मठ तथा अखाड़े स्थापित कर स्वराज्य स्थापना हेतु जनता को तैयार करने का प्रयत्न किया। शक्ति एवं भक्ति के आदर्श श्री हनुमान जी की मूर्तियाँ उन्होनें गाँव- गाँव में स्थापित कर अपने सभी शिष्यों को विभिन्न प्रांतों में भेजकर भक्तिमार्ग तथा कर्मयोग की सीख जन-जन में प्रचारित करने की आज्ञा दी । युवाओं को बल सम्पन्न करने हेतु सूर्यनमस्कार का प्रचार किया। समर्थजी नें 350 वर्ष पहले संत वेणा स्वामी जैसी विधवा महिला को मठपति का दायित्व देकर कीर्तन का अधिकार दिया। अपने जीवन का अंतिम समय उन्होंने सातारा के पास परली के किले पर व्यतीत किया। इस किले का नाम सज्जनगढ़ पड़ा। तमिलनाडु प्रान्त के तंजावर ग्राम में रहने वाले अरणिकर नाम के अंध कारीगर ने श्रीराम, सीता और लक्ष्मण की मूर्ति बनाकर सज्जनगढ़ को भेज दी। इसी मूर्ति के सामने समर्थजी ने अंतिम पांच दिन निर्जल उपवास किया। और पूर्वसूचना देकर माघ वद्य नवमी शालिवाहन शक1603 तदनुसार सन 1682 को राम नाम जाप करते हुए पद्मासन में बैठकर ब्रह्मलीन हो गए। वहीं उनकी समाधि स्थित है। यह समाधि दिवस दासनवमी के नाम से जाना जाता हैं।
-अशोक “प्रवृद्ध”-