सीएम अखिलेश यादव जो चाहते थे, उन्होंने रथ यात्रा के जरिए साबित कर दिखाया। जुटी भीड़ के जरिए पिता मुलायम सिंह यादव एवं चाचा शिवपाल को बता दिया कि वह बच्चे नहीं है। जमीनी नेता बन चुके है। वह सपा के चेहरा है और बहुमत उन्हीं के बूते मिला था यानी पिता की ‘कृपा’ पर सीएम नहीं बन थे। रहा सवाल कुनबे की एकजुटता का तो मंच पर चाचा-भतीजे की तल्खी साफ-साफ दिखी। युवाओं के बीच से लग रहे नारों, हाथापाई और शहर में लगी होर्डिंग्स से चाचा का नदारद होना संकेत दे रहा था कि दिलों की दूरी कम नहीं हुई है। इसका असर नीचे कार्यकर्ताओं तक पहुंच गया है और उनके पाले बंट चुके हैं
फिरहाल, अखिलेश ने मुलायम व शिवपाल को रथयात्रा के जरिए बता दिया है कि यूपी में उनकी हैसियत क्या है। जो भीड़ जुटी वह अखिलेश के नाम और चेहरे पर जुटी है। भीड़ उन्हीं लोगों ने जुटाई है जिन्हें चाचा ने पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया है। भीड़ में उमड़ी दो तिहाई युवाओं की मौजूदगी यह तस्दीक कर रही थी कि वह युवाओं के निर्विवादित नेता हैं। वह युवाओं के हीरों हैं। यह अलग बात है कि रह-रह कर अखिलेश के नारों से झल्लाएं मुलायम सिंह ने मंच पर भी अखिलेश व उनकी टीम को निशाने पर लेते हुए कहा, ‘केवल नारा लगाने से काम नहीं चलेगा, जब जनेश्वर मिश्रा पर लाठीचार्ज हुआ, उनका सिर फूटा तो नौजवान गायब थे। जवानी कुरबान के नारे लगाने से काम नहीं चलेगा। बावजूद इसके अखिलेश ने पिता की बयानों के उलट अपनी युवा ब्रिगेड की जमकर पीठ थपथपाई। पूर्ववर्ती बीएसपी सरकार में पार्टी के लिए युवाओं के संघर्ष को याद किया।
रहा सवाल चाचा व पिता का तो अखिलेश चाहते थे कि मुलायम व शिवपाल यादव उनके साथ मंच साझा न करें। लेकिन राजनीति में मजे खिलाड़ी मुलायम को पता था कि अगर मौका हाथ से निकला तो न शिवपाल बल्कि खुद भी अलग-थलग पड़ सकते है। इसीलिए उन्होंने मुलायम अपने साथ शिवपाल मंच पर लग गए। देखा जाय तो मुलायम ने शिवपाल को जबरदस्ती लेकर गए। क्योंकि पूरे कार्यक्रम से शिवपाल का नाम नदारद था। मुलायम को यह मालूम था कि अगर आज शिवपाल इस मौके से गायब रहे तो साफ संदेश जाएगा कि यह पार्टी का आयोजन नहीं था और पार्टी के दो धड़ों में विभाजन की जो लकीरें पड़ चुकी हैं, वह गहरी होंगी। शिवपाल ने मंच तो साझा किया लेकिन उनके दिलों की दूरी बरकरार रही। भाषण में एकबार भी शिवपाल को चाचा कहना तो दूर नाम तक नहीं ली। यह अलग बात है पीछे से मुलायम द्वारा आखें तरेरे जाने पर अखिलेश ने अध्यक्ष पद से उन्हें जरुर संबोधित किया।
बता दे, इसके पहले सुलह-समझौते के दौरान मुलायम ने अखिलेश पर जमकर भड़के थे। कहा था पार्टी पर असली पकड़ तो शिवपाल यादव की है। सार्वजनिक मंच से मुलायम ने यह सवाल उठा दिया था, अखिलेश तुम्हारी हैसियत क्या है। इसके बाद भाषण के दौरान माइक छिनने से लेकर बाहर जिस तरह सिर फटौवल हुआ और पार्टी से बाहर अखिलेश समर्थक निकाले गए, वह हर किसी से छिपी नहीं है। लेकिन वही निष्कासित पवन पांडेय, उदयवीर सिंह आदि ने भीड़ जुटाकर सासबित किया कि अखिलेश ही पार्टी के असल नेता है। यह अलग बात है कि पांच करोड़ खर्च करके बना समाजवादी विकास रथ दो घंटे भी नहीं चल पाया। कुछ दूर चलकर यह रथ भ्रष्टाचार के बोझ के तले दबा गया। रथ शायद कमिशनखोरी के चलते ही टूट गया। यह सपा के लिए शुभ संकेत नहीं है। मुलायम व शिवपाल के मंच पर आने से अखिलेश के प्रति जो भी थोड़ी बहुत सहानुभूति हुई थी वह भी नौटंकी उजागर होने से अब समाप्त हो गयी, इसने संदेह नहीं है। हर नागरिक का यह जानने का हक है कि जनेश्वर मिश्रा ट्रस्ट में कितना सरकारी धन लगा है और कितना चंदा इक्स्प्रेस्वे की ठेकेदार कम्पनियों ने चंदे के रूप में दिया है। इस रथ का निर्माण कहां कराया गया तथा पेमेंट किसने किया और धन का श्रोत क्या है, इसकी जांच होनी ही चाहिए। क्योंकि यह जगजाहिर हो गया है कि यह रथ लखनऊ-आगरा इक्स्प्रेस्वे के कमिशन के पैसे से बना है।
खास यह है कि इस यात्रा शक्ति प्रदर्शन में मुस्लिम वर्ग की संख्या नाममात्र की ही रही। सपा के पास विकास के नाम पर सैफई को जोड़ने वाला भ्रष्टाचार का प्रतीक इक्स्प्रेस्वे व लखनऊ मेट्रो, आधा-अधूरा लैप्टॉप वितरण, लोहिया आवास व पेंशन, कन्यादान की बात होती है। बावजूद इसके शिक्षा व चिकित्सा की हालत खस्ता है। यूपी में डेंगू से मरने वालों की संख्या सबसे ज्यादा है। सड़के बनने के तीन माह बाद ही उखड़ जा रहे है। बेरोजगारों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है। गन्ना किसानो का भुगतान अधर में लटका है। धान खरीद अब तक शुरु नहीं हो सकी है। बलदेलखंड व पूर्वांचल की बदहाली किसी से छिपी नहीं हैं। बिजली की दशा बताने की जरुरत नहीं। सूखा व ओलाबृष्टि के दौरान मुआवजा वितरण में किस तरह धांधली हुई, यह किसान से अधिक दुसरा कोई बता नहीं सकता। मुसलमानो को वायदे के अनुरूप 18.50 प्रतिशत आरक्षण का नारा सिर्फ हवा में ही हैं। प्रदेश में औद्योगिक निवेश हाल यह है कि व्यापारी सपाई गुंडो के आतंक से सूबा ही छोड़ कर जा रहे है। कैराना इसका जीता जागता उदाहरण है। किसान-मजदूरों की दुर्दशा से हर कोई वाकिफ है। बाहुबलि विधायक विजय मिश्रा, यादव सिंह, भ्रष्ट आइएएस अमृत त्रिपाठी, आइपीएस अशोक शुक्ला व कोतवाल संजयनाथ तिवारी, रतन सिंह यादव जैसे पुलिसकर्मी किस तरह यूपी की जनता को लूट रहे है? निदोर्षो पर फर्जी मुकदमें दर्ज कर घर-गृहस्थी लूटवा रहे है।
