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आलेख : हम सब हो गए हैं, चलती-फिरती दुकानें

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जो संसार में आया है उसे एक न एक दिन जरूर जाना है। इस सत्य को न कोई अस्वीकार कर सकता है, न झुठला सकता है। हम जब आए थे तब भी नंग-धडं़ग थे और जाएंगे तब भी साथ कुछ नहीं होगा, वही नंग-धडं़ग। अन्तर होगा सिर्फ हमारे आकार में। अन्यथा जन्म से मृत्यु तक की यात्रा में कुछ भी खोया-पाया अपने लिए नहीं होता। जो पाया होता है वह यही छोड़ जाना पड़ता है और जो खोया है वह भी यहीं का होता है, अपना  न कुछ रहा है, न रहने वाला है।

इसके बावजूद हमारी नियति यही है कि हम इस प्रकार से जीवन को हाँकते हैं कि जैसे सब कुछ साथ ले जाने के लिए ही जमा कर रहे हों। सत्य को झुठलाना और जिन्दगी भर भ्रमित रहते हुए जीना कोई सीखे तो आदमी से। हमेशा वह सत्य से दूर भागता है और असत्य, अनाचार, अधर्म का आचरण करता रहता है। 

उस ज्ञान, बुद्धि और विवेक और विकास का क्या अर्थ है जिसमें हम उन सारे कर्मों को करते रहें जो नित्य नहीं हैं, शाश्वत नहीं हैं और सत्य भी नहीं। जीवन आनंद और मस्ती से जीने के लिए है और अपनी आजीविका चलाने भर तक के जुगाड़ के उपरान्त जो कुछ है वह अपना नहीं बल्कि उस समाज और क्षेत्र का है जहाँ की मिट्टी ने हमें पाला-पोसा और बड़ा किया है। उन सभी पंचतत्वों को इसी बात की प्रतीक्षा रहती है कि जिनसे यह पुतला बना हुआ है वह पंचतत्वों का मान रखे और अनासक्त जीवनयापन करता हुआ सृष्टि के लिए अपनी उपादेयता सिद्ध करे और अन्ततः यादगार मिथकों और संस्मरणों के साथ खुशी-खुशी विदा हो ले, अगली यात्रा के लिए।

हर इंसान अपने आप में ईश्वर की वह श्रेष्ठतम कृति है जिसमें वह सब कुछ माल-मसाला भरा हुआ है जो समष्टि और व्यष्टि के काम आ सकता है और इसका निष्काम भाव से उपयोग करे तो हर इंसान लौटते समय ईश्वर के सामीप्य और परम आनंद को प्राप्त करने की स्थिति पा सकता है। 

हम सभी में मेधा-प्रज्ञा, हुनर, कल्पनाशीलता, मानवीय संवेदनाएं, आदर्श, सिद्धान्त और बेहतर जीवनपद्धति के अनुगमन, लोक कल्याण, सामाजिक सरोकारों के प्रति वफादारीपूर्वक चिंतन आदि सब कुछ तो परिपूर्ण मात्रा में भरा हुआ है फिर वह कौनसा तत्व है जिसकी वजह से हम न कुछ कर पा रहे हैं, न कुछ दिखा पा रहे हैं।

एक-दूसरे से छीनाझपटी और हड़पाऊ कल्चर से लेकर हम उन सारे कामों में लगे हुए हैं जो इंसानियत के दायरों से कोसों दूर है। मानवजाति की सभी समस्याओं की जड़ हमारी धंधेबाजी मानसिकता है। ईश्वर ने जो दिया है उसी में हम सभी संतोष कर लें तो दुनिया की कोई सी समस्या कभी रहे ही नहीं, यह धरा ही स्वर्ग बन जाए। लेकिन ऎसा न पहले हुआ है, न होगा।

कारण स्पष्ट है कि इंसान में संतोष की बजाय स्वार्थ घुस आया है, सेवा की बजाय हमारी सारी मानसिकता धंधेबाजी हो गई है। और एक बार जब हम अपने आपको, अपनी सोच और क्रियाओं को धंधे से जोड़ लिया करते हैं तब हम इंसान नहीं होकर कारोबारी का स्वरूप ग्रहण कर लेते हैं। जब एक बार हम अपने आपको धंधे का सहचर बना लेते हैं तब हम वे सारे काम करने लग जाते हैं जिनका संबंध मुनाफे से होता है।

