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सन्दर्भ: स्वच्छ भारत अभियान स्वच्छता और शाकाहार

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देष में ‘स्वच्छ भारत अभियान’ चल रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के 145वें जन्म दिन 2 अक्टूबर 2014 (विष्व अहिंसा दिवस) से इस अभियान का षुभारंभ किया। तब से लेकर अब तक इस अभियान से आम आदमी जुड़ा तो देष के विभिन्न क्षेत्रों के अनेक जाने-माने व्यक्ति भी जुड़े हैं। मोटे तौर पर स्वच्छता अभियान का सन्देष है कि हमारे घर, गली-मुहल्ले और बाजार में और सड़कों और सार्वजनिक स्थानों पर कहीं भी कचरा, गन्दगी और प्रदूषण नहीं हो। कोई भी नागरिक हर कहीं कूड़ा-करकट नहीं फेंके, गन्दगी नहीं करे। जहाँ कहीं कचरा या गन्दगी है, उसे बुहारने या हटाने में किसी को संकोच नहीं होना चाहिये। जिस प्रकार हम हमारे घर को साफ-सुथरा रखते हैं, वैसे ही हमें हमारे गली-मुहल्लों और सार्वजनिक स्थानों को साफ-सुथरा रखना चाहिये। हर व्यक्ति का यह नागरिक-दायित्व है कि वह कहीं भी अस्वच्छता नहीं फैलाए तथा अस्वच्छता का कारण नहीं बने। 

इस क्रम में प्रत्येक व्यक्ति, समूह और समुदाय का यह भी दायित्व बनता है कि उनकी जीवन प्रणाली इस प्रकार की हो कि कम से कम कचरा, गन्दगी और प्रदूषण हो। मनुष्य की जीवनषैली और आदतों से भी स्वच्छता और अस्वच्छता की मात्रा और प्रभाव निर्धारित होते हैं। स्वच्छ भारत अभियान के इस दौर में हमें इस बात पर अवष्य विचार करना चाहिये कि ऐसी कौनसी जीवन शैली हो सकती है, जिससे न्यूनतम कचरा और प्रदूषण हो। इस प्रष्न का सरल, तथ्यपूर्ण और सर्वमान्य उŸार है - शाकाहारी जीवन शैली एवं शाकाहारी संस्कृति। समाजश्षास्त्र के इस तथ्य को यहाँ फिर से दोहराया जाना चाहिये कि शाकाहार सिर्फ आहार ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण सुविकसित सहअस्तित्वपूर्ण निरापद जीवन शैली है। 

यह शुभ संयोग है कि इस अभियान के सूत्रधार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पूर्ण शाकाहारी हैं तथा जिन बापू की जयन्ती एवं प्रेरणा से इस अभियान का आगाज किया गया है, वे स्वयं भी पूर्ण शाकाहारी थे। महात्मा गांधी न सिर्फ शाकाहारी, अपितु अपने समय से लेकर वर्तमान तक शाकाहार व अहिंसा के वैष्विक प्रवक्ता तथा शाकाहारी जीवन शैली के गौरवषाली प्रतिमान के रूप में प्रतिष्ठित हैं। वर्तमान में नरेन्द्र मोदी भी एक निष्ठावान शाकाहारी तथा शाकाहारिता के लोकप्रिय प्रतिमान बने हुए हैं।   

शाकाहारी जीवन शैली के अनेक उपयोगी आयाम हैं। उन आयामों में एक महत्वपूर्ण आयाम यह है कि शाकाहार एक प्रदूषण-मुक्त स्वच्छ आहार है। स्वच्छता और पर्यावरण की दृष्टि से शाकाहार और मांसाहार में दिन-रात का अन्तर है। शाकाहार, शाकाहार की उत्पादन-प्रक्रिया, निर्माण-प्रक्रिया और शाकाहारी जीवन शैली स्वच्छता और पर्यावरण के बेहद नजदीक होती है। ठीक इसके विपरीत मांसाहार, मांसाहार की उत्पादन-प्रक्रिया, निर्माण-प्रक्रिया और मांसाहारी जीवन शैली में अस्वच्छता और प्रदूषण की भरमार होती है। यह सुस्थापित तथ्य है कि शाकाहार का स्वच्छता से घनिष्ठ नैसर्गिक सम्बन्ध है। 

खेत, खलिहान, बाडि़याँ, फसलें, पेड़-पौधे, वन, उपवन आदि शाकाहार के विविध  सुन्दर और रमणीय माध्यम होते हैं। हरे-भरे खेत, लहलहाती फसलें, खिलते-महकते बाग-बगीचे तथा अन्य सारे माध्यम मन को सुकून देते हैं, कवियों और कलाकारों को मुखर करते हैं और ऋषियों को उनकी साधना में लीन कर देते हैं। ये सारे माध्यम या साधन प्रकृति और संस्कृति को विकृति से बचाते हैं। ये साधन मानव की रचनात्मक वृŸिायों का उत्कर्ष करते हैं। खेतों में मानव और मवेषी मिलकर कार्य करते हैं। दोनों एक-दूसरे के सहयोगी बने रहते हैं। मनुष्य और पषु-जगत के बीच अहिंसक सम्बन्धों का जीवनक्रम खेती-बाड़ी के साथ जुड़ा हुआ है। अनाज, दलहन, तिलहन तथा अन्य कृषि-उपज से भरे खलिहान, मण्डियाँ, हाट और बाजार किसी प्रकार की दुर्गन्ध और प्रदूषण के कारण नहीं बनते हैं। 

