जमसौत क़स्बा बिहार की राजधानी पटना से लगभग 25 किलोमीटर की दूरी पर है, जहां 30 साल की रीता देवी से मेरी मुलाक़ात हुई। बिहार में नरेगा 2 फरवरी, 2005 को जमसौत से ही लागू हुआ। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दानापुर प्रखंड अन्तर्गत जमसौत मुसहरी में रहने वाले महादलित मुसहर समुदाय के बीच में जाॅब कार्ड निर्गत किया। जाॅब कार्ड के द्वारा कुछ साल लोगों को काम मिला।शहर में जाकर रद्दी कागज चुनना बंद हुआ। इससे लोगों के बीच में स्वाभिमान जागृत हुई और जि़ंदगी में बदलाव भी आया। अब लोगों को समय पर काम और मजदूरी नहीं मिलने से परेशानी बढ़ गयी। इसमें दिनेश मांझी की पत्नी रीता देवी है। जो सुबह में उठकर शहर की ओर रूख करने को मजबूर हैं।
पतली-दुबली बदन वाली रीता देवी लाल रंग की साड़ी और उसी रंग की ब्लाउज पहनी हैं। हाथ में सफेद रंग का बोरा पकड़ी है। साथ में रीता देवी के पुत्र विकास कुमार हैं। जो पढ़ने नहीं जाता है। मां के साथी मिलकर ही रद्दी के ढेर पर तकदीर बनाता है। गाँव के लिहाज़ से रीता का पहनावा थोड़ा आधुनिक था, गांव की महादलित महिलाओं से भिन्न है। ठीक तरह से बाल झार रखी हैं। देखने से पता ही नहीं चलता कि वह रद्दी कागज आदि चुनने वाली हैं। रीता देवी दलित समुदाय से आती हैं। बिहार सरकार की पहल के लिहाज़ से कहें तो ‘महादलित’ हैं रीता देवी। जमसौत की रीता देवी का जि़क्र यहां इस वजह से हो रहा है क्योंकि वे उनमें शामिल हैं जिन्होंने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (मनरेगा) का सहारा मिलने के बाद काम की तलाश में गांव से शहर की ओर जाती हैं।
खुद रीता देवी पढ़ी-लिखी नहीं हैं। परन्तु वह अपने चार बच्चों में दो लड़की और दो लड़के को बेहतर राह दिखाने को कटिबद्ध हैं। फिलवक्त तीन बच्चे पढ़ रहे हैं। एक विकास कुमार ही पढ़ने नहीं जाता है। यह अब मानकर चले कि सबसे पहले जाॅब कार्ड मिलने वाले जमसौत मुसहरी अब पिछड़ गया है। लगभग यहां के लोगों का मोहभंग हो चुका है। जाॅब कार्ड को बक्सा में रखकर अन्य तरह के कार्य में जुट गए हैं। ऐसे में रीता देवी का कहना है कि घर से सुबह 4 बजे भोर में निकलती हैं। मुसहरी के बगल में ही टेम्पों स्टेंड है। टेम्पों पर बैठकर दानापुर बस पड़ाव आती हैं। टेम्पों चालक को भाड़ा के रूप में 6 रू. देते हैं। फिर दानापुर से टेम्पों पर चढ़कर दीघा रेलवे लाइन के समक्ष उतर जाती हैं। टेम्पों चालक को आठ रू. भाड़ा के रूप में देती हैं। दीघा मुसहरी जाती हैं। दीघा मुसहरी को लोग शबरी काॅलोनी भी कहते हैं। वास्तव में रीता देवी का मायके शबरी काॅलोनी ही है। यहां के सहेलियों के संग कूड़ों के ढेर पर किस्मत चमकाने चली जाती हैं। यहां-वहां पर जाकर रद्दी कागज आदि चुनती हैं। रद्दी कागज चुनने के बाद बेचती हैं। बेचने के बाद मिली रकम से कुर्जी में भोजन करती हैं। रीता देवी कहती हैं कि प्रायः पांच सौ से अधिक ही रद्दी समानों को चुनकर बेचने में कामयाब हो जाती हैं। सालभर में दीपावली के समय में बहार आ जाता है। इस अवधि में हजारों रू.की कमाई हो जाती है।
साल भर जमसौत से शहर में आकर चुनने का कार्य करती हैं। इसे रीता देवी काम समझती हैं। वह कर्तव्य निर्वाह करने के लिए आवाजाही करती हैं। गर्मी, बरसात,ठंडक और वसंत मौसम में कार्य करती हैं। सरकार से मांग करती हैं कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत स्मार्ट कार्ड निर्गत करें।
आलोक कुमार
बिहार