रक्षाबंधन या राखी सिर्फ धागे से जुड़ा हुआ पर्व ही नहीं है कि बहनें अपने भाइयों की कलाई पर राखी बांध दें और उनकी रक्षा के लिए साल भर का गारंटी नामा फिर रिन्यू हो जाए। रक्षाबंधन अपने आप में कई मायनों में बहुआयामी पर्व है जो इकाई को समुदाय और देश के लिए समर्पित होने तथा आन-बान और शान की रक्षा के लिए जीने-मरने तक की भावनाओं के चरमोत्कर्ष को प्रकट करता है।
आमतौर पर हम अपनी बहनों के हाथों से राखी बंधवा लेते हैं, बहनों को मिठाई, वस्त्रों, रुपये-पैसों से खुश कर देने के जतन करते हैं और एक दिन के अपनी बहनों को चाहे-अनचाहे वीआईपी ट्रीटमेंट दे दिया करते हैं, फिर साल भर के लिए बहनों को भूल जाते हैं। कई बार धर्मभाइयों की तरह धर्म बहनों से राखी बंधवा लेते हैं और फिर भूल जाते हैं कि हमने कभी राखी भी बंधवायी थी।
बहनों से हमारा तात्पर्य सिर्फ हमारी सहोदर बहनें ही नहीं हैं बल्कि वे सभी हमारी बहनें हैं जो हमारे इलाके में जायी-जन्मी हैं, हमारे आस-पास रहती हैं। पारस्परिक सुरक्षा तंत्र के नेटवर्क को और अधिक प्रगाढ़ता देने तथा एक-दूसरे की रक्षा के लिए हर क्षण तत्पर रहने का संदेश देता है यह रक्षाबंधन पर्व।
बहनें जिस उच्चतम भावना प्रवाह के साथ हमारी कलाई पर राखी बांधती हैं उसका दशांश भी हममें ज़ज़्बा नहीं दिखता उनके लिए कुछ करने का। असल में हमने रक्षाबंधन को एक दिन का औपचारिक धागा बंधन पर्व ही मान लिया है और बस उसी दिन भाइयों और बहनों के संबंधों को निभाने की दुहाई दे डालते हैं।
आज गैंगरेप, बलात्कार, अपहरण और बहनों के साथ जो अमानवीय हरकतें हो रही हैं, जिन घटनाओं ने समाज को शर्मसार कर रखा है, बहनों की इज्जत लूटी जा रही है और बहनें सुरक्षित नहीं हैं। यह सब इस बात को साफ-साफ इंगित करता है कि हमारा रक्षाबंधन पर्व सिर्फ औपचारिक होकर रह गया है।
हम इस पर्व को अब निभाऊ रस्म से कुछ अधिक नहीं समझ पा रहे हैं और बहनों की रक्षा के लिए हमारी कलाइयों में बांधी गई राखी का कोई मान रखने में हम गंभीर नहीं हैं। हमें वर्तमान हालातों में सच्चे मन से यह स्वीकारने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि हम सिर्फ नाम के आदमी रह गए हैं, हममें खुद की रक्षा करने की शक्ति नहीं रही, बहनों की रक्षा की बात तो दूर की है।
आज जिन महिलाओं के साथ अशोभनीय और अमानवीय घटनाएं हो रही हैं, वे क्या हमारी अपनी बहनें नहीं हैं? सच तो यही है कि हमने उन्हें अपनी बहन माना ही नहीं। जो सहोदर बहन के लिए हमारे कत्र्तव्य हैं वे उन सभी माँ-बहनों और बेटियों के लिए भी हैं जो समाज में हैं। इन सभी की रक्षा का दायित्व हमारा अपना है।
समाज में कुछ आसुरी वृत्तियों का बोलबाला जरूर है जो स्त्री को सिर्फ भोग का संसाधन मानते हैं और हम हैं कि इन गए-गुजरे लोगों की चरणवन्दना, परिक्रमा और जयगान में लगे हुए हैं। हमारे में से ही जाने कितने नालायक लोग हैं जो इन घटनाओं को भी मामूली बताकर जाने कैसे-कैसे पागलपन भरे बयानों की बोछारें करते हुए अपने कुरते-कमीजों को पाक-साफ रखने के धोबीघाट पर चिल्लपों मचा रहे हैं, बेतुकी सफाई दे रहे हैं और ऎसी हरकतें कर रहे हैं जैसे बलात्कार कोई बच्चों का खेल ही हो गए हों। लानत हैं उन महान पुरुषों पर, जिनके लिए माँ-बहन-बेटियों की कोई इज्जत ही नहीं है, हो भी कैसे, कइयों को तो पता ही नहीं होगा कि माँ-बहन और बेटियों का क्या वजूद होता है।
‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते-रमन्ते तत्र देवता’ का उद्घोष करने वाले भारत जैसे देश में स्त्री पर अत्याचारों की श्रृंखला हो जाए, उन्हें नज़रबंद किया जाकर बलात्कार किया जाए, शारीरिक यंत्रणा दी जाए, उनका मातृत्व छीन लिया जाए और स्त्रीत्व को कलंकित किया जाए, ऎसे में हमारा रक्षाबंधन पर्व मनाना कितना जायज है, यह सोचने की जरूरत है।
