हर इंसान अपने साथ दिव्यत्व, दैवत्व और शाश्वत आनंद का अपरिमित भण्डार लेकर ही पैदा होता है और उस अवस्था में वह ईश्वर की बराबरी पर ही होता है। यह अवस्था अपने आप में परम आनंद, शाश्वत आत्मतोष व शांति भरी होती है लेकिन जैसे-जैसे वह संसार में रुचि लेना आरंभ कर देता है वैसे-वैसे उसके भीतर से यह सारे दैवीय गुण और आनंद धीरे-धीरे बाहर निकलने लगते हैं।
जो लोग संसार के प्रति अनासक्त रहकर संसार का उपयोग और उपभोग करते हैं उन लोगों में जन्म काल से ही प्राप्त आनंद और मौज-मस्ती का परमानंदी भाव हमेशा बना रहता है और ऎसे लोग अपने आपको प्रकृति तथा ईश्वर के अत्यन्त करीब मानते हैं।
इन लोगों को संसार की किसी भी प्रकार की घटना से कोई प्रभाव नहीं पड़ता क्योंकि ये ईश्वरीय धाराओं के साथ बहने के आदी रहते हैं और उन्हें पक्का भरोसा होता है कि ईश्वर ही उनके सारे योगक्षेम पूरे करता है और जैसा इंसान सोचता जाता है, भगवान उनको लक्ष्यों की प्राप्ति कराता वैसे-वैसे कराता चला जाता है। इस प्रकार के इंसान दिव्य और दैवीय धाराओं को अपने पास बनाए रखने के लिए शुचिता और सादगी को अपनाते हैं और संसार में रहते हुए भी जल कमलवत ही रहा करते हैं। उनके लिए यह पूरा का पूरा संसार उपयोग करने के लिए होता है, अपना कब्जा जमाने के लिए कभी नहीं। इन लोगों में स्वामित्व का भाव नहीं होता बल्कि ट्रस्टी का भाव बोध हमेशा बना रहता है।
जन्म के कुछ समय बाद तक हम हमारे मूल स्वभाव और इसी सहजावस्था में रहा करते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि बच्चों में भगवान होता है। इसका कारण यह है कि संसार या ईश्वर दोनों में से एक ही रह सकता है। संसार और ईश्वर उसी अवस्था में साथ रह सकते हैं जबकि ईश्वर प्रारंभिक और अनिवार्य श्रद्धा का केन्द्र हो तथा संसार के प्रति अनासक्त कर्मयोग के शाश्वत और अखूट भाव।
ज्यों-ज्यों संसार का प्रवेश हमारे भीतर होने लगता है, हमारी अपनी सहजावस्था, मूल स्वभाव, दिव्यत्व और दैवीय भावों का घनत्व कम होता चला जाता है और उसका स्थान ले लिया करती है हड़बड़ी, उद्विग्नता, तनाव और लपक लेने की मनोवृत्ति। यही वजह है कि जो लोग संसार के प्रति आसक्ति भाव रखने लगते हैं उनके अंदर से मूल स्वभाव से जुड़ी तमाम प्रवृत्तियाँ अपना घनत्व कम करने लगती हैं।
यह वह अवस्था है जिसमें अलौकिकता और आत्म आनंद का प्रतिशत कम होने लगता है तथा लौकिक कामनाओं का वजूद अपना प्रभाव बढ़ाता रहता है। दोनों समानुपात पर आ जाने तक तो इंसान का जीवन ठीक-ठाक चलने लगता है लेकिन जैसे ही परंपरागत मूल स्वभाव अपना बहुमत खो देता है तब ही से इंसान के लिए समस्याओं, तनावों और पीड़ाओं का दौर शुरू हो जाता है क्योंकि मूल स्वभाव के हावी रहने तक संसार की पाप वृत्तियां और मनोविकार दबे हुए रहते हैं, लेकिन जैसे ही इनकी ताकत और घनत्व में अभिवृद्धि हो जाती है वैसे ही ये अपना प्रभाव दिखाना आरंभ कर देते हैं। यह वह समय भी होता है जब हमारे खराब ग्रह-नक्षत्र जग जाते हैं और कोई न कोई समस्या देते रहते हैं।
इस अवस्था में हमारा चित्त संसार भर को पाने के लिए उतावला हो जाता है, मन और मस्तिष्क की उद्विग्नता और लोभी-ललचायी आँखें असन्तोष और अशांति को अपनी सहयात्री बना लेती हैं। इस स्थिति में पहुंचकर हमें भले ही अपने आस-पास खूब सारी भीड़, संसाधनों का अम्बार और सुकूनदायी गतिविधियां या दृश्य दिखाई देने लगें, प्रशस्ति गान के स्वर दिन-रात सुनाई देते रहें, मगर हम भीतर से अपने उस मूल स्वभाव को खो दिया करते हैं जो ईश्वरीय धाराओं और आनंद की बुनियाद पर टिका होता है।