खनन से लेकर हर अनैतिक काम धड़ल्ले से चल रहा है, इसे बताने की जरुरत नहीं। बुंदेलखंड व पूर्वांचल में सिंचाई के साधनों का अभाव अभी तक जस का तस है। सभी जिलों को फोरलेन रोड से जोड़ने के वायदे सिर्फ सिर्फ वायदे ही साबित हुए। लैप्टॉप केवल एक साल ही बट पाया वह भी एक खास लोगों को ही। खाद्य सुरक्षा अधिनियम अर्थात गरीबों को भुखमरी से बचाने के लिए खाद्यान्न वितरण में धांधली इस कदर हुई कि मंत्री मालामाल हो गए और गरीब और गरीब हो गया। प्रतिदिन 12 बलात्कार व 15 हत्या प्रतिदिन, 100 से अधिक लूटपाट, एक हजार से अधिक फर्जी मुकदमें दर्ज कर उत्पीड़न की कार्रवाई इस बात की गवाही दे रहा है लोग अपने बेड रुम में भी सुरक्षित नहीं हैं। भ्रष्ट खनन मंत्री गायत्री प्रसाद समेत कई नौकरशाह किस लूट मचाएं है और उनके निलंबन और बहाली में कमीशनखोरी फला-फूला वह लोगों की जुबान पर है। क्या अखिलेश जी क्या बतायेंगे कि भ्रष्ट इंजीनियर यादव सिंह को क्यों बचाया जा रहा है। लोक सेवा आयोग के पूर्व भ्रष्ट अध्यक्ष अनिल यादव को क्यों बचाया गया। मतलब साफ है यह करप्सन किसके राज में और किसके निदेर्शन में फलफूला इसका जवाब जनता चुनाव में तो पूछेगी ही। कहा जा सकता है इन हरकतों के होते अखिलेश की साफ सुथरी स्वच्छ व विकास सिर्फ ढ़िढोरा से अधिक कुछ भी नहीं हैं। आपकी ढोंग का जवाब जनता देने के लिए तैयार बैठी है, इंतजार है तो सिर्फ चुनाव का। सच तो यह है कि 2012 में मायावती के खिलाफ हुई वोटिंग की वजह से अखिलेश की रथ यात्रा को विजय मिली, परंतु इस बार अखिलेश व सैफई परिवार के भ्रष्टाचार व कदाचार के कारण नहीं मिल पायेगा।
चाचा-भतीजे की तल्खी बरकरार
खासकर वे, जो रथयात्रा में शामिल होने के बाद भी शिवपाल यादव का साथ नहीं छोड़ना चाहते थे। यानी लड़ाई अब आर या पार की स्थिति में गई है। पार्टी के दोनों गुटों ने संकेत दे दिया है कि कार्यकर्ताओं को अपना पक्ष चुनना होगा। दिलचस्प तो यह है कि अखिलेश के रथ में शिवपाल का चेहरा नहीं है, जबकि पार्टी के रजत जयंती समारोह के पैंफलेट से अखिलेश नदारद हैं। बीच में चर्चा चली कि क्यों न बिहार की तरह गैर बीजेपी दलों से महागठबंधन कर लिया जाए, जिससे पार्टी की लड़ाई कुछ समय के लिए नेपथ्य में चली जाए। कांग्रेस ने एसपी के साथ गठबंधन का अपना अलग प्रस्ताव रखा है, पर उसके साथ अखिलेश को गठबंधन का चेहरा बनाने की शर्त भी जोड़ दी है। उधर अन्य पार्टियों ने भी कुछ संकेत दिए हैं। जैसे नीतीश ने समाजवादी पार्टी के रजत जयंती समारोह में आने से मना कर दिया है, पर लालू यादव शामिल हो रहे हैं। गठबंधन के संभावित सहयोगियों को लग रहा है कि मुलायम-शिवपाल और अमर की तिकड़ी अप्रासंगिक हो चुकी है। लेकिन गठबंधन की योजना तभी कारगर हो सकती है, जब सपा अखिलेश को आगे करके चुनाव लड़े, या फिर अखिलेश पार्टी तोड़कर बाहर आ जाएं। यूपी में वही सब घटता दिख रहा है, जो बिहार में पहले ही घट चुका है। लालू प्रसाद ने समाजवादी राजनीति को आगे जरूर बढ़ाया, पर समाजवादी लक्ष्यों को पीछे छोड़ दिया। उन्होंने सत्ता में बने रहने के लिए सोशल इंजीनियरिंग के जरिए एक जनाधार तैयार किया, जो आज भी बना हुआ है। लेकिन नीतीश इससे एक कदम आगे निकल गए। उन्होंने समाजवादी लक्ष्यों और विकास के अजेंडे की बात की, जिससे उन्हें समाज के हर वर्ग का समर्थन मिला। इसके बूते वे न सिर्फ सत्ता में आए, बल्कि एक बड़े फलक वाली राजनीति की अवधारणा भी पेश की। अखिलेश इसी मॉडल पर चलना चाहते हैं, पर इसके लिए साहस और दूरदृष्टि की जरूरत है। उनके लिए पीछे लौटने का विकल्प लगभग समाप्त हो गया है। अगर वे प्रमुख गैर बीजेपी दलों के गठबंधन की धुरी बनने की हिम्मत जुटा पाते हैं तो यूपी में नई शुरुआत हो सकती है।
क्या अमर के टोने से बिगड़ा रथ
