राजनीतिक क्षेत्र मे एक नया फेशन उभर कर आया है कि देश के आम नागरिक और अंतिम छोर के आदमी की चिन्ता चुनाव के समय सभी को होने लगी है। राजनीति के रेम्प पर इस फेशन को ‘‘आम आदमी पार्टी’’ के केजरीवाल ग्रुप ने लाॅन्च किया है। ध्यान करना होगा इस स्वरूप के फेशन मे बाहरी बस्त्रों का दिखावा भर है। परन्तु राजनीतिक रेम्प पर प्रदर्शन करने वालों के अन्दरूनी कपड़े कितने गन्दे, फटेे और बदबूनुमा हो सकते हैं इसका अनुमान लगाना भी कठिन है। विषय की इस भूमिका के साथ कहना यह है कि देश के रेल्वे विभाग और केन्द्रीय सरकार ने यात्रियों के उस वर्ग की ओर कभी भी कोई ध्यान नहीं दिया है जो ट्रेन के जनरल कम्पार्टमेन्ट मे यात्रा करता है। देश के रेल्वे मिनिस्टर, सांसद अथवा रेल्वे बोर्ड के अधिकारी एक बार यदि रेल्वे स्टेशन की जनरल टिकिट विन्डो पर लाईन मे लगने से लेकर ट्रेन के जनरल डिब्बा मे चढ़कर यात्रा करने का पीड़ाजनक अनुभव प्राप्त करें, तब पता चल पायेगा कि अनारक्षित वर्ग के व्यक्ति जनरल कम्पार्टमेन्ट मे कैसी दयनीय स्थिति के साथ यात्रा करते हैं।
एक बार मै भोपाल से दतिया मालवा एक्सप्रेस से यात्रा कर रहा था, ट्रेन झांसी स्टेशन पर रूकी तो मैने अपने रिजर्वेशन वाले डिब्बे से बाहर निकलकर देखा कि जनरल कम्पार्टमेन्ट वाले टिकिट के लगभग 1000 मजदूर वर्ग के महिला, पुरूष, बच्चे अपने सिर पर सामान लादे दिल्ली जाने के लिये ट्रेन मे चढ़ने को आतुर थे। प्लेटफार्म के दूसरी ओर सदर्न एक्सप्रेस भी रूकी थी, पहले तो ये सभी यात्री जगह की तलाश मे सदर्न एक्सप्रेस के एक छोर से दूसरे छोर तक दौड़ें लगा रहे थे। परन्तु उसमे चड़ने तक के लिये जब कोई जगह नहीं मिली तो वे मालवा एक्सप्रेस मे चढ़ने की कोशिश करने लगे। परन्तु इस ट्रेन मे भी उन्हें पैर रखने तक को जगह नहीं मिल रही थी। वे सभी बेचारे ट्रेन की ओर बड़ी मजबूरी के भाव से निहार रहे थे। काफी कोशिश के बाद भी जब वे जनरल कम्पार्टमेन्ट मे नही चढ़ पाये तो उनमे से कुछ हिंसक होकर कहने लगे कि रिजर्वेशन वाले डिब्बे मे चढ़ते हैं, कोई रोकेगा तो उसे चलती ट्रेन से नीचे फेक देंगे। जैसे ही उन्होंने आरक्षित डिब्बे मे कदम रखा, कि प्लेटफाॅर्म पर खडा टी.सी. चिल्लाया ‘खबरदार, यह रिजर्वेशन वाला डिब्बा है, बीच मे ही उतार देंगे।’ मै देख रहा था कि आधे-अधूरे कपड़ों मे लिपटी महिलायें एक हाथ से अपने बच्चों को गोदी मे लिये और दूसरे हाथ से सिर पर रखी पोटली को सम्हालते हुये निरीह हालत मे रिजर्वेशन वाले डिब्बे के पसरे हुये यात्रियों को देख रहीं थीं। उनके साथ वृद्ध पुरूष एवं महिलायें थके हारे से खड़े हुये थे। मैंने उनसे कहा कि पीछे से और भी कई ट्रेने दिल्ली जाने के लिये आ रहीं हैं, उनमे चढ़ने का प्रयास करना। तो