हम सभी लोगों का जन्म दुनिया को पाने के लिए नहीं हुआ है बल्कि दुनिया का अनासक्त भाव से सदुपयोग करते हुए ट्रस्टी के रूप में अपनी रचनात्मक वृत्तियों से जन-जन और क्षेत्र के कल्याण के लिए हुआ है। हम सभी के भीतर दिव्यात्मा विराजमान है जिसका ईश्वर से सीधा संबंध है। यही कारण है कि मनुष्य को ईश्वर का अंशी कहा गया है।
यह मूल स्वभाव, निर्मलता, निष्कपटता और निर्विकार भाव बालपन में ही देखे जा सकते हैं क्योंकि उस समय संसार की समझ से हम दूर रहते हैं। यही कारण है कि दुनिया में कोई सा इंसानी या जानवरी शिशु हो, हमें एक नज़र में प्यारा और मनभावन लगता है।
ईश्वर हमारे भीतर हमेशा प्रतिष्ठित रहता है लेकिन उसका पूर्ण आभास करने और उसके प्रकटीकरण के लिए दिव्यत्व और शुचिता के साथ मूल स्वभाव का होना नितान्त जरूरी होता है। हम जो कुछ भजन-पूजन, साधना और उपासना, अनुष्ठान आदि करते हैं उनका मूल उद्देश्य ईश्वर को पाना होता है लेकिन ईश्वर तब तक हमारे समीप नहीं आ सकता जब तक हम हर दृष्टि से पवित्र न हों।
सारी साधनाएं शुचिता और निर्णायक दिव्य शुद्धि देने का काम करती हैं। यदि हम अपने जीवन के लक्ष्य को जान लें, अपने मूल स्वभाव में ही बनें रहें तो हम हमेशा पवित्र ही रहते हैं और इस स्थिति में ईश्वर के हम अत्यन्त करीब होते हैं, कई-कई बार शुचिता, दिव्यत्व और दैवत्व की चरमावस्था आ जाने पर हम अपने आपको स्वयं ईश्वरीय होने का अनुभव कर सकते हैं। इस स्थिति में हमें किसी कर्मकाण्ड या साधना की आवश्यकता नहीं होती बल्कि जो कुछ होता है वह सहज और स्वाभाविक रूप से होता रहता है।
हमें यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि हम ईश्वर का अंश हैं और हमारे भीतर पूर्ण ईश्वरीय शक्तियाँ समाहित हैं लेकिन इनका जागरण और प्रकटीकरण उसी अवस्था में हो सकता है जबकि हम जो हैं, जैसे हैं, वैसे ही हर क्षण बने रहें और मनुष्य के मूल गुण-धर्म और स्वभाव को न छोड़ें। सारी साधनाएं पवित्रता देती हैं और यही पवित्रता हमें दिव्यता देती है, जिससे ईश्वर का प्रकटीकरण और अनुभव अपने आप होने लगता है।
हम रोजाना घण्टों तक कितनी ही पूजा उपासना करते रहें, मन्दिरों में घण्टे-घड़ियाल बजाते रहें, सैकड़ों सत्संग कर लें, हजारों कथाएं सुन लें, इसका कोई फायदा नहीं है यदि हम मन-वचन-कर्म और व्यवहार से पाक-साफ नहीं हैं।
जो ज्यादा मलीनता वाले और मनोविकारी लोग हैं उन्हें अपने आपको शुद्ध करने के लिए उतनी ही अधिक साधना और पवित्र कर्मों को अंगीकार करने की जरूरत पड़ती है। साधना का काम मनुष्य को शुद्ध-बुद्ध एवं पवित्र बनाना ही है, ईश्वर तो शुचिता और दिव्यता आने पर अपने आप जागृत हो ही जाता है, उसके लिए कोई विशेष प्रयास करने की जरूरत नहीं पड़ती।
जीवन में लौकिक और अलौकिक सफलता पाने के इच्छुकों को चाहिए कि वे अपनी शुचिता पर ध्यान दें और स्वयं को दिव्य बनाएं तथा हमेशा अपने मूल स्वभाव में बने रहें। यही ईश्वरत्व के अहसास का सर्वोपरि सूत्र है।
डॉ. दीपक आचार्य
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