कैबिनेट मंत्री आजम खां की गैर-मौजूदगी कार्यक्रम में चर्चा का विषय बनी रही। इसके अलावा अमर सिंह और पार्टी से हाल ही में निष्कासित रामगोपाल यादव भी नहीं आए। हालांकि उनके बेटे अक्षय अखिलेश के साथ मौजूद रहे। फिरहाल, पांच करोड़ की लगात वाली लग्जरी बस के खराब होते ही सोशल मीडिया पर कमेंटस, ट्वीट्स और पोस्ट की बाढ़ आ गई। किसी ने इसे अपशकुन बताया तो किसी ने टोना टोटका कहा, किसी ने साजिश तो किसी ने चाचा की बद्दुआ कह डाला। एक महिला ने ट्वीट किया कि नजर लागी राजा तोहरे रथवा मा। एक ने सीएम के खिलाफ अमर सिंह द्वारा कराए गए तंत्रमंत्र और टोने-टोटके को रथ खराब होने की वजह बता डाला। वैसे भी रथयात्रा रवाना करने से पहले आयोजित कार्यक्रम में सीएम अखिलेश यादव ने पार्टी और सरकार के खिलाफ साजिश करने वालों पर हमला बोला। उन्होंने बिना किसी का नाम लिए कहा कि कुछ लोगों ने हमारे खिलाफ साजिश की। जिसकी वजह से हम थोड़ा डगमगाए। मगर विकास कार्यों के आधार पर जनता हमें दोबारा मौका देगी। रथयात्रा की शुरुआत से पहले अखिलेश और शिवपाल एक मंच पर दिखे मगर दोनों के बीच तल्खी बरकरार रही। मंच पर मुलायम के दायीं ओर शिवपाल और बायीं ओर सीएम अखिलेश बैठे थे। अखिलेश जब मुलायम से बात कर रहे थे, तो शिवपाल दूसरी ओर देख रहे थे। जब शिवपाल बात कर रहे थे तो अखिलेश दूसरी तरफ। मंच पर शिवपाल बोलने लगे तो समर्थकों ने नारेबाजी शुरू कर दी। भाषण के अंत में युवाओं को यह नसीहत भी दी कि जोश में होश नहीं खोना चाहिए। पोस्टर और बैनरों से भी शिवपाल नदारद दिखे। कार्यक्रम के दौरान सीएम ने शिवपाल का नाम तक नहीं लिया। हालांकि उन्होंने कई मंत्रियों का नाम लेने के बाद प्रदेश अध्यक्ष शब्द से उनका संबोधन किया।
सर्वे में अखिलेश आगे
यूपी में सपा के राजनीतिक घमासान में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव जनता और सपा वोटर्स के बीच मजबूत होकर निकले हैं। 24 अक्टूबर को विवाद के बाद सी वोटर ने दो सर्वे कराए। सर्वे प्रदेश की 403 सीटों पर 12,221 लोगों के बीच किया गया। सर्वे के अनुसार शिवपाल सिंह यादव की लोकप्रियता लोगों के बीच काफी कम है। सर्वे से यह बात भी पता चली है कि सपा के कोर वोटर्स मुस्लिम व यादवों में भी अखिलेश ने अपने पिता मुलायम सिंह यादव के मुकाबले बड़ी लीड बना रखी है। अखिलेश युवाओं में भी लोकप्रिय हैं और अपर कास्ट और मिडिल क्लास में भी अखिलेश की लोकप्रियता बढ़ी है। तमाम जातियों में भी अखिलेश का जनाधार मुलायम के मुकाबले बढ़ा है। सर्वे से साफ संकेत जा रहा है कि सपा में अखिलेश निर्विवाद रूप से सबसे बड़े और क्लीन इमेज वाले नेता के रूप में सामने आए हैं। हालांकि इसके बाद मुलायम ने हालात को संभालने की कोशिश करते हुए अखिलेश के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ने के संकेत दिए। प्रदेश में महागठबंधन बनाने की मुहिम भी तेज हुई जो अखिलेश का चेहरा सामने रखकर चुनाव लड़ा जा सकता है।
साढ़े चार मुख्यमंत्री वाला जुमले में अखिलेश की छबि बेहतर
समाजवादी पार्टी में साढ़े चार सीएम हैं और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव लाचार, बेबस और बेचारे हैं। सीएम करप्शन के आरोपित किसी मंत्री को हटाते हैं तो ऊपर से उसे दोबारा कैबिनेट में रखने का फरमान आ जाता है। सारी लड़ाई सत्ता के दुरुपयोग से कमाई गई रकम की बंदरबांट की है। यह जुमला विपक्षियों की जुबान पर है। फिरहाल कुनबे में झगड़े की वजह मुलायम की दूसरी पत्नी साधना गुप्ता कहीं जा रही है। उनके पुत्र प्रतीक यादव और पुत्रवधू अपर्णा खास तौर पर उल्लेखनीय हैं। बुजुर्ग मुलायम पर सबके अपने-अपने दबाव हैं। परिवार में कइयों की शिकायत है कि अखिलेश सबको ‘मिलाकर’ नहीं चलते। यानी सत्ता की ‘मलाई’ में सबको वाजिब हिस्सा नहीं मिल रहा है! दोनों खेमों की तरफ से आरोप-प्रत्यारोप लगे कि ‘कुछ लोग’ धन-वसूली से पार्टी और सरकार की छवि खराब करते रहे हैं। लखनऊ में सबको मालूम है कि जिन गायत्री प्रजापति को अभी दोबारा मंत्रिमंडल से बाहर किया गया, वह सैफई घराने में किसके प्रियपात्र हैं! यह भी सुझाव आया कि पार्टी और परिवार के हक में होगा कि स्वयं ‘नेताजी’ मुख्यमंत्री पद संभालें। शिवपाल ने यह बात पुरजोर ढंग से उठाई। शायद, अमर के ‘ट्वीट’ का इशारा भी इसी तरफ था। इन दो के अलावा एसपी के गृहयुद्ध का कोई तीसरा कारण नहीं है। हालांकि एसपी के खेवनहार सिर्फ अखिलेश हैं। उनकी विश्वसनीयता ‘मुलायम-शिवपाल-अमर’ खेमे के मुकाबले ज्यादा है। पहला खेमा अनैतिक होने की हद तक दुस्साहसी है तो अखिलेश खेमे के पास साहस और समझ की कमी है। राजनीतिक साहस संघर्ष और संगठन से पैदा होता है। समझ परस्पर विमर्श और संवाद से पैदा होती है। अखिलेश इन दोनों प्रक्रियाओं से नहीं गुजरे हैं। सत्ता उन्हें पिता से उपहार में मिली। अब अपने पिता की तरह वह भी संगठन और सरकार में एकाधिकार चाहते हैं। उनकी कार्यशैली में बहुत लोकतांत्रिकता नहीं है। उनके पास सक्षम-समर्थ टीम भी नहीं है। उत्तर-उदारीकरण दौर के किसी अन्य नेता की तरह उनका जोर ‘विकास’ पर है। ऐसा विकास जो मध्यवर्ग को लुभाए और कॉरपोरेट को फायदा पहुंचाए! पर उनका आम मतदाता से ‘कनेक्ट’ नहीं है। एसपी-शैली से अलग, वह काफी हद तक कांग्रेसी अंदाज में सभी समाजों-समुदायों को साथ लेकर चलना चाहते हैं। पिता और चाचा से अलग वह आधुनिक शहरी मिजाज के हैं। शायद, इसीलिए युवाओं के एक हिस्से को पसंद भी आ रहे हैं। पर उनके पास वक्त और विकल्प बेहद सीमित हैं।
