इंसान अपने आप में ब्रह्माण्ड का वह सबसे बड़ा बहुरूपिया है जो किस समय क्या कर जाए, किस रूप में सामने आ जाए और किस लक्ष्य को हासिल कर ले, इसका अंदाजा कोई नहीं लगा सकता। अपने काम निकालने और निकलवाने के लिए इंसान जो कर सकता है वह दुनिया का कोई प्राणी कभी नहीं कर सकता। इस मामले में ऑक्टोपस और गिरगिट भी हमारे आगे पानी भरने लगे।
इंसान के लिए संवेदना वह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारक है जिसके बगैर न उसका अपना कोई अस्तित्व है, न परिवेश में उसकी कोई अहमियत। संवेदनशीलता मनुष्य का सबसे बड़ा और पहला वह गुण है जिसके आधार पर वह अपने और परिवेश के बारे मेें आरंभिक टोह पाने में समर्थ है और उन्हीं संवेदनाओं के आधार पर वह क्रिया और प्रतिक्रिया व्यक्त करता है।
संवेदनाएं मनुष्य को मनुष्य के रूप में प्रकट करती हैं और संवेदनहीनता यह प्रकट करती है कि यह प्राणी इंसान की बजाय कुछ और होता तो ठीक होता। आमतौर पर संवेदनाओं का ग्राफ जितना अधिक होता है, उतना ही इंसानियत का पारा भी ऊपर चढ़ा हुआ होता है। जिन लोगों में संवेदना नहीं होती उन्हें मनुष्य शरीर के रूप में स्वीकारा भले ही जा सकता हो मगर इन लोगों में मनुष्यता नाम की कोई चीज नहीं होती।
संवेदनहीन मनुष्य जो कुछ करता है वह यांत्रिक ही है और व्यवसाय की श्रेणी में आता है जहां नफे-नुकसान को लेकर मशीनें हिसाब लगाती हैं और उसी के अनुरूप अपनी दशा और दिशा तय करती हैं। संवेदनहीन लोग जो कुछ करते हैं वह सारा कारोबार ही होता है।
इन लोगों का न किसी से आत्मीय जुड़ाव हो पाता है, न आत्मीय जुड़ाव ये रख पाते हैं। इनके जीवन का सारा धर्म धंधेबाजी मानसिकता से नियंत्रित होता है और उसी के अनुरूप ये लोग लाभ-हानि के गणित को देखकर अपने काम-काज को चलाते रहते हैं।
संवेदनाएं व्यक्तित्व निर्माण का आधार हैं और इनके बगैर किसी भी जीवंत और मानवी कर्म में गंध महसूस नहीं की जा सकती। इस प्रकार के हरेक कर्म में मुनाफा और संग्रह की मनोवृत्ति ही होती है। इस दृष्टि से यह कहा जाए कि जो लोग संवेदनहीन हैं उनका कोई भी काम गंध नहीं दे सकता। जो गंध आती है वह कृत्रिम तौर से लायी जाने वाली होती है और उसका असर ज्यादा समय तक टिका नहीं रह सकता, ऊपर से पता भी चल जाता है कि कहीं न कहीं कोई आडम्बर या घालमेल हैं ।
बात किसी भी प्रकार के सृजन की हो या रचनात्मक गतिविधि की, संवेदनहीनता के रहते हुए ये न कालजयी हो सकते हैं न सुगंध भरे। हाँ, संवेदनहीन लोग सांसारिक और घटिया कारोबार में नाम जरूर कमा सकते हैं क्योेंकि आजकल मांग और आपूर्ति का सिद्धान्त परवान पर है। फिर अपने यहाँ सभी किस्मों के लोग मौजूद हैं। बिकने वाले भी हैं, और बेचने वाले भी, बिकवाने वाने भी हैं और खाईवाल, दलाल भी।
