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विशेष आलेख : बुनियादी ढ़ाचे का अभाव झेलती स्कूली शिक्षा

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किसी भी देश के विकास क¨ नापने के तीन महत्पूर्ण बिंदु हैं- जीवन दर, शिक्षा अ©र आय सूचकांक। इन्हीं तीन बिंदुअ¨ं के आधार पर दुनिया के किसी भी देश की प्रगति का हिसाब लगाया जा सकता है। यूं त¨ भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया भर के अर्थशास्त्रिय¨ं के बीच एक तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था के रूप में गिनी जा रही है। लेकिन इन मानव सूचकांक¨ं में से एक सबसे महत्वपूर्ण पक्ष शिक्षा की वास्तविक हालत कहीं से भी एक विकास के करीब पहुंचती अर्थव्यवस्था के लिए आदर्श स्थिति नहीं ह¨ सकती है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद (21) के अनुसार बुनियादी षिक्षा को बच्चों का मूलभूत अधिकार करार दिया गया है जिसके तहत 6 साल से लेकर 14 के सभी बच्चे बुनियादी षिक्षा हासिल कर सकेंगे। बच्चों को बुनियादी षिक्षा देने की जि़म्मेदारी भारत सरकार के कंधों पर है। बुनियादी षिक्षा की व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए जम्मू एवं कष्मीर सरकार ने हालिया कुछ वर्शों में स्कूलों के निर्माण पर खास ध्यान दिया है। जम्मू कष्मीर इंस्टीट्यूट आॅफ मैनेजमेंट की एक रिपोर्ट के मुताबिक 1950 -1951 में जहां राज्य में 1,115 प्राईमरी स्कूल और 139 मीडिल स्कूल थेे, वहीं 2005-2006 में यह तादाद बढ़कर 19,178 और 5,788 हो गयी। यह वह आंकड़े हैं जो राज्य सरकार की षिक्षा के क्षेत्र में  उपलब्धियों को दरषा रहे हैं। लेकिन अगर जम्मू प्रांत के पुंछ जि़ले की बात की जाए तो यहां षिक्षा की व्यवस्था दम तोड़ती हुई नज़र आती है। यहां षिक्षा की स्थिति को देखकर ऐसा लगता है कि सरकार की सारी योजनाएं सिर्फ कागज़ांे तक ही सीमित रह गयीं हैं। पुंछ से 25 किलोमीटर की दूरी पर मंडी तहसील के साथरा ब्लाॅक में स्थित धड़ा गांव में षिक्षा की स्थिति भी कुछ इसी तरह की है। 2005 में षिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बावजूद यहां के बच्चों के लिए गुणवŸाापूर्ण बुनियादी षिक्षा हासिल करना किसी सपने के हकीकत में बदलने की तरह ही है। यहां के प्राईमरी स्कूल के भवन की नींव 1968 में रखी गई थी। इस स्कूल में आज तक वही दो कमरे हैं जो इसकी बुनियाद के वक्त थे। हां इतना ज़रूर हुआ है कि साल 2010 में इस स्कूल को मीडिल का दर्जा दे दिया गया है, मगर अभी तक इस स्कूल की इमारत में कोई तरक्की नहीं हुई है। स्कूल की छत न होने की वजह से अध्यापकों को बरसात के दिनों में स्कूल बंद रखना पड़ता है जिसका खामियाज़ा स्कूल में पढ़ने वाले बच्च¨ं क¨ भुगतना पड़ता है।  और तो और स्कूल में अध्यापकों के बैठने के लिए न तो कोई कुर्सी है और न ही बच्चों के बैठने के लिए किसी भी प्रकार का इंतज़ाम। जबकि पुंछ जिले की सलाना गतिविधि रिप¨र्ट के अनुसार स्कूल¨ं की संरचनात्मक व्यवस्था तथा प्रबंधन के लिए 47.76 लाख रुपए आवंटित किए गए थे अ©र उनका पूरा इस्तेमाल किया जा चुका है। अब कागज¨ं में लिखी इस कहानी की हकीकत का अंदाजा इन स्कूल¨ं की हालत से लगाया जा सकता है। 

