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छतरपुर (मध्यप्रदेश) की खबर (17 नवम्बर)

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चौबे कॉलोनी में भागवत कथा का पांचवा दिन जीवन में व्यवहार और अध्यात्म दोनों जरूरी: डॉ. प्रभू जी

chhatarpur news
छतरपुर। जीवन रूपी गाड़ी में व्यवहार और अध्यात्म रूपी दोनों पहिए जरूरी हैं। सांसारिक कार्यों के लिए व्यक्ति को व्यवहार शील होना जरूरी है तो भगवत प्राप्ति के लिए उसका स्वभाव आध्यात्मिक भी होना चाहिए। चौबे कॉलोनी में भागवत पुराण के पांचवें दिन की कथा सुनाते हुए डॉ. प्रभू जी श्रीधाम मैहर ने कहा कि जीवन में व्यवहार और अध्यात्म दोनों धर्मों का पालन करें। भगवान कृष्ण के जन्म, बाललीला, वृंदावन प्रस्थान की मनोहारी कथाएं सुनाते हुए प्रभू जी ने बताया कि कंस ने देवकी वसुदेव के 6 पुत्रों की हत्या की तब तक कोई उद्घोष नहीं हुआ पर ज्यों ही सातवीं संतान योग माया रूपी कन्या को मानना चाहा तो वह आकाश में उड़ती हुई कंस के सर्वनाश का उद्घोष करती विंध्याचल पर्वत पर विंध्यवासिनी के रूप में स्थापित हो गई। डॉ. प्रभू जी ने कहा कि कन्या अथवा कन्या भ्रूण हत्या हमारे विनाश का उद्घोष है, जिसे अब भी नहीं सुना गया तो हमारा सर्वनाश सुनिश्चित है। उन्होने कहा कि केवल पुरूषों से समाज नहीं चलता, पोषण तो स्त्रियां ही करती हैं। मारना ही है तो मन की वासना, विकार और चंचलता को मारिए, कन्याओं को क्यों मारते हो। शंकर भगवान द्वारा गोकुल आकर कृष्ण के बालचरित्र को देखने की कथा सुनाते हुए प्रभू जी ने बताया कि शंकर जी बैल पर बैठकर त्रिशूल के साथ आए। बैल धर्म का प्रतीक है भोले बाबा सदैव धर्म की पराकाष्ठा पर आरूढ़ रहते हैं त्रिशूल, काम, क्रोध और लोभ रूपी तीन विकारों का प्रतीक है जिसे शिव सदैव अपने वश में रखते हैं। 

अच्छा नहीं सच्चा जीवन जीएं
डॉ. प्रभू जी ने कहा कि नंद जी ने सदैव सच्चा जीवन जिया। प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह अच्छा जीवन जीने के साथ-साथ सच्चा जीवन भी जिएं तो राष्ट्र का कल्याण होगा। नंद मथुरा राज्य द्वारा लगाए गए सभी करों का नियमित भुगतान करते थे जिसका शास्त्रों में स्पष्ट उल्लेख है। पूतना पूर्व जन्म में दैत्यराज बलि की बेटी रत्नमाला थी। अत्यंत छोटे वामन भगवान को देखकर उसे उन्हें स्तनपान कराने की इच्छा हुई थी। जिसकी पूर्ति भगवान ने इस जन्म में की। पूतना मरी तो कंस के छह कोस के उद्यान पर गिरी जो नष्ट हो गया। स्तनपान के उदाहरण से सनातनधर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करते हुए डॉ. प्रभू जी ने कहा कि जीव में अनेकानेक जन्मों के संस्कार होते हैं इसलिए वह अपने पूर्वाभ्यास के कारण जन्म लेते ही स्तनपान करने लगता है, उसे कोई सिखाता नहंी है। जीव सबसे ज्यादा मृत्यु से डरता है। क्योंकि पूर्व जन्मों की मृत्यु के संस्कार उसमें कहीं न कहीं सुरक्षित होते हैं। 

कृष्ण ने सदैव पर्यावरण का संरक्षण किया
डॉ. प्रभू जी कृष्ण भगवान की बाललीला का वर्णन करते हुए बताया कि उन्होंने बचपन से ही पर्यावरण के सुधार का कार्य किया। तृणावर्त को मारकर वायु का, व्योमासुर को मारकर आकाश का, कालिया नाग का दमन कर जल का तथा अग्रिपान कर अग्रि को शुद्ध किया। इसी तरह अघासुर का वध कर भूमि शुद्ध की। गोवर्धन लीला के माध्यम से उन्होंने वन, पर्वतों के संरक्षण की सीख दी। प्रभू जी ने कहा कि यदि हम वनों-पर्वतों को भगवान मानकर पूजेंगे तो फिर उनकी कटाई व खुदाई के कुत्सित भाव हमारे मन में नहीं आएंगे। 

यज्ञशाला से कम नहीं गौशाला
डॉ. प्रभू जी ने कहा कि जब कृष्ण-बलराम एक साल के हो गए तो नंदबाबा ने नामकरण के लिए गर्गाचार्य जी को बुलाया। कंस के भय से नामकरण समारोह नंद भवन की यज्ञशाला के स्थान पर गौशाला में हुआ। प्रभू जी ने कहा कि हम यज्ञ में समस्त देवी-देवताओं को आमंत्रित कर आहुतियां देते हैं। हमारे यहां मान्यता है कि गौ माता में 33 करोड़ देवी-देवताओं का वास होता है। इस तरह गौशाला का महत्व किसी यज्ञशाला से कम नहीं है। यदि हम गौ माता की सेवा करते हैं तो यह किसी बहुत बड़े यज्ञ को करने जैसा ही है। माखन चोरी का चित्रण करते हुए डा. प्रभू जी ने कहा कि माखन जीवन के प्रेम का पर्याय है और इसे पाने का प्रिय पात्र कृष्ण के अलावा कौन हो सकता है वे माखन चोर नहीं अपितु भक्तों के पाप और ताप की चोरी करते हैं। ऊखल बंधन की कथा सुनाते हुए उन्होंने कहा कि मैया यशोदा जब नन्हें से कृष्ण को ओखली से बांधने का प्रयास करती हैं तो रस्सी दो अंगुल छोटी पड़ जाती है। यह दो अंगुल भक्त के प्रेम और प्रभू की कृपा के प्रतीक हैं। बकासुर का वध कर भगवान ने संदेश दिया कि भक्ति में पाखण्ड का कोई स्थान नहीं है। अघासुर वध के समय ब्रह्मा के मोह की कथा सुनाते हुए उन्होंने बताया कि ब्रह्मा जब कृष्ण के सखा ग्वालवालों को छल से हरण कर एक साल तक ब्रह्मलोक में छिपाए रहे उस समय कृष्ण स्वयं ग्वालवाल बनकर उनके घरों में रहे। उसी समय शुभ मुहुर्त होने से गोपियों की शादियां ग्वालवालों से करा दी गईं। पर प्रत्येक ग्वालवाल के रूप में तो भगवान श्रीकृष्ण ही लीला कर रहे थे।  इस तरह सभी गोपियां कृष्ण की ही पत्नियां हो गईं तभी तो उन्होंने सबके साथ बाद में महारास की लीला की। 

कलयुग के कारण चीरहरण लीला
डॉ. प्रभू जी ने चीरहरण की कथा सुनाते हुए कहा कि द्वापर युग में श्रेष्ठ मर्यादा स्थापित थी। नदी, तालाबों में स्नान हेतु नर-नारियों के अलग-अलग घाट थे। गोपियां स्त्रियों के घाट पर निर्वस्त्र होकर स्नान करती थीं। भगवान कृष्ण ने विचार किया कि व्यक्ति को एकांत में भी सजग और मर्यादित रहना चाहिए फिर जल में तो वरूण देवता का भी वास है। उन्होंने यह भी सोचा कि आगे आने वाला युग कलयुग है। यह परंपरा तब और अधिक घातक होगी। इसलिए उन्होंने चीरहरण के माध्यम से गोपियों को संदेश दिया कि उनकी यह क्रिया समाज में कतई स्वीकार करने योग्य नहीं है। 

इन्द्र को घूस क्यों दें
गोवर्धन लीला की रसमयी कथा सुनाते हुए डॉ. प्रभू जी ने बताया कि भगवान कृष्ण ने नंद बाबा को इन्द्र की पूजा करने से इसलिए रोक दिया क्योंकि यह बारिश होने के लिए की जाती थी। भगवान कृष्ण ने कहा कि यह तो इन्द्र का दायित्व है कि वह पृथ्वी पर जल बरसाएं इसके लिए उनकी खुशामद की क्या जरूरत है जिसका जो कर्तव्य है उसे आगे आकर स्वत: पूरा करना चाहिए। इस तरह की पूजा से इन्द्र की आदत बिगड़ जाएगी। प्रलोभन देना भी उचित नहीं है और उन्होंने नंद बाबा को ऐसा करने से रोका दिया। डॉ. प्रभू जी ने कहा कि आज भी प्रलोभन देने के वृत्ति से भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला है।  

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