उन्होने जवाब दिया कि चार घण्टे से यही कोशिश कर रहे हैं और सभी ट्रेनों मे यही हालत है। आगे उन्होने जो जवाब दिया, वह और भी व्यथित करने वाला था कि घर से जब वे चले थे तो रास्ते के लिये व दूसरे दिन मजदूरी पर जाने तक के लिये भोजन साथ मे लेकर चले थे, लेकिन वह भोजन स्टेशन पर ही खत्म होने की स्थिति मे है। मालवा एक्सप्रेस के एक रिजर्वेशन वाले डिब्बे मे चार-छह महिलायें व पुरूष जब चढ़ गये तो अगले ही स्टेशन दतिया पर जैसे ही ट्रेन रूकी, उन्हें टी.सी. ने धक्के देकर नीचे उतार दिया। वे बेचारे चिल्ला रहे थे कि उनके परिवार के दूसरे लोग दूसरे डिब्बे मे बैठे हैं और बीच मे ही वे उनसे छूट जायेंगे, फिर दिल्ली मे पता नहीं कैसे मिलेंगे। परन्तु उस निर्दयी टी.सी. का दिल नहीं पसीजा और अपने औहदे का रूतवा दिखाते हुये उसी डिब्बे मे अनारक्षित यात्रियों को बर्थ का बंटन करने लगा। यह समझा जा सकता है कि ट्रेन के अन्दर बर्थ के एलाॅट्मेन्ट की कसौटी क्या है ?
बात बहुत गम्भीर है, इस अंतिम छोर के आदमी की चिन्ता सिर्फ चुनावों के समय ही की जाती है और इस विषय को केजरीवाल ने भले ही उजागर करके दिल्ली विधानसभा चुनाव तक के लिये लाभ ले लिया था परन्तु सही यह भी है इस वर्ग की दयनीयता को चुनाव के समय ही राजनीतिक दल एन्केश करते हैं। जनता यह नही जानती थी कि केजरीवाल इतनी जल्दी एक्सपोज हो जायेंगे। राजनीति का सिर्फ इतना सा सूत्र केजरीवाल नेे जाना है कि बातें आम-आदमी की करते हैं और गालियां बड़े लोगों को देते हैं। देश की जनता के इस अंतिम पंक्ति की ओर कोई ध्यान नहीं देता है। क्या इनका हक जनरल टिकिट लेकर ट्रेन मे बैठने का नहीं है ? क्या सभी सुविधायें रिजर्वेशन वालों के लिये ही हैं ? क्या गरीब की कोई नहीं सुनेगा ? तभी तो इस वर्ग के लोग हिंसक हो जाते हैं। इन्हें क्या चाहिये, सिर्फ काम और रोटी। क्यों नहीं ट्रेनों मे जनरल कम्पार्टमेन्ट की संख्या चार गुना बड़ा दी जाती है ! कहीं ऐसा तो नहीं कि पुराने समय मे नक्सलवाद का उद्भव इसी कारण से हुआ हो। राजनीति और सत्ता के ठेकेदारों ने इस वर्ग की ओर कभी ध्यान नहीं दिया और वे इनका शोषण होते देखते रहे। जिसका परिणाम यह निकला कि देश के दुशमनों ने इस अंतिम छोर के आदमी को बरगलाया, उसे भ्रमित किया और देश के बिरूद्ध विषवमन किया तथा नक्सलवाद के नाम पर आतंकवाद की ओर उसे मोड़ दिया।
