त्योहार जहां एक ओर ऋतुओं के प्रतीक हैं, वहीं धार्मिक विशेषताओं से भी ओत-प्रोत हैं। वसंत पंचमी भी इसका अपवाद नहीं है। इसे ‘श्रीपंचमी’ भी कहते हैं, जिसमें नई कोपलों से पूरी प्रकृति को नवजीवन देने का, तो लक्ष्मी-पूजन का भी विधान है। किंतु इस तिथि का सबसे अधिक महत्व इसलिए है क्योंकि यह विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती का जन्म दिवस है और मां सरस्वती का पूजन भी विद्या की देवी की कृपा पाने के लिए महत्वपूर्ण है। तभी तो नन्हें बच्चों को स्कूल भेजने के पूर्व इस दिन स्लेट या पट्टी पर पेन से या फिर अंगुलियों की मदद से अनाज के दानों पर पहला अक्षर लिखवाया जाता है। ताकि मां सरस्वती की कृपा हमेसा बनी रहें
माघ माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी को वसंत पंचमी का त्योहार मनाया जाता है, जो आंतरिक रूप से मां सरस्वती के पावन स्मरण का दिन होता है। मां सरस्वती श्वेत कमल के आसन पर विराजमान होती हैं। इनके नेत्र विशाल हैं। इनका श्वेत वस्त्र निर्मल, विशुद्ध ज्ञान का प्रतीक है। हंस व मोर से इनका साहचर्य प्रज्ञान, बुद्धिमता का द्योतक है। मां सरस्वती अपनी देहलता की आभा से क्षीरसागर को दास बना देती हैं और इनकी मंद मुस्कान शरद् ऋतु के चंद्रमा को भी तिरस्कृत करने वाली होती है। देवी सरस्वती को बुद्धि और विद्या की देवी माना जाता है, जो अंधकार व मूर्खता को दूर कर ज्ञान का प्रकाश प्रदान करती हैं। वह साक्षात ज्ञान व बुद्धि की अधिष्ठात्री हैं, इसलिए इस दिन बालक-बालिका के विद्यारंभ के समय विद्या की आराध्य देवी सरस्वती के पूजन की प्रथा है। माना जाता है कि इसी दिन शब्दों की शक्ति मनुष्य की झोली में आई थी। ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना करने के बाद, मनुष्य की रचना की। मनुष्य की रचना के बाद उन्होंने अनुभव किया कि मनुष्य की रचना मात्र से ही सृष्टि की गति को संचालित नहीं किया जा सकता। उन्होंने अनुभव किया कि निःशब्द सृष्टि का औचित्य नहीं है, क्योंकि शब्द हीनता के कारण विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं था और अभिव्यक्ति के माध्यम के नहीं होने के कारण ज्ञान का प्रसार नहीं हो पा रहा था। विष्णु से अनुमति लेकर उन्होंने एक चतुर्भुजी स्त्री की रचना की जिसके एक हाथ में वीणा तथा दूसरा हाथ वर मुद्रा में था। अन्य दोनों हाथों में पुस्तक एवं माला थी। शब्द के माधुर्य और रस से युक्त होने के कारण इनका नाम सरस्वती पड़ा। सरस्वती ने जब अपनी वीणा को झंकृत किया तो समस्त सृष्टि में नाद की पहली अनुगूंज हुई। चूंकि सरस्वती का अवतरण माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को हुआ था अतः इस दिन को वसंत पंचमी के रूप में मनाया जाता है।
मंत्र है-
सरस्वति नमस्तुभ्यम् वरदे कामरूपिणि। विद्यारंभमं करिष्यामि सिद्धिर्भवतु मे सदा।।
