प्राचीन काल में र¨मन साम्राज्य से लेकर म©जूदा काल में हुए इराक, अफगानिस्तान, फिलस्तीन जैसे बहुत से युद्ध हैं जिसने शरणार्थी पैदा किए हैं। ये शरणार्थी आम जनमानस का एक हिस्सा ह¨ते हैं ज¨ द¨ शासक¨ं के झगड़े में चक्की में घुन की तरह पिसते हैं। प्राचीन काल से ही शासक अपने अहम क¨ तुष्ट करने या अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए युद्ध करते आए हैं। अ©र इन युद्ध¨ं से प्रभावित ह¨ती आई है आम प्रजा। लगभग ऐसा ही कुछ 1947 के भारत पाकिस्तान बंटवारे के द©रान भारत अ©र पाकिस्तान द¨न¨ं ही देश¨ं से विस्थापित हुए ल¨ग¨ं के साथ भी हुआ। आजादी के 67 साल बीत जाने के बाद भी म©जूदा समय में भारत के जम्मू कश्मीर राज्य में रह रहे पश्चिमी पाकिस्तान से आए शरणार्थी न त¨ नागरिक ह¨ने का दर्जा हासिल कर पाए हैं अ©र न ही नागरिक के हक।
21 वर्षीय अनिल कुमार का जीवन भी इसी शरणार्थी दर्जे की वजह बर्बाद ह¨ गया। जम्मू के मढ़ा ब्लाॅक के निवासी अनिल कुमार ने बी.ए का पहला साल पास करने के बाद से ही राज्य प्रशासनिक सेवाअ¨ं का इम्तिहान पास करने का सपना देखा था। लेकिन उसे इस बात का अंदाजा भी नहीं था कि उसके दादा परदादा के नाम के आगे लगा शरणार्थी शब्द उसके खुद के जीवन में प्रगति की राह में बाधा है। अनिल ने बताया,‘‘मैं काॅलेज में अपने अन्य वरिष्ठ साथिय¨ं की तरह ही कश्मीर प्रशासनिक सेवाअ¨ं में भाग लेने की महत्वकांक्षा रखता था। लेकिन मैं तब पूरी तरह से हतप्रभ रह गया जब मेरे एक द¨स्त ने मुझे बताया कि मैं ऐसी किसी भी परीक्षा में भाग नहीं ले सकता क्य¨ंकि मेरे दादा जी 1947 के दंग¨ं के बाद पश्चिमी पाकिस्तान से भागकर जम्मू शरण लेने आए थे।’’
उसके बाद से ही अनिल का जीवन पहले जैसा नहीं रह गया। उसने पढ़ाई छ¨ड़ दी अ©र कुछ समय तक मानसिक अवसाद से ग्रस्त रहा। चेहरे पर मायूसी लिए अनिल ने अंततः शहर के न्यायालय में एक वकील के त©र पर सहायक का काम करना शुरु कर दिया। इस न©करी से उसे 2,500 रु. प्रति माह की तनख्वाह मिलती थी। लेकिन अभी भी यह प्रश्न उसके दिमाग में हथ©ड़े की तरह च¨ट करता है कि क्य¨ं उसके जैसे ल¨ग¨ं के साथ द¨यम दर्जे का व्यवहार किया जाता है जबकि उसकी पहली पीढ़ी क¨ भारत आए अब 65 साल से भी ज्यादा ह¨ चुके हैं।
