मजबूत एवं स्वस्थ संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक और राजनेताओं की मर्यादा,सुचिता एवं विश्वसनीयता की जितनी अहम भूमिका है उतनी ही जरूरी है आम आवाम की राजनीतिक चेतना। राजनीतिक चेतना के बिना सफल लोकतंत्र की कोई भी परिकल्पना अधूरी है। जैसे मस्तिष्क से सारा शरीर संचालित होता है उसी प्रकार राजनीति से देश और समाज संचालित होता है। अगर मस्तिष्क ठीक से काम नहीं करता है तो शरीर का कोई उपयोग नहीं रह जाता। उसी प्रकार अगर रानीति की दशा और दिशा गलत हो जाय तो देश और समाज की हानि तय है ।
महात्माँ गांधी ने आजादी के बाद देशवासियों को राजनीतिक प्रशिक्षण देने की बात कही थी। मगर आज देश में राजनीतिक प्रशिक्षण की बात तो दूर; जनता को जाति, धर्म, वर्ग और समुदाय में बाँट कर उसे गुमराह करने की ही प्रवृति राजनेताओं व राजनीतिक दलों में बढी है। राजनीतिक स्वार्थ और पद की बढ़ती लालसा और भूख ने दलों और राजनीति के कर्णधारों को देश और समाज की हानि न देख पाने वाले विवेक शून्य बिरादरी में तब्दील कर दिया है। ऐसे में राजनीतिक प्रशिक्षण कौन देगा?
2014 के पार्लियामेंट चुनाव की घोषणा हो चुकी। सभी राजनीतिक दल चुनाव प्रचार में लग गये हैं। वोट के लिये तरह-तरह से लोगों के बीच नये-नए नारे तैयार किये जा रहे हैं और सब्जबाग दिखाये जा रहे हैं; मगर 130 करोड़ लोगों के देश में 22 रू. और 30 रू. प्रतिदिन की आमदनी पर जीने वाले पन्द्रह करोड़ भूखे पेट सो जाने वाले ढ़ाई लाख किसान; जो खेती के घाटे के कारण आत्महत्या कर चुके हैं और करोड़ों किसानों को उनके खेती का लागत मूल्य नहीं मिलता है; और खून पसीना बहा कर अनाज उपजाकर देश का पालन करते हैं;उनकी समस्या के बारे में वर्तमान राजनीतिज्ञ कुछ बता नहीं रहे।
डीजल; पेट्रोल और गैसों के रोज बढ़ते हुए दामों के बारे में आज राजनीतिज्ञ चुप हैं। भ्रष्टाचार और मँहगाई जो देश को निगल रही है उसकी चिन्ता राजनीति पार्टियों को नहीं है। आज देश के नौजवानों की फौज सड़क पर है। स्कूलों और कोलेजों में पढ़ाई लिखाई समाप्त है। इन सभी समस्याओं का निराकरण कैसे होगा ? यह वर्तमान लोकसभा के चुनाव में जनता को जानने का हक है और उसे बताया भी जाना चाहिए।
समस्याओं का समाधन और निराकरण भी राजनीतिक दलों को बताना होगा। देश में समस्याएँ तो आजादी के कुछ दिनों के बाद ही बढनी शुरू हो गयी थी। पिछले कुछ चुनावों से ही जब-जब चुनाव आता है तो लुभावने नारे तैयार किये जाते है और जनता में उन्माद फैलाकर उनका मत हरण कर लिया जाता है। लोकतंत्र में सबसे बड़ी भूमिका राजनीति पार्टियों की होती है। आज अधिकांश राजनीतिक पार्टियाँ प्राईवेट लिमिटेड कम्पनियाँ हो गई हैं । और पार्टियों पर कम्पनी एवं बाजार हावी है। किसी-किसी दल की स्थिति तो यह है कि वहां परिवार को लेकर ही पार्टी चल रही है।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत की विडम्बना यह है कि देश का कोई भी गरीब,आम आदमी चुनाव नहीं लड़ सकता है। अभी-अभी हाल में चुनाव आयोग ने फैसला लिया कि संसद का चुनाव लड़ने वाला 70 लाख रू. चुनाव में खर्च कर सकता हैं। चुनाव अब; बड़े पूंजीपतियों और प्राईवेट लिमिटेड कम्पनी वाली पार्टियों के हाथों में जा चुकी है।
आज राजनीति बेईमानों और भ्रष्टाचारियों के हाथ कैद हो चुकी है। राजनीति से नैतिकता,ईमानदारी, सिद्धांत मर्यादाएँ, मानवीयता; सबके सब लुप्त हो चुके हैं। देश और समाज को चलाने के लिये ही संविधान , वेद, पुराण, बाइबिल, गीता और कुरान बने हैं। मगर आधुनिक राजनीति से सभी गायब हो चुकी हैं । देश में अराजकता फैलने और अशांति का कारण;सिद्धांतों और नैतिकता का राजनीति से विदा हो जाना ही है।
