मजहब और धर्म भिन्न-भिन्न हैं । धर्म का सम्बन्ध व्यक्ति के आचरण से होता है और मजहब कुछ रहन-सहन के विधि-विधानों और कुछ श्रद्धा से स्वीकार की गई मान्यताओं का नाम है ।आचरण में भी जब बुद्धि का बहिष्कार कर केवल श्रद्धा के अधीन स्वीकार किया जाता है तो यह मजहब ही कहाता है । मजहब कभी भी व्यक्ति की मानसिक तथा आध्यात्मिक उन्नत का सूचक नहीं होता, वह सदा पतन का ही सूचक होता है । कभी संगठन के लिए मजहबी मान्यताएं सहायक हो जाती हैं, परन्तु वह सहायता सदा अस्थायी होती है और जो मानसिक दुर्बलताएँ तथा मूढता उत्पन्न होती है, वह घोर पतन का कारण बनती हैं ।
श्रद्धा पर आधारित समाज निरन्तर पतन की ओर ही जाता दिखाई देता है । जब श्रद्धा बुद्धि के अधीन की जाती है अर्थात श्रद्धा की बातों को समय-समय पर बुद्धि की कसौटी पर कस के उसमें संशोधन किया जाता रहता है, वह बुद्धिवाद कहाता है । वह प्रगत्ति का सूचक है । इस्लाम में ईश्वरीय कार्यों में अक्ल को दखल देना कुफ्र माना जाता है । इस कारण इस्लाम निरन्तर पतन की ओर जा रहा है । इसमें विशेषता है कि बुद्धि हीनता के साथ बनी श्रद्धा के साथ प्रत्येक प्रकार का बल सहायक होता है और इस बल का संचय करने के लिए प्रत्येक प्रकार के इन्द्रिय सुखों का प्रलोभन दिया जाता है । इस प्रकार इस्लाम की गाड़ी दो चक्कों पर चल रही हैl एक ओर सब प्रकार के इन्द्रिय सुखों का प्रलोभन है और दूसरी ओर इस्लाम के नाम पर किये गये सब प्रकार के अत्याचारों का पुरस्कार खुदा की ओर से बहिश्त दिया जाना बहुत बड़ी आशा हैl यह गाड़ी कब तक चलेगी, यह बता पाना कठिन है? परन्तु वर्तमान बुद्धिशीलों के लिए यह एक भयंकर भय व चिंता का कारण बना हुआ हैl भय यह है कि श्रद्धा में बंधे हुए और अज्ञानता में किये प्रत्येक प्रकार के पाप–कर्म का बहिश्त में मिलने वाले ऐश और आराम का प्रलोभन भले लोगों की चीख–पुकार को कुंठित कर रहा हैl
हिन्दू समाज ने इस श्रद्धावाद का विरोध श्रद्धा से ही करने का यत्न किया है । वह प्रयास आज भी उसी रूप में जारी है, किन्तु अभी तक यह प्रयास सफल नहीं हो पाया है । इस श्रद्धा का श्रद्धा से विरोध केवल एक बात में सफल हो पाया है । वह यह कि इस्लाम की श्रद्धा भारत में उस गति से और उस सीमा तक सफल नहीं हुई जिस सीमा तक यह अन्य देशों में हुई है । परन्तु शनैः–शनैः श्रद्धा की यह भित्ति गिरती जा रही है और जनसंख्या में हिन्दू– मुसलमान का अनुपात हिंदुओं के विरुद्ध जा रहा है । अंग्रेजी काल में इस्लाम के मानने वालों अनुपात तो मुग़ल और पठानों के काल से भी अधिक तीव्र गति से बढ़ता चला जा रहा था । इसका कारण है यूरोपियन रेंश्नेलिज्म । इसे यूरोपियन बुद्धिवाद भी कहा जा सकता है,परन्तु वास्तव में यह बुद्धिवाद नहीं है । यह तो एक प्रकार की मूढता को छोड़कर दूसरी प्रकार की मूढता को ग्रहण करना है । एक उदाहरण से इसे अच्छी प्रकार समझा जा सकता है । हिन्दुओं में किसी युग में सत्ती प्रथा प्रचलित थी । जिन लोगों को उस काल का कुछ भी ज्ञान है वे यह बता सकते हैं कि सत्ती प्रथा की व्यापकता तो बात थी, वह केवल नाम मात्र की प्रथा थीl जो महिलायें बिधवा हो जाती थी उनमे सत्ती होने वाली कदाचित एक प्रतिशत भी नहीं होती थी। कोई