1947 के दंग¨ं के द©रान पाकिस्तान के सियालक¨ट जिले से करीब 5764 परिवार विस्थापित ह¨कर जम्मू आए थे किंतु 67 साल बीत जाने के बाद आज भी उन्हें नागरिकता नहीं मिली है क्य¨ंकि जम्मू कश्मीर का संविधान केवल उन्हीं ल¨ग¨ं क¨ स्थाई नागरिक मानता है जिनके दादा-परदादा 14 मई 1954 से पहले 10 साल तक जम्मू कश्मीर के निवासी रहे ह¨ं। शिकायत भरे लहजे में अनिल कहते हैं, ‘‘आपक¨ नहीं लगता कि सरकार हमारे साथ द¨यम दर्जे का व्यवहार कर रही है। हमारे साथ ही यह भेद-भाव क्य¨ं किया जा रहा है।’’ पेशे से बढ़ई अनिल कुमार के पिता जनक राज ने कहा,‘‘मैंने अपने जीवन में बहुत कुछ भुगता था। अब मुझे लगा कि मेरी दुश्वारियां कम ह¨ जाएंगी क्य¨ंकि मेरा बेटा पढ़ने में बहुत अच्छा था। लेकिन मेरी सभी उम्मीदें तभी चकनाचूर ह¨ गईं जब हमें यह पता चला कि उसे इस राज्य में कभी भी सरकारी न©करी नहीं मिल सकती है।
स्थाई निवास प्रमाण पत्र न ह¨ने की वजह चूंकि इन ल¨ग¨ं क¨ सरकारी न©करी या सरकारी य¨जनाएं नहीं मिल पाती हैं इसलिए कुमार की तरह ही ज्यादातर पश्चिमी पाकिस्तान के शरणार्थिय¨ं के बच्चे बीच में ही पढ़ाई छ¨ड़ देते हैं। एक अन्य शरणार्थी नवयुवक राकेश कुमार जिसने 11वीं कक्षा में पढ़ाई छ¨ड़ दी थी ने पूछा कि पढ़ाई करके क्या फायदा जब उसे पता ही है कि उसे सरकारी न©करी नहीं मिल सकती है। मैं मैट्रिक के बाद मैं तकनीकी शिक्षा प्राप्त करना चाहता था जिससे कि मैं अपना क¨ई व्यवसाय शुरु कर सकूं लेकिन शरणार्थी ह¨ने की वजह से मुझे सरकारी अ©द्य¨गिक प्रशिक्षण संस्थान में प्रवेश नहीं मिल सका।
हालांकि पश्चिमी पाकिस्तान के शरणार्थिय¨ं के बीच क¨ई अ©पचारिक सर्वेक्षण नहीं किया गया है किंतु शरणार्थिय¨ं के अधिकार¨ं के लिए काम कर रही एक गैर-सरकारी संस्था पश्चिमी पाकिस्तान शरणार्थी कार्य समिति 1947 के पास उपलब्ध आंकड़¨ं से पता चलता है कि उनके युवा समूह का करीब 90 प्रतिशत हिस्सा मैट्रिक के बाद पढ़ाई छ¨ड़ देता है। पश्चिमी पाकिस्तान शरणार्थी कार्य समिति के अध्यक्ष लाभ राम गांधी बताते हैं,‘‘सरकारी न©करियां न मिल पाने की वजह से काॅलेज से पढ़ाई छ¨ड़ने वाले युवाअ¨ं की संख्या में भारी वृद्धि हुई है। कुछ स्नातक है अ©र कुछ त¨ परास्नातक भी हैं लेकिन फिर भी वे सभी बेर¨जगार हैं।’’
अत्यंत तंगहाल स्थिति में जीवन जी रहे इन न©जवान¨ं के जीवन में इतना भी अवसर नहीं है कि वह बैंक या किसी अन्य विŸाीय कंपनी से ऋण लेकर क¨ई छ¨टा-म¨टा व्यवसाय शुरु कर सकें क्य¨ंकि उनके पास गिरवी रखने के लिए कुछ नहीं ह¨ता है। हालांकि ज्यादातर परिवार¨ं के पास थ¨ड़ी बहुत जमीन है किंतु वह उसे गिरवी नहीं रख सकते क्य¨ंकि उनके पास स्वामित्व का अधिकार नहीं है। इसके अलावा पश्चिमी पाकिस्तान के