भारतवर्ष में बाहर से आने वाले लोगों को हमारी और कोई खासियत दिखे, न दिखे, पर सभी स्थानों पर भिखारियों और आवाराओं का जमघट देखने को मिल ही जाता है। कोई सा धर्म स्थल हो, प्राकृतिक, दर्शनीय, ऎतिहासिक, पुरातात्विक स्थल हो, या फिर होटलों, रेस्टोरेंट्स से लेकर गली-चौराहों, सर्कलों तक सभी जगह और कोई भले न मिले, कोई न कोई भिखारी जरूर मिल जाएगा जो किसी न किसी के नाम पर भीख माँगता नज़र जरूर आएगा।
इन भिखारियों का हुलिया और अभिनय भी ऎसा कि देखने वाले का मन पसीजे बगैर नहीं रहता। फिर धर्मभीरू भारतवर्ष में तो मानवीय संवेदनाएं और दान-धर्म के नाम पर पुण्य कमाने वालों की कोई कमी कभी नहीं रही। हम लोग किसी जरूरतमन्द की मदद भले न कर पाएं, वहाँ बार-बार कहे जाने पर हमारी मानवीय संवेदनाएं तनिक भी जग न पाएं, मगर नालायक और मलीन भिखारियों को देने में हम कभी पीछे नहीं रहते। लगता है जैसे ये जात-जात के हुलियों वाले भिखारी न होते तो शायद अपने देश से दान धर्म ही खत्म हो जाता।
अपना देश भिखारियों की वजह से काफी बदनाम है। सभी किस्मों के भिखारी अपने यहाँ हैं। बंद कमरों के शातिर भिखारियों को नज़रअंदाज कर देंं तब भी परिवेश हर तरफ में भिखारियों का जमावड़ा अपने देश की प्रतिष्ठा को कितना मटियामेट कर रहा है, यह हमारे लिए शर्म से बढ़कर कुछ भी नहीं है।
देश मेंं जगह-जगह धर्मस्थलों एवं सार्वजनिक क्षेत्रों में अन्न क्षेत्र चल रहे हैं, पीड़ितों की सेवा के लिए आश्रम खुले हुए हैं जहां सभी प्रकार के जरूरतमंदों और भिखारियों के लिए खाने-पीने और रहने का इंतजाम है। इसके बावजूद देश भर में गलियों से लेकर महानगरों और फोर लेन तक जहाँ-तहाँ पसरे बैठे भिखारियों का फैलाव आखिर किस बात को इंगित करता है। आखिर वे क्या कारण हैं कि जिनकी वजह से ये भिखारी सारे जरूरी प्रबन्धों के बावजूद किसी एक जगह रहना नहीं चाहते। इस मनोविज्ञान और अर्थशास्त्र को आज गंभीरता से समझने की जरूरत है।
ऎसा नहीें है कि अपने यहां वास्तविक जरूरतमन्द नहीं हैं। इस किस्म के लोग हैं जरूर पर इनकी संख्या बहुत कम है। आमतौर पर भिखारियों के बारे में यह माना जाता है कि पहनने को कपड़े और खाने को भोजन मिल जाए, तो दिन निकालना ही भिखारियों का मूल काम रह गया है। लेकिन अपने यहाँ भिखारियों में कई किस्मे हैं।
इन भिखारियों की सर्वे की जाए तो हैरान कर देने वाले तथ्य ये सामने आएंगे कि जनसंख्या का कुछ प्रतिशत ऎसा है जिसने भीख को धंधा बना लिया है और कई सारे भिखारी ऎसे मिल जाएंगे जो ठेके पर भीख मंगवाने के धंधों में माहिर हैं। हर जगह कुछ न कुछ भिखारी ऎसे होते ही हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि ये लोग भीख मांग-मांग कर लखपति बन बैठे हैं और ब्याज पर पैसे चला रहे हैं। यह सच भी है।
