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विशेष आलेख : स्वच्छ भारत का सपना और बच्चे

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स्वच्छता अभियान
भारत में स्वच्छता का नारा काफी पुराना है लेकिन अभी भी देश की एक बड़ी आबादी गंदगी के बीच अपना जीवन बिताने को मजबूर है। 2011 की जनगणना के अनुसार राष्ट्रीय स्वच्छता कवरेज 46.9 प्रतिशत है जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह औसत केवल 30.7 प्रतिशत है। अभी भी देश की 62 करोड़ 20 लाख की आबादी (राष्ट्रीय औसत 53.1 प्रतिशत) खुले में शौच करने को मजबूर हैं। राज्यों की बात करें तो मध्य प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालय के उपयोग की दर 13.6 प्रतिशत, राजस्थान में 20 प्रतिशत, बिहार में 18.6 प्रतिशत और उत्तर प्रदेश में 22 प्रतिशत है। भारत के केवल ग्रामीण ही नहीं बल्कि शहरी क्षेत्र में शौचालयों का अभाव है। यहाँ सार्वजनिक शौचालय भी पर्याप्त संख्या में नही हैं, जिसकी वजह से हमारे शहरों में भी एक बड़ी आबादी खुले में शौच करने को मजबूर है। इसी तरह से देश में करीब 40 प्रतिशत लोगों को स्वच्छ पीने योग्य पानी उपलब्ध नही है। 
           
देश में साफ़-सफ़ाई की कमी एक बहुत बड़ी चुनौती है क्योंकि इसी से गम्भीर बीमारियाँ फैलती हैं जिसका असर सबसे ज्यादा बच्चों पर ही पड़ता है। विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर बच्चों के स्वास्थ्य और उनके शारीरिक,मानसिक विकास के लिए बाल स्वच्छता को बहुत महत्वपूर्ण माना गया है लेकिन दुर्भाग्य से भारत में 14 साल की उम्र समूह के बच्चों में से 20 फीसदी से अधिक बच्चे असुरक्षित पानी, अपर्याप्त स्वच्छता या अपर्याप्त सफाई के कारण या तो बीमार रहते हैं या मौत का शिकार हो जाते हैं। इसी तरह से सफाई के अभाव के कारण डायरिया  से होने वाली मौतों में 90 फीसदी पांच साल से कम उम्र के बच्चे होते हैं।
            
भारत सरकार द्वारा 1999 में “सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान कार्यक्रम” शुरू किया गया था, जिसका मूल उद्देश्य ग्रामीण भारत में सम्पूर्ण स्वच्छता लाना और 2012 तक खुले में शौच को सिरे से खत्म करना था। इसमें घरों, विद्यालयों तथा आंगनबाडि़यों में स्वचछता सुविधाओं पर विशेष बल दिया गया है। स्वच्छता अभियान के तहत स्थानीय स्तर पर यह पंचायतों की जिम्मेदारी दी गयी कि वे गांव के स्कूल,आंगनबाड़ी, सामुदायिक भवन, स्वास्थ्य केंद्र एवं घरों में समग्र रूप से बच्चों को पेयजल, साफ-सफाई एवं स्वच्छता के साधन उपलब्ध कराएं लेकिन यह कार्यक्रम अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में असफल रहा। इस कार्यक्रम के असफल होने का मुख्य कारण यह था कि इस कार्यक्रम को बनाने से पहले ये सोचा गया था कि अगर लोगों को सुविधाऐं पंहुचा दी जाये तो लोग उसका उपयोग करेगें और समस्या समाप्त हो जायेगी, इसमें स्वच्छता व्यवहार में सुधार को नजरअंदाज किया गया था, इस वजह से हम देखते हैं कि सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान कार्यक्रम के तहत 1990 के दशक में भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में 90 लाख शौचालयों का निर्माण हुआ लेकिन इस दौरान ग्रामिण क्षेत्र में शौचालय के उपयोग करने वालों के दर में केवल 1 प्रतिशत की दर से ही वृद्धि हुई। 
          
इन्ही अनुभव को देखते हुए 1999 में समग्र स्वच्छता अभियान चलाया गया। इसमें सहभागिता और मांग आधारित दृष्टिकोण को अपनाया गया। समग्र स्वच्छता अभियान में ग्राम पंचायत एवं स्थानीय लोगों की सहभागिता एवं व्यवहार परिर्वतन पर जोर दिया गया। लेकिन इसमें हमें अभी तक आंशिक सफलता ही मिल सकी है। आज भी भारत में अस्वच्छता एक गंभीर चुनौती बनी हुई है। 2011 की जनगणना के अनुसार, केवल 32.7 फीसदी घरों में ही शौचालयों की सुविधा उपलब्ध हो पायी है।
            
समग्र स्वच्छता अभियान में आंगनबाड़ी और स्कूलों के स्वच्छता और साफ सफाई को लेकर पंचायतीराज संस्थाओं की भूमिका की बात तो की गई है लेकिन इसका मुख्य फोकस पूरे गावं को लेकर है। इससे आंगनबाड़ी और स्कूलों में स्वच्छता और साफ सफाई को लेकर इन संस्थाओं की भूमिका उभर कर सामने नही आ पाती है। चूंकि स्थानीय निकायों के पास पूरे गावं की जिम्मेदारी है वहीँ हमारे समाज की मानसिकता है कि बच्चों से संबंधित मुद्दों और सेवाओं को उतनी प्राथमिकता नही दी जाती और इसकी तुलना में बड़ों से संबंधित मुद्दों और सेवाओं को तरजीह दी जाती है। 

