अक्सर लोग कहते हैं कि यह जीवन एक यात्रा है। ऐसा इसलिए कहते हैं क्योंकि इसमें कई प्रकार के उतार-चढ़ाव आते हैं। जब इंसान जन्म लेता है, तब से इस यात्रा की शुरुआत होती है और मृत्यु के साथ इसका समापन होता है। लेकिन यात्रा सफल तब होती है, जब हम जीने का सही अर्थ जान लेते हैं। लेकिन प्रश्न है कि जीने का सही तरीका कैसे हाथ लगे?
एक आदमी जंगल में कोयला बनाने का काम करता था। वह जंगल में जाता, लकडि़यां काटता और कोयला बनाता। जेठ का महीना। चिलचिलाती धूप। मध्याह्न का समय। एक ओर आग और दूसरी ओर सूर्य का तीव्र ताप। उसे प्यास लगी। पास में पानी थोड़ा था। उसने कंठ गीला किया और यह सोचकर सो गया कि जागते रहने से प्यास अधिक लगेगी। स्वप्न आया। उसने देखा कि वह एक समुद्र के पास खड़ा है, प्यास तीव्र है। उसने समुद्र का सारा पानी पी लिया है। फिर भी प्यास नहीं बुझी। अब उसने सोचा, क्या करूं? वहां से वह चला। सरोवरों और नदियों के पास गया। उनका सारा पानी पी गया, फिर भी प्यास ज्यों-की-त्यों बनी रही। वह बुझी नहीं। तालाब और कुओं पर गया। उनका भी पानी समाप्त कर दिया। प्यास नहीं बुझी। फिर वह तलैया पर गया। पानी सूख गया था। कीचड़ था। उसने कीचड़ में घास पूला डाला। वह कुछ गीला हो गया। उसने सोचा, इसको मुंह में निचोड़कर प्यास बुझाऊं। जिस आदमी की प्यास समुद्र, सरोवर, नदी-नालों और कुओं से नहीं बुझी, क्या उसकी प्यास उस घास के पूले से टपकने वाली दस-बीस बूंदों से बुझ पाएगी? कभी संभव नहीं है।
इस प्रकार भ्रामक एवं गलत दृष्टिकोण मनुष्य में ऐसी प्यास जगा देता है कि तीनों लोक के सारे पदार्थ उपलब्ध हो जाने पर भी वह बुझती नहीं। वह अमिट प्यास बन जाती है। अमीरों को चिन्ता है यश, वैभव और प्रतिष्ठा को ऊंचाई कैसे दें और गरीबों को चिन्ता है कि हम पापी पेट के लिये दो जून रोटी की जुगाड़ कैसे करें? रोटी, मकान और कपड़े की पर्याप्त जरूरतों के बाद पदार्थों का संग्रह, उपभोग और उनके जुगाड़ में भागदौड़ सभी कुछ मनुष्य आदतन करता है,क्योंकि ज्यादातर सुख-सुविधाएं शरीर की नहीं, केवल मन की मांग हैं जोे अन्तहीन तृष्णा को जन्म देती है। यही समस्याओं का कारण है और यही जिन्दगी के वास्तविक सुख से वंचित करता है। जिन्दगी की यात्रा को गुमराह एवं भटकाव की दिशा देता है। हर इंसान इस यात्रा के किसी न किसी पड़ाव से गुजर रहा है। हर व्यक्ति इसे अपने तरीके से जीना चाहता है, हर व्यक्ति का अपना जीवन दर्शन है, जबकि जीवन यात्रा को सार्थक बनाने में धर्म और ज्ञान की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