शाकाहार के थाली में आने तक की सम्पूर्ण प्रक्रिया स्वच्छ व सुरभित होती है, दुर्गन्ध और प्रदूषण से मुक्त होती है। शाकाहारी भोज्य पदार्थ के निर्माण से निकलने वाले अवषिष्ट पदार्थ भी थल, जल और हवा में न्यूनतम या शून्य प्रदूषण के कारण ही बनते हैं। शाकाहार से उत्पन्न अपषिष्ट यदि सड़ता-गलता है तो वह किसी घातक रोग या महामारी का कारण नहीं बनता है। जिन इलाकों में शाकाहारी लोग रहते हैं, वे इलाके अधिक स्वच्छ, प्रदूषण-मुक्त और शान्तिप्रिय होते हैं। यह सुस्पष्ट है कि स्वच्छता का एक आयाम शाकाहारी जीवन शैली भी है और शाकाहारी जीवन शैली का एक सुपरिणाम स्वच्छता भी है। यह तथ्य स्थानीय, नगरीय, राष्ट्रीय और वैष्विक; सभी स्तरों पर लागू होता है। 

इसके ठीक विपरीत मांसाहार का उद्गम ही अनेक प्रकार की अस्वच्छताओं और क्रूरताओं से होता है। मांसाहार के लिए मारे जाने वाले प्राणी चीखते-चिल्लाते रह जाते हैं और उनका खून कर दिया जाता है। उनका खून जमीन और नालियों में बहकर प्रदूषण का कारण बनता है। बताया जाता है कि ब्रिटेन के कत्लखानों से प्रतिवर्ष एक अरब किलोग्राम (100000 टन) खून नालियों में बहकर जबर्दस्त प्रदूषण फैलाता है। यह तो सिर्फ खून को लेकर ब्रिटेन की ही बात हुई। मांस उत्पादन अर्थात् पषु-पक्षियों के वध के कारण कई प्रकार की गन्दगी, दुर्गन्ध, दूषण और प्रदूषण जल, थल और वायुमण्डल में व्याप्त हो जाते हैं। 

किसी भी प्राणी के वध करने के बाद उसका मृत कलेवर और मांस बहुत ही तेज गति से सड़ना-गलना शुरू हो जाता है। किसी व्यक्ति की मृत्यु पर उसके मृत शरीर के शीघ्र ही अन्तिम संस्कार करने की सार्वभौमिक परम्परा के पीछे यही कारण है कि मृत शरीर तेज गति से सड़ता, बिगड़ता और दुर्गन्ध पैदा करता है। तीव्र सड़न-प्रक्रिया के कारण ही मांस और मांसाहार के रखरखाव और परिवहन में फ्रीजिंग व रेफ्रिजरेटिंग अनिवार्य होता है। ऐसा करने में संसाधनों का भारी खर्च और प्रदूषण होता है। मांस के रखरखाव में बरती जाने वाली थोड़ी-सी लापरवाही भी तीव्र दुर्गन्ध और गन्दगी का कारण बन जाती है। मांस-मछली के बाजारों में भी बहुत सारी अस्वच्छताएँ और दुर्गन्ध होती हैं।   

मांस-उत्पादन से उत्पन्न गन्दगी को धोने और अपषिष्ट को धकेलने के लिए भी अनाप-षनाप जल का उपभोग या अपव्यय किया जाता है। चैंकाने वाला तथ्य है कि एक पौण्ड गेहूँ के उत्पादन में जहाँ 25 गैलन जल की खपत होती है, वहीं एक पौण्ड मांस के उत्पादन में 2500 गैलन पानी खर्च होता है। तात्पर्य यह है कि एक इकाई शाकाहार के उत्पादन में जितना पानी खर्च होता है, उससे लगभग सौ गुना अधिक पानी एक इकाई मांसाहार में खर्च हो जाता है। यह अन्तर सामान्य नहीं, असामान्य और अत्यधिक है। स्वच्छता के लिए पानी बेहद जरूरी द्रव्य है। मांसाहार उस अनमोल पानी की बर्बादी का बहुत बड़ा कारण है। अस्वच्छता का एक कारण जल का अभाव है और जलाभाव का एक बड़ा कारण मांसाहारी जीवन शैली है, जो संसाधनों के अनियंत्रित उपभोग पर टिकी है। 