ये भिखारी सामाजिक स्वच्छता के लिए भी बड़ा खतरा हैं। जिन इलाकों में भरपूर पानी है वहाँ भी ये भिखारी अपने आपको भीख मांगने लायक बनाए रखने के लिए नहाने से परहेज करते हैं और गंदे पात्र, सडांध मारते कपड़े पहने हुए परिवेश में प्रदूषण फैला रहे हैं। इनके बढ़े हुए नाखून और बालों तथा शरीर से आने वाली सडांध ही है जो इनकी भीख की मात्रा को बहुगुणित कर देने में समर्थ होती है।
हर इलाके में भिखारियों के भी अपने संगठन बने हुए हैं जो कि सामाजिक अर्थ व्यवस्था के दोहन और शोषण से लेकर कई पहलुओं में हावी हैं। मन्दिरों से लेकर सार्वजनिक स्थलों पर भारत के गौरव और गरिमा की मजाक उड़ाते ये भिखारी शांति में भी ऎसा दखल देते हैं कि कई बार इनके कारण से आस्था स्थलों के प्रति लोकश्रद्धा समाप्त होने लगती है।
हालांकि कुछेक को छोड़कर सभी धर्मस्थलों पर अर्थतंत्र का बोलबाला है और खूब सारे लोगों ने धर्म को धंधा बना रखा है। भिखारियों के कारण हमारा देश बदनाम हो रहा है। गंदे कपड़ाेंं में पूरी मलीनता और कृत्रिम दया दर्शाकर भीख मांगने वालों में काफी लोग ऎसे हैं जिन्हें भीख मांगने की कोई आवश्यकता नहीं है लेकिन इन्होंने धंधा बना लिया है।
धर्म और दान-पुण्य के नाम पर भीख मांगने वालों में भिखारियों से लेकर उन बाबाओं की भूमिका भी कोई कम नहीं है जो हैं तो भिखारी, मगर अपने आपका स्टैण्डर्ड बढ़ाने और धर्मभीरूओं को उल्लू बनाने में ज्यादा आसान बने रहने के लिए तिलक-छापे, जात-जात की मालाएं, कड़े-कड़ियां और भगवे परिधान धारण कर मुफत में देश घूमने का बाबा छाप लाइसेंस पा चुके हैं। कोई असली भिखारी हो भी सही, तो उसका संबंध उसी दिन के लिए रोटी-पानी के जुगाड़ तक सीमित रहना चाहिए, जो संग्रह करे, जमा करने का आदी हो जाए और भीख को धंधा बना ले, वो काहे का भिखारी।
यह हमारा सामाजिक दायित्व है कि समाज के जरूरतमन्दों को उनकी जरूरतों के हिसाब से साधन-सुविधाएं और संबल प्राप्त हो। साथ ही यह भी हमारा दायित्व है कि भीख का धंधा करते हुए धर्म को भुनाने वाले नालायकों और गंदे लोगों को ठिकाने लगाया जाए जो कि हर कहीं भीख मांगते नज़र आते हैं और लोगों को परेशान करने में कोई चूक नहीं करते, तब तक पीछे लगे रहते हैं जब तक कि भीख न मिल जाए।
आजकल तो भिखारियों की एक अजीब ही किस्म आ गई है जो मुँहमांगी भीख न दो तो मनचाही हरकतें करने लगती है। देश की बहुत बड़ी शक्ति को हम नालायक बना रहे हैं। होना यह चाहिए कि इन भिखारियों को इनके लायक काम धंधा दिया जाए अथवा शहर से दूर रखा जाकर इनके लिए बुनियादी प्रबन्ध किए जाएं और भीख के नाम पर पैसा बनाने की मनोवृत्ति पर कड़ाई से लगाम लगायी जाए।
यह हम सभी की सामूहिक व नैतिक जिम्मेदारी है कि भिखारियों से अपने क्षेत्र और देश को मुक्ति दिलाएं और सार्वजनिक स्थलों की पवित्रता, शांति तथा स्वस्थ माहौल को स्थापित करने में सशक्त एवं सार्थक भागीदारी अदा करें। यह हमेशा ध्यान रखें कि इन भिखारियों की वजह से हमारे देश के प्रति दुनिया भर में गलत संदेश जा रहा है और यह हमारी परंपरागत गरिमा और गौरव के खिलाफ भी है।
---डॉ. दीपक आचार्य---
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