अर्थात निर्मल मन में ही भगवान वास करते हैं। अगर आपके मन में किसी के प्रति बैर भाव नहीं है, कोई लालच या द्वेष नहीं है तो आपका मन ही भगवान का मंदिर, दीपक और धूप है। ऐसे पवित्र विचारों वाले मन में प्रभु सदैव निवास करते हैं। यह वाणी मेरे नहीं, बल्कि उस महान संत शिरोमणि रविदास जी के है, जिन्होंने अपनी कविताओं से समाज सुधार में रहा बड़ा योगदान दी है। वह कवि होने के साथ-साथ समाज सुधारक भी थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में समाज में फैली बुराईयों और भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाई। गुरु रविदास को रैदास के नाम से भी जाना जाता है। वह एक संत और कवि थे, जिनका भक्ति आंदोलन में अहम योगदान था. उन्होंने समाज विभाजन को दूर करने और व्यक्तिगत आध्यात्मिक आंदोलन को बढ़ावा देने पर जोर दिया. संत रविदास बस एक ही रास्ता जानते थे, जो कि भक्ति का है. इनका प्रसिद्ध मुहावरा “मन चंगा तो कठौती में गंगा“ है जो आज के समय में भी काफी प्रसिद्ध है. संत गुरु रविदास का जन्म 1377 ई में उत्तर प्रदेश के वाराणसी में हुआ था. पंचांग के अनुसार, इनका जन्म माघ मास की पूर्णिमा तिथि को हुआ था. इसके अलावा इनके जन्म को लेकर एक दोहा भी प्रचलित है जो इस प्रकार है- चौदस सो तैंसीस कि माघ सुदी पन्दरास. दुखियों के कल्याण हित प्रगटे श्री गुरु रविदास. गुरु रविदास जयंती को मनाने की प्रमुख वजह उनके द्वारा जात-पात और ऊंच-नीच के भेदभाव को खत्म करने का है। इसके अलावा उन्होंने समाज में समानता और न्याय के लिए भी लड़ाई लड़ी थी. साथ ही इन्होंने अपने दोहों से समाज के लोगों को सही राह दिखाने का भी काम किया था. गुरु रविदास जी ने सामाजिक कार्यों में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, जिससे लोगों में अच्छे गुणों का संचार हो सके. इस साल 12 फरवरी को रविदास जयंती मनाई जाएगी
देखा जाय तो रविदास जी के भक्ति गीतों एवं दोहों ने भारतीय समाज में समरसता एवं प्रेम भाव उत्पन्न करने का प्रयास किया है। हिन्दू और मुसलिम में सौहार्द एवं सहिष्णुता उत्पन्न करने हेतु उन्होंने अथक प्रयास किया। इस तथ्य का प्रमाण उनके गीतों में देखा जा सकता है। वह कहते हैं- तीर्थ यात्राएं न भी करो तो भी ईश्वर को अपने हृदय में वह पा सकते हो। ‘का मथुरा, का द्वारिका, का काशी-हरिद्वार। रैदास खोजा दिल आपना, तह मिलिया दिलदार‘।। उनके जीवन की घटनाओं से उनके गुणों का ज्ञान होता है। एक घटना अनुसार गंगा-स्नान के लिए रैदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया तो वे बोले, मैं आपके साथ गंगा-स्नान के लिए जरूर चलता लेकिन आज शाम तक किसी को जूते बनाकर देने का वचन दिया है। अगर मैं तुम्हारे साथ गंगा-स्नान के लिए चलूंगा तो मेरा वचन झूठा होगा ही, साथ ही मेरा मन जूते बनाकर देने वाले वचन में लगा रहेगा। जब मेरा मन ही वहां नहीं होगा तो गंगा-स्नान करने का क्या मतलब। इसके बाद सन्त रविदास ने कहा कि यदि हमारा मन सच्चा है तो इस कठौती में भी गंगा होगी अर्थात् ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’। कहते