बिरला ही महिला होती थी जो सत्ती हो जाया करती थी । इन सत्ती होने वाली में हम उन महिलाओं की गणना नहीं करते जो किसी विधर्मी की विजय के समय उनके द्वारा किये जाने वाले बलात्कार के भय से सत्ती हो गई थीं । वह तो एक सीमा तक देश विभाजन के समय पंजाब में भी हुआ था । यह किसी रीति –रिवाज के कारण नहीं किया गया था । उन्होंने इसकी आवश्यकता को अनुभव किया और सत्ती हो गईं । इसके आधार पर तो यही कहा जा सकता है कि सत्ती की प्रथा तो विद्यमान थी, किन्तु यह अनिवार्य नहीं थी । ऐसा तो कभी–कभी व्यापार में अत्यधिक हानि होने पर पुरूष भी निराश होकर आत्महत्या कर लिया करते हैं । स्वेच्छा से की जाने वाली आत्महत्या में कभी–कभी सार्वजनिक प्रशंसा अथवा दबाव भी होता देखा गया था, परन्तु यह बात विरली ही होती थी । ईसाई पादरियों ने इसे प्रचार का माध्यम बनाकर हिन्दू समाज की निन्दा करनी आरम्भ की और उसके आश्रय पर ईसाईयत का प्रचार करना आरम्भ किया, परन्तु अंग्रेजी पढ़े–लिखे लोग आज भी इसको समाज का एक महान दुर्गुण बता रहे हैं । इस प्रकार अनजाने में ही हिन्दू समाज की अन्य अनेका अच्छी बातों को छिपाए रखने में साधन बन रहे हैं । इसका अभिप्राय यह नहीं है कि हम सत्ती प्रथा को मान्यता देना चाहते हैं अथवा उसका पुनर्प्रचलन करना चाहते हैं । हमारी दृष्टि में तो यह हिन्दू समाज का ऐसा व्यवहार है जो कि अन्धश्रद्धा पर आधारित था । सत्ती प्रथा जिसे जौहर कहा जाना चाहिए उसके सम्मुख हम नतमस्तक हैं । जौहर बुद्धि गम्य है जबकि मात्र सत्ती हो जाना कोरी श्रद्धा है ।
इसी प्रकार मूर्ति पूजा का प्रश्न है । मूर्ति पूजा पर श्रद्धा करना एक प्रकार से हीन प्रथा है, परन्तु मूर्ति पूजा का बौद्धिक रूप भी है, जिसे हम स्वीकार करते हैं । जब कभी भी हम नरसिंह अवतार को हिरण्यकशिपु का पेट फाड़ते हुए का चित्र देखते हैं तो हमको मेजिनी और गैरीबाल्डी का शौर्यपूर्ण कृत्य स्मरण होने लगता है । इन दोनों ने जनता के बल के आधार पर इटली सर ऑस्ट्रिया वालों को खदेडकर बाहर कर दिया था । इसके स्मरण आते ही नरसिंह को इसी रूप में स्मरण कर उसके सम्मुख हाथ जोड़ कर प्रणाम करने को मन करता है । यह है मूर्ति पूजा का बौद्धिक रूपl जब मर्यादा पुरुशोत्तम श्रीराम और लक्ष्मण को धनुष-वाण कन्धे पर लिए सीता के साथ वन में विचरण करते हुए का चित्र देखते हैं तो रावण तथा उसके जैसे अन्य राक्षसों के अत्याचार से पीड़ित वनवासियों को स्मरण कर श्रीराम और लक्ष्मण के सम्मुख नतमस्तक हो जाते हैं । यह है मूर्ति पूजा का बौद्धिक रूप । ईसाईयों ने हिंदुओं के इन रिवाजों को निन्दनीय कहना आरम्भ किया । अङ्ग्रेजी शिक्षा ने इसको मिथ्या श्रद्धा कह कर हिन्दू युवकों को इनके विपरीत करने का यत्न किया, क्योंकि हिन्दू समाज इसका बौद्धिक रूप न समझ सका और न समझा ही सका । सरकारी शिक्षा प्राप्त करने वाले हिन्दू युवक हिन्दुओं की इन प्रथाओं को मूर्खता कहने लगे तो हिन्दू समाज अपने ही घटकों को इनकी बौद्धिकता का बखान नहीं कर सका । उसका परिणाम यह हुआ कि अङ्ग्रेजी शिक्षा ग्रहण किया भारतीय युवक हिन्दू रीति–रिवाजों को मूर्खता मानने लगा और इस प्रकार हिन्दुओं की जनसँख्या का अनुपात कम होने लगा । अंग्रेजीकाल में मुसलमानों