इनकी बातों में ‘किमाम की खुशबू’ है। ये ‘जिगर की आग से बीड़ी जला’ देते हैं। इनका ‘आशिक सड़कों पर रिक्शा सा’ मिलता है। इनका प्रेमी जोड़ा ‘गिलहरी के झूठे मटर’ साथ बैठ खाता है। वो ‘दिल की कचहरी’ लगाते हैं। इनका ‘दिल तो बच्चा’ भी है और ‘कमीना’ भी। वह उन गलियों को छोड़कर आए हैं, जहां हंसी सुन-सुन कर फसल पका करती थी, एड़ियों से धूप उड़ा करती थी। वह जिंदगी से नाराज नहीं, बस हैरान होते हैं। वह गुस्से में सरहद पर खींची लकीरों पर कबड्डी खेलना चाहते हैं। उनकी खामोशी भी उनकी आवाज है ...पर वह जानते हैं कागज कि कश्तियों का किनारा नहीं होता इसलिए वह दिल निचोड़ते हैं, रातों की मटकी तोड़ते हैं, गुडलक निकालते हैं। वह चैन-वैन सब उजाड़ते हैं। वह कलेजा चाकू की नोंक पर रखते हैं। उनकी उम्र कब की सफेद हो गई है पर दिल तो बच्चा है जी, इसलिए कजरारे नैनो की बात करते हैं, जिगर से बीड़ी जलाकर नमक इश्क का चटाते हैं।
उनकी आंखें कमाल करती हैं, पर्सनल से सवाल करती हैं। उनकी बातों में किमाम की खुशबू है ... इतनी कि बीते 50 से अधिक बरस से सिनेमा उनके होने भर से गुलजार है। वक्त को रोककर आगे न बढ़ने देना या फिर कभी दौड़कर वक्त से आगे निकल जाना। वक्त से दोस्ती निभाना और फिर कभी नाराज होकर सारी-सारी रात बस शिकायतें लिखना। जी हां गुलजार का कुछ ऐसा ही अल्हदा अंदाज है और उनका यही अंदाज उन्हें फिल्म इंडस्ट्री के बाकी गीतकारों से अलग लाकर खड़ा कर देता है। गानों में मिट्टी की महक गुलजार ने अपने गानों को कभी हिंदी या आदर्श शब्दों की सीमाओं में नहीं बांधा। उनके गीत अल्फाज नहीं जज्बात की बात कहते हैं। और इन्हीं जज्बातों को बयां करने के लिए गुलजार ने कुछ ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया
जो आमतौर पर गीतों में इस्तेमाल नहीं होते हैं या जिनको गानों में इस्तेमाल करने के बारे में हम सोच भी नहीं सकते। मसलन ‘बीड़ी’, ‘किमाम’, ‘फुर्रर’, ‘रिक्शा’, ‘बोसा’, ‘इब्ने बतूता’, ‘कमीना’ और ‘खसमानूखां’ जैसे ठेठ शब्द उन्होंने गानों में इस्तेमाल किए। गुलजार की इस तरह के शब्दों के इस्तेमाल के लिए आलोचना भी हुई लेकिन लोगों ने इन गानों को बेहद पसंद किया। आम बोलचाल के शब्दों को गानों में लेने की वजह से ये गाने आम से लेकर खास तक में मशहूर हुए। गुलजार ‘कमीने’ और ‘खस्मानूखां’ जैसे शब्दों के इसतेमाल के बारे में कहते हैं कि ये अपशब्द नहीं हैं, बल्कि ये तो प्यार से दी हुईं गालियां हैं जो हम अक्सर रोजमर्रा की जिंदगी में सुनते रहते हैं।
गुलजार के ये ठेठ शब्द गाने को अजीब नहीं बनाते बल्कि उन्हें और ज्यादा मिट्टी से जोड़ देते हैं। अक्सर ऐसा भी कहा जाता है कि गुलजार की रचनाएं क्लास ऑडियंस के लिए ही होती हैं। लेकिन ऐसे गाने इस सोच को भी गलत साबित करते हैं। अब उनकी ही परंपरा को आगे बढ़ाने का काम प्रसून जोशी और स्वानंद किरकिरे जैसे गीतकार कर रहे हैं। गुलजार के गाने लीक से हटकर जरूर होते हैं लेकिन फिर भी सभी को अपील करते हैं। उनके ये गाने आम आदमी की भाषा में ही उसके दिल की आवाज है जिनमें बसी है मिट्टी की खुशबू। गुलजार... यानी कभी हाथों से धूप मलना, कभी ठंड लगने पर धूप ओढ़ लेना और सावन में पीली धूप पहन के बागों में निकल जाना।
