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विशेष आलेख : विशेष मामलों में ही हो इच्छामृत्यु की इजाजत

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  • बशर्ते, इच्छामृत्यु की इजाजत से पहले कमेटी या संबंधित आयोगा की रिपोर्ट मंगानी होगी 
  • टाडा कानून की तरह इसका भी दुरुपयोग न हो इसके लिए विशेष निगरानी रखनी होगी 
  • गरीबी के अभाव में इलाज नहीं करा पाने वालों को इच्छामृत्यु की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता 
  • पिछले 41 साल से कोमा से जूझ रही अरुणा मामले को ध्यान देने की जरुरत है 
  • सरकार को सस्ती एवं सुविधाजनक स्वास्थ्य सेवाओं को और बेहतर बनाना होगा 
  • जगह-जगह एम्स व पीजीआई जैसे अस्पतालें खोलकर गरीबों का निःशुल्क इलाज करना होगा 


स्वैच्छिक इच्छामृत्यु गैर कानूनी है। लेकिन कुछ विशेष परिस्थितिजन्य मामलों में इसकी इजाजत दी जानी चाहिए। खासकर ऐसे मामलों में जिसमें मरीज सालों से कोमा में हो और चिकित्सक द्वारा यह कह दिया गया हो कि अब यादास्त वापस होना असंभव है। मतलब मरीज जिंदा लाश की मुद्रा में हो तो इजाजत दिया जाना चाहिए। बशर्ते, इच्छामृत्यु की इजाजत देने से पहले जिम्मेदार अधिकारियों की गठित कमेटी या संबंधित आयोगों की रिपोर्ट के बाद ही दिया जाना लाजिमी है। परिवार के कम से कम पांच सदस्यों की सहमति जरुर हो। यह मशविरा मैनें सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ द्वारा इच्छामृत्यु को कानूनी दर्जा दिए जाने संबंधी एक याचिका पर केन्द्र सरकार और राज्यों को नोटिस भेजकर जवाब मांगे जाने दे रहा हूं। मेरा मानना है कि जब व्यावहारिक तौर पर हर रोज इच्छामृत्यु यानी यूथेनेशिया हो रही है तो सरकार की असहमति इस पर बेवजह ही है। सरकार को चाहिए कि इच्छामृत्यु के मामले जब उसके समक्ष आएं तो प्रकरण की गंभीरतापूर्वक जांच कराकर, गठित कमेटी व आयोग सहित पंचसील सामाजिक संगठनों की रिपोर्ट मंगाकर अपनी स्वीकृति न्यायालय को भेजनी चाहिए।  

हालांकि कभी-कभी बनाएं गए कानूनों का दुरुपयोग हो भी होने लगता है, जैसे टाडा, दहेज एक्ट आदि। कई बार ऐसे भी मामले देखने को मिले, जिसमें आर्थिक तंगी से जूझ रहे गरीब लोग भी पैसे के अभाव में इलाज नहीं करा पाते और वे प्राण त्याग देना चाहते है। ऐसे हालात वाले व्यक्ति को हम इच्छामृत्यु की श्रेणी में नहीं रख सकते, क्योंकि ऐसे मामले में मृत्यु की इच्छा यानी इंटेंशन टू डाई नहीं है। जीने का इरादा मतलब इंटेंशन टू लिव है, लेकिन उसके पास इलाज खातिर पैसे नहीं है, इसलिए मरना चाहता है। ऐसे में सरकार निष्पक्षपूर्वक स्वच्छ नीति के जरिए निर्धारित करें कि बीमारी से परेशान गरीब आत्महत्या पर उतारु न हों। लेकिन मुंबई के केईएम अस्पताल में जीवन-मौत से जूझ रही अरुणा जैसी मरीज जो पिछले 41 साल से कोमा में है और स्थायी रुप से मरणासंन्न की स्थिति में हो, सुधार हो पाना नामुमकिन है, उठ खढ़ा हो पाने की बिल्कुल गुंजाइस नहीं है, उन्हें जीवनरक्षक संसाधनों के जरिए जिंदा रखा गया हो, ऐसे मामले में इच्छामृत्यु का अधिकार दिया जाना चाहिए। 