डा० राम मनोहर लोहिया ने कहा था- "बिना सिद्धांत की राजनीति बांझ होती है।"डा० लोहिया नास्तिक थे। वे भगवान में विश्वास नहीं करते थे। मगर देश में राजनीति को प्रतिष्ठित करने के लिए उन्होंने कहा है- "हे भारतमाता, मुझे राम की भुजा, कृष्ण का हृदय और शिव का मस्तिष्क दो।" डा० लोहिया राजनीति के लिए नैतिकता, सिद्धांत और मर्यादा को बहुत महत्व देते थे। इसलिए वे राम के जीवन से त्याग और मर्यादा की सीख लेने की बात कहते थे।
आजादी के लिये कुर्बान होने वाले और कष्ट भोगने वाले हमारे महान नेताओं ने भी बताया है कि राजनीति जनता की सेवा करना और बुराईयों से लड़ने का औजार है। मगर आज राजनीति को अधिकाँश नेताओं ने लूटने और ठगने का औजार बना लिया है। चुनाव में सभी पार्टियों का एकमात्र लक्ष्य है येन केन प्रकारेण सत्ता प्राप्त करना। और सत्ता प्राप्ति के लिये सभी प्रकार के हथकंडे अख्तियार किये जा रहे हैं।
आये दिन मीडिया में एक दूसरे के उपर तरह-तरह के आरोप प्रत्यारोप लगाये जा रहे हैं। मर्यादित भाषा की भी कमी से जूझ रहें हैं देश के राजनेता। लगता है राजनीति भले लोगों का कार्य नहीं रह गया है। आज राजनीतिक अराजकता के कारण ही समाज में अराजकता, भ्रष्टाचार , घूसखोरी , लूट और धन संग्रह के तरह-तरह के हथकंडे अपनाये जा रहे हैं।
राजनीति के ज़रिये देश चलाने वाले नेता ही आम जनता के प्रेरणा स्रोत होते हैं और जब प्रेरणा ही समाप्त हो जाय तो समाज का क्या होगा? कहा गया है- ‘‘महाजने येन गता: सो पन्था:’’। समाज और देश को चलाने वाले जैसा आचरण करते है; समाज उसी की नकल करता है। इसलिये हमारी नई पीढ़ी को अपने नेताओं के आचरण से कोई आदर्श और प्रेरणा नहीं मिल रही है।
आज देश के करोड़ों मतदाताओं और आम नागरिक के सामने एक महत्वपूर्ण प्रश्न कौंधता है कि आखिर इस सिद्धांतहीनता और समस्याओं के समाधन के बिना देश में लोकतंत्र कैसे बचेगा? क्या भारत की अखंडता कायम रह पायेगी ? क्या करोड़ों लोगों की बुनियादी समस्याओं के समाधान के बिना सब कुछ ऐसे ही शांतिपूर्वक चल पायेगा? ऐसी परिस्थिति में जनता को सोच समझ कर निर्णय लेना होगा। चुनाव में भ्रष्ट और बईमान उम्मीदवारों को सबक सिखाना ही होगा।
चौधरी चरण सिंह अपने चुनाव भाषण में जनता से अपील करते थे कि “अगर भूल से मेरी पार्टी के भी गलत उम्मीदवार खड़े कर दिए गए हों तो उन्हें भी वोट हरगिज़ नहीं देना।” जनता को इस बार जागना होगा और अपने निर्णय से; देश एवं अपने भविष्य के हित में; पाखंडी और बेईमान नेताओं को सबक सिखाना होगा। वरना राजनीतिक पतन की पराकाष्ठा से जनता को रूबरू होना ही पड़ेगा।
अगर भूल से भी इस चुनाव में वर्तमान राजनीति में सुधार नहीं हुआ तो राजनीति के कारण जनता का जीवन अधिक नारकीय हो जायेगा। जो लोग यह समझते है कि देश में अब राजनीति नहीं सुधरेगी; वे वहम के शिकार हैं। कार्ल मार्क्स ने कहा है-“समाज में या तो समाजवाद आयेगा या अराजकता फैल जायेगा।” सामाजिक विषमता, अराजकता और असमानता को देखकर महान कवि रामधरी सिंह दिनकर की पंक्तियाँ याद आती हैं -‘‘शांति नहीं तब तक जब तक; सुख भोग न नर का सम हो, नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो।”
गजेन्द्र प्रसाद हिमांशु
पूर्व मंत्री
बिहार सरकार
मोबाईल- 9470020238, 8084994235