इसके अलावा बूचड़खाने अस्वच्छता और प्रदूषण के अड्डे तथा उद्गम-स्रोत होते हैं। कत्लखानों की अस्वच्छताओं के कारण अनेक बीमारियाँ मानव तक पहुँचती हैं। बूचड़खानों से निकलने वाला मलवा अस्वच्छता, प्रदूषण और गन्दगी का बहुत बड़ा कारण है। बूचड़खानों से निकलने वाला मलवा तीव्र दुर्गन्ध, अस्वच्छता और प्रदूषण के अलावा संक्रामक रोगों का कारण भी बनता है। आलम यह है कि मांस से परहेज नहीं करने वाले लोगों को भी बूचड़खाने अच्छे नहीं लगते हैं। रूस के विष्वविख्यात शाकाहारी साहित्यकार टाॅल्स्टाॅय का निष्कर्ष था कि मांसाहारी भी पषु-पक्षी वध की क्रूर प्रक्रिया और बूचड़खानों के बेहद गन्दे दृष्यों को देखना नापसन्द करते हैं। स्वच्छता, शाकाहार, करुणा और सहृदयता जैसे सुन्दर जीवन-मूल्य सबको अच्छे लगते हैं। 
जवाहरलाल नेहरू ने लाहौर में खुलने वाले बूचड़खाने के विरोध में कहा था - ‘‘मैं कसाईखानों को बिल्कुल नापसन्द करता हूँ। मैं जब कभी किसी बूचड़खाने के पास से गुजरता हूँ, मेरा दम घुटने लगता है - वहाँ कुŸाों का झपटना और और चील-कौओं का मण्डराना घृणास्पद लगता है।’’ नेहरू के कथन और प्रबल जन-विरोध पर उस समय विदेषी सरकार ने एक अस्वच्छता फैलाने वाला अस्वच्छ कारोबार (कत्लखाना) को रद्द कर दिया गया था। खेत-खलिहानों के सौन्दर्य और बूचड़खानों के वीभत्स दृष्यों में जमीन-आसमान का अन्तर होता है। वक्त की पुकार है कि हमारी अपनी स्वदेषी सरकारें मांसाहार और कत्लखानों पर अंकुष लगाएँ। सरकार, समाज और नागरिकों को चाहिये कि स्वच्छ भारत अभियान के साथ अवध (पषु-पक्षियों का वध नहीं करना) और शाकाहार को भी जोड़ें। 

स्वच्छता सिर्फ ऊपरी, बाहरी और दिखाऊ ही नहीं होनी चाहिये, अपितु वास्तविक और टिकाऊ भी होनी चाहिये। कुछ स्थानों पर मांसाहार का प्रचलन होने के बावजूद बाहर से सफाई नज़र आ सकती है। उस दिखाऊ स्वच्छता के लिए पानी तथा अन्य संसाधनों का भारी खर्च किया जाता है। संसाधनों का वह खर्च प्रकृति और पर्यावरण को बहुत नुकसान पहुँचाता है। धरती के पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने में ऐसी दिखाऊ या बाहरी स्वच्छताओं का भी बड़ा हाथ है। वस्तुतः शाकाहारिता की अवधारणा और स्वच्छता में बुनियादी रिष्ता है। इसके विपरीत मांसाहार स्वच्छता और स्वच्छ वातावरण का अव्वल दर्जे का दुष्मन है। गांधीवादी लेखिका और नाट्य निर्देषिका गोवरी रामनारायण के अनुसार गांधीजी के लिए सफाई सिर्फ भौतिक मामला ही नहीं था, बल्कि इसका उनके लिए मानसिक और आध्यात्मिक अर्थ भी था। स्वच्छता के साथ शाकाहार को जोड़कर स्वच्छता के मानसिक और आध्यात्मिक अर्थों को भी साकार किया जाना चाहिये। 

देष का मौजूदा स्वच्छता अभियान पाँच वर्षों के लिए चलाया गया है। यह अभियान महात्मा गांधी की 150वीं जयन्ती (सन् 2019) तक गतिमान रहेगा। स्वच्छता अभियान एक उद्देष्यपरक जन-जागरूकता अभियान है। इसलिए यह कहा जा रहा है कि इसे किसी भी प्रकार की राजनीति से नहीं जोड़ा जाना चाहिये। चूंकि स्वच्छता और शाकाहार एक-दूसरे के पूरक और पर्याय हैं, अतः स्वच्छता के साथ षाकाहार की बात को भी जन-जागरण का हिस्सा बनाया जाना चाहिये। स्वच्छता के साथ शाकाहार को जोड़ने में किसी भी प्रकार की राजनीति नहीं की जानी चाहिये। स्वच्छता और शाकाहार, दोनों प्राकृतिक और सांस्कृतिक मुद्दे होने के साथ ही वैष्विक और मानवीय मुद्दे भी हैं। स्वच्छता के साथ शाकाहार को और शाकाहार के साथ स्वच्छता को व्यापक अर्थों में आगे बढ़ाया जाना सबका कर्Ÿाव्य है। ऐसा करके देष-दुनिया के निवासी अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी को सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित कर सकते हैं।



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- डाॅ. दिलीप धींग
(निदेशक: अंतरराष्ट्रीय प्राकृत अध्ययन व शोध केन्द्र)
सुगन हाउस, 
18, रामानुजा अय्यर स्ट्रीट
साहुकारपेट, चेन्नई-600001


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