हैं शिष्य ने जब इस बात का मजाक उड़ाया तो सन्त रविदास ने अपने प्रभु का स्मरण किया। चमड़ा भिगोने वाले पानी के बर्तन को छुकर शिष्यों को उसमें झांकने को कहा। जब शिष्य ने उस कठौती में झांका तो उसकी आंखें फटी की फटी रह गईं, क्योंकि उसे कठौती में साक्षात् गंगा प्रवाहित होती दिखाई दे रही थी। धीरे-धीरे सन्त रविदास की भक्ति की चर्चा दूर-दूर तक फैल गई और उनके भक्ति के भजन व ज्ञान की महिमा सुनने लोग जुटने लगे। उन्हें अपना आदर्श एवं गुरु मानने लगे। इस प्रकार के व्यवहार के बाद से ही कहावत प्रचलित हो गयी कि- ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा।’
कृष्ण भक्त परम्परा के कवि माने जाते हैं
रविदास राम और कृष्ण भक्त परम्परा के कवि और संत माने जाते हैं। उनके प्रसिद्ध दोहे आज भी समाज में प्रचलित हैं जिन पर कई भजन बने हैं। उनके पदों में प्रभु भक्ति भावना, ध्यान साधना तथा आत्म निवेदन की भावना प्रमुख रूप में देखी जा सकती है। रैदास जी ने भक्ति के मार्ग को अपनाया था। सत्संग द्वारा उन्होने अपने विचारों को जनता के मध्य पहुंचाया। अपने ज्ञान तथा उच्च विचारों से समाज को लाभान्वित किया। प्रभुजी तुम चंदन हम पानी। जाकी अंग अंग वास समानी।। प्रभुजी तुम धनबन हम मोरा। जैसे चितवत चन्द्र चकोरा।। प्रभुजी तुम दीपक हम बाती। जाकी जोति बरै दिन राती।। प्रभुजी तुम मोती हम धागा। जैसे सोनहि मिलत सुहागा।। प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा। ऐसी भक्ति करै रैदासा।। जैसे पद में रविदास जी ने अपनी कल्पनाशीलता, आध्यात्मिक शक्ति तथा अपने चिन्तन को सहज एवं सरल भाषा में व्यक्त किया। ‘आज दिवस लेऊं बलिहारा, मेरे घर आया प्रभु का प्यारा। आंगन बंगला भवन भयो पावन, प्रभुजन बैठे हरिजस गावन। करूं दंडवत चरण पखारूं, तन मन धन उन परि बारूं। कथा कहैं अरु अर्थ विचारैं, आप तरैं औरन को तारैं। कहिं रैदास मिलैं निज दास, जनम जनम कै कांटे पांस‘। ऐसे पावन और मानवता के उद्धारक सतगुरु रविदास का संदेश निःसंदेह दुनिया के लिए बहुत कल्याणकारी तथा उपयोगी है। ‘जातपात में पात है, ज्यों केलन के पात, रविदास मनुख न जुट सके, जब लग जात न पात।’ यह जाति व्यवस्था मनुष्य को खा रही है, इसके अन्त से ही मानवता का कल्याण होगा। ‘जात पांत के फेर में, उलझी रहयो सब लोग। मानुषता को खात हुई, रविदास जाति कर लोग।।’
हीरा जनम अमोल है, कोड़ी बदले जाये
रविदास ने अहम का त्याग किया और सर्वस्व समर्पण कर वश परमात्मा की शरण में अपने आप की समर्पित किया। रविदास ने मानव जीवन को दुर्लभ बताया है, उन्हें कहा, मानव जीवन एख हीरे की तरह है, परन्तु उसकी भौतिक सुख अर्जित करने में यदि किया जाय, तो यह जीवन को नष्ट करना होगा। ‘रैनी गंवाई सोय करि, दिवस गंवायो खाय। हीरा जनम अमोल है, कोड़ी बदले जाये।’ रविदास जी ने बताया कि परमात्मा हम सबके अन्दर है, बाहरी वेश भूषा बनाना व्यर्थ है, और भ्रामक भी, सच्चे भक्त बाह्य क्रियाओं से कोई संबंध नहीं रखते, बल्कि अपने ध्यान को बाहर से समेट कर अन्दर ले जाते हैं। मानव जब पूर्ण रूप से भगवान की शरण में जाता है तो मंदिर मस्जिद और राम रहिम में कोई फर्क नहीं दिखता, जब लोग धर्मवाद की लड़ाई लड़ रहे थे, रविदास ने अपने कविता समस्त मानव को जगाने का काम किया। उन्होंने कहा-‘रविदास न पुजइ देहरा, अरू न मस्जिद जाय, जहे तह ईश का वाश है, तहं तहं शीश नवाय।’ रविदास जी ने कहा कि ईश्वर की आराधना करने के लिए गेरूवा वस्त्र, चन्दन, हवन की जरूरत नहीं है। उनकी पूजा सरल, सर्वसाध्य एवं बेमिसाल थी। उनकी भक्ति ‘प्रभु जी तुम चन्दन हम पानी’ आज भी बड़े प्रेम से लोग गाते हैं, उन्होंने अभिव्यक्त किया। ‘मन ही पूजा मन नहीं धूप, मन ही सेवो सहज स्वरूप। पूजा अर्चना न जानू तेरी, कह रैदास कवन गति मेरी।। रविदास जी कहते हैं कि हे स्वामी मैं तो अनाड़ी हूं। मेरा मन तो माया के हाथ बिक गया है, कहा जाता है कि तुम जगत के गुरू हो जगत के स्वामी हो, मैं तो कामी हूं। मेरा मन तो इन पांच विकारों ने बिगाड़ रखा है। जहां देखता हूं वहीं दुरूख ही दुःख है, आखिर क्या करूं प्रभु को छोड़कर किसकी शरण में जाऊं।
‘माधो सब जग चेला, अब विछरै मिलैइ न दोहला।’
संत रविदास पूजा, उपासना और धर्म-साधना की दृष्टि में अलग महात्मा है, संत हैं, इसलिए इन्हें संतों में श्रेष्ठ संत शिरोमणि रविदास कहा गया। प्रेम, भक्ति और त्याग को वे एक तन्मय भूमिका में ले जाते थे तथा उनका हर क्षण आध्यात्मिक, पवित्रता में बदलता था। वे अवतार रूपों की पूजा तो नहीं करते थे लेकिन अवतार चरित्रों की सामाजिक चरितार्थ में अवश्य विश्वास करते थे, उनका कहना था-‘बाह्य आडम्बर हौं कबहुं न जान्यौ तुम चरनन चित मोरा, अगुन-सगुन कौ चहूं दिस दरसन तोरा।’ रविदास जी ने उस युग में हो रहे मानव- मानव के प्रति ऊंच-नीच की भावना को समाप्त करना चाहा, धर्म के नाम पर अत्याचार को मिटाना चाहा, तथा ऊंच नीच के भेद को समाप्त कर सबको विवेकपूर्ण समझ देकर मानवता की रक्षा की। यहां तक कि मीराबाई ने रविदास को अपना गुरू माना और उनकी शिष्य बनी। रविदास ने जब उन्हें मंत्र की दीक्ष तो मीरा नाचते कहने लगी-‘पायो रे मैंने राम रतन धन पायो, खोजत फिरत भेद वा घर का। कोई न करत बखानी, रैदास संत मिले मोही सतगुरू।। खास यह है कि संत रविदास जी ने न तो किसी भी विद्यालय में शिक्षा ग्रहण की और न ही किसी गुरु से शिक्षा ली। संत रविदास ने स्वाध्याय और सत्संगति से पर्याप्त ज्ञान प्राप्त किया। उनकी वाणी के द्वारा ज्ञात हुआ कि उनके लिए ईश्वर ही उनका गुरू था। जैसा कि उनकी वाणी में लिखा है ‘माधो सब जग चेला, अब विछरै मिलैइ न दोहला।’ उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि गुरुजी जहां एक उच्च कोटि के भक्त थे। वहीं समय और परिस्थिति के कारण एक समाज सुधारक भी थे। उनका मन चित गंगा की तरह पवित्र तथा शुदू था। मन, वाणी और कर्म से निर्मल इस संत ने जिस जल को छुआ यह यथार्थ में गंगा जल के समान पवित्र हो गया। उनके घर की कटौती एवं सागर में भी गंगा जल हो गया तो उन्हें अपने निर्वाण के लिए गंगा स्नान एवं अन्य तीर्थ स्थानों में जाने की क्या आवश्यकता है?
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी