चरखा के अध्यक्ष शंकर घोष अब इस दुनिया में नहीं रहे। जब भी इस बारे में सोचता हंू तो बस यही सोचता हंू कि अनेक कौषल के मालिक शंकर घोष की कमी कैसे पूरी हो पाएगी। लेकिन फिर यही सोचकर सब्र कर लेता हंू कि विधि के विधान को कौन बदल सकता है। जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु निष्चित है। लेकिन इतना ज़रूर कहना चाहूंगा कि आज वह भले ही हमारे बीच नहीं हैं लेकिन वह हमेषा हमारे मार्गदर्षक बने रहेंगे। मैं यह निष्चित तौर पर कह सकता हंू कि षंकर घोश एक नाम नहीं आंदोलन थे जो नौजवान युवा पत्रकारों को नयी जानकारी देकर उन्हें आगे बढ़ने की हिम्मत और जोष दिया करते थे। आज से तकरीबन 12 साल पहले मैं जब षंकर दा से मिला था तो मुझे उसी वक्त लगा था कि वह युवाओं के लिए प्रेरणा स्रोत हैं ,उनकी बातचीत हमें उत्साह से लबरेज़ कर देती थी। अत्यंत मिलनसार, मृदुभाशी, आकर्शक व्यक्तित्व, प्रखर विद्वान, भाशाविद एवं सर्वगुण संपन्न षंकर घोश भले ही इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन आज भी वह देष के कोने-कोने में पत्रकारिता कर रहे लोगों के लिए ध्रुव तारे की तरह चमक रहे हैं और उनकी भावनाओं में समाहित हैं।
उनकी सबसे बड़ी खासियत यह थी कि वह चरखा के कार्यक्रमों में युवाओं के बीच रहकर अपने अनुभव को उनके साथ बांटा करते थे। उनकी स्मृति गज़ब की थी। जिससे एक बार मिल लेते थे तो फिर उसका नाम कभी नहीं भूलते थे। मुझे याद है कि एक बार उन्होंने युवा साथियों को मेरा परिचय देते हुए कहा था कि षैलेन्द्र सिन्हा चरखा परिवार से कई सालों से जुड़े हुए हैं और चरखा के लिए सामाजिक मुद्दों पर लगातार लिखते रहे हैं। उनके मुख से अपना नाम सुनकर मुझे बहुत अच्छा लगता था। वास्तव में चरखा से जुड़कर ही मैंने लिखना सीखा और देष के अखबारों में मेरे लेख चरखा के माध्यम से ही प्रकाषित हुए। वह हमेषा मेरा लिए प्रेरणा बने रहेंगे, भुलाए नहीं जा सकते। वह हमेषा सबके लिए प्रेरक रहे इसलिए हमें उनसे पे्ररणा मिलती रहेगी। सर्वहारा समाज के लिए उनका चिंतन सभी के लिए यादगार रहेगा। षंकर घोश जी में मैंने जो सबसे अच्छी बात देखी वह यह थी कि वह किसी भी कार्य को पूरे आत्मविष्वास के साथ करते थे। सफलता पाने का जुनून पैदा करना उनके जीवन का सार था। उनकी सादगी एवं बातचीत करने का अंदाज़ लोगों को उन्हें स्मरण करने के लिए विवष करता रहेगा। अपने बेटे स्वर्गीय संजोय घोश के सपनों को साकार करने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। संजोय घोश ही चरखा के संस्थापक थे। उनका जन्म 7 दिसंबर 1959 को नागपुर में हुआ था, जबकि असम में मजुली द्वीप में रेत के अवैध खनन के खिलाफ काम करते हुए उल्फा के दहषतगर्दों ने 1997 में अगवा कर उन्हें मौत के घाट उतार दिया था। अपने जवान इकलौते बेटे की मौत के बाद षंकर घोश ने हिम्मत नहीं हारी और वह अपने बेटे के मिषन को आगे बढ़ाते रहे।
षंकर घोश के चेहरे पर गज़ब की चमक थी जो मुझे हमेषा कुछ नया करने की प्रेरणा देती था। मैंने उन्हें कभी भी दुखी नहीं देखा। अपने बेटे की तरह ही दूसरे युवाओं को आगे बढते देखने की उनमें ललक थी। मुझे चरखा पुरस्कार षंकर घोश के हाथों विष्व युवा केन्द्र, दिल्ली में मिला था। मैंने उनके पांव छुकर उनसे आर्षीवाद लिया था। मेरे जैसे छोटे पत्रकार के साथ उनके संबंध होना बड़ी बात थी। उनकी सबसे अच्छी बात यही थी कि वह किसी को भी छोटा या बड़ा नहीं समझते थे। ज़मीनी स्तर के स्थानीय मुद्दों को समझने एवं लिखने की कला तो मुझे चरखा ने ही दी है। चरखा के ज़रिए आयोजित कई कार्यषाला में मैं हिस्सा ले चुका हंू। चरखा ने समाज के अंदर फैली कुरीतियों को उजागर कर जनता के सामने पहुंचाया है। चरखा देष भर में कार्यषाला के माध्यम से युवाओं के लेखन कौषल को विकसित करने का काम काफी लंबे समय से कर रही है। संजय घोश के इस सपने को लक्ष्य तक पहुंचाने का काम उनकी मौत के बाद उनके पिता षंकर घोश ने किया। चरखा ने नौजवान ग्रामीण लेखकों को कलम के ज़रिए समाज को बदलने की राह दिखाई। आज जम्मू एवं कष्मीर, बिहार, झारखंड, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ समेत देष के दूसरे राज्यों में चरखा ग्रामीण लेखकों का एक बड़ा नेटवर्क है। इस सब का श्रेय षंकर घोश को ही जाता है जिन्होंने अपने बटे के सपने को पूरा करने के लिए रात दिन एक कर दिए थे। ऐसी व्यक्तित्व को हम यूं ही नहीं भूला सकते। अंत में हम यही कहेंगे, बड़े चाव से सुन रहा था ज़माना, तुम्हीं सो गए दास्तां कहते कहते ।
शैलेन्द्र सिन्हा
(चरखा फीचर्स)