किसी जमाने में जब कला का आज की तरह बाजारीकरण नहीं हो पाया था, तब किसी कलाकार या गायक से अपनी कला के अनायास और सहज प्रदर्शन की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। शायद यही वजह है कि उस दौर में किसी गायक से गाने की फरमाइश करने पर अक्सर गला खराब होने की दलील सुनने को मिलती थी। इसकी वजह शायद यही है कि किसी भी नैसर्गिक कलाकार के लिए थोक में रचना करना संभव नहीं है। यदि वह ऐसा करेगा तो उसकी कला का पैनापन जाता रहेगा। हो सकता है कि वह उसकी रचना की मौलिकता ही खत्म हो जाए। लेकिन बाजारवाद को तो जैसे कला को भी धंधा बनाने में महारत हासिल है। अब विवादों में फंसे कथित कमाडेयिन कपिल शर्मा का उदाहरण ही लिया जा सकता है।
दूसरी कलाओं की तरह कामे़डी भी एक गूढ़ विद्या है। मिमकिरी और कामे़डी का घालमेल कर कुछ लोग चर्चा में आने में सफल रहे। स्वाभाविक रूप से इसकी बदौलत उन्हें नाम - दाम दोनों मिला। इस कला पर कुछ साल पहले बाजार की नजर पड़ी। एक चैनल पर लाफ्टर चैलेंज की लोकप्रियता से बाजार को इसमें मुनाफा नजर आया, और शुरू हो गई फैक्ट्री में हंसी तैयार करने की होड़। कुछ दिन तो खींचतान कर मसखरी की दुकान चली,. लेकिन जल्दी ही लोग इससे उब गए। फिल शुरू हुआ कि कामेडी का बाजारीकरण। यानी जैसे भी हो, लोगों को हंसाओ। लेकिन वे भूल गए कि एक बच्चे को भी जबरदस्ती हंसाना मुश्किल काम है। आम दर्शक खासकर प्रबुद्ध वर्ग को हंसाना अासान नही। लेकिन बाजार तो जैसे हंसी के बाजार का दोहन करने पर आमाद हैै। उसे इससे कोई मतलब नहीं कि परोसी जा रही हंसी की खुराक में जरूरी तत्व है नही। बस जैसे भी हो कृत्रिम ठहाकों और कहकहों से माहौल बदलने की कोशिश शुरू हो गई।
इस प्रयास में कामेडियन कलाकारों के सामने फूहड़ हरकत करना औरल भोंडेपन का सहारा लेने के सिवाय और कोई रास्ता नहीं बचा था। जाहिर है अश्ललीलता औ र महिलाओं को इस विडंबना का आसान शिकार बनना ही था। लेकिन आखिर इसकी भी तो कोई सीमा है। लिहाजा नौबत कपिल शर्मा से जुड़े ताजा विवाद तक जा पहुंची। यह भी तय है कि यदि बाजार ने हंसी को फैक्ट्री में जबरदस्ती पैदा करने की कोशिश जल्द बंद नहीं की तो ऐसे भोंडे कामेडी शो देख कर लोगों को हंसी नहीं आएगी, बल्कि लोग अपना सिर धुनेंगे।
तारकेश कुमार ओझा,
खड़गपुर ( पशिचम बंगाल)
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लेखक दैनिक जागरण से जुड़े हैं।