यहां बता देना जरुरी है कि जब व्यक्ति इलाज से ग्रसित हो जाता है, उसके जीने की संभावना खत्म हो जाती है, लेकिन वह कानूनी अड़चनों से मर नहीं सकता तो आर्थिक तंगी जूझ रहे परिजन रोज-रोज के उसके खर्चे से उबकर जरायम की दुनिया में जाने को विवश हो जाते है और छोटी-छोटी घटनाओं को अंजाम देते बड़े अपराधी बन जाते है। ऐसा उदाहरण कई अपराधियों के जीवन परिचय से मिला है। जहां तक विशेष परिस्थिजन्य लोगों के लिए यह कानून बना भी दिया गया तो दुरुपयोग की संभावनाएं बनी रहेगी। यहां ऐसे भी लोग है जो बड़े-बुढ़े बुजुर्गो पर दवाब बनाने लग जाएंगे कि इच्छामृत्यु का आदेश दिया जाना चाहिए। इस कानून का सहारा लेकर प्रकृति से बगावत लेने वालों की भी कमी नहीं है। ऐसे में दुरुपयोग को रोकने की भी सारी व्यवस्थाएं, मंथन आदि करने के बाद ही इच्छामृत्यु कानून को स्वीकृति प्रदान करने की जरुरत है। 

वरिष्ठ शिक्षाविद् अविनाश मिश्रा जी कहते है विशेष परिस्थिति में इक्ष्छा मृत्यु की इजाजत तो दी जा सकती है, लेकिन सवाल यह है कि जब हम भ्रूणहत्या को ही हत्या मानते है तो पूरे जीवित व्यक्ति को मरने के लिए कैसे छोड़ दिया जाना चाहिए। ऐसे में सरकार को सस्ती एवं सुविधाजनक स्वास्थ्य सेवाओं को और बेहतर बनाने की जरुरत है। स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव व गरीबी के चलते वैसे ही देशभर में हर रोज एक-दो नहीं हजारों जाने जा रही है। आक्सीजन के अभाव में अस्पतालों में अक्सर लोग मर जाते है। महंगी दवा खरीद न पाने के चलते लोग चोरी आदि में लिप्त हो जाते है। अक्सर सुनने को मिलता है कि मां या बाप या भाई-बहन या पत्नी के इलाज के लिए पैसे नहीं थे इसलिए चोरी की या अन्य क्राइम की। इन बातों का ध्यान रखते हुए गरीबों को इच्छामृत्यु का अधिकार नहीं बल्कि नेशनल हेल्थ इंश्यूरेंस स्कीम को प्रभावित करना चाहिए। जगह-जगह एम्स व पीजीआई जैसे अस्पतालें खोलकर गरीबों का निःशुल्क इलाज करना चाहिए। जो लोग लाइलाज जैसे बीमारी से जूझ रहे है उनके लिए वृद्धागृह खोलकर उसमें भर्ती कर देना चाहिए। लाइलाज बीमारी एड्स पीडि़तों को घर से बाहर कर देने के बजाएं उनके अंतिम सांस तक देखभाल के लिए अलग से आश्रम बनाकर इलाज करना चाहिए।

धार्मिक नजरिए से भी अगर हम इच्छामृत्यु मामले देंखे तो एक दृष्टि में मृत्यु के साथ ही व्यक्ति का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। जबकि दुसरी दृष्टि में व्यक्ति का अस्तित्व मृत्यु के बाद भी रहता है, जिसे परलोक कहा जाता है। पर सच तो यह है कि परलोक है ही नहीं। सब मन का वहम् है। किसी भी देश में अभी तक आत्महत्या को कानूनी दर्जा नहीं मिला है। मतलब साफ है, मनुष्य का जीवन मूल्यवान है जिसे खत्म करना, पाप-पूण्य न सही, लेकिन प्रकृति के प्रति तो अपराध है ही। इसलिए प्रकृति या विधि-विधान के नियमों को तोड़ना कहीं से भी न्याय संगत नहीं है। इंसान को मनोनुकूल कार्य न होने पर मन को समझना चाहिए न कि जीवन लीला को समाप्त करना चाहिए। बिना किसी कारण या मामूली बातों पर आत्महत्या या इच्छामृत्यु की मांग पूरी तरह कायरतापूर्ण है। 



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---सुरेश गांधी---

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