क्या पारिवारिक झगड़े में यूपी बना ‘निजी संपत्ति‘
देश का सबसे बड़ा सूबा यूपी की सत्ता में बैठी अखिलेश सरकार इन दिनों पारिवारिक झगड़े में निजी संपत्ति होकर रह गयी है। जनता त्राहि-त्राहि कर रही है, सरकार मस्त है। डेंगू, चिकुनगुनिया से लोग मर रहे है। अब तक केवल डेंगू से 180 लोगों की जाने जा चुकी है। जबकि इस गंभीर बीमारी से निपटने के लिए केन्द्र सरकार ने 2014-15 में 24098 करोड़ से भी अधिक राशि आवंटित की है। लेकिन इस पारिवारिक लोकतंत्र के झगड़े में लापरवाह अफसर खर्च तक नहीं कर सके और तुर्रा विकास का है। हालात को देखते हुए हाईकोर्ट ने हस्तक्षेप करते हुए कहा है, जब यूपी में संवैधानिक विफलता की स्थिति है तो क्यूं न राष्ट्रपति शासन न लगा दिया जाय। सवाल यह है कि जब इस पारिवारिक लोकतंत्र में सबकुछ सलट गया है तो अखिलेश सरकार जनता के प्रति इतनी लापरवाह क्यों बनी है? कुल मिलाकर हालात यह है कि सियासी कुश्ती में मगन समाजवादी परिवार हर रोज दांवपेंच खोज रही है, बदल रही है और राज्य की जनता जान गवा रही है। बेशक, जब यूपी में स्वास्थ्य विभाग बेपरवाह है। नागरिकों को स्वास्थ्य विभाग सुविधाएं मुहैया नहीं करा पा रहा है। आफिसर गलत हलफनामे दे रहे है। डेंगू की रोकथाम के लिए किसी भी विभाग ने प्रभावी कदम नहीं उठाएं है। आफिसर कहते है हर रोज कार्रवाई कर रहे है, योजनाएं बना रहे है, लेकिन हकीकत यह है कि हर रोज लोग डेंगू से मर रहे है। जबकि सरकार का दावा है कि पार्टी में सबकुछ आल इज वेल है। विफलताओं के एवज में हाईकोर्ट ने कड़ी फटकार लगाते हुए सूबे में राष्ट्रपति शासन लगाने की बात कह रही है। फिरहाल, यह जगजाहिर है कि सपा सुप्रीमों मुलायम सिंह के कुनबे में अगर कोई मालामाल है तो वह शिवपाल यादव व रामगोपाल यादव ही है। वजह शिवपाल मुख्यमंत्री भले ही नहीं थे, लेकिन सत्ता में हैसियत मुख्यमंत्री की ही थी। अधिकारियों के ट्रांसफर-पोस्टिंग से लेकर जमीन कब्जे कराना, घर-गृहस्थी लूटवाना, फर्जी मुकदमें दर्ज करवाना, अपराधियों को संरक्षण समेत हर कुकर्म शिवपाल के ही चेला-चापड़ करते रहे। अगर इन चेलों पर कभी अखिलेश का डंडा चला भी तो शिवपाल ने तीन-तिकड़म से बचा लिया। परिणाम यह हुआ कि खनन मंत्री गायत्री प्रजापति से लेकर खनन माफिया विधायक विजय मिश्रा, आइएएस अमृत त्रिपाठी, आइपीएस अशोक शुक्ला? यादव सिंह व लूटेरा कोतवाल संजयनाथ तिवारी जैसे भ्रष्ट अफसरों से वसूली का बड़ा हिस्सा शिवपाल के पास ही पहुंचता रहा। यह काली कमाई हजार-दो हजार करोड़ नहीं बल्कि अरबों करोड़ की है और इसी काली कमाई को लेकर रुतबे व आहदें की शान में चली-चला की बेला में कुनबे में गृहयुद्ध छिड़ा है।
क्या संपत्ति बंटवारा है झगड़े की वजह
दरअसल मुलायम परिवार में पिछले साढ़े चार साल की कार्यकाल में बेइंतहा कमाई गयी काली कमाई, वर्चस्व व राजनीतिक महात्वाकांक्षाएं अखिलेश पर भारी पड़ने लगी हैं। बहू-बेटे, दामाद, चाचा-भतीजा समेत हर वह सख्श जो मुलायम के करीबियों में है, मालामाल हो गया है। यह अलग-अलग बात है इस धमाचैकड़ी व बंदरबांट में किसी को कम तो किसी को ज्यादा हाथ लगा है। यही कम-ज्यादा व ओहदा-रुतबा की तनातनी पार्टी में दरार डालने की महती भूमिका निभाई है। यही समाजवादी गृहयुद्ध न सिर्फ यूपी की राजनीतिक साख पर बट्टा लगा रहा है, बल्कि बिजली, पानी, सड़क व स्वास्थ्य सेवाओं लचर हो गयी है। जानलेवा बीमारी डेंगू समेत अन्य रोगों की चपेट में आएं मरीज असमय ही मौत के गाल में समा रहे है। जनहित की कल्याणकारी योजनाओं पर ग्रहण कर लग चुका है और आम-जनमानस में त्राहि-त्राहि मची है। यानी सपा का पारिवारिक विवाद अब प्रदेश के लोगों के लिए सिरदर्द हो गया है। लूट के धन का बंटवारा करने को लेकर यह सब नौटंकी है। इसका जबाव अब विधानसभा चुनाव में जनता देगी
महाठबंधन बनने के तिकड़म
क्या यूपी में यादव परिवार में जारी संकट नए राजनीतिक समीकरण को जन्म दे सकता है। संकेत अभी से मिलने लगे हैं। मौजूदा राजनीतिक परिस्थिति और बीजेपी के बढ़ते वजूद के बीच प्रदेश में एक बार फिर बिहार की तर्ज पर महाठबंधन बनाने की कवायद शुरू हो चुकी है। माना जा रहा है कि यूपी में महागठबंधन साथ मिलकर चुनाव लड़ेगा। इस महाठबंधन का हिस्सा कौन बनेगा, इस बारे में अगले कुछ दिनों में हालात स्पष्ट हो जाएंगे। हालांकि कांग्रेस और नीतीश कुमार की पहली पसंद अखिलेश यादव हैं। महागठबंधन बनाने में कांग्रेस के चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर और बिहार के सीएम नीतीश कुमार अहम भूमिका निभा रहे हैं। महाठबंधन की पहल से पहले सोनिया गांधी और राहुल