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जहाँ आस्था, वहीं रास्ता - महंत हरिओमदास

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  • चतुर्थ दिवस भागवत कथा में धर्म के मूल मर्म पर चर्चा

aastha ka margबाँसवाड़ा,  8 जुलाई/पहले लोग कर्म करते थे तो उसे भगवान की कृपा मानते थे, लेकिन आज जब कोई कार्य होता है तो उसमें मैं आ जाता है । इसी मैं के चलते भगवान भी उसकी मदद नहीं करते हैं और अंत में उसे पछताना ही पड़ता है । यह उद्गार महामण्डलेश्वर श्रीमहंत हरिओमदासजी महाराज ने लालीवाव मठ में आयोजित भागवत कथा के चौथे दिन मंगलवार को कही। महंतश्री ने कहा कि जो लोग भक्ति करते हैं उन्हें लोभ, मोह, राग, द्वेष का कोई असर नहीं होता है । ईश्वर से प्रेम करने वाले हमेशा आनंद में रहते हैं । जो लोग भगवान का भजन करते हुए संसार का कार्य करते हैं उन्हें कोई परेशानी नहीं होती है ।
       
जहां भगवान, वहीं आनंद
उन्होंने कहा कि संसार का प्रवाह बहुत तेज है । जो भगवान को पकड़ कर रहेगा, वही बचेगा । उन्होंने कहा कि मानव जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हैं । उन्होंने कहा कि धन कमाओ खूब, लेकिन अधर्म से नहीं । धर्म के साथ अर्थ की प्राप्ति हो । मानव अपनी कामना पूर्ति के लिए अधर्म न करे । उन्होंने कहा कि भजन हमारी दैनिक दिनचर्या में होना चाहिए । बिना काम के भगवान को याद करना ही भक्ति है । जीवन में इतने लोभ व इच्छाएं हैं जिसका कोई अन्त नहीं है । जीवन में कामना व वासना की भी कोई सीमा नहीं है । भागवत कथा को केवल एक ही आशय होता है कि जीवन अभाव रहित हो जाए और प्रज्वलित रहे ।

ईश्वर का सामीप्य बनाए रखें
महाराज श्री ने कहा कि भक्त उसे कहते हैं  जिस भय नहीं होता । मनुष्य तभी डरता है, जब उसकी ईश्वर से दूरी होती है । जब मनुष्य भगवान से प्रीत लगा लेता है, तो उसे सारे सुखों का स्रोत प्राप्त हो जाता है । भगवान फूल की माला सजाने से नहीं बल्कि विश्वास से मिलते हैं । जहां आस्था है, वहीं रास्ता है । उन्होंने कहा कि ज्ञान का अर्थ जानना तथा भक्ति का अर्थ मानना है । भक्ति स्वतंत्र होती है। जिस व्यक्ति ने अपने मन के विकारों को शुद्ध कर लिया, वह भक्ति प्राप्त कर लेता है । भक्ति ईश्वर का दूसरा नाम है । परोपकार ही पुण्य की परिभाषा है ।


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