हर साल ... हर महीने के आखिरी दिन ... ... ... एक शब्द अक्सर परिवेश में चिल्लाने लगता है - गौरवमयी सेवा। इसके साथ जुड़ी होती है कोई न कोई अवधि... अमुक वर्ष और अमुक दिन। और इस शब्द की शुरूआत से प्रकट होने लगती हैं जाने कितनी भावभरी श्रृंखलाएँ भावी भविष्य की शुभकामनाओं को लेकर।
इस गौरवमयी शब्द का इस्तेमाल इसी एक दिन होता है इसके बाद अगले उन्तीस-तीस दिन तक फिर ये कहीं गायब हो जाता है। जिसके लिए इसका इस्तेमाल किया जाता है उनमें से कई सारे लोगों पर तो यह शब्द फिट बैठता है मगर खूब सारे लोग ऎसे होते हैं जिन्हें खुद को इसी दिन पता चल पाता है उनकी अपनी गौरवमयी सेवाओं का। दूसरे लोगों को, यहाँ तक कि उनकेघर वालों, परिजनों, रिश्तेदारों, पड़ोसियों और आस-पास के क्षेत्र वालों को भी इसी दिन पता चल पाता है गौरवमयी सेवाओं का।
महीने के अंतिम दिन के लिए रिजर्व हो चुका यह शब्द अपने आप में जितनी खासियतों को लिए हुए है उससे कहीं अधिक रहस्यों को समेटे हुए लगता है। यों कहें कि महीने का हर आखिरी दिन गौरवमयी सेवा प्राकट्य दिवस है, तो यह कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
गौरवमयी सेवाएं देकर निवृत्त होने वालों से लेकर गौरवमयी सेवाओं वाले व्यक्तित्वों को शुभकामनाएं देने वालों तक के लिए यह दिवस जितने महत्त्व का है उतना किसी और के लिए नहीं। तीन-चार दशकों तक किसी न किसी सेवा में जुड़े लोगों को किसी पल स्मरण नहीं रहता कि उनकी सेवाएं कितनी गौरवशाली हैं और हो सकती हैं अथवा गौरवशाली बनाये जाने का उपक्रम किया जा सकता है।
न इनके सम्पर्क में आने वाले लोगों को कभी इनकी सेवाएं गौरवशाली होने का कभी कोई अहसास हो पाता है, न इन्हें करीब से जानने वालों को। इनकी गौरवमय सेवाओं को उनसे अधिक और कौन जान सकते हैं तो इनके साथ काम करते हैं, दिन-रात साथ रहते हैं अथवा जिन लोगों का इनसे किसी न किसी प्रकार का कभी कोई काम पड़ा हो।
न नौकरी के इतने वर्षों में इस शब्द का प्रयोग इनके लिए हो पाता है, न नौकरी से मुक्त होने के बाद। सिर्फ मुक्त होने के दिन ही सर्वत्र इनकी गौरवमय सेवाओं का अतिरेकपूर्ण बखान होता है, इस उपलक्ष्य में पार्टी होती है और उल्लास मनाया जाता है।
कुछ के लिए हो सकता है लोग ईमानदारी से बखान करें, मगर अधिकांश के साथ ऎसा नहीं होता। इनके विदाई समारोह में बोलने वाले भी जानते हैं और विदा होने वाले भी, कि आखिर जो कुछ कहा जा रहा है उसमें कितनी फीसदी सच्चाई है। ज्यादातर बार यह पूरा का पूरा समारोह औपचारिक रस्मों से ही भरा रहता है जहाँ धुर विरोधी भी तारीफ के पुल बांधते नज़र आते हैं।
इस दिन के बाद यह शब्द जाने किस गुफा में समाधिस्थ होने चला जाता है। खूब सारे लोग आज भी हैं जो अपनी गौरवशाली सेवाएं दे रहे हैं, लेकिन इनमें से अधिकांश स्वान्तः सुखाय मनोवृत्ति वाले हैं, इन्हें न पब्लिसिटी के गोरखधंधे आते हैं, न इनमें विश्वास है। इस कारण इनकी गौरवशाली सेवाओं का कहीं कोई जिक्र नहीं हो पाता है और ये पूरी नौकरी भर गुमनामी में जीते हुए अपने-अपने फर्ज अदा करते रहते हैं।
इसके विपरीत खूब सारों के बारे में जितना कहा जाए, उतना कम है। ये अपने कामों को ईमानदारी के साथ पूरा करने के सिवा सब कुछ कर सकते हैं, करवा सकते हैं। पब्लिसिटी के तमाम फण्डों का इस्तेमाल कर जमाने भर में अपने प्रति भ्रम फैलाये रखते हैं कि जो कुछ हैं, वे ही हैं, और जो कुछ हो रहा है वह उनकी बदौलत ही हो रहा है। ऎसे लोग गौरवमयी सेवाओं की हदों को भी लांघ कर इससे भी ऊपर आसमानी सेवाओं की चाशनी पाते रहते हैं।