जहां इंसान का वजूद ही बिकने को तैयार हो वहाँ न बेचने वाले नुकसान में रहते है, न खरीदने वाले। हमारे यहाँ सभी किस्मों के विक्रेता भी हैं और बिकने वाले भी, और सभी किस्मों के दलाल भी। गिरवी रखने को तैयार भी हैं, आधे बिकने वाले भी हैं, और साझा खरीदार भी। जिसका जहाँ बस चलता है वहाँ मोलभाव पक्का हो जाता है, उतार-चढ़ावों की फिकर हमने कभी नहीं की। एक बार जो बिकना शुरू हो गए कि जिन्दगी भर अपने आपको बेचते रहेंगे। कभी किश्तों-किश्तों में, कभी पूरे तौर पर।
खरीद-बेचान और दलाली के मामले में संवेदनहीन लोग दुनिया में सबसे आगे हैं। कोई नाम पिपासु है, कोई तस्वीर पिपासु, कोई छपास का रोगी है, कोईभाषण, भोजन और भोग का, कोई उत्सर्जन-विसर्जन, कोई अर्जन-सर्जन-गर्जन-मर्दन-तर्जन का शौकीन है, कोई मुद्राओं और जमीन-जायदाद पर मर मिटने वाला है, कोई प्रतिष्ठा और यश पाने के लिए गलाकाट प्रतिस्पर्धा का।
सभी किस्मों के अपने यहाँ मौजूद हैं। लगता है जैसे बस्तियां और बाजार नहीं , बिकने और खरीदने वालों की बड़ी-बड़ी मण्डियां ही हैं जहाँ हर तरह का कारोबार जायज हो चला है। कभी थोक में बिक्री होती है कभी किश्तों-किश्तों में। कभी बड़े ठेकेदार और दलाल मोलभाव करते हैं, कभी आस-पास के साथ रहने वाले लोग। कुछ-कुछ साल में थोक बिक्री और खरीदी की लॉटरी खुलती है और कुछ दिन बाद बंद हो जाती है।
यह सब यही दर्शाता है कि हम कितने संवेदनहीन हो गए हैं। हमें न घर की परवाह है, न पास-पड़ोस, क्षेत्र या देश की। जो जहाँ चाहे लूट लेता है। अस्मत से लेकर किस्मत तक के खरीदारों की बेशर्मी भरपूर हो चली है। हम सारे अपने आप में इतने कारोबारी हो गए हैं कि हम अपने आस-पास होने वाली हर घटना-दुर्घटना और हलचल को धंधे के रूप देखने के आदी हो गए हैं और मुनाफे के कामों की तरफ ही नज़र डालना फायदेमंद समझतेहैं। इसके सिवा चाहे कुछ हो जाए, हम सारे के सारे बेपरवाह ही हैं।
जिस समाज, क्षेत्र और देश में संवेदनाशून्य लोग रहते हैं, उस देश का अपना कोई भविष्य नहीं होता। ऎसे संवेदनहीन लोग सभी को ले डूबते हैं। जो किसी के काम न आ सकें, ऎसे संवेदनहीन लोग किस काम के, ये अपने आप में भार ही हैं। ये लोग सिर्फ अपने प्रति ही संवेदनशील होते हैं, एक मक्खी भी बैठेगी, तनिक से नुकसान का अंदेशा हो, तो हायतौबा मचा देंगे। इनसे तो मुर्दें अच्छे हैं जो किसी को कुछ नहीं बोलते, कम से कम उनके नाम पर ‘राम नाम सत्य है’ का उद्घोष तो होता ही रहता है।
अपने आस-पास भी ऎसे खूब सारे लोग हैं जो संवेदनहीन होकर जी रहे हैं, अपने ही हाल में मस्त हैं और अपने लिए ही जी रहे हैं। और अपने काम निकलवाने के लिए ये औरों का जिस हिसाब से इस्तेमाल करते है।, यूज एण्ड थ्रो के प्रयोग करते हैं, वे अपने आप में बेमिसाल ही हैं। इन शोषकों को सामने वालों की समस्याओं और पीड़ाओं से कोई सरोकार नहीं होता। इनका एकसूत्री ध्येय यही होता है कि चाहे जिस तरह भी हो सके अपने काम निकलवाना। ऎसे भयावह शोषक लोगों को किस दृष्टि से सामाजिक प्राणी कहा जाए, यह समझ में नहीं आता।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com