गांधी को समझाया गया कि अकेले लड़ने से उनकी ताकत कमजोर रहेगी और इससे वह न खुद बेहतर प्रदर्शन कर पाएंगे और न बीजेपी को रोकने में सफल हो पाएंगे। इसके बाद सोनिया ने खुद भी पार्टी के अंदर और बाहर नेताओं से इस मसले पर बात की। सूत्रों के अनुसार इसके बाद कांग्रेस अब प्रदेश में बिहार की तर्ज पर किसी महागठबंधन का हिस्सा बनने को तैयार हो गई है। उधर नीतीश कुमार की जेडीयू और अजित सिंह की आरएलडी पहले ही प्रदेश में साथ चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुकी है। इनकी ओर से कांग्रेस को एसपी या बीएसपी में से किसी एक के साथ महागठबंधन बनाने की सलाह दी गई थी। लेकिन एसपी में पारिवारिक विवाद सामने आने से पहले न बीएसपी और न एसपी गठबंधन के मुद्दे पर बहुत उत्साहित दिखे। इससे महाठबंधन की कवायद ठंडी रही। लेकिन यादव परिवार के विवाद के बाद अचानक विकल्प खुलने लगे।
बीस करोड़ आबादी 20 सदस्यीय कुनबे में सिमटा
जबकि सरकार का दावा है कि पार्टी में सबकुछ ‘आल इज वेल‘ है। बावजूद इसके वन मंत्री पवन पांडेय को बर्खास्त करना पड़ा। सच तो यह है कि सपा में पांच-पांच सीएम हैं और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव लाचार, बेबस और बेचारे हैं। सीएम करप्शन के आरोपित किसी मंत्री को हटाते हैं तो ऊपर से उसे दोबारा कैबिनेट में रखने का फरमान आ जाता है। सारी लड़ाई सत्ता के दुरुपयोग से कमाई गई रकम की बंदरबांट की है। इसकी पुष्टि खुद मुलायम कर चुके है। इसमें मुलायम की दूसरी पत्नी साधना गुप्ता, उनके पुत्र प्रतीक यादव और पुत्रवधू अपर्णा खास तौर पर उल्लेखनीय हैं। बुजुर्ग मुलायम पर सबके अपने-अपने दबाव हैं। परिवार में कइयों की शिकायत है कि अखिलेश सबको ‘मिलाकर’ नहीं चलते। यानी सत्ता की ‘मलाई’ में सबको वाजिब हिस्सा नहीं मिल रहा है! मीटिंग में दोनों खेमों की तरफ से आरोप-प्रत्यारोप लगे कि ‘कुछ लोग’ धन-वसूली से पार्टी और सरकार की छवि खराब करते रहे हैं। गायत्री प्रजापति, यादव सिंह इसके जीता-जागता सबूत है। कहा जा सकता है सत्ता पर काबिज मुलायम कुनबे में जिस तरह से सरेआम नोकझोंक, सिर-फुटौवल हो रहा है, उसने ‘समाजवाद’ को नंगा कर दिया। अपने आप को समाजवादी कहने वालों ने जग-जाहिर कर दिया कि समाजवाद से उनका दूर-दूर तक वास्ता नहीं है। सारा खेल परिवार और सत्ता के साथ अवैध कमाई की बंटवारे का है। 20 करोड़ की आबादी वाले प्रदेश की समूची राजनीति मुलायम के 20-सदस्यीय राजनीतिक परिवार तक सिमट गयी है। गरीबी, बेरोजगारी व बढ़ते अपराध से कराहते प्रदेश की चिंता ‘समाजवादियों’ को नहीं हैं। जिस प्रदेश में किसान आत्महत्या कर रहे है। बेरोजगार अपराध को उन्मुख हो रहे है, वहां मुलायम कुनबा यूपी को अपनी जागिर समझ काली कमाई के बंटवारे में मस्त है। फिरहाल कुनबे में अगर कोई मालामाल है तो वह शिवपाल यादव व रामगोपाल यादव ही है। वजह शिवपाल मुख्यमंत्री भले ही नहीं थे, लेकिन सत्ता में हैसियत मुख्यमंत्री की ही थी। अधिकारियों के ट्रांसफर-पोस्टिंग से लेकर जमीन कब्जे कराना, घर-गृहस्थी लूटवाना, फर्जी मुकदमें दर्ज करवाना, अपराधियों को संरक्षण समेत हर कुकर्म शिवपाल के ही चेला-चापड़ करते रहे। अगर इन चेलों पर कभी अखिलेश का डंडा चला भी तो शिवपाल ने तीन-तिकड़म से बचा लिया। परिणाम यह हुआ कि खनन मंत्री गायत्री प्रजापति से लेकर खनन माफिया विधायक विजय मिश्रा, आइएएस अमृत त्रिपाठी, आइपीएस अशोक शुक्ला? यादव सिंह व लूटेरा कोतवाल संजयनाथ तिवारी जैसे भ्रष्ट अफसरों से वसूली का बड़ा हिस्सा शिवपाल के पास ही पहुंचता रहा। यह काली कमाई हजार-दो हजार करोड़ नहीं बल्कि अरबों करोड़ की है और इसी काली कमाई को लेकर रुतबे व आहदें की शान में चली-चला की बेला में कुनबे में गृहयुद्ध छिड़ा है।
झगड़े में बसपा-भाजपा मजबूत
हो जो भी इन दो राजनीतिक रणनीतियों के अलावा पारिवारिक टकरावों और कई मंचों पर देखी जा चुकी महाभारत के बाद अगर समाजवादी पार्टी टूटती है तो उसके मुस्लिम-यादव वोट बैंक का बिखरना तय है। ऐसा हुआ तो मुसलमान शायद पूरी तरह बीएसपी के साथ खड़े दिखाई दें, क्योंकि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी को सबसे कड़ी चुनौती वही दे पाएगी। यादव वोट समाजवादी पार्टी के दोनों धड़ों में तो बंटेंगे ही, लेकिन इनका एक हिस्सा बीजेपी के साथ भी जा सकता है। गैर यादव पिछड़े वोटों के पीछे तो बीजेपी अभी से लगी हुई है। अखिलेश यादव का धड़ा अगर चुनाव में एक अलग पार्टी के रूप में उतरने का फैसला करता है तो बिहार की तरह उत्तर प्रदेश में भी ग्रैंड अलांयस की संभावना बन सकती है। इधर एक-दो महीने से अखिलेश इस तरह के कुछ संकेत दे भी रहे हैं कि वे कांग्रेस, अजीत सिंह की पार्टी आरएलडी, और जेडीयू के साथ मिल कर एक बड़े बीजेपी विरोधी गठबंधन के रूप में चुनाव में उतरना चाहते हैं। राहुल