इस चुनौती से पार पाने का एक तरीका यह हो सकता है कि स्कूलों एवं आंगनबाड़ीयों में जल एवं स्वच्छता संबंधी सेवाओं की योजना, निर्माण, परिचालन और निगरानी के लिए एक विशेष  कमेटी का गठन किया जाये जिसमें ग्राम पंचायत के प्रतिनिधि, एस.एम.सी. से प्रतिनिधि, मध्यान भोजन बनाने वाले समूह के प्रतिनिधि, अध्यापक तथा बच्चों खास कर लड़कियों का प्रतिनिधित्व शामिल हो। ऐसा होने से स्कूलों में स्वच्छता से संबंधित सेवाओं के क्रियान्वंयन एवं बच्चों में इसके अभ्यास को प्राथमिकता मिलेगी और इसके क्रियान्वंयन और मोनिटरिंग में आसानी होगी।
           
पिछले एक दशक के दौरान शालाओं में शौचालय निर्माण में वृद्धि देखने को मिली है। मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि 2013-14 में 80.57 प्रतिशत लड़कियों के स्कूलों में उनके लिए अलग शौचालय थे। जबकि 2012-13 में यह संख्या 69 प्रतिशत थी। लेकिन समस्या का समाधान केवल यही नहीं है कि टॉयलेट्स बना दिए जाएं, बल्कि इसके लिए पानी और मल-उत्सर्जन की एक प्रणाली विकसित किए जाने की भी जरूरत होती है। इनके अभाव में टॉयलेट भी किसी काम के नहीं रह जाते। लेकिन हम पाते हैं कि शौचालयों के संचालन और सुविधाओं के रखरखाव को लेकर अभी भी समस्या बनी हुई है, इसी वजह से ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूली बच्चे खुले में शौच करने को मजबूर हैं। इस कारण शिक्षा प्रभावित होती है और बच्चे जानलेवा बीमारी का शिकार होते हैं। स्कूलों में शौचालयों के अपर्याप्त रखरखाव और जल और मल की उचित निकासी व्यवस्था न होने का सबसे ज्यादा प्रभाव छात्राओं पर पड़ता है। अधिकतर छात्राएं स्कूल की गंदे और अवरुद्ध शौचालयों का उपयोग करने की बजाय मूत्राशय में ही पेशाब को रोक कर रखती हैं। इस कारण से उन्हें न केवल शारीरिक समस्या से जूझना पड़ता है बल्कि कक्षा में भी पढ़ाई में उनकी एकाग्रता प्रभावित होती है। 
          
अगर हम साफ़-सफ़ाई की कमी को दूर कर लें तो  इससे ना केवल बच्चों के गन्दगी जनित बीमारियों से हो रही मौतों में कमी आएगी बल्कि उन्हें घरों, स्कलों एवं आंगनबाड़ीयों में शुद्ध पेयजल, शौचालय, एवं सफाई के अवसर भी उपलब्ध हो सकेंगें ,लेकिन अभी भी यह सपना  दूर की कौड़ी लगता है  । निश्चित रूप से हमें सभी बच्चों को स्वास्थ्य, शारीरिक और मानसिक विकास देने की दिशा में अभी लम्बा सफर तय करना है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गांधी जयंती ( 2014 ) के मौके पर स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत की थी । जिसके तहत 2019 तक स्वच्छ भारत निर्मित करने का लक्ष्य रखा गया है, सरकार ने एक बार फिर एक साल  के भीतर देश के सभी शालाओं में बालक-बालिकाओं के लिए अलग शौचालय उपलब्ध कराने का भी भरोसा दिलाया है। इसी कड़ी में इस साल पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के जन्मदिन बाल दिवस पर  14 नवम्बर को बाल दिवस के अवसर पर “बाल स्वच्छता मिशन” की गयी  इस मिशन के दौरान बच्चों को स्वच्छता एवं साफ-सफाई के बारे जागरूक किया जाएगा। 
             
लेकिन मसला सिर्फ जागरूकता का नहीं हैं बच्चों को सभी स्तरों  पर   साफ- सफाई उपलब्ध कराने के रास्ते में  आ रही रुकावटों को गंभीरता से दूर करने की भी जरूरत है ।  दूसरी तरफ जिस तरह से स्वच्छ भारत अभियान को लेकर सवाल उठाये जा रहे और यह नेताओं और स्लेब्रेटीज के लिए महज मीडिया इवेंट और  फोटो खीचने – खिचवाने का अभियान बनता जा रहा है उससे “बाल स्वच्छता मिशन “ को लेकर भी आशंकायें स्वभाविक हैं ।
        
बच्चों को स्वच्छता एवं साफ-सफाई के बारे जागरूक करने के साथ साथ यह भी जरूरी है कि  घरों ,शालाओं , आंगनबाड़ीयों  और अन्य सावर्जनिक स्थानों में स्वच्छता, इसके सुचारू प्रबंधन , शौचालय ,और साफ पानी उपलब्ध कराने को लेकर ध्यान केन्द्रित किया जाए । जिससे बच्चों को उनके शारीरिक,मानसिक विकास के लिए साफ – सुथरा माहौल  मिल सके और वे गन्दगी और इससे उपजने वाली जानलेवा बीमारियों  से सुरक्षित रह सकें।








जावेद अनीस
(चरखा फीचर्स)

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