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विशेष : प्रजनन स्वास्थ्य से अंजान आधी आबादी

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राजकली देवी की सात संतानें हैं। बड़े लड़के की उम्र 19 वर्श है, षेश छः भाईयों की उम्र का अंतर एक-एक वर्श है। राजकली का ताल्लुक एक महादलित परिवार से है। राजकली देवी किसानों के खेतों में मजदूरी कर परिवार का खर्चा चलाती है। पति गोबरी अपने इलाके के महाजन-साहूकार के पास काम करते है। दोनों निरक्षर हैं। इनकी कमाई से परिवार के सभी बच्चों को भरपेट भोजन नसीब नहीं होता। इधर, बड़े बेटे की षादी हुई और उसकी पत्नी मां बन गयी और रामकली देवी बीमार रहने लगी। यह कोई काल्पनिक कहानी नहीं बल्कि बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के साहेबगंज प्रखंड के हुस्सेपुर दलित बस्ती की है। यही हालात कमोवेष पूरे बिहार की दलित-महादलित बस्तियों के हैं। राजकली देवी जैसी सैकड़ों-हजारों किषोेरियां कम उम्र में ही मां बन जाती हैं, मगर वह जीवन की लड़ाई में हार जाती है। असमय गर्भधारण, प्रसव, कुपोशण आदि का षिकार होकर दम तोड़ देती हंै। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की नमूना पंजीकरण प्रणाली 2007-09 की रिप¨र्ट के अनुसार बिहार में प्रसवकालीन मृत्यु दर 261 है जबकि पूरे भारत के लिए यह दर 212 है। यह आंकड़ें बिहार में मातृत्व मृत्यु दर की दुखद स्थिति का वर्णन करते हैं। इन बस्तियों में सबसे ज्यादा बीमारियां अषिक्षा, उचित जानकारी के आभाव, प्रजनन स्वास्थ्य की उपेक्षा व साफ-सफाई नहीं रहने के कारण होती हैं। 
           
सरकार का दावा है कि वह दलित-महादिलतों को लेकर गंभीर है। कहने क¨ त¨ कई महत्वकांक्षी योजनाएं चल रही है। जननी बाल विकास योजना, समेकित बाल विकास योजना, स्वास्थ्य सुरक्षा योजना एवं कुपोशण से मुक्ति के लिए पोशण पुनर्वास केंद्र आदि स्थापित हो रहे हैं। लेकिन इन य¨जनाअ¨ं का जमीनी क्रियान्वयन की हालत किसी से छुपी नहीं है। इस बस्ती में न तो आषाा दीदी जानकारी देती हैं और न आंगनबाड़ी केंद्र में नौनिहालों के पोशण व सर्वांगीण विकास की दिषा में काम हो रहा है। आमतौर पर दलित बस्ती का आंगनबाड़ी केंद्र बंद ही रहता है। स्मार्ट कार्ड रहते हुए भी झोला छाप डाॅक्टरों से इलाज कराना इनकी नियति है। हां आषा दीदी केवल प्रसव के लिए पीएचसी जाने की सलाह देती हंै, क्योंकि इससे इनको नकद आमदनी हो जाती है। बाकी नौ महीने में प्रसूता को टीकाकरण भी नहीं कराया जाता। इन्हें प्राइवेट स्तर पर खुद ही टेटनस की सुईयां लगवानी पड़ती हंै। जाहिर सी बात है कि गर्भवती महिलाओं को गर्भधारण से पहले और गर्भधारण के बाद प्रजनन स्वास्थ्य की उचित जानकारी मिलनी चाहिए। जानकारी के अलावा पौश्टिक भोजन, दवा, व सलाह की सख्त जरूरत पड़ती है। जबकि आंगनबाड़ी केंद्रों को यूनिसेफ के तहत उक्त सुविधा मुहैया है। इसके बावजूद दलित-महादलित बस्ती में आषा दीदी व सेविका, सहायिका जाने से कतराती हैं। जब बच्चा ही गर्भ से कुपोशित होगा तो भारत का निर्माण कैसा होगा? जिला मुख्यालय से लेकर प्रखंड मुख्यालय तक प्रषिक्षण, षिविर, सेमिनार आदि का आयोजन होता है, पर इन बस्तियों में न सरकार पहंुचना चाहती है, न विभाग, आखिर क्यों ? यह  प्रष्न उन तमाम देष के नुमाइंदों व अधिकारियों के लिए हैं जो स्वस्थ भारत बनाने की कल्पना करते हैं। दलित-महादलित को कुछ समय के लिए छोड़ भी दें तो पिछड़ी, अतिपिछड़ी, अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं को भी प्रजनन स्वास्थ्य की जानकारी नहीं है। मां बनने की उम्र, कुपोशण के कारण, गर्भनिरोधक उपाय, गर्भधारण के उपरांत भोजन, एचआइवी/एड्स, बे्रस्ट कैंसर, गर्भाशय का कैंसर होेने के कारण व रोकथाम की जानकारी नहीं है। बिहार के किसी एक पिछड़े गांव को देखा जाये तो उस गांव में कैंसर व प्रजनन स्वास्थ्य से संबंधित ढेर सारे मामले आपको देखने को मिल जाएंगे। चांैकाने वाली बात यह है कि ऐसे स्थानों पर कुपोशण की समस्या सबसे बड़ी समस्या है। इसके अलावा लोगों में जानकारी का बड़ा अभाव है। भारत में कुपोशण अपने पड़ोसी देष, नेपाल व बंगलादेष  से भी अधिक है। बंगलादेष में कुपोशण 48 प्रतिषत है जबकि इसकी तुलना में भारत में 67 प्रतिषत प्रति हजार है।
           