गांधी के लिए प्रशांत किशोर के एडवाइजरी बोर्ड ने भी कुछ नया कारनामा नहीं किया। खाट सभा ने कइयों की खटिया जरूर खड़ी की। खाट ने लोगों के दरवाजों पर जैसे ही दस्तक दी, अगल-बगल के लोग मिली-जुली प्रतिक्रिया के साथ उस खाट पर बैठे और चर्चा की। इस चर्चा ने कांग्रेस को विमर्श में शामिल जरूर किया पर जनता होशियार बहुत है। कांग्रेस के तीर का असर हो पाता, इससे पहले ही भाजपा ने उसके किले में सेंध लगा दी। रीता बहुगुणा जोशी के भाजपा में शामिल होते ही नए राजनीतिक समीकरण सामने आने लगे हैं। यूपी में लूला हो चुका कांग्रेस का हाथ चाहकर भी किसी कीमती चीज को नहीं पकड़ सकता, उधर हाथी को जिस साफगोई और डीलडौल के लिए पसंद किया जा रहा था, उसने ‘अहं ब्रह्मास्मि‘ का एटीट्यूड अपनाने की कोशिश में अपना राजनीतिक कद छोटा कर लिया। यूपी की जनता हाथी को अपना पाती, इससे पहले ही उसके कई बड़े सहयोगी कमल के साथ हो लिए, क्योंकि राष्ट्रभक्ति की ठेकेदारी सिर्फ कमल के पास है। इस दौड़ में जिस तरह बड़े खिलाड़ी टीम भाजपा में शामिल हुए है, उसे देखकर अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि भाजपा को अन्य सभी पार्टियों ने थाली सजा कर दे दी है। भाजपा इसे भुना पाएगी या नहीं, यह 2017 का चुनाव साफ कर देगा।
भाजपा को उम्मीद
समाजवादी कुनबे की कलह पर विपक्ष की निगाह लगी है। खासकर भाजपा व बसपा इस उठापटक में लाभ की संभावना टटोल रहे हैं। वोटों के धुव्रीकरण की उम्मीद लगाए बसपाइयों को भरोसा है कि समाजवादी पार्टी की फजीहत से हताश हुए मुस्लिम, भाजपा को हराने के लिए साइकिल छोड़ कर हाथी पर सवार हो सकेंगे। इसी तरह भाजपा भी पिछड़े वर्ग का झुकाव बढ़ने की आस लगाए है। बसपा नेतृत्व को उम्मीद है कि सपा की अंतर्कलह से उसके मतदाताओं में ऊहापोह बढ़ी है। सपा में शीर्ष स्तर पर पालाबंदी से कार्यकर्ता बेहद हैरान है। गत लोकसभा चुनाव में भाजपा को मिले जबरदस्त बहुमत के बाद मुस्लिम इस बार सतर्क है। सर्जिकल स्ट्राइक और तीन तलाक जैसे मसले गर्माने से मुसलमानों में बेचैनी बढ़ी है।
बड़ा उलटफेर संभव
पिछले चुनावों के नतीजों पर नजर डाले तो मात्र तीन से पांच फीसद वोट पलटने से बड़े उलटफेर होते रहे है। खासकर सपा और बसपा के बीच मुकाबला कड़ा होता रहा है। 2012 में 29.12 फीसद वोट हासिल करके सपा ने 224 सीटों पर विजय हासिल की थी जबकि बसपा 25.91 प्रतिशत वोट लेने के बाद केवल 80 क्षेत्रों में सिमट गई थी। अंतर्कलह से सपा के वोटों में गिरावट से इनकार नहीं किया जा सकता।
काफी पुरानी है चाचा-भतीजे की जंग
अखिलेश यादव और शिवपाल यादव के बीच रिश्ते शुरू से अच्छे नहीं हैं। जहां शिवपाल को अखिलेश का मुख्यमंत्री बनाया जाना अखर गया वहीं अखिलेश को सरकार के मामलों में शिवपाल का दखल कभी रास नहीं आया। दोनों के बीच में पार्टी के लिए उम्मीदवारों के चयन से लेकर सरकार की कार्यशैली तक कई मुद्दों पर खींचतान होती रही है। जुलाई 2016 में शिवपाल ने पार्टी छोड़ने की धमकी दी। मुलायम सिंह ने शिवपाल को समझा-बुझा कर रोका। 1 अगस्त 2016 को कौमी एकता दल के साथ सपा के विलय के लिए शिवपाल अड़े रहे। इस बार मुलायम सिंह ने साथ दिया। अखिलेश विरोध में रहे। 15 अगस्त 2016 को मुलायम सिंह ने कहा कि अगर शिवपाल ने इस्तीफा दिया तो पार्टी के दो हिस्से हो जाएंगे। यह अखिलेश के लिए धमकी थी। 11 सितंबर 2016 को अखिलेश ने खनन मंत्री गायत्री प्रजापति और पंचायती राज मंत्री राज किशोर सिंह को भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते मंत्रीमंडल से हटाया। इसके बावजूद मुलायम से निकटता की वजह से दोनों मंत्रिमंडल में काम करते रहे। 11 सितंबर 2016 को अमर सिंह ने अपने घर दावत रखी जिसमें अखिलेश नहीं गए लेकिन राज्य के प्रमुख सचिव दीपक सिंघल इसमें शामिल हुए। 12 सितंबर 2016 को शिवपाल के करीबी दीपक सिंघल की अमर सिंह से नजदीकियों के चलते अखिलेश ने उन्हें हटाकर अपने विश्वासपात्र आइएएस राहुल भटनागर को प्रमुख सचिव का पद सौंपा। 13 सितंबर 2016 को मुलायम सिंह ने अखिलेश को पार्टी के अध्यक्ष पद से हटाकर अपने छोटे भाई शिवपाल को यह पद सौंप दिया। 13 सितंबर 2016 को अखिलेश ने शिवपाल को सभी प्रमुख मंत्रालयों में मंत्री पद देने से मना कर दिया। 15 सितंबर 2016 को शिवपाल ने मुलायम और अखिलेश के साथ कई बैठकें की। मनमुटाव के चलते अखिलेश के साथ बैठक सफल नहीं हुई। 15 सितंबर 2016 को रात दस बजे शिवपाल, उनके बेटे आदित्य यादव ने पार्टी व सरकार के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया। 16 सितंबर 2016 को मुलायम सिंह ने राज्य के पार्टी अध्यक्ष के तौर पर शिवपाल का इस्तीफा नामंजूर कर दिया। 16 सितंबर 2016 को मुलायम सिंह ने सपाईयों को संबोधित किया। साथ ही गायत्री प्रजापति को सरकार में दोबारा शामिल करने की घोषणा की। 16 सितंबर 2016 को पार्टी व परिवार में हालात सुधरते दिखे। मुलायम ने अखिलेश और शिवपाल से मुलाकात की। शिवपाल को अध्यक्ष पद के साथ अपने सभी मंत्रालय दिए गए। अखिलेश को चुनावों में टिकट देने में राय देने का अधिकार मिला।