की संख्या बढ़ने का यही मुख्य कारण रहा है । इसका अभिप्राय यह है कि अङ्ग्रेजी राज्य काल में हिन्दुओं का अनुपात में से मुसलामानों की संख्या में वृद्धि का मुख्य कारण तत्कालीन शिक्षा थी । उस शिक्षा के साथ हिन्दू समाज अपने रीति-रिवाज में बौद्धिक आचार का विश्लेषण करने में असमर्थ था । वह श्रद्धा का राग ही अलापता रहा। एक उदाहरण से इसे अधिक स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है । इस्कोन और अन्यान्य कई कृष्ण मंदिरों तथा गोरखपुर में गीता भवन की दीवार के साथ भगवान श्री कृष्ण की जन्म–लीला के बहुत ही सुन्दर चित्र सजाये गए हैं । भवन के एक छोर से दूसरे छोर तक सारे के सारे चित्र कृष्ण के जन्म से आरम्भ कर कंस की ह्त्या तक के ही वे सारे चित्र हैं । उन सब चित्रों को देखने से विस्मय होता है कि आज पाँच सहस्त्र वर्ष तक भी श्रीकृष्ण क्या इस बाल –लीला के आधार पर ही स्मरण किये जाते हैं? ये लीलाएं सत्य हो सकती हैं, परन्तु कृष्ण की विश्व की ख्याति की वे मुख्य कारण नहीं हो सकतीं । श्रीकृष्णका वास्तविक सक्रिय जीवन तो उस समय से आरम्भ हुआ मानना चाहिए जब उन्होंने युद्धिष्ठिर को राजसूय यज्ञ के लिए प्रेरित किया था । श्रीकृष्ण के जीवन का सुकीर्तिकर कर्म तो वह था जब उसने वचन भंग करने वाले परिवार के सभी सदस्यों को सुदर्शन चक्र से मृत्यु के घाट उतार दिया था । श्रीकृष्ण ने तब यह सिद्ध कर दिया था कि वह जो कहता है उस पर आचरण भी करता है । श्रीकृष्ण ने श्रीमदभगवद गीता अध्याय 2-120 में कहा था-
न जायते भ्रियते भ्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोअयं पुराणों न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।
– श्रीमदभगवद गीता अध्याय 2-120
अर्थात्- यह आत्मा न तो कभी उत्पन्न होता है और न मरता है । ऐसा भी नहीं कि जब एक बार अस्तित्व में आ गया तो दोबारा फिर आएगा ही नहींl यह अजन्मा है , नित्य है , शाश्वत्त है , पुरातन हैl शरीर का वध हो जाने पर भी यह मारता नहीं है । जब बन्धु – बान्धवों ने भी वही किया जो दुर्योधनादि ने किया था तो उसने जो अपने बन्धु – बान्धवों के साथ करने को अर्जुन को कहा था वही स्वयं भी किया । वह था कृष्ण का बौद्धिक व्यवहार । देश की वर्तमान राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में से उपजी आज की कठिनाई में भी जाति को इसी प्रकार की बौद्धिक व्यवहार की प्रेरणा दी जानी चाहिए । इस व्यवहार से इस्लाम जैसी निकृष्ट जीवन-मीमांसा से सुगमता से पार पाया जा सकता है । हमें अपनी उन सब मान्यताओं को, जिनका आधार बुद्धि वाद है , लेकर हिन्दू जाति के द्वार को खोल देना चाहिए और सबको अपने समाज में समा जाने के लिए आमंत्रित करना चाहिएl इस प्रकार सहज ही समाज की सुरक्षा का प्रबंध हो सकता हैl हमे किसी को अपनी मान्यता छोड़ने कि बात नहीं कहनीl उनके पीर–पैगम्बरों की यदि कोई बात बुद्धि गम्य हो तो उसको भी छोड़ने के लिए हम नहीं कहते, परन्तु मूढ़ श्रद्धा के सम्मुख हम बुद्धिवाद का बलिदान नहीं कर सकते l बुद्धि की दृढ चट्टान पर स्थित होकर हम अपने मार्ग पर चलने लगे तो सुख – शान्ति और समृद्धता निश्चित है, इसमें कोई संशय नहीं .
-अशोक “प्रवृद्ध”-
गुमला
झारखण्ड