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आलेख : काजल की कोठरी में केजरीवाल...!!

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arvind kejriwal
बीवी का मारा बेचारा किसी से अपनी दुर्दशा कह नहीं सकता। इसी तरह सत्ता को कोस कर सत्ता पाने वाला भी यह कहने की हालत में नहीं रहता कि सब कुछ इतना आसान नहीं है। व्यवहारिक जिंदगी में कई बार एेसा होता है कि हमें बाहर से जो चीज जैसी दिखाई देती है, वह वस्तुतः वैसी होती नहीं। खरी बात यह कि सत्ता हो या राजनीति बाहर रहते हुए निंदा - आलोचना करना जितना आसान है, इसमें उतर कर सही मायने में कुछ करके दिखा पाना उतना ही कठिन। यही वजह है कि 70 के दशक में प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई जनता पार्टी का इतिहास हो या 80 के दशक के मध्य में लोगों में उम्मीद बन कर उभरे राजा विश्वनाथ प्रताप सिहं। सत्ता मिलने के बाद सभी जन आकांक्षाओं को पूरा करने में बुरी तरह से नाकाम ही रहे। राजनीति की डगर कितनी कठिन  है इस बात का भान मुझे अपने युवावस्था के शुरूआती दिनों में ही हो गया था। जब स्थापित राजनेताओं व राजनैतिक दलों की मनमानी और  गलत कार्यों से नाराज होकर बगैर पृष्ठभूमि व तैयारी के ही मैं कारपोरेशन चुनाव में उम्मीदवार बन गया। चुनावी मौसम में ऐसे मौकों की तलाश में रहने वालों ने मुझे चने की पेड़ पर चढ़ाने में कोई कसर बाकी नहीं रहने दी। बहरहाल इससे मेरा उत्साह जरूर बढ़ा। कोई स्थापित राजनैतिक दल तो मुझे टिकट देने वाला था  नहीं , लिहाजा मैने एक विकासशील पार्टी से संपर्क किया। उस दल के गिने - चुने नेताओं के लिए तो यह बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने जैसा ही  था। उन्होंने मेरा स्वागत करते हुए हर्षित प्रतिक्रिया दी... आप जैसों का हमारे दल में आना शुभ है, आप को यह फैसला पहले ही लेना चाहिए था। बहरहाल हम आपको टिकट देंगे। 

फिर शुरू हुआ  मुसीबतों का दौर। पेशेवर राजनेता उम्मीदवारों के दबाव में समय के साथ  हमारे एक - एक कर साथी कम होते गए। कुछ ने गुप्त तरीके से तो कुछ ने खुल कर उनके साथ सौदेबाजी भी कर डाली। न घर का न घाट का .. जैसी हालत तो मेरी थी। वह मेरी  बेरोजगारी का दौर था। लिहाजा परिजनों ने हमारी इस नादानी पर छाती पीटना शुरू कर दिया। जिसे अपना शुभचिंतक समझते थे, उन्होंने भी हमें कोसते हुए मदद से हाथ खड़े कर दिए। यह और बात है कि उम्मीदवार बनने से पहले तक वे हमें पूरा साथ देने का आश्वासन दे रहे थे। उलाहना मुफ्त में दिया कि चुनाव लड़ कर कोई जीत तो जाओगे नहीं , क्यों फिजूल में इस झमेले में पड़े। जिस पार्टी ने हमें टिकट दिया था उसने भी यह कहते हुए आर्थिक मदद करने से इन्कार कर दिया कि चुनाव प्रचार को तमाम सेलीब्रिटीज आ रही है, उन पर होने वाला खर्च संभालना ही मुश्किल है। तुम्हारी मदद क्या की जाए। चुनाव नजदीक आने तक हमारी छोटी सी जेब खाली हो गई, तो अपने जैसे कुछ उम्मीदवारों को साथ लेकर हम आर्थिक सहायता मांगने निकल पड़े। जनता के बीच जाने पर उलाहना व तानों के सिवा क्या मिलना था, सोचा कुछ गिने - चुने सक्षम लोगों के सामने ही बात रखी जाए। 

लेकिन वहां भी घोर निराशा हाथ लगी। पेशेवर औऱ धंधेबाज राजनेताओं के लिए अपनी तिजोरी खोल देने वाले धनकुबेरों ने भी हमें सहायता के नाम पर तानों के साथ जो राशि दी, उससे कई गुना ज्यादा वे मोह्ल्लों में आयोजित होने वाले मेला और  पूजा समारोहों में देते थे।  आखिरी दौर में भी हमने देखा कि सामान्य दिनों में जिन नेताओं को लोग गालियां देते थे, चुनावी मौसम में उन्हीं के आगे - पीछे घूमते हुए उनके समर्थन में नारे लगा रहे थे। दूसरी ओर मैं  अनचाहे कर्ज के दलदल में फंसता जा रहा था। मेरी हालत चक्रव्यूह में फंसे अभिमन्यु जैसी हो गई थी। इंतजार था तो बस चुनाव  खत्म होने का। चुनाव परिणाम घोषित होते ही धंधेबाज नेताओं के समर्थन में की जा रही हर्ष ध्वनि और  निकाले जा रहे जुलूस के शोर - शराबे  के बीच मैं लगभग वैसे ही भागा, जैसे पिंजरे से छूटने के बाद पक्षी आकाश की ओर उड़ान भरता है। इसलिए अरविंद केजरीवाल की हालत में अच्छी तरह समझ सकता हूं। उन्हें मेरी शुभकामनाएं



तारकेश कुमार ओझा, 
खड़गपुर ( पशिचम बंगाल)
संपर्कः 09434453934 
लेखक दैनिक जागरण से जुड़े हैं। 

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