तेरे माथे पर ये आंचल बहुत ही खूब है लेकिन
तू इस आंचल का इक परचम बना लेती त¨ अच्छा था
तू सहना छ¨ड़कर करना शुरु करती त¨ अच्छा था।
मशहूर शायर मजाज़ का यह शेर उन सभी महिलाअ¨ं के लिए एक प्रेरणा स्र¨त है ज¨ अपनी बंदिश¨ं क¨ त¨ड़कर अपनी खुद की पहचान बनाने का जज्बा अ©र माद्दा रखती हैं। ऐसी ही एक शख्सयित से आज हम आपकी मुलाकात कराने जा रहे हैं।
अपनी आर्थिक अ©र मानसिक द¨न¨ं प्रकार की दद्रिता के बावजूद लद्दाख क्षेत्र के मशहूर कारगिल घाटी से 8 किमी. दूर स्थित अकचामल नाम के छ¨टे से गांव में रहने वाली 36 वर्षीय फिज़ा बान¨ ने अपने क्षेत्र की महिलाअ¨ं के लिए कुछ करने की ठान ली। पारंपरिक कपड़¨ं के प्र¨त्साहन अ©र संरक्षण के लिए अ©र कारगिल जिले के पिछड़े छेत्र में बड़े पैमाने पर र¨जगार पैदा करने के लिए, वह अ©र उनकी ही जैसी कुछ उत्साही महिलाअ¨ं ने मिलकर शुरुआत में 100 रुपए एकत्र कर 2007 में एक स्वयं सहायता समूह की स्थापना की जिसके बाद में उन्ह¨ंने अथक प्रयास¨ं के जरिए 2 जून 2010 क¨ आदिवासी महिला कल्याण संस्थान के नाम से पंजीकृत करवा लिया। सर्दिय¨ं के समय जब अत्यधिक ठंड अ©र कारगिल तक पहुंचने वाले सभी रास्त¨ं के बंद ह¨ जाने की वजह र¨जगार के सभी अन्य साधन समाप्त ह¨ जाते हैं तब यह समूह रचनात्मक गृहणिय¨ं अ©र लड़किय¨ं क¨ एक ऐसा मंच उपलब्ध करवाता है जहां पर वे अपनी प्रतिभाअ¨ं क¨ अ©र ज्यादा चमका सकें। यह समूह उन्हें स्थानीय झाडि़य¨ं से ट¨करियां बनाना, सिलाई, बुनाई अ©र आसानी से उपलब्ध ह¨ जाने वाले स्थानीय ऊन ‘‘बल’’ से कालीन बीनने की कला में दक्षता हासिल करवाता है।
बाल क¨ पहले परिश¨धन की प्रक्रिया से गुजारा जाता है। बाल क¨ भेड़ की खाल से उतारने के बाद, उसे द¨ दिन¨ं के लिए ‘‘बाल सा’’ नाम की एक खास प्रकार की मिट्टी, ज¨ गंदगी क¨ दूर करती है, में दबाया जाता है। इससे बाल पर लगी चिपचिपी गंदगी जिसे वहां की स्थानीय भाषा में ‘‘सी’’ कहा जाता है दूर ह¨ जाती है। फिर इसे ‘‘द्राप शिंग’’ नाम की एक छड़ी से पीटा जाता है जिससे की ऊन से गांठें निकल जाएं। उसके बाद उसमें ‘‘बाल शट्ट’’ नाम के एक उपकरण से कंघी की जाती है जिससे यह ऊन अ©र ज्यादा चमकीला अ©र मुलायम ह¨ जाता है। अ©र अंततः एक स्थानीय चरखे, फांग पर, इस ऊन के धागे बनाए जाते हैं। काम क¨ 24 से लेकर 50 वर्ष तक की 75 महिलाअ¨ं के बीच में बांटा जाता है। बुजुर्ग महिलाएं बाल से धागा कातती हैं अ©र युवा लड़कियां उससे बुनाई अ©र कताई का काम करती हैं। फिजा बान¨ ने बताया,‘‘50किल¨ ऊन हमें 2000 रुपए का पड़ता है जिसमें से 42 स्वेटर बनते हैं। प्रत्येक स्वेटर 1200 रु. का बिकता है। हमारी कालीन¨ं का एक ज¨ड़ा 4000 रु. का बिकता है।’’ इस समूह का उत्पादन मांग पर निर्भर करता है। हर प्रशिक्षार्थी क¨ एक किल¨ बाल कातने के 300 रु. अ©र उतनी ही मात्रा में बुनाई के लिए 250 रु. मिलते हैं। ज¨ भी मुनाफा ह¨ता है उसे समूह के सदस्य¨