यही मंत्र इंसान को बाहरी और आंतरिक विकास की ओर आगे बढ़ाता है। जीवन में कई प्रकार के राग, द्वेष, झूठ, पाखंड, लोभ, कपट और अहंकार जैसे अवगुण भरे पड़े हैं। लेकिन इसी के साथ पवित्रता, सचाई, करुणा और मैत्री जैसे भाव भी दिखाई पड़ते हैं। यह हमारा अपना निर्णय होता है किन भावों को अपने जीवन में धारण करें। सार्थक जीवन यात्रा का नियम यह है कि अवगुणों से सदा दूर रहें। ग्रोचो मार्क्स ने सफल जीवन का सूत्र देते हुए कहा है कि हर सुबह जब मैं अपनी आंखे खोलता हूं तो अपने आप से कहता हूं कि आज मुझमें स्वयं को खुश या उदास रखने का सामर्थ्य है न कि घटनाओं में, मैं इस बात को चुन सकता हूं कि यह क्या होगी, कल तो जा चुका है, कल अभी आया नहीं है, मेरे पास केवल एक दिन है, आज तथा मैं दिन भर प्रसन्न रहूंगा। हम सोचते हैं कि जिसने भौतिक संपदा अर्जित की है, बड़े-बड़े भवन बनाए हैं, सांसारिक भोग विलास की वस्तुएं जुटा रखी हैं, वह जीवन में सफल हो गया। परन्तु वह पहुंचा कहां? सच तो यह है कि रेशमी गद्दों पर उबासियां लेते हुए जागते रहने का अहसास कभी किसी को उज्ज्वल भविष्य नहीं दे सकता । ऐेसे लोगों के कर्तृत्व की गतिशीलता थम जाती है। उनका चिन्तन, स्वभाव, संस्कार सभी कुछ गलत दिशा में मुड़ जाता है। वे अच्छाइयों का श्रेय औरों को बांट नहीं सकते और बुराइयां के लिये स्वयं की समीक्षा नहीं कर सकते कि मैं कहां गलत हूं? इसीलिये हेलन केलर ने कहा था कि जब खुशियों का एक द्वार बंद होता है तो दूसरा खुल जाता है। लेकिन हम अक्सर बंद दरवाजे को ही इतनी देर तक ताकते रह जाते हैं कि हम उस दरवाजे की तरफ देख ही नहीं पाते जो हमारे लिए खोला गया है।
जीवन तो सरल है, लेकिन हमने ही इसे जटिल बना दिया है। जब हम पैदा होते हैं तब हमारे पास कुछ नहीं होता। लेकिन यहां से कूच करने के वक्त तक हम इतना कुछ जमा कर लेते हैं कि उसे छोड़ते नहीं बनता। और जाना फिर भी खाली हाथ ही होता है। बुरे कर्मों के कारण जीवन की राह अंधकारमय हो गई है। बाइबिल में यीशु कहते हैं, जो अंधकार में चलता है वह लड़खड़ाता है और गिरता है। लेकिन जो सूर्य के प्रकाश में चलता है वह लड़खड़ाता नहीं है। स्टीफन कोवि की मार्मिक उक्ति है कि अपनी कल्पना को जीवन का मार्गदर्शक बनाएं, अपने अतीत को नहीं। यही बात महावीर ने दूसरे ढंग से कही। उन्होंने कहा, जैसे ओस की बूंद घास की नोक पर थोड़ी देर तक ही रहती है, वैसे ही मनुष्य का जीवन भी बहुत छोटा है, शीघ्र ही नष्ट हो जाने वाला है। खणं जाणाहि पंडिए-जो क्षण को जानता है, वह संसार के सत्य को जानता है। जहां ज्ञान है वहीं सत्य है और यही दर्शन बोध देता है कि समय नहीं बीतता, हमीं बीत रहे हैं- पल, पल प्रतिपल। इसलिए क्षण को भी बर्बाद न करे।
मनुष्य अपनी बुराइयों की गांठें अपने अंदर में बांधता है। बाहर से वे गांठें दिखाई नहीं देंती। इसलिए उनकी चिंता भी नहीं करता। अगर, बाहर कोई गांठ हो जाती है तो हैरान होकर तत्काल चिकित्सक के पास जाता है, उसका उपचार करता है। किन्तु जिनका उपचार उसे करना चाहिए, उस ओर ध्यान नहीं जाता। अहंकार के मंद में डूब कर जीवन के ध्येय से विमुख हो जाता है। ऐसे में वह सब कुछ जीत लेना चाहता है, लेकिन सच्ची जीत तो स्वयं को ही जीतना है जो कहां संभव हो पाती है? पाबलो पिकासो ने उचित ही कहा है कि प्रत्येक बच्चा एक कलाकार होता है, समस्या यह है कि युवा होने पर कलाकार कैसे बने रहा जाए? महावीर