उनकी उम्र उनके ख्यालों से नहीं उलझती। 80 की उम्र में भी उनमें एक बच्चा है, जो कभी पिंजरे में चांद मांगता है तो कभी लालटेन देकर कहता है, आसमां पर टांगो। उनकी खासियत उनकी सादगी है। आंखों पर चश्मा चढ़ाकर खामोशी से जिंदगी की हर शर्त को बिना बहस समझना चाहते हैं। वह कहते हैं, जिंदगी कैसी है पहेली, कभी ये हंसाए, कभी ये रुलाए। वह जिंदगी से गले लगाने की गुजारिश करते हैं और कहते हैं, ए जिंदगी गले लगा ले, हमने भी तेरे हर एक गम को गले से लगाया है, है ना। उनका ये अंदाज ही उन्हें सदाबहार बनाता है। बीते 50 साल से लगातार वह लिख रहे हैं और उनके लिखे लफ्ज हर बार दिलों को छूते रहे। वक्त के साथ खुद को बदलते रहना और लफ्जों को पीछे न छूटने देना उन्हें बखूबी आता है।
गुलजार खुद कहते हैं, 'मैं नया लिखने की बहुत कोशिश नहीं करता, मैं बस कोशिश करता हूं, जो कुछ पीछे छूट रहा है, उसे आगे ले आऊं। बीड़ी जलई ले (ओंकारा) गाने में लिहाफ और गिलाफ जैसे शब्द ऐसी ही कोशिश थे। मैंने अपनी जिंदगी में जो कुछ देखा या महसूस किया है, वह सब मेरे गीतों, गजलों या कहानियों के जरिए सामने आता रहा है और आगे भी ये कोशिश जारी रहेगी।' गुलजार की खासियत ही उनका सरल होना है। वह कुछ ऐसा नहीं लिखते जिसको समझने के लिए दिमाग उलझाना पड़े। वह तो गीत भी सीधे-सीधे शब्दों में ही लिखते हैं। वह ठहर कर लिखते हैं, तो आंखें छलक उठती हैं। गुलजार साहब की खूबी यह है कि वह पॉयट्री में प्रोज की जगह बना लेते हैं।
...और तो और उनकी सीधी-सपाट लाइनें दिल को गहरे तक छूती हैं। जैसे फिल्म 'इजाजत'का उनका लिखा गाना 'मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है ... इस गाने को लेकर एक किस्सा काफी प्रचलित है। यह गाना लिखकर जब गुलजार साहब ने आरडी बर्मन साहब को दिया तो उन्होंने कहा कि एक दिन आएगा, जब तुम मुझे अखबार उठाकर दोगे और कहोगे कि धुन बना दो। हालांकि उस वक्त बर्मन साहब के साथ मौजूद आशा भोसले ने यह गाना गुनगुनाया, जिसके बाद आरडी बर्मन साहब ने धुन कम्पोज की और यह गाना बहुत बड़ा हिट साबित हुआ। ऐसे एक नहीं कई उदाहरण हैं, जैसे ऐ जिंदगी गले लगा ले, हमने भी तेरे हर एक गम को गले से लगाया है...। इसके अलावा तुझसे नाराज नहीं जिंदगी, हैरान हूं मैं - में भी गुलजार सीधे कहानी लिखते नजर आए। गीतों में कहानी लिखने का हुनर उन्हें दूसरों से अलग करता है। वह हमेशा किसी दूसरे के कहे मुताबिक नहीं लिखते रहे। उन्होंने हर बार वह लिखा, जो खुद महसूस किया शायद इसीलिए वह गूंगी आवाजों की खामोशियों को भी सुन लेते हैं। वह आंखों में महकती खुशबू देख लेते हैं। शब्दों को बहुवचन में इस्तेमाल करना भी उनका खास अंदाज है और वक्त के बदलते मिजाज को भी उन्होंने बखूबी समझा है। उनके लिखे गीतों में अंग्रेजी हिंदी के साथ ऐसी बुनी होती है कि वह किसी कारीगर के डिजाइन-सी गीत की खूबसूरती बढ़ाती है।
जैसे बंटी और बबली फिल्म का आंखें भी कमाल करती हैं, पर्सनल से सवाल करती हैं। इसके अलावा तीन थे भाई का टाइटल ट्रैक लिसन, सुनो भाई, तीन थे भाई। पिजन, कबूतर। पैरट, तोता। तीजा तितली, बटरफ्लाई, तीन थे भाई। गुलजार के इस तरह के प्रयोग उन्हें दूसरों से अलग करते हैं और उनकी गहराई को बयां करते हैं। बीते 50 साल से लगातार बढ़िया लिखने का राज वह कुछ यूं बयां करते हैं, 'ईमानदारी से परखकर काम किया और जैसा महसूस किया वैसा ही लिखा। किताबों के हवाले से कभी नहीं कहा। वक्त के साथ एक जिद है, जो खुद को तैयार करती है। मुझे तसल्ली होती है, जब कुछ अच्छा लिख पाता हूं। वक्त के साथ सिनेमा बदला है, इसलिए मिजाज बदला है। हालांकि मैंने बस लफ्जों की हेराफेरी की है। अंदाज वही पुराना है।'
फिल्मों में दिखाते रहे हकीकत