अर्थात् देवी सरस्वती, जो सभी मनोरथ पूरे करती हैं, मैं अपना विद्यारंभ आपकी पूजा से करता हूंय मैं सफलता हेतु प्रार्थना करता हूं। शिक्षा, साहित्य, संगीत, कला से संबंधित सभी कार्यक्रमों और समारोहों का प्रारंभ सरस्वती-वंदना से करने की परम्परा रही है।
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रवृता,
या वीणावरदंडमंडित करा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्मच्युतशंकप्रभृतिर्भिदेवैरू सदा वंदिता,
सां मां पातु सरस्वती भगवती निरूशेषजाडयापहा।।’
अर्थात् जो कंद के फूल, चंद्रमा, तुषार (बर्फ) और हार के समान श्वेत हैं, जो शुभ्र वस्त्रों से आवृत्त हैं, जिनके हाथ उत्तम वीणा से सुशोभित हैं, जो श्वेत कमल के आसन पर बैठती हैं, ब्रह्मा-विष्णु-महेश आदि देव जिनकी सदा स्तुति करते हैं, जो सब प्रकार की जड़ता हर लेती हैं, वह भगवती सरस्वती मेरा पालन करें। मां सरस्वती के आशीर्वाद से मन-मस्तिष्क व वाणी पर विद्या-बुद्धि का वास होता है। हमारे विचार बिना अवरोध के प्रवाहित होते हैं। इसलिए वसंत पंचमी के दिन बड़े-बूढ़े, बच्चे सभी पीले वस्त्र धारण कर मां सरस्वती की पूजा-अर्चना कर आशीष प्राप्त करते हैं।
महिमा
त्रिदेवों की भांति तीन शक्तियां भी हैं- महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती। इन तीनों देवियों की विशेष समय में पूजा होती है। महाकाली (दुर्गा) के लिए नवरात्रि, महालक्ष्मी के लिए दीपावली और महासरस्वती के लिए वसंत पंचमी विशेष रूप से विदित हैं। इन तीनों महाशक्तियों का ही विशेष महत्व है। लोग अपनी श्रद्धा और कामना के अनुसार, अपनी-अपनी अभिष्ट देवी की पूजा-अर्चना करते हैं। सामान्य लोगों का झुकाव शक्ति संचय और धन संचय की ओर अधिक होता है। कलियुग में तो यह प्रवृत्ति और भी बढ़ गई है। आज ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ का जमाना है और धन की महत्ता बढ़ी है। लेकिन आदर्श व्यक्ति सरस्वती की उपासना में ही आत्मसंतुष्टि प्राप्त करते हैं। उनके लिए विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती का विशेष महत्व है।
विद्वत्त्वं त नृपत्त्वं च नैव तुल्यं कदाचन।
स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान् सर्वत्र पूज्यते।।
विद्वान का महत्व राजा से अधिक है, राजा का आदर केवल अपने देश में होता है। विद्वान की पूजा सर्वत्र होती है। विद्वानों का कथन है कि देवियों के वाहन ही उनके प्रभाव के प्रतीक हैं। सरस्वती का वाहन हंस, सत्व गुण का प्रतीक है, दुर्गा का वाहन सिंह राजस का प्रतीक है और लक्ष्मी का वाहन उल्लू, तमो गुण का द्योतक है। शक्तिशाली अधिकार चाहता है। अत्यंत धनी व्यक्ति में प्रायरू तामसिक प्रवृत्तियां बढ़ जाती हैं। उनकी गति प्रकाश की अपेक्षा अंधकार में अधिक होती है। सरस्वती के कृपा पात्र प्रायः हंस के समान नीर-क्षीर विवेकी (न्यायी) तथा निर्लिप्त होते हैं। साधु प्रकृति के लोग सरस्वती की उपासना को प्राथमिकता देते हैं क्योंकि वह पारलौकिक दृष्टि से श्रेयस्कर है। गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस के प्रारंभ में वंदना करते हुए विघ्न विनाशक गणेश से पहले सरस्वती का स्मरण किया है-
वर्णानामर्थसंधानां रसानां छन्दसामापि।
मंगलानां च कर्तारौ वन्दे वाणी विनायकौ।।
अक्षर, शब्द, अर्थ और छंद का ज्ञान देने वाली भगवती सरस्वती तथा मंगलकत्र्ता विनायक की मैं वन्दना करता हूं। देवी भागवत् में उल्लेख है कि भगवान कृष्ण ने सर्वप्रथम सरस्वती पूजन की महत्ता स्थापित की है-
आदौ सरस्वती पूजा कृष्णेन विनिर्मिता।
यत्प्रसादान्मुनि श्रेष्ठ मूर्खो भवति पण्डितरू।।
जिनकी कृपा से मूर्ख भी पंडित हो जाता है, सरस्वती का सम्मान कभी नहीं घटता। पंडित मदन मोहन मालवीय ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना वसंत पंचमी को ही की थी, जो केवल भारत के ही नहीं बल्कि विश्व के प्रमुख विश्वविद्यालयों में से एक है।
पूजा सामग्री
पीला चंदन, अक्षत (पीले चावल), पुष्प, पुष्पहार, धूप, दीप, नैवेद्य, फल, दूध, दही, घी, शहद, चीनी-भूरा, गंगाजल, पान के पत्ते, सुपारी, लौंग, इलायची, केसर, आम के पत्ते, अशोक के पत्ते, केले के पत्ते, पुस्तकें, वाद्य यंत्र, पीले वस्त्र-सरस्वती जी के लिए
पूजा विधि
शुभ मुहूर्त में पूर्व की ओर मुख करके बैठें। चैकी या पटरे पर लाल-पीला कपड़ा बिछाकर सरस्वती की मूर्ति, प्रतिमा या चित्र रखें। कलश को सजाकर रखें। पूजा स्थानध्मंडल को पीले-गुलाबी पुष्पों से सजा लें। घी का दीपक, मां सरस्वती के दाहिनी ओर रखें। स्वयं पीले-गुलाबी वस्त्र पहनें अथवा इन रंगों का दुपट्टा-उत्तरीय ले लें। आचमन करके संकल्प करें- मनोकामना सिद्धयर्थ श्री सरस्वती पूजनं करिष्ये। पंचामृत से अभिषेक कराएं या छींटे लगाएं। गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल, सुपारी, लौंग, इलायची से पूजन करें। प्रसाद लगाएं। मंत्र बोलकर पुस्तकों, वाद्य यंत्रों की अर्चना करें। मिलकर आरती करें। पुष्पांजलि अर्पण कर प्रणाम करें। पीला चंदन स्वयं व उपस्थित जनों को लगाएं। प्रसाद वितरण करें।
शक्ति की आराधना भी है सरस्वती प्रधान
मत्स्यपुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, मार्कण्डेयपुराण, स्कंदपुराण, विष्णुर्मोत्तरपुराण तथा अन्य ग्रंथों में भी देवी सरस्वती की महिमा का वर्णन किया गया है। इन धर्मग्रंथों में देवी सरस्वती को सतरूपा, शारदा, वीणापाणि, वाग्देवी, भारती, प्रज्ञापारमिता, वागीश्वरी तथा हंस वाहिनी आदि नामों से भी संबोधित किया गया है। मां सरस्वती को सरस्वती स्तोत्र में ‘श्वेताब्ज पूर्ण विमलासन संस्थिते’ अर्थात श्वेत कमल पर विराजमान या श्वेत हंस पर बैठे हुए बताया गया है। दुर्गा सप्तशती में मां आदिशक्ति के महाकाली महालक्ष्मी और महा सरस्वती रूपों का वर्णन और महात्म्य 13 अध्यायों में बताया गया है। शक्ति को समर्पित इस पवित्र ग्रंथ में 13 में से 8 अध्याय मां सरस्वती को ही समर्पित हैं, जो इस तथ्य को प्रतिपादित करता है कि नाद और ज्ञान का हमारे अध्यात्म में बहुत ज्यादा महत्व है।
कुंभकर्ण की निद्रा का कारण भी सरस्वती बनी