अपनी सारी महानता, विद्वत्ता, लोकप्रियता, पूंजीवाद, संतत्व, पौरूषी दंभ और सामाजिक प्राणी होने के अहंकारों से ऊपर उठकर सोचें तो हमें साफ पता लगेगा कि इन परिस्थितियों में हमें इंसान कहलाने तक का कोई हक नहीं रह गया है।
रक्षा से तात्पर्य केवल बहनों की रक्षा तक सीमित नहीं है बल्कि कुटुम्ब से लेकर राष्ट्र रक्षा तक के दायित्वों को समर्पित होकर निभाने के संकल्पों को दृढ़ करने का पर्व है रक्षाबंधन। जब समाज और राष्ट्र सुरक्षित होगा तभी हमारी बहन-बेटियों की इज्जत सुरक्षित रह पाएगी। इस तथ्य को जानकर भी जो अनजान बने हुए हैं वे सारे अपनी बहनों के साथ धोखाधड़ी तो कर ही रहे हैं, राष्ट्रद्रोही, मातृद्रोही और गद्दार भी हैं।
इतिहास गवाह है कि जब-जब देश संकट में आया, हमारी माता-बहनों और बेटियों की इज्जत बेरहमी से लूटी गई और हम सारे कलंकित हुए। पिछली सदियों के अभिशापों भरी घोर गुलामी के अनुभवों से भी हम सीख नहीं ले पा रहे हैं, यह हमारा शर्मनाक और घृणित दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है।
रक्षाबंधन का यह दिन हमें यही संदेश देने हर साल आता है कि हम बहनों से लेकर सीमाओं तक की रक्षा करने में पीछे नहीं रहें। हमारी बहन-बेटियों और माँ की रक्षा में सर्वाधिक आड़े वे लोग आते हैं जिन्हें दीमकों के डेरों से प्यार है, जिनमें न धर्म और संस्कार हैं, न संस्कृति है न सामाजिक मूल्य। न मानवीय संवेदनाएं हैं न इंसानी जज़्बात। ऎसे ही लोग बहन-बेटियों की आबरू के साथ खिलवाड़ करते हैं और हम हैं कि इन कमीनों को चुपचाप देखते और सहते चले जा रहे हैं।
यह ठीक है कि हमारे बीच भी ऎसे वर्णसंकर और पूर्वजन्म के असुरों की भरमार है जिनके लिए अपनी साम्रा
ज्यवादी भूमिका और अहमियत बनाए रखने के आगे बहनों की इज्जत से लेकर देश की प्रतिष्ठा और रक्षा सब कुछ गौण है। पहले अपने भीतर बैठे इन लोगों को ठीक करने की जरूरत है। यों भी बहनों और देश की सुरक्षा में जो आड़े आते हैं उन्हें ठीक किए बगैर हमारी कलाई में बांधी गई राखी का कोई मूल्य नहीं है।
इस मामले में वे सारे के सारे लोग आतंकवादियों की श्रेणी में रखे जाने चाहिएं जो भारतमाता के लिए परोक्ष-अपरोक्ष रूप से खतरा बने हुए हैं। हमारे उन भाइयों को भी गंभीरता से यह सोचने की जरूरत है कि वे जिन लोगों का साथ दे रहे हैं, जिनके साथ रिश्ते निभा रहे हैं, मुफ्त का खाने-पीने और भोग लूटने में लगे हुए हैं वे किसी के न हो सके हैं, न होंगे। इन लोगों से हमें आज नहीं तो कल खतरा ही है।
रक्षाबंधन को भाई-बहन के संबंधों का ही प्रतीक मानकर एक दिन में ही इतिश्री न कर लें। जो कुछ हमारे अपने हैं उनकी रक्षा हमारा वैयक्तिक और सामाजिक फर्ज है और इस फर्ज को पूरा करने तथा रक्षाबंधन के कत्र्तव्यों के निर्वहन में जो भी लोग आड़े आते हैं, जो हमारी अस्मिता मिटाने के षड़यंत्रों में जुटे हुए हैं, जो हमारी बहन-बेटियों की इज्जत नहीं करते, उनके साथ दुव्र्यवहार करते हैं वे सारे के सारे लोग समाजकंटक हैं, देशद्रोही हैं और उन्हें किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। ऎसे लोगों के लिए हमारे हाथ में बांधा गया सूत्र कालपाश और नागपाश की तरह कहर ढाने वाला बन जाना चाहिए।
राजा और प्रजा के मध्य संबंधों से लेकर आम आदमी की रक्षा के सरोकारों की गारंटी देने वाले इस पर्व को मनाने का औचित्य तभी है जब हम सभी लोग हर क्षण निर्भय, मुक्त और प्रसन्न रहे सकें, पूरी आजादी और आनंद के साथ विचरण कर सकें और हमें जहां कहीं जरूरी हो, पूरी सुरक्षा का माहौल मिले।
सभी को रक्षाबंधन पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ ...
---डॉ. दीपक आचार्य---
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