कुल मिलाकर बिहार में महिलाओं व किषोरियों की मानसिक व षारीरिक स्थिति अच्छी नहीं है। खासकर ग्रामीण इलाकों में महिलाओं को प्रजनन स्वास्थ्य की जानकारी नहीं है। आषा दीदी और आंगनबाड़ी केंद्रों की हालत किसी से छुपी नहीं है। ग्रामीण महिलाओं को गर्भ से पहले और गर्भ के बाद के रहन-सहन व खान-पान की जानकारी नहीं है। दूसरी ओर ज्यादतर महिलायें घर परिवार के सदस्यों का ख्याल रखने में खुद की सेहत का ख्याल नहीं रख पा रही हैं। बच्चों की देखभाल व पुरुशों की खुषामदी में भोजन करना भूल जाती है। अनियमित खानपान के कारण कब्ज, गैस, सिरदर्द, कमजोरी, रक्त अल्पता, टीवी, दमा, लकवा रक्तचाप, हृदयरोग, ब्रेस्ट व गर्भाष्य कैंसर आदि जैसी व्याधियों का षिकार हो रही हैं। सबसे हैरत वाली बात है कि पिछड़े समुदाय की अधिकांष महिलाएं मासिक धर्म के समय सेनेट्री नैपकिन (पैड) का प्रयोग नहीं करती। इन्हें जानकारी ही नहीं कि सेनेट्री नैपकिन के प्रयोग के क्या फायदे हंै? इधर, सरकारी स्कूलों में किषोेरियों के बीच फाॅलिक एसिड (आयरन की गोलियां) बांटी गयी, पर  ग्रामीण क्षेत्र की किषोेरियों के परिवार वालों ने खाने से मना कर दिया। इन्हें विष्वास ही नहीं कि दवा कारगर है। यह कहकर फंेक देते हैं कि सरकारी दवा की कोई गारंटी नहीं। महिला संबंधित मामलों की जानकार पूनम दीदी जो महिला सामाख्या में समन्वयक हैं, वह मानती हैं कि आज भी जागरुकता की कमी की वजह से अधिकांष महिलाएं शारीरिक और मानसिक रोगों के इलाज के लिए डाॅक्टरों से ज़्यादा नीम-हकीमों पर विष्वास करती हैं। ताबीज और जड़ी-बूटियों में हजारों रुपये पानी की तरह बहा रही हैं लेकिन जानकारी की कमी की वजह से डाॅक्टर से सलाह लेने नहीं जाती हैं। 
           
इसके अलावा महिलाएं अपनी शारीरिक और मानसिक तकलीफों के बारे में खुलकर बात भी नहीं कर पाती। परिणामतः उन्हें न तो सही समय पर इलाज मिल पाता है और न ही सलाह। गांव हो या शहर की महिलाएं जब तक डॉक्टर के पास इलाज के लिए आती हैं तब तक बीमारी काफी बढ़ चुकी होती है। महिलाएं अपने अंदरूनी समस्याओं से भीतर ही भीतर जूझती रहती है। इस तरह मन ही मन जूझना और शारीरिक तकलीफ होने पर भी चुप रहना उनकी आदत सी बन जाती है। पुरूषों के मुकाबले महिलाएं मानसिक बीमारियों की ज्यादा शिकार होती हंै। अस्पताल में महिला एवं पुरूषों का अनुपात देखा जाए तो पुरूषों की अपेक्षा महिला मरीजों की संख्या दोगुनी पाई जाती हैं।  आज महिलाएं दोहरी पीड़ा को झेल रही है। एक तरफ जहां वे सामाजिक समस्याअ¨ं के रूप में कम उम्र में विवाह ह¨ना या विवाह के तुरंत बाद गर्भधारण, बार-बार गर्भवती ह¨ना, बेट¨ं क¨ प्राथमिकता देना, बीमारिय¨ं के खतर¨ं के संकेत अ©र लक्षण¨ं की जानकारी का आभाव, चिकित्सकीय सुविधा मिलने में देरी इत्यादि का शिकार ह¨ती हैं वहीं दूसरी ओर उनकी चिकित्सकीय समस्याअ¨ं में प्रसव वेदना में रुकावट, रक्तस्राव, ट¨क्सेमिया व संक्रमण इत्यादि शामिल हैं। सरकार की महत्वकांक्षी योजनाएं जमीन पर कम, बाबुओं की फाइलों में ज्यादा दिखती हैं। आईएसपीडी में उल्लेख है कि सुरक्षित मातृत्व के लिए गर्भावस्था के दौरान, सुरक्षित मातृत्व की षिक्षा देना, प्रसव पूर्व देखभाल व परामर्ष देना, मातृत्व के लिए पौश्टिक आहार देना इत्यादि आवश्यक है। लेकिन सवाल है कि इन गरीब व पिछड़ों की बस्ती में परामर्ष  व मदद के लिए जायेगा कौन ? सरकार या एनजीओ ? कब होगी इनकी तकलीफ दूर और कब बनेगा स्वस्थ भारत ?




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अमृतांज इंदीवर
(चरखा फीचर्स) 

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