कहते हैं देवी वर प्राप्त करने के लिए कुंभकर्ण ने दस हजार वर्षों तक गोवर्ण में घोर तपस्या की। जब ब्रह्मा वर देने को तैयार हुए तो देवों ने निवेदन किया कि आप इसको वर तो दे रहे हैं लेकिन यह आसुरी प्रवृत्ति का है और अपने ज्ञान और शक्ति का कभी भी दुरुपयोग कर सकता है, तब ब्रह्मा ने सरस्वती का स्मरण किया। सरस्वती राक्षस की जीभ पर सवार हुईं। सरस्वती के प्रभाव से कुंभकर्ण ने ब्रह्मा से कहा- ‘स्वप्न वर्षाव्यनेकानि। देव देव ममाप्सिनम।’ यानी मैं कई वर्षों तक सोता रहूं, यही मेरी इच्छा है। इस तरह त्रेता युग में कुंभकर्ण सोता ही रहा और जब जागा तो भगवान श्रीराम उसकी मुक्ति का कारण बने।
मां सरस्वती के विभिन्न स्वरूप
विष्णुधर्मोत्तर पुराण में वाग्देवी को चार भुजायुक्त व आभूषणों से सुसज्जित दर्शाया गया है। स्कंद पुराण में सरस्वती जटा-जूटयुक्त, अर्धचन्द्र मस्तक पर धारण किए, कमलासन पर सुशोभित, नील ग्रीवा वाली एवं तीन नेत्रों वाली कही गई हैं। रूप मंडन में वाग्देवी का शांत, सौम्य व शास्त्रोक्त वर्णन मिलता है। दुर्गा सप्तशती में भी सरस्वती के विभिन्न स्वरूपों का वर्णन मिलता है।
नील सरस्वती है साक्षात् लक्ष्मी
वसंत पंचमी के श्रीपंचमी रुप को बहुत कम लोग जानते है। धन और ऐश्वर्य की देवी भगवती लक्ष्मी को भी यह तिथि अत्यंत प्रिय है। माघ शुक्ल पंचमी के दिन लक्ष्मी पूजा करने से विष्णुप्रिया लक्ष्मी प्रसंन होकर समृद्धि का वरदान देती हैं। जिस तिथि में सरस्वती और लक्ष्मी दोनों शक्तियों का मिलन हो वह तिथि यदि सिद्धिदात्री हो जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं। शास्त्रों में वर्णित है कि वसंत पंचमी के दिन ही शिव जी ने मां पार्वती को धन और सम्पन्नता की अधिष्ठात्री देवी होने का वरदान दिया था। उनके इस वरदान से मां पार्वती का स्वरूप नीले रंग का हो गया और वे ‘नील सरस्वती’ कहलायीं। इसीलिए इस दिन नील सरस्वती का पूजन करने से धन और सम्पन्नता से सम्बंधित समस्याओं का समाधान होता है। वसंत पंचमी की संध्याकाल को ‘ऐं ह्रीं श्रीं नील सरस्वत्यै नमरू’ मंत्र का जाप कर गौ सेवा करने से धन वृद्धि होती है। ज्योतिष शास्त्र में वसंत पंचमी को स्वयंद्धि मुहूर्त घोषित किया गया है। अर्थात वसंत पंचमी के दिन किसी भी कार्य का श्रीगणेश बिना शुभ मुहूर्त विश्लेषण के किया जा सकता हैं। इस तिथि में किया गया हर काम निर्विघ्नपूर्ण होता है। सगाई, विवाह, यज्ञोपवीत, मुंडन, गृहप्रवेश और नए व्यापार के शुभारंभ के लिए वसंत पंचमी ऐसी शुभ तिथि मानी जाती है जिसके लिए किसी पंडित से मुहूर्त पूछने की आवश्यकता नहीं होती। इसीलिए जनसाधारण में वसंत पंचमी की प्रसिद्धि अनपूछे मुहूर्त के रुप में हो चुकी है।
अक्षराभ्यास का दिन है वसंत पंचमी