हम अपने घर-परिवार और कुटुम्ब से लेकर क्षेत्र और देश से जुड़ी हर गतिविधि में मुनाफा तलाशते हुए भागते-फिरते हैं और वे ही काम करते हैं जिनमें मुनाफा कमाने की उम्मीद हो, मुनाफा न हो तो हम अपने माँ-बाप को भी खाना न दें। कितने माँ-बाप ऎसे हैं जो अपने खाने-पीने और घर में रहने के लिए अपने उन बच्चों को माहवार पैसे देते हैं जिन बच्चोें को उन्होंने पैदा किया, बड़ा किया और योग्य बनाया। हम पत्नी भी वहां से लाने की कोशिश करते हैं जहाँ अधिक से अधिक दहेज मिले। असल में हम पत्नी से ब्याह नहीं करते, संसाधनों और पैसों से परिणय सूत्र में बंधते हैं।

हमें इस बात की भी कोई परवाह नहीं होती कि हमारे भाई-बंधु, माता-बहनें और हमारे आस-पास रहने वाले लोग किन हालातों में गुजर-बसर कर रहे हैं, उनकी क्या समस्याएं हैं, किन अभावों में वे जी रहे हैं और उन्हें क्या आवश्यकता है। धंधों ने हमारे मन को मलीन कर दिया है, मस्तिष्क को विकृत कर दिया है और हमारे संस्कारों का हमेशा-हमेशा के लिए भस्मीभूत ही करके रख दिया है जहाँ उनके पुनर्जीवन की अब कोई संभावना शेष रही ही नहीं।

कुछ दशक पहले तक हम समाज के लिए जीते थे, समाज सेवा करते हुए हमें आत्मतोष व असीम आनंद की अनुभूति होती थी लेकिन आज हम धंधेबाज हो गए हैं, समाज सेवा से हमारा कोई वास्ता नहीं रहा। इस धंधेबाजी सफलता के बावजूद आज हम खुश नहीं हैं, श्वानों की तरह दौड़ लगा रहे हैं, खूब कमा रहे है, खूब जमा कर रहे हैं फिर भी न संतोष मिल रहा है, न आनंद। और तो और हमें नींद लाने तक के लिए गोलियों का सहारा लेना पड़ रहा है।

इस भागदौड़ का क्या अर्थ है जिसमें उद्विग्नता, अशांति और असंतोष का सागर हमेशा हिलोरें लेता रहकर मन को अशांत करता रहे, तन को बीमारियों का डायग्नोस्टिक सेंटर बना डाले और मस्तिष्क में खुराफातों के ज्वालामुखी लावा उगलते रहें।

अपनी सारी बीमारियों की जड़ यही है कि हम सभी लोग धंधेबाज हो गए हैं। मकान भी बनाएंगे, तो पहले दुकानों की नींव रखेंगे, किसी से बात भी करेंगे तो अपने स्वार्थ से, कोई सा काम भी करेंगे तो पहले यह पूछ ही लेंगे कि क्या मिलेगा। हम कुछ भी करते हैं तब पहले इसी की टोह लेते हैं कि इससे हासिल क्या होगा। हमें सामाजिक सरोकारों की कोई परवाह नहीं है हम पैसा चाहते हैं या पब्लिसिटी या दोनों ही। 

इन दिनों हमारा हर कर्म और व्यवहार धंधेबाजी के कोहरे में लिपटा हुआ है। यों कहें कि समाज और मातृभूमि के लिए जीने वाला आदमी अब खुद एक धंधा हो गया है तो कोई अनुचित नहीं होगा। हम सारे के सारे चलती-फिरती दुकानों में तब्दील हो गए हैं जहाँ हमें हमेशा उनकी तलाश बनी रहती है जो हमें मुनाफा दे सकें, दलाली दे सकें और बिना मेहनत के वो सब कुछ दे सकें जो हमें वैभवशाली का दर्जा तो दे ही दें, भोग-विलास और प्रतिष्ठा भी मिल जाए ताकि हम अपने अधिनायकवादी स्वरूप को औरों पर थोंपकर अपने आपके बहुत कुछ होने का दंभ भर सकें।

हम इस धंधेबाजी मानसिकता को थोड़ी देर के लिए किसी अटारी पर रख कर सोचें तो अपने आप हमें अहसास हो जाएगा कि हमारे जीवन का क्या मकसद है और जो कुछ कर रहे हैं वह कितना जायज है।  हम सभी लोगों को अपनी मौत याद रखनी चाहिए और इस सत्य का हमेशा स्मरण बना रहना चाहिए कि साथ कुछ भी नहीं जाने वाला सिवाय पुण्य के। जो हमेशा साथ रहता है उसकी हम उपेक्षा कर देते हैं, जो अनित्य है उससे बंधे रखते हैं, यही संसार की विचित्र गति है। सेवा या धंधा .... दो में से एक को चुन लें। चुनना हमें ही है।






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---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com


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