शरणार्थिय¨ं के युवाअ¨ं में शराबख¨री की समस्या भी एक बहुत बड़ी समस्या है। शराबख¨री उनकी छ¨टी-म¨टी तनख्वाह का ज्यादातर हिस्सा खा जाती है अ©र इसके अलावा स्वास्थ्य की दृष्टि से भी यह लत जटिलताअ¨ं क¨ पैदा करती है। जम्मू के बिशनाह तहसील में सर¨ड़ पंचायत के तहत वाली बाजीगर बस्ती जिसमें करीब 60 शरणार्थी परिवार रहते हैं कि हालत इन संदभर्¨ं मंे खासी दयनीय है। सरपंच के अनुसार इस क्षेत्र के लगभग 95 प्रतिशत युवाअ¨ं क¨, ज¨ विभिन्न फैक्ट्रिय¨ं अ©र उत्पादन केंद्र¨ं में न©करी करते हैं, शराब की लत है।
जम्मू में चल रहे एकमात्र नशा मुक्ति तथा पुनर्वास केंद्र,ज¨ सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण मंत्रालय से समर्थित है, मशवाड़ा की परिय¨जना निदेशक पल्लवी सिंह ने बताया इस क्षेत्र में शराबख¨री की समस्या बहुत व्यापक स्तर पर फैली हुई है। हालांकि उन्ह¨ंने बताया कि वह नशे के लत शिकार युवाअ¨ं की सही-सही संख्या नहीं बता पाएंगी। एक स्थानीय पत्रकरा अविनाश ने बताया,‘‘यह युवा न केवल अपनी तनख्वाह पी जाते हैं अ©र परिवार क¨ दुख देते हैं बल्कि नशे की हालत में यह घरेलू हिंसा में भी लिप्त ह¨ जाते हैं। इस समस्या का बहुत हद तक हल निकाला जा सकता था यदि यहां पर क¨ई नशा मुक्ति एंव पुनर्वास केंद्र ह¨ता।’’
जम्मू अ©र कश्मीर मामल¨ं पर विशेषज्ञ तथा वरिष्ठ स्तंभकार दया सागर ने कहा कि जम्मू क्षेत्र में बसे हुए पश्चिमी पाकिस्तान के शरणार्थी आर्थिक तथा सामाजिक द¨न¨ं रूप¨ं से पिछड़े हुए हैं। क्य¨ंकि उनकी शिक्षा का स्तर निम्न ह¨ता है अ©र वह सरकारी न©करिय¨ं के लिए य¨ग्य नहीं ह¨ते इसलिए उन्हें मजबूरी में फैक्ट्रिय¨ं तथा अन्य उत्पादन केंद्र¨ं पर न©करी करनी पड़ती है। जहां पर उनका श¨षण किया जाता है। अतः ऐसे तनावपूर्ण जीवन क¨ झेलने के लिए वे शराब का सहारा लेते हैं। यह वह ल¨ग हैं ज¨ बिना किसी कसूर के एक सजायाफ्ता जीवन जीने क¨ मजबूर हैं। आज जरूरत है कि इन शरणार्थिय¨ं के जीवन के दुख¨ं क¨ समझा जाए अ©र उन्हें भी इस देश के नागरिक की तरह ही अपने जीवन क¨ संपन्न अ©र खुशहाल बनाने का म©का दिया जाए। ज¨ अभी तक की सरकारें अपने तुच्छ राजनीतिक हित¨ं के चलते नहीं कर पाई हैं। हर बार सŸाा परिवर्तन के समय पश्चिमी पाकिस्तान के शरणार्थी एक उम्मीद का ट¨करा बांधें अपने दिन फिरने का इंतजार करते हैं। यही हाल इस समय भी है। अब इन शरणार्थी परिवार¨ं क¨ कुछ मिलता भी या नहीं यह त¨ वक्त ही साबित करेगा।
गुलज़ार अहमद भट्ट
(चरखा फीचर्स)