ने कहा है, जो तुम अपने लिए चाहते हो, वही दूसरों के लिए भी चाहो। और जो तुम अपने लिए नहीं चाहते, वह दूसरों के लिए भी मत चाहो। साधारणतः तुम जो अपने लिए चाहते हो, वह दूसरों के लिए नहीं चाहते, क्योंकि फिर तो अपने लिए चाहने का कोई अर्थ ही न रहा। तुम एक महल बनाना चाहते हो, तो पाओगे कि असल में तुम चाहते हो कि दूसरा कोई ऐसा महल न बना ले। अगर सभी के पास वैसे ही महल हों, तो फिर तुम्हें मजा ही नहीं आएगा। फिर तो उस उपलब्धि का अर्थ ही क्या रहा! तुम एक स्त्री या पुरुष चाहते हो, तो तुम भीतर यह भी चाहते हो कि ऐसा सुंदर साथी किसी और को न मिले अन्यथा कांटा चुभेगा। वह बस तुम्हें मिले, और वैसी सुंदर स्त्री में भी तुम अपने अहंकार को ही भरना चाहते हो। अपने महल में भी अहंकार को ही भरना चाहते हो। तुम जो अपने लिए चाहते हो, वह तुम दूसरे के लिए कभी नहीं चाहते। तुम दूसरे के लिए उससे विपरीत चाहते हो। अपने लिए सुख, दूसरे के लिए दुख। क्योंकि जीवन प्रतिस्पर्धा है, प्रतियोगिता है, महत्वाकांक्षा है, पागलपन है, छीन-झपट है, गलाघोंट संघर्ष है।
लेकिन सुख हमारा दूसरे के दुख में है। सारी प्रसन्नता किसी की उदासी पर खड़ी है। सारा धन दूसरे की निर्धनता में है। लाख तुम दूसरे के दुख में सहानुभूति प्रगट करो, जब भी दूसरा दुखी होता है, कहीं गहरे में तुम सुखी होते हो। और तुम्हारी सहानुभूति में भी तुम्हारे सुख की भनक होती है। स्टीफन आर. कोवे ने कहा भी है कि प्रेरणा अंतर्मन से उत्पन्न होने वाली आग है, यदि आपके भीतर इस आग को जलाने का प्रयास किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किया जाता है तो इस बात की संभावना है कि यह थोड़ी ही देर जलेगी। जब कोई सुखी होता है, तब तुम अपना सुख प्रगट करने नहीं जाते, तब तो ईष्र्या पकड़ लेती है। तब तुम कहते हो- धोखेबाज है, बेईमान है। तब परमात्मा से कहते हो, यह क्या हो रहा है तेरे जगत में? पापी और व्यभिचारी जीत रहे हैं और पुण्यात्मा हार रहे हैं। पुण्यात्मा यानी तुम! पापी यानी वे सब जो जीत रहे हैं। जब भी कोई जीत जाता है तो तुम अपने को सांत्वना देते हो कि जरूर किसी गलत ढंग से जीत गया होगा, कोई बेईमानी की होगी, रिश्वत दी होगी, कोई रिश्तेदारी खोज ली होगी।
अपने लिए वही चाहो जो तुम दूसरे के लिए भी चाहते हों। और जो तुम अपने लिए नहीं चाहते वह दूसरे के लिए भी मत चाहो। इसके बाद अचानक तुम पाओगे कि तुम्हारे जीवन की आपाधापी खो गई। अचानक तुम पाओगे कि प्रतिस्पर्धा मिट गई। महत्वाकांक्षा की जगह न रही। यही से जिन्दगी सही मायने में शुरू होती है। इसी सन्दर्भ में अमरीकी दार्शनिक विलियम जेम्स ने कहा है कि मानव अपनी सोच की आंतरिक प्रवृति को बदलकर अपने जीवन के बाह्य पहलूओं को बदल सकता है। हम स्वयं शांतिपूर्ण जीवन जीये और सभी के लिये शांतिपूर्ण जीवन की कामना करें। ऐसा संकल्प और ऐसा जीवन सचमुच जीवन को सार्थक बना सकते हैं।
(ललित गर्ग)
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