आजकल गौरवमयी सेवाओं के प्राकट्य दिवस भी किसी शादी-ब्याह या दूसरे मांगलिक पर्वो से कम नहीं हैं जहाँ बैण्डबाजे के साथ विदाई, आरती उतार कर अगवानी, मेहमानों के आगमन तक पार्टी, आशीर्वाद समारोह, लिफाफा दान परंपरा से लेकर पुष्पहारों, साफों और शालों से अभिनंदन किये जाने की परंपराएं अब पूरे परवान पर हैं।
जितने उत्साह से नौकरी नहीं की होगी, उससे हजार गुना उल्लास इस दिन हिलोरें लेता प्रतीत होता है। आखिर ऎसा क्या है कि यह दिन हम सभी के लिए वाकई गौरवशाली ही होकर रह गया है। इस मामले में कई सारे तर्क-वितर्क है। कुछ का मानना है कि आजकल नौकरी करना टेढ़ी खीर हो गया है और ऎसे में बेदाग सेवाएं पूरी करना अपने आप में सौभाग्य ही है इसलिए बिना किसी दाग के किसी नौकर का बाहर निकल आना अपने आप में ससम्मान बरी होने जैसा ही है।
दूसरी किस्म के लोग वे भी हैं जो किसी न किसी एक्स्ट्रा प्रवृत्ति में जुड़े हुए होते हैं और गौरवमयी सेवाओं की पूर्णता के बाद यह अहसास होता है कि अब तक जो कर रहे थे उसे खुलकर कर सकने के लिए मुक्त ही हो गए हैं।
कुछ का मानना होता है कि खूब साल नौकरी कर ली, अब मौका मिला है तो खुलकर समाजसेवा ही करेंगे। ये अलग बात है कि उनका यह स्वप्न पूरी जिंदगी स्वप्न ही बनकर रह जाता है। कई गौरवमयी सेवाओं वालों को घर-परिवार, समाज और अपने गलियारे रास नहीं आते, वे फिर से गौरवमयी सेवाओं के द्वितीय चरण में प्रवेश कर लिया करते हैं और किसी न किसी दूसरे बाड़ों को उपकृत करते हैं अथवा अपने पुराने बाड़ों में ही उनकी किसी न किसी बहाने दफ्तर-वापसी की रस्म हो जाया करती है।
गंभीर चिंतन का विषय यह है कि गौरवमयी सेवाओं की बात रिटायरमेंट के दिन से पहले वर्षों तक की गई सेवाओं के दौरान तथा गौरवमयी सेवाओं की पूर्णता के दूसरे बाद से लेकर अंतिम समय तक किसी के जेहन में कभी क्यों नहीं आती।
कुछ बिरले लोग ही ऎसे हैं जिनकी सेवाओं के गौरव और गरिमा का स्मरण उनके नौकरी में रहते हुए भी होता था, और उसके बाद तक भी। कई लोगों को स्वर्ग सिधारे अर्सा बीत चुका है, मगर इनकी सेवाओं की गंध आज भी लोगों के दिलों दिमाग पर छायी हुई है।
गौरवमयी सेवाओं का स्मरण करने का यह अर्थ कदापि नहीं लिया जाना चाहिए कि बुजुर्गियत के कारण सेवा क्षेत्र से उन्हें मुक्त कर दिया गया है अथवा वे मुक्त हो चुके हैं। होना यह चाहिए कि एक बंधी-बंधायी सेवा से मुक्त होकर समाज की दूसरी सेवाओं के लिए हम अपने आपको सहर्ष और निष्काम भाव से प्रस्तुत करें, तभी हमारी गौरवमयी सेवाओं और हमारा महत्त्व है, वरना गौरवमयी सेवाओं का यह एक दिन हम सभी लोगों के लिए आएगा ही आएगा, जो नौकरीपेशा हैं।
ऎसा कुछ करने की आज जरूरत है कि गौरवमयी सेवाओं का भाव भरे ये शब्द हमारी पूरी नौकरी के दौरान भी गूंजते रहकर हमें ऊर्जा, ताजगी और सुकून प्रदान करते रहें और निवृत्ति के बाद, हमारे जाने के बाद तक भी हवाओं में गूंजते रहकर सुगंध के साथ प्रेरणा का संचार करते रहें। यह राह कठिन जरूर है, पर असंभव नहीं।
---डॉ. दीपक आचार्य---
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