अभी गत समय रेल्वे विभाग से यह निर्देश जारी हुये हैं कि एम.एस.टी. वाले यात्रियों को अपना टिकिट बनवाने के पूर्व यह शपथपत्र देना होगा कि वे ट्रेन के रिजर्वेशन वाले कम्पार्टमेन्ट मे नहीं चलेंगे और इस हेतु कभी भी पूर्व मे पकडे नहीं गये हैं। तभी उनका एम.एस.टी. टिकिट बनेगा। अर्थात यदि कभी रिजर्वेशन वाले डिब्बे मे वे चले हैं और टी.सी. द्वारा उन पर पेनल्टी लगा कर यदि रसीद भी काटी है तो वे एम.एस.टी. के योग्य नहीं रह जायेंगे। यहां प्रश्न यह है कि ऐसे बेतुके और अव्यवहारिक निर्देशों की आवश्यकता ही क्या थी ? क्या रेल्वे विभाग प्रतिदिन लाखों एम.एस.टी. टिकिटधारियों के प्रति ऐसी सख्ती दिखा पायेगा ? यदि पकड़े जाने पर पेनल्टी के साथ टिकिट बनता है तो आगे एम.एस.टी. टिकिट नहीं बन पायेगा तब ऐसी स्थिति मे इस आशंका से इन्कार नहीं किया जा सकता कि अपने एम.एस.टी. टिकिट की चिन्ता के कारण सिर्फ हिंसा ही फैलेगी। रेल्वे विभाग को ज्ञात होना चाहिये कि हजारों लाखों पुरूष, महिलायें, विद्यार्थी एम.एस.टी. टिकिट लेकर चलते हैं और यह कहना भी अनुचित नहीं होगा कि इनमे से अधिकांश रिजर्वेशन कम्पार्टमेन्ट मे यात्रा करते हैं। आरक्षित यात्री भी उन्हें यह सोचकर एडजस्ट करते हैं कि इनकी यात्रा थोड़ी ही दूर तक की है। इन्हें यदि जगह मिलती है तो बैठ जाते हैं, नहीं तो अपना बैग बस्ता पीठ पर टांगे हुये खड़े-खड़े यात्रा तय कर लेते हैं। रेल्वे विभाग ने इन एम.एस.टी. टिकिटधारियों के संदर्भ मे नियम तो बना दिया लेकिन जनरल कम्पार्टमेन्ट की संख्या मे बृद्धि करने पर नहीं सोचा। नियम बनाने वालों को जमीनी हकीकत और वास्तविकता के धरातल पर सोचना होगा। अव्यवहारिक नियम कभी भी शत-प्रतिशत लागू नहीं किये जा सकते। लगभग तीन दशक पूर्व मे यह व्यवस्था थी कि रिजर्वेशन कम्पार्टमेन्ट मे आरक्षित यात्री के विश्राम करने की पात्रता शाम आठ बजे से सुबह आठ बजे तक थी। इसके अलावा शेष दिन के समय मे यदि बर्थ पर जगह खाली है तो वह सामान्य यात्री को बैठने से नही रोक पायेगा। इस व्यवस्था को समाप्त करने के पीछे का औचित्य समझ से परे है। हम यह कहकर नहीं बच सकते कि सामान्य वर्ग का व्यक्ति चोरी-चपाटी कर सकता है। ध्यान करना होगा कि ट्रेन मे चोरियां जनरल कम्पार्टमेन्ट मे नहीं होती हैं और इसमे पुलिस वाले भी नहीं चलते हैं। परन्तु इस व्यवस्था के पीछे यदि तर्क यह है कि इसके माध्यम से रेल्वे का रेवेन्यू बढ़ेगा, तो यह एक हास्यास्पद तर्क ही है। क्यों कि देश की जनता के समक्ष जानबूझकर ऐसी परिस्थितियां एवं विषम परिस्थितियां निर्मित करना कि यात्री परेशान होने लगे और उसे ट्रेन मे चढ़ने की जगह न मिले और चढ़ भी गये तो पेनल्टी भुगतो। यह तो ऐसे ही हुआ कि किसी व्यक्ति की पिटाई की जाये और उसे रोने भी नहीं दिया जाये तथा पिटाई के परिणामस्वरूप यदि रोया चिल्लाया तो उस पर पेनल्टी ठोक दी जाये। यह रेवेन्यू बढ़ाने की प्रक्रिया नहीं है, अत्याचार है।
---राजेन्द्र तिवारी---
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नोट:- लेखक एक वरिष्ठ अभिभाषक एवं राजनीतिक, सामाजिक विषयों के समालोचक होने हैं।