गुलजार की फिल्में भी उनके गीतों की तरह है दिल में घर करने वाली हैं। उन्होंने अपनी फिल्मों में कहानी को इतनी सरलता से पेश किया कि किसी बहते पानी की तरह वह दिलों को पूरी तरह भिगो गए। उन्होंने 21 फिल्मों का निर्देशन किया। बतौर निर्देशक उनकी पहली फिल्म मेरे अपने (1971) थी। इसके अलावा उन्होंने अंगूर, आंधी, मौसम, खुशबू, लिबास, इजाजत, माचिस जैसी लाजवाब फिल्में बनाईं। 1999 में हू-तू-तू बतौर निर्देशक उनकी आखिरी फिल्म थी। ऐसे तो गुलजार की हर फिल्म खास थी पर उनमें से कुछ वाकई लाजवाब थीं।
मेरे अपने (1971) : गुलजार की यह फिल्म उस समाज का आइना दिखाती है, जहां छोटी-छोटी लड़ाइयां बड़ी बन जाती हैं। समाज में बढ़ती बेरोजगारी और बदलते माहौल के बीच युवाओं की हालात को इस फिल्म ने बयां किया। बेरोजगारी और अकेलेपन से जूझते नायक की यह कहानी कई सवाल उठाती है। साथ ही फिल्म ने यह भी समझाया कि एकता कितने कामों को आसान करती है।
अचानक (1974) :गुलजार ने समाज के उन विषयों को चुना, जो हमें सोचने पर मजबूर करते हैं। फिर भी उनके बारे में बात नहीं होती। 'अचानक'की कहानी भी ऐसी ही थी। इसमें फांसी पाया हुआ नायक, जो बीमारी से मर रहा है, को बीमारी से बचाकर फांसी दी जाती है। नायक को बचाया ही इसलिए जाता है, ताकि उसे मौत दी जा सके। इससे बड़ी समाज की विसंगति क्या होगी।
इजाजत (1987) :यह तलाक ले चुके पति-पत्नी की कहानी है। कहानी तलाक के बाद एक रेलवे स्टेशन पर मिले पति-पत्नी की है। दोनों को सुबह की गाड़ी पकड़नी है और रात को दोनों एक साथ वेटिंग रूम में बिल्कुल पहले की तरह बातें करते हैं। कहानी फ्लैश बैक में चलती है, पर हर सीन दिल को छूता है। रात भर की बातचीत में पति यह तय कर लेता है कि उसे अपनी पत्नी को साथ ले जाना है तो सुबह उसकी पत्नी का दूसरा पति आ जाता है। यह पूरी कहानी कविता की तरह रिश्तों का ताना-बाना बुनती है और इसके गीत इसमें जान फूंकने का काम करते हैं।
माचिस (1996) : गुलजार ने 'माचिस'बनाकर उस दर्द को भी बयां किया, जो बंटवारे के बाद हजारों दिलों में दबा बैठा था। आतंकवाद पर आधारित इस फिल्म ने हकीकत की गहराई में उतरकर बेबसी की सच्चाई बयां की। फिल्म में नायक हालात से परेशान होकर अपने लिए अलग राह चुनता है। सिस्टम और हालात पर सवाल खड़े करती यह फिल्म हिट साबित हुई। फिल्म के गीत आज भी लोगों को भाते हैं।
कलम से निकले कुछ यादगार डायलॉग
जिंदगी और मौत ऊपरवाले के हाथ है जहांपनाह, जिसे ना आप बदल सकते हैं, न हम। हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं, जिनकी डोर ऊपरवाले के हाथ बंधी है। कब कौन कैसे उठेगा, ये कोई नहीं बता सकता है। -आनंद
वही शहर, वही गली, वही घर
सब कुछ वही तो नहीं, पर है वहीं
- इजाजत
छोटे-छोटे लोगों के लिए छोटी-छोटी बातें बहुत मायने रखती हैं। तेरे घर में ड्राइवर है, कभी तूने उसे नाम से बुलाया। एक बार बुला के देख। बिक जाएगा, तेरा गुलाम हो जाएगा।
- नमक हराम
जिंदगी और मौत ऊपरवाले के हाथ है जहांपनाह, जिसे ना आप बदल सकते हैं, न हम। हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं, जिनकी डोर ऊपरवाले के हाथ बंधी है। कब कौन कैसे उठेगा, ये कोई नहीं बता सकता है। -आनंद
वही शहर, वही गली, वही घर
सब कुछ वही तो नहीं, पर है वहीं
- इजाजत
छोटे-छोटे लोगों के लिए छोटी-छोटी बातें बहुत मायने रखती हैं। तेरे घर में ड्राइवर है, कभी तूने उसे नाम से बुलाया। एक बार बुला के देख। बिक जाएगा, तेरा गुलाम हो जाएगा।
- नमक हराम
---दीपक कुमार---
लेखक अमर उजाला में कार्यरत हैं
9555403291
deepak841226@gmail.com