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स्कूल की सरंचनागत समस्याअ¨ं के साथ-साथ छात्र अध्यापक¨ं की लापरवाही क¨ भी झेल रहे हैं। महान दार्शनिक अरस्तु के अनुसार, ‘‘ज¨ बच्च¨ं की शिक्षित करते हैं उनका पैदा करने वाल¨ं से ज्यादा आदर ह¨ना चाहिए, क्य¨ंकि इन्ह¨ंने उन्हें केवल जीवन दिया जबकि शिक्षित करने वाल¨ं ने उन्हें जीने की कला सिखाई।’’ लेकिन यहां के अध्यापक जीवन जीने की कला सिखाना त¨ बहुत दूर की बात हैं स्कूल आने की मेहरबानी भी बहुत कम करते हैंे। अध्यापक रोज़ आने के बजाय बारी बारी से आते हैं। मतलब यह है कि अगर स्कूल में छह अध्यापक हैं तो दो दो करके स्कूल में हाजि़र होते हैं। स्कूल के अध्यापक वेतन तो सरकार से लेते हैं, मगर काम वह अपने घर का करते हैं। इन अध्यापकों को बच्चों के भविश्य की इतनी चिंता है कि इनके स्कूल आए बगैर ही सप्ताह भर की उपस्थिति लगा दी जाती है ताकि मीड डे मील में इनकी तादाद ज़्यादा दिखाई जा सके। गुणवत्ता वाली षिक्षा की अगर बात न की जाए तो बेहतर है क्योंकि आप किसी की गुणवत्ता की बात कर रहे हैं, बच्चों की या अध्यापकों की। स्कूल के सातवीं कक्षा के छात्र अल्ताफ अहमद मीर कहते हैं कि हम एक गरीब माता-पिता की संतान हैं, हमारी इतनी आमदानी नहीं है कि किसी हम किसी प्राईवेट स्कूल में पढ़ाई कर सकें। प्राईवेट स्कूल की इमारत देखकर ही हमें षर्म आती है और हम अपने भविश्य को देखकर मायूस हो जाते हैं। क्योंकि कहां प्राईवेट स्कूल में कुर्सी मेज़ और कहां हम लोग पत्थर पर बैठकर पढ़ाई करते हैं। सरकारी की ओर से षुरू की गई मीड डे मील स्कीम का मकसद तो यह था कि ज़्यादा से ज़्यादा बच्चों को स्कूल के करीब क्या जा सके। मगर इस स्कूल का हाल यह है कि सप्ताह में तीन ही दिन बच्चों को मीड डे मील के तहत खाना दिया जाता है। गांव के स्थानीय निवासी अंसार दीन के मुताबिक इस स्कूल की बदहाली जैसी चार पांच साल पहले थी वैसी आज भी है। स्कूल हमारे घर के काफी निकट है, इसलिए बच्चों को स्कूल जाने में काफी आसानी रहती है, मगर स्कूल की इमारत को देखकर खौफ होता है कि हमारे बच्चे कहीं इसकी वजह से किसी मुसीबत का षिकार न हो जाएं। मोहम्मद लियाकत हज्जाम ने बताया कि सरकार हमसे नाराज़ है, इसलिए हमारी ऐसी हालत होती जा रही है। हमारे गांव धड़ा वालों की हालत जानवरों से बदतर है। स्कूल की षौचालय की हालत बाज़ार में रखे मुर्गे के पिंजरे से भी बदतर है। स्कूल में पीने के पानी का कोई इंतज़ाम नहीं है। इसके अलावा कोई भी सरकारी अधिकारी स्कूल का जायज़ा लेने के लिए काफी लंबे समय से नहीं आया है। इस बारे में गांव के स्थानीय निवासी षफी कादरी कहते हैं कि स्कूल के भवन निर्माण के लिए आठ लाख रूपये दिए गए हैं लेकिन अभी तक काम षुरू नहीं हो सका है। 2010 में अपग्रेड होने के बावजूद स्कूल में सिर्फ 40 बच्चे हैं, जबकि पांच अध्यापक हैं। शिक्षा के ये हालात कैसे तैयार करेंगे ऐसे न©जवन¨ं क¨ समुदाय के विकास के लिए अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल करेंगे। शिक्षा की यह दुर्गति ना सिर्फ इन बच्च¨ं के भविष्य के साथ बेइंसाफी है बल्कि इस देश के विकास के लिए भी एक प्रश्नचिन्ह है।




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मकसूद आलम
(चरखा फीचर्स)

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