जहाँ रोशनदान नहीं हुआ करते हैं वहाँ अँधेरा ही अँधेरा हमेशा पसरा हुआ रहता है और इस अँधेरे का फायदा उठाकर रोजाना जाने कितने जाले जन्म लेते रहते हैं। इन्हीं अंधेरों को भाँप कर मकड़ियाँ और मकड़े भी अपने-अपने जाल बिछाकर निश्चिंत होकर रहा करते हैं। उन्हें इस बात की कभी कोई फिक्र नहीं होती कि कभी तेज हवाओं के झोंके भी आ सकते हैं, या कि सूरज कोई सुराख कर झाँकने का उपक्रम भी कर सकता है।
बाहरी माहौल से पूरी तरह आशंकाहीन होते हुए ये जाले छतों से लेकर दीवारों और हरेक कोने पर घर बनाए हुए अपनी अड़िग सत्ता का भान कराते रहते हैं। यही स्थिति हमारे दिल और दिमाग की भी है। हम हमेशा अपने आपको बनाने के लिए किसी न किसी ढाँचें की तलाश में रहते हैं और जैसे ही कोई मनमाफिक ढाँचा हमें मिल जाता है, हम उसकी नकल करना शुरू कर देते हैं।
जिस क्षण से हम अपने आपको भुला कर औरों का अंधानुकरण करने लग जाया करते हैं तभी से हमारा परायापन हर मामले में आरंभ हो जाता है। ऎसे में हम अपने अस्तित्व को भुला कर औरों के अस्तित्व को पूरी तरह अंगीकार कर लेते हैं और जिस ढाँचे को हम अपने अनुकूल मान लेते हैं उसकी तरह बनने की कोशिश में दिन-रात जुटे रहते हैंं।
हममें से खूब सारे लोग हैं जो अपने आप में बहुत कुछ होने या बनने का माद्दा रखते हैं मगर परायों के ढाँचों में ढल कर अपने आप को भी भुला चुके हैं और उस ईश्वर को भी विस्मृत कर चुके हैं जिसने हमें कुछ नया करने और धरती को दे जाने के लिए पैदा किया है।
हम सभी लोग समाज, क्षेत्र और देश को क्या दे पा रहे हैं? इस विषय पर गंभीरता से विचार करने पर हमें अच्छी तरह यह अहसास हो ही जाएगा कि हम अपने स्तर पर समाज को कुछ भी नया दे पाने की स्थिति में नहीं हैं बल्कि टाईमपास होकर रह गए हैं।
जो पुराने लोगों ने किया उसका अनुकरण ठीक उसी तरह कर लिया करते हैं जैसे कि मदारी नकलची बंदरों को सिखाता है और फिर जमूरों के साथ सार्वजनिक स्थलों पर इसका प्रदर्शन कर अपना पेट पालता है। आजकल न जमूरों की कमी है, न नकलची बंदर-भालुओं और श्वानों की। हर तरफ मदारियों के डेरे हैं और उन डेरों पर इंसानों के मेले।
ढाँचों, फ्रेमों और तरह-तरह की विचारधाराओं और नकल भरे कामों को अंगीकार करते हुए हमने मनुष्य की मौलिकता, मेधा-प्रज्ञा तथा महानतम सामथ्र्य पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया है। हममें से कई सारे लोग ऎसे हैं जिनका मन-मस्तिष्क अपने बूते नहीं चल पाता, ये दूसरों के सहारे और भरोसे ही जिंदगी जीते हैं।
अपने आस-पास के लोग भी हमारी ही सोच के ऎसे मलीन हुआ करते हैं कि उनके दिमाग में हमेशा खुराफाती धूसर द्रव्य भरा रहता है। ये लोग हर क्षण हमें भरमाने के सारे विकल्पों को खुला रखते हुए बात-बेबात हमारे कान भरते ही रहते हैं और हम हैं कि अपने इर्द-गिर्द जयगान से लेकर रुदाली करने के अभ्यस्त लोगों के बहकावे में आकर ऎसे-ऎसे निर्णय ले लिया करते हैं जो कि हमारे समग्र व्यक्तित्व के ताने-बाने को कमजोर कर दिया करते हैं और कई बार ऎसे मौके भी आते हैं जब हमें अपने आप पर पछतावा होता है और हमारी आत्मशक्ति कमजोर होने लगती है।
हमें उन लोगों पर भी गुस्सा आता है जो हमारे आस-पास रहकर हमारे कान भरते रहते हैं और उल्टे-सीधे काम करने के आदी हो जाते हैं। मगर हम अपनी कमजोरियों पर परदा ढंके रखने और अपनी छवि को साफ-सुथरा बनाए रखने के फेर में इन लोगों का साथ छोड़ देने का साहस कभी नहीं कर पाते।
लौकिक और पारलौकिक आनंद का सच्चा एवं शाश्वत अनुभव करने के लिए यह जरूरी है कि हम अपने आस-पास की मकड़ियों को जानें और दूरी बनाएं तथा अपने दिल और दिमाग की सारी खिड़कियाँ ताजी हवाओं और रोशनी आगमन के लिए खुली रखें ताकि अँधेरों के साये से मुक्ति पाकर खुले आसमाँ से लेकर आक्षितिज पसरी हुई सरजमीं का वास्तविक सुकून पा सकें।
---डॉ. दीपक आचार्य---
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