वसंत पंचमी के दिन बच्चों को अक्षराभ्यास कराया जाता है। अक्षराभ्यास से तात्पर्य यह है कि विद्या अध्ययन प्रारम्भ करने से पहले बच्चों के हाथ से अक्षर लिखना प्रारम्भ कराना। इसके लिए माता-पिता अपने बच्चे को गोद में लेकर बैठें। बच्चे के हाथ से गणेश जी को पुष्प समर्पित कराएं और स्वस्तिवचन इत्यादि का पाठ करके बच्चे की जुबान पर शहद से ‘ऐं’ लिखें तत्पश्चात स्लेट पर खड़िया से या कागज पर रक्त चन्दन का, स्याही के रूप में उपयोग करते हुए अनार की कलम से ‘अ’ और ‘ऐं’ लिखवा कर अक्षराभ्यास करवाएं। इस प्रक्रिया के पश्चात बच्चे से इस मंत्र का प्रतिदिन उच्चारण कराएं-
सरस्वती महामाये दिव्य तेज स्वरूपिणी।
हंस वाहिनी समायुक्ता विद्या दानं करोतु मे।
इस प्रक्रिया को करने से बच्चे की बुद्धि तीव्र होगी। इस मंत्र का जाप बड़े बच्चे भी वसंत पंचमी से प्रारम्भ कर सकते हैं, ऐसा करने से उनकी स्मरण शक्ति और प्रखर होगी।
सरस्वती के 12 नाम
सरस्वती के उपासक का सम्मान कभी नहीं घटता। सरस्वती जी के 12 नाम हैं- भारती, सरस्वती, शारदा, हंसवाहिनी, जगती, वागीश्वरी, कुमुदी, ब्रह्मचारिणी, बुद्धिदात्री, वरदायिनी, चंद्रकांति और भुवनेश्वरी। विद्या और बुद्धि की प्रदाता मां सरस्वती को संगीत की देवी भी कहा गया है। ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है- प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवस्त्।। अर्थात ये परम चेतना हैं। सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। हमारे भीतर जो मेधा है, उसका आधार भगवती शारदा ही हैं।
पौराणिक मान्यताएं
पुराणों के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने मां सरस्वती को वरदान दिया था कि आज के दिन सच्चे मन से जो भी तुम्हारी आराधना करेगा, वह विद्वान एवं गुणवान बन समस्त संसार को प्रकाशित करेगा। वसंत पंचमी से जुड़ी कई कथाएं प्रचलित हैं। त्रेतायुग में जब रावण ने माता सीता का हरण कर लिया, तब भगवान श्रीराम उन्हें ढूंढ़ते हुए अनेक स्थानों पर गए। उन्हीं में से एक स्थान था- दंडकारण्य, जहां शबरी नाम की एक भीलनी रहती थी। भगवान श्रीराम जब उसकी कुटिया में पधारे, शबरी अपनी सुध-बुध खो बैठी और उसने अपने झूठे बेर भगवान को खिलाए। भक्त-भगवान का वह अद्भुत मिलन वसंत पंचमी के दिन ही हुआ था। दंडकारण्य का ये क्षेत्र गुजरात व मध्य प्रदेश में फैला हुआ है। इस क्षेत्र के वनवासी आज भी एक शिला को भगवान श्रीराम का स्वरूप मान कर पूजते हैं।
बंगाल में हैं अनूठी परंपरा
यू ंतो पूजा की विधि लगभग हर प्रांत में अपनी-अपनी तरह की होती है, लेकिन इनमें जब कुछ अनूठी परंपराएं जुड़ जाती है तो यह और भी अलग हो जाती है। बंगल में बसंत पंचमी को ‘श्री पंचमी‘ के नाम से भी जाना जाता है। बंगाल के लोग शिक्षा को बहुत अधिक महत्व देते हैं अतः सरस्वती पूजा इनके लिए खास मायने भी रखता है। बंगाल में रिवाज है कि जिस बच्चे की उम्र विद्यालय जाने की हो जाती है, उसके द्वारा सरस्वती पूजा के दौरान उसे स्लेट, बत्ती यानी पेम, किताब, कापी का स्पर्श कराया जाता है। इस रस्म को ‘हाथेर खोड़ी‘ कहा जाता है। कई जगह इसे विद्या प्रासन भी कहते सुना गया है, अन्नप्रासन की तर्ज पर। मजे की बात यह भी है कि इस दिन एक ओर