भारतीय जनता पार्टी को शून्य से शिखर तक पहुंचाने में लालकृष्ण आडवाणी, अटल विहारी वाजपेयी व उनकी टीम का जितना योगदान रहा, उससे जरा भी कम योगदान लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव , आजम खान , बुखारी और उन वामपंथियों का नहीं रहा, जिन्होंने सांप्रदायिकता के नाम पर हठधर्मिता और एकतरफा राग अलापते- अलापते एक वर्ग को सचमुच का सांप्रदायिक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। देशवासी आजम खान के राममंदिर आंदोलन से जुड़े नेताओं के बारे में बदजुबानी और कथित तौर पर भारत माता को डायन कहने के प्रसंग को अब भी नहीं भूल पाएं होंगे। हालांकि उनकी यह बदजुबानी सीधे तौर पर राममंदिर आंदोलन को और गति व ताकत ही देती रही। अब उन्हीं मुलायम और आजम के ताजा रुख को देखते हुए कहा जा सकता है कि ये दोनों भाजपा के नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बना कर ही मानेंगे।
अन्यथा आजम खान मोदी के लिए वैसे अपशब्दों का प्रयोग कतई नहीं करते, जैसा कुछ दिन पहले उन्होंने किया हैै। यादव - मुसलमान समीकरण के रचियता मुलायम सिंह यादव एक बार फिर गुजरात दंगों के बहाने जिस तरह मोदी पर हमले कर रहे हैं, उससे वोटों का ध्रुवीकरण तेज होने से कोई नहीं रोक सकेगा। बेशक मोदी को गालियां देने से मुलायम - आजम की जोड़ी को एक वर्ग को कुछ वोट मिल जाए, लेकिन इससे कहीं ज्यादा फायदा भाजपा को ही होगा। क्योंकि एेसे में इसे उस वर्ग को वोट भी मिल सकता है,. जो किसी का स्थायी वोटर नहीं है। बिल्कुल 80- 90 के दशक के दौरान के राममंदिर आंदोलन की तरह।
जब मुलायम , आजम, लालू प्रसाद, बुखारी और वामपंथियों समेत उस कथित प्रगतिशील वर्ग ने एेसा माहौैल बनाना शुरू किया , जो नकारात्मक तरीके से ही सही भाजपा के पक्ष में गया। सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर तुष्टिकरण और केवल हिंदुओं को कोसने के चलते वह वर्ग भी भाजपा के पाले में चला गया, जो अमूमन तटस्थ रहता है, और चुनाव के दौरान काफी सोच - विचार के बाद ही वोट करता है। आज माहौल कांग्रेस के खिलाफ हैं, और एेन चुनाव के वक्त यदि मुलायम - आजम की जोड़ी एक बार फिर अपने पुराने तेवर में लौटेगी, तो बेशक इसका बड़ा फायदा उस भाजपा को होगा, जो कुछ हद तक गुटबाजी व देश के कुछ हिस्सों में सांगठनिक कमजोरी की समस्या से जूझ रही है।
तारकेश कुमार ओझा,
खड़गपुर ( पशिचम बंगाल)
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लेखक दैनिक जागरण से जुड़े हैं।