युवा नेताओं की बर्खास्तगी से हुआ बवाल
दिसंबर 2015 में शिवपाल के कहने पर पार्टी ने तीन युवा नेताओं को जिला पंचायत चुनाव के समय बर्खास्त किया। इनमें से सुनील सिंह यादव और आनंद भदौरिया अखिलेश के करीबी माने जाते थे। इससे नाराज अखिलेश सैफई में होने वाले सालाना आयोजन के उद्घाटन में नहीं गए। 11 जनवरी 2015 को अखिलेश यादव ने सैफई महोत्सव में भाग लिया। अगले दिन बर्खास्त किए गए उनके करीबी नेताओं को पार्टी में दोबारा शामिल किया गया। 1 मार्च 2016 को शिवपाल ने मुलायम की सबसे छोटी बहू अपर्णा को चुनाव लड़ाने की बात कही। अखिलेश और रामगोपाल ने इसका विरोध किया। इससे दोनों के बीच की तल्खी और बढ़ गई। 1 मई 2016 शिवपाल ने अमर सिंह को पार्टी में वापस लाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाया। जबकि अखिलेश और रामगोपाल यादव इसके विरोध में थे। आखिरकार अमर सिंह वापस आए और दोनों खेमों में दूरी और बढ़ गई। 1 जून 2016 को सपा और मुख्तार अंसारी के कौमी एकता दल के गठबंधन के लिए शिवपाल ने कड़ा जोर लगया। अपनी बेदाग छवि बरकरार रखने के लिए अखिलेश ने इसका विरोध किया। अगस्त में होने वाला गठबंधन रोक दिया गया।
अपनों से घिरे अखिलेश
सपा में चल रहे सत्ता संग्राम में अखिलेश एक ऐसे योद्धा के रूप में उभरे हैं जो अपनों के ही तीर झेल रहा है। खास बात यह है कि ये तीर उन लोगों को बचाने के लिए चलाए जा रहे हैं जिनका दामन दागदार है। जैसे कि मुख्तार अंसारी और गायत्री प्रजापति। जैसे-जैसे सपा का संकट गहरा रहा है अखिलेश का कद बढ़ रहा है। यह एक अजीब विरोधाभास है। इसकी एक वजह अखिलेश का सख्त रुख है। आमतौर पर यह देखा जा रहा था कि अखिलेश यादव पूरे साढ़े चार साल तक मुलायम समेत सपा के बड़े नेताओं की छाया में काम कर रहे थे। ब्यूरोक्रेसी में भी कुछ अधिकारियों के खिलाफ वे चाहकर भी कार्रवाई नहीं कर पा रहे थे। इससे उनकी छवि एक ढुलमुल सीएम की बन रही थी। लेकिन इस बार उन्होंने यू टर्न लिया है। वे अपने पक्ष पर टिके हुए हैं।
छबि को लेकर अखिलेश संजीदा
दरअसल, अखिलेश मुलायम की राह पर चलने की जगह खुद का रास्ता बनाने में लगे है, जिसे मुलायम ने खुली चुनौती माना है। लेकिन पहलवान रहे मुलायम सिंह यह जान समझ रहे हैं कि गलत समय पर धोबियापाट लगाना उल्टा उन्हें पड़ सकता है। मुलायम की लंबी राजनीतिक यात्रा में डीपी यादव, मुख्तार अंसारी, राजा भैया व किरनपाल जैसे लोगों का काफिला सपा के इर्दगिर्द ही चलता रहा। लेकिन अब नई पीढ़ी के समाजवादी नेता अखिलेश के लिए ऐसे दागी बर्दाश्त नहीं हैं। नेताजी से अमर सिंह जैसे सियासी लोगों की नजदीकी भी अखिलेश को कभी नहीं रास आई। वह अपने सियासी सफर में इस तरह के फौज-फाटे को लेकर चलना नहीं चाहते हैं। बदलते सामाजिक व राजनीतिक दौर में उनकी अपनी सोच है, जो नेताजी से अलग है। वह मुलायम के ‘राजनीतिक मजबूरी के बोझ’ को लेकर चलने को राजी नहीं है। अखिलेश का यह राजनीतिक नजरिया मुलायम और उनके ‘कुछ’ लोगों को भा नहीं रहा है। किन्हीं मजबूरियों के चलते मुलायम को भी उनका समर्थन करना पड़ रहा है। इसके लिए अखिलेश की घेरेबंदी की जा रही है, जिसे तोड़कर वह कब के बाहर हो चुके हैं। यही अखिलेश की गुस्ताखी है। लेकिन मुलायम को मालूम है कि पार्टी टूटी या अखिलेश को पार्टी से बेदखल किया तो सपा बेदम होकर बैठ सकती है। अखिलेश के सौम्य चेहरे, नई सोच और कम उम्र ने राज्य में पार्टी के परम्परागत वोट बैंक (यादव और मुसलमान) के इतर दूसरी जातियों में पार्टी की स्वीकार्यता बढ़ाई। वो ताजा हवा की मानिंद थे। जो लोग अलग-अलग वजहों से सपा को पसंद नहीं करते थे उन्होंने भी अखिलेश के नाम पर साइकल को वोट कर दिया। कुछ लोगों ने ऐसा इस वजह से किया कि यह मुलायम वाली नहीं, अखिलेश यादव वाली सपा है। कुछ लोगों का यह कहना था कि उन्होंने सपा को नहीं, अखिलेश को वोट दिया है। शायद यही वजह थी कि मुलायम के राजनैतिक जीवन का यह पहला चुनाव था जब उनकी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला। अगर अखिलेश उस वक्त मुख्यमंत्री नहीं बनते तो शायद वोटर्स के एक बड़े वर्ग को निराशा हाथ लगती। यहां भले ही मुलायम अखिलेश से अभी नाराज हों लेकिन ये भी सच है कि 2012 में वे अपना राजपाट अखिलेश को सौंप चुके हैं। अपनी जीवन भर से जुटाई ताकत अखिलेश को ट्रांसफर कर चुके हैं। यही वजह है कि सपा के कोर वोटर खासतौर से यादव अखिलेश में मुलायम की छवि देख रहे हैं। अखिलेश की ताकत ये एक बड़ी वजह है। अखिलेश को भी यह समझ में आ चुका है कि यदि वे अभी कड़ा स्टैंड नहीं लेंगे तो उनका वोटर उन्हें भी माफ नहीं करेगा। इस कलह के बाद भले ही 2017 में सपा का प्रदर्शन कुछ खराब हो जाए लेकिन बतौर नेता अखिलेश पूरी तरह तैयार हो चुके होंगे। इसके बाद 2019 के लोकसभा और 2022 के विधानसभा में वे पूरी तैयारी के साथ मैदान में होंगे।
मुलायमवादी समाजवाद के 25 साल
मुलायमवादी समाजवाद यानी सपा पांच नवम्बर को रजत जयंती समारोह का आयोजन करेगी। क्योंकि सपा की स्थापना दिवस के पच्चीस साल पूरे हो रहे है। उस वक्त चैधरी चरण सिंह की राजनैतिक विरासत संभालने का दावा करते हुए मुलायम सिंह यादव ने ही जनेश्वर मिश्र, कपिलदेव सिंह, बृज भूषण तिवारी, मोहन सिंह, भगवती सिंह, रेवती रमन सिंह, रामगोविंद चैधरी, अवधेश प्रसाद और राजेंद्र चैधरी जैसे लोगों से मिलकर सपा की स्थापना की थी। खास यह है कि पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव आज भी मंडल आंदोलन के दौर की सोशल इंजीनियरिंग को चुनावी रणनीति का आधार बनाए रखना चाहते हैं। दागी छवि या बाहुबलियों से उन्हें न पहले कोई परहेज था, न अब है। यही वजह है कि रजत जयंती समारोह का संयोजक मुलायम सिंह ने इस पार्टी के किसी संस्थापक नेता को बनाने की बजाय कई विवादों और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे मंत्री गायत्री प्रजापति को बनाया है। ये वही हैं, जिन्हें मुख्यमंत्री ने बर्खास्त किया लेकिन मुलायम सिंह के दबाव में दोबारा मंत्री बना दिया। शपथ ग्रहण समारोह में मुलायम सिंह के चरण स्पर्श करते हुए उनकी फोटो सोशल मीडिया में वायरल हो गई थी। इस घटना से मुलायम सिंह की राजनीति का चाल, चरित्र और चेहरा साफ हो जाता है। मतलब साफ है इस दौर में भी मुलायम की घिनौनी राजनीति कायम है। विवादास्पद मंत्री गायत्री प्रजापति रजत जयंती समारोह का चेहरा हैं। प्रजापति को फिर से लाना मुलायम सिंह के उन ऐतिहासिक फैसलों में से एक है, जिसके चलते रजत जयंती समारोह से करीब एक पखवाड़े पहले ही यह पार्टी दो-फाड़ होते-होते बची और पारिवारिक विवाद के चलते देश भर में चर्चा में आई। पार्टी अधिवेशन में जो संवाद और विवाद परिवार के बीच हुआ, वह रोचक था। देश के इतिहास में किसी राजनीतिक परिवार में बाप, बेटे और चाचा के बीच ऐसा संवाद पहले नहीं हुआ, जिसका सीधा प्रसारण देश ने देखा हो। यह मुलायम सिंह की राजनीति का एक दुर्भाग्यपूर्ण पहलू था। जो विवाद वे परिवार में सुलझा सकते थे, उसे पार्टी के मंच पर ले आए। सपा की शुरुआत मुलायम ने बहुत मजबूत ढंग से की थी। उनके साथ समर्पित समाजवादियों की टीम भी थी। यही वजह है कि यह पार्टी पचीस साल में देश के सबसे बड़े सूबे में चार बार सत्ता में आई। इस पार्टी ने समूचे उत्तर भारत की राजनीति को भी लंबे समय तक प्रभावित किया। पर बीते करीब डेढ़ दशक से मुलायम सिंह की राजनीति में जो बदलाव आया, उसका नतीजा सबके सामने है। मुलायम आज भी लोहिया का नाम लेते हैं, पर बीते डेढ़ दशक में समाजवादी पार्टी का कोई वैचारिक प्रशिक्षण शिविर हुआ हो, किसी को याद नहीं आता। पार्टी पूरी तरह परिवार पर निर्भर होती गई और यह निर्भरता ही ताजा विवाद की मुख्य वजह बनी। समस्या यह है कि इस परिवार में अखिलेश यादव की जगह लगातार सिकुड़ती जा रही है। परिवार में उन्हें किनारे किया गया तो पार्टी का पद भी गया, जबकि वे विकास के अजेंडा पर काम करते रहे। इसके चलते परिवार में विरोध के बावजूद वह लगातार मजबूत होते जा रहे हैं और आम लोगों के बीच लोकप्रिय भी। लोगों में यह धारणा घर करती जा रही है कि मुलायम सिंह अपने इस बेटे का हक मार रहे हैं। देखना है, यह पार्टी टूटकर उत्तर प्रदेश की राजनीति को नया आयाम देती है, या किसी तरह बिखराव से बची रहकर हाशिए पर चली जाती है। मुलायम गरीबी, बेरोजगारी व बढ़ते अपराध से कराहते प्रदेश में ‘समाजवादी’ झुनझुना पकड़ा कर चुनाव-दर-चुनाव वे मतदाताओं को बहलाने में सफल रहे। पर, इटावा-मैनपुरी-कन्नौज के बरमूडा ट्राएंगल और उसके केंद्र सैफई में आचार्य नरेंद्र देव और डाॅ राम मनोहर लोहिया के समाजवादी आदर्श कब दफन हो गये, किसी को पता ही नहीं चला। जातिवाद, परिवारवाद व असमानता के धुर-विरोधी लोहिया के चेलों की पूरी राजनीति ही जातिवाद और परिवारवाद पर टिक गयी। सत्ता के लिए हर हद तक जाकर समझौते किये गये। गुंडे सफेद खादी पहन कर समाजवादी हो गये। कहना मुश्किल हो गया कि समाजवाद का लंपटीकरण हुआ या लंपटों का समाजीकरण। फक्कड़ लोहिया के जमीनी समाजवाद को इन छद्म समाजवादियों के राजसी ठाट-बाट ने शर्मसार कर दिया। जिस प्रदेश में किसान आत्महत्या कर रहे थे और बेरोजगार अपराध को उन्मुख हो रहे थे, वहां मुलायम के अपने गांव सैफई में रंगीनियां बरस रही थीं। अपने 75वें जन्मदिन पर विक्टोरियन बग्घी में बैठ कर रामपुर की सड़कों पर राजसी सवारी में निकलते मुलायम ने लोहिया की स्मृति को सिरे से मिटा दिया।
(सुरेश गांधी)