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चुनाव : लोकसभा के दोनों उपचुनावों से रहा श्री चैहान का ही संबंध

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shivraj chauhan
वर्ष 1991 के पूर्व विदिषा संसदीय क्षेत्र के मतदाताओं का कभी उपचुनाव से वास्ता नहीं पड़ा था। लेकिन जब उपचुनाव से वास्ता पड़ा तो लोकसभा के दोनों उपचुनावों का संबंध षिवराज सिंह चैहान से ही रहा है। प्रथम उपचुनाव (1991) से जहां षिवराज सिंह चैहान के संसदीय जीवन का श्रीगणेष हुआ तो विदिषा में बाद मे दूसरा उपचुनाव भी श्री चैहान द्वारा सांसद पद से त्याग पत्र देने के कारण ही हुआ, क्योंकि मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने अपनी लोकसभा सदस्यता से त्याग पत्र दे दिया था। भाजपा के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने सन 1991 में संपन्न लोकसभा आम चुनाव में इस सीट से विजयी होने के बाद उन्होंने इस सीट का परित्याग कर दिया था, जिससे उसी वर्ष प्रथम उपचुनाव हुआ, जिसमें श्री चैहान पहली मर्तबा सांसद बने। 
दरअसल हुआ यह था कि आम चुनाव के नामांकन के अंतिम दिवस श्री वाजपेयी अचानक विदिषा कलेक्ट्रेट पहुंच गए और उन्होंने नामांकन प्रस्तुत करने की जानकारी दी। उस वक्त कांग्रेसी प्रत्याषी प्रतापभानु शर्मा भी अपने समर्थकों सहित कलेक्ट्रेट में नामांकन प्रस्तुत करने मौजूद थे। श्री वाजपेयी के इस आकस्मिक आगमन से कांग्रेसी हक्के-बक्के रह गए। श्री वाजपेयी के आगमन की खबर पाकर भाजपा समर्थक भी कलेक्ट्रेट पहुंच गए। नतीजे में कुछ ऐसा हुआ कि दोनों ओर से जमकर नारेबाजी होने के साथ कलेक्ट्रेट पर पथराव भी होने लगा। कांग्रेसी एक ओर जहां वाजपेयी वापस जाओं के नारे लगा रहे थे तो भाजपा के लोग वाजपेयी की जय-जयकार कर रहे थे। गौरतलब है कि श्री वाजपेयी इसके पूर्व हुए आम चुनाव में ग्वालियर से प्रत्याषी रहे थे। उधर माधवराव सिंधिया ने ग्वालियर में नामांकन के अंतिम दिवस अचानक पहुंचकर श्री वाजपेयी के विरूद्ध नामांकन दाखिल कर दिया था, जिससे श्री वाजपेयी को अन्य किसी सीट से चुनाव लड़ने का मौका नहीं मिला था और वे पराजित भी हुए। इसी घटना से शायद उन्होंने यह कदम उठाया। विदिषा में नामांकन के समय इस प्रकार की पहली अप्रिय घटना हुई।

जब जीत के अंतर से भी अधिक मत हुए निरस्त
इस संसदीय क्षेत्र में ऐसा भी हुआ कि जो प्रत्याषी जितने मतों के अंतराल से चुनाव जीता, उसी चुनाव में उससे भी अधिक मत निरस्त होते रहे। वर्ष 1980 में कांग्रेस प्रत्याषी प्रतापभानु शर्मा इस क्षेत्र से 5 हजार 80 वोटों से विजयी हुए थे, जबकि इसी चुनाव में निरस्त मतों की संख्या 8 हजार 425 थी। इसी तरह 1984 में भी वे ही कांग्रेस प्रत्याषी जब 9 हजार 553 मतों से विजयी हुए, जबकि इसी चुनाव में निरस्त मतों की संख्या 12 हजार 508 थी। अर्थात इन चुनाव में निरस्त मतों की संख्या जीत-हार के मतों की संख्या से अधिक थी, जो चुनावों के परिणामों को भी प्रभावित कर सकती थी।  





-जगदीश शर्मा
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