तो छोटे बच्चे का विद्या संस्कार पुस्तक का स्पर्श करा के किया जाता है, वहीं बच्चों को पुस्तक छूने की सख्त मनाही होती है। यानी िकइस दिन सारी किताबें-काॅपियां, स्लेट-पेंसिंल-पेन सब मां सरस्वती के समक्ष रख दी जाती है और इसे फिर उठाया नहीं जाता। जिसने विद्या दी, ये उसी को समर्पित कर, देवी सरस्वती से दोगुने रुप में वापस लेने की इच्छा का द्योतक हैं। पुस्तक न छूने के पीछे एक और बताया गया है कि इस दिन सरस्वती का पूरे मन से ध्यान लगाने की प्रथा हैं। सो समस्त पुस्तकें मां सरस्वती को समर्पित कर, उसी के सामने बैठ, माता सरस्वती को अपने दिल-दिमाग में बसा लेने के लिए ध्यान लगाया जाता है, इसलिए उस दिन किताबों को वहीं पूजन कक्ष में रखते है, उन्हें उठाया नहीं जाता। बंगाली मीठे के शौकीन होते हैं। बसंत पंचमी के दिन यहां के लोग मीठा खाना पसंद करते हैं। चावल में केसर, मेवा एवं चीनी मिलाकर उसे पकाते हैं। पुलाव की तरह का मीठा चावल इस दिन आमतौर पर लोगों के घरों में बनता है। बूंदिया एवं लड्डू माता को प्रसाद रूप में चढ़ाया जाता है। यह प्रसाद लोग एक दूसरे के भेंट भी करते हैं तथा स्वयं भी खाते हैं।
त्याग-बलिदान का प्रतीक
बंसत पंचमी के दिन केसरिया एवं पीले रंग का खाना खाने की परम्परा है। यह रंग ओज, उर्जा, सात्विक्ता एवं बलिदान का प्रतीक है। पीले रंग का भोजन बसंत पंचमी के दिन करने का तात्पर्य है कि हमारे शरीर में उर्जा की वृद्धि हो, हम सात्विक बनें और स्वार्थ की भावना से उठकर राष्ट्रहीत में बलिदान हेतु सदैव तैयार रहें
बिहार
बिहार में बंगाल की तरह ही बसंत पंचमी के दिन सरस्वती पूजा की धूम रहती है। इस अवसर पर बिहार के लोग माता सरस्वती को खीर, मालपुए का भोग लगाते हैं। माता को पीले एवं केसरिया रंग का बूंदिया अर्पित करते हैं। बसंत पंचमी के दिन मीठा खाने की परम्परा है। लोग मालपुए, खीर एवं बूंदिया खाते हैं।
झारखंड
झारखंड में भोले बाबा का मनोकामना शिवलिंग स्थापित है जिसे बाबा वैद्यनाथ के नाम से जाना जाता है। बसंत पंचमी के दिन देवघर में भोले नाथ का तिलकोत्सव मनाया जाता है। इस उत्सव की धूम से पूरा झारखंड उत्साहित रहता है। इस दिन लोग सरस्वती माता के साथ ही साथ भगवान शिव की भी पूजा करते हैं। भगवान शंकर को दूध से श्रद्धालु स्नान कराते हैं। उन्हें तरह-तरह के मिष्ठानों का भोग भी लगाया जाता है। इसमें पीले रंग की मिठाईयां भी शामिल होती हैं। लोग इस दिन मीठा भोजन करते हैं। भगवान श्री कृष्ण और राधा जी प्रेम की प्रतिमूर्ति हैं। शिव के द्वारा भष्म होने के बाद श्री कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के रूप में कामदेव का पुनर्जन्म हुआ था। कृष्ण की कृपा से ही कामदेव को पुनः शरीर मिला। इसका आभार व्यक्त करने के लिए भक्तगण बसंत पंचमी के दिन कामदेव के साथ-साथ भगवान श्री कृष्ण की पूजा करते हैं।
मथुरा
भगवान श्री कृष्ण का वस्त्र पीताम्बर है। उन्हें पीला रंग प्रिय है। भगवान श्री कृष्ण की जन्मभूमि मथुरा सहित वृंदावन में बसंत पंचमी के दिन कृष्ण भगवान की विशेष पूजा अर्चना की जाती है। इस मौके पर भगवान को विभिन्न प्रकार के मिष्ठानों का भोग लगाया जाता है। जो भी मिठाईयां इस अवसर पर भगवान को अर्पित किया जाता है उसका रंग पीला होता है। उत्तर प्रदेश में इस अवसर पर लोग पीले रंग की मिठाईयां एवं पीले रंग का मीठा चावल खाते हैं। इस दिन मथुरा में दुर्वासा ऋषि के मन्दिर पर मेला लगता है। सभी मन्दिरों में उत्सव एवं भगवान के विशेष शृंगार होते हैं। वृन्दावन के श्रीबांके बिहारीजी मन्दिर में बसंती कक्ष खुलता है। शाह जी के मंदिर का बसंती कमरा प्रसिद्ध है। यहाँ दर्शन को भरी-भीड़ उमड़ती है। मन्दिरों में बसंती भोग रखे जाते हैं और बसंत के राग गाये जाते हैं बसंम पंचमी से ही होली गाना शुरू हो जाता है। ब्रज का यह परम्परागत उत्सव है। इस दिन सरस्वती पूजा भी होती है। ब्रजवासी बंसती वस्त्र पहनते हैं।
अनोखी है कूका सम्प्रदाय का बसंत पंचमी
पंजाब में बसंत पंचमी के दिन पतंगोत्सव के द्वारा लोग शहीद संत राम प्रसाद कूका को भी याद करते हैं। इनका जन्म बसंत पंचमी के दिन हुआ था। राम प्रसाद कूका महाराजा रणजीत सिंह की सेना में सैनिक थे। बाद में यह संत बन गये। इनके विचारों को सुनकर बहुत से लोग इनके अनुयायी बन गये। राम प्रसाद कूका ने समाज सुधार के कार्य किये। अंग्रेजों ने इनके अनुयायियों को मौत के घाट उतार दिया तथा इन्हें बर्मा के मांडले जेल में भेज दिया जहां कठोर यातनाएं सहते हुए इनकी मृत्यु हो गयी।
पाकिस्तान में पतंगोत्सव
जश्न-ए-बहारा यानी बसंत पंचमी के मौके पर पाकिस्तान में भी भव्य आयोजन होता है। भारत के पंजाब प्रांत से सटे हुए पाकिस्तान के लाहौर प्रांत में बसंत पंचमी के दिन सुबह से लेकर अंधेरा होने तक लोगों के बीच पतंगबाजी की प्रतियोगिता चलती रहती है। लाहौर में पतंगोत्सव के पीछे लाहौर निवासी वीर हकीकत की कहानी बहुत ही मशहूर है। कहते हैं कि लाहौर में एक हकीकत नाम का व्यक्ति था जो स्कूल में पढ़ाता था। एक दिन स्कूल के प्रधानाचार्य मुल्ला जी कहीं बाहर गये हुए थे। हकीकत छात्रों को पढ़ा रहे थे। छात्र उनकी बात पर ध्यान देने की बजाय अन्य चीजों में मशगूल थे। इस पर हकीकत ने छात्रों को दुर्गा माता की कसम दी। छात्रों ने दुर्गा माता का मजाक उड़ाना शुरू कर दिया। हकीकत को यह बात अच्छी नहीं लगी और उसने छात्रों से कहा कि यदि मैं बीबी फातिमा को बुरा कहूं तो तुम्हें कैसा लगेगा। छात्रों ने मुल्ला जी के वापस आने पर उनसे शिकायत की कि हकीकत ने बीबी फातिमा को गाली दी है। यह बात काजी तक पहुंच गयी और हकीकत पर इस्लाम को स्वीकार करने के लिए दबाव डाला जाने लगा। हकीकत ने जब इस्लाम स्वीकार करना कुबूल नहीं किया तो उसे मृत्यु दंड की सजा दी गई। कहते हैं कि जैसे ही जल्लाद ने हकीकत के सिर पर तलवार चलाया हकीकत का सिर कटकर आसमान में चला गया। पाकिस्तान में लाहौर निवासी इस दिन पतंग उड़ाकर आसमान में हकीकत के सिर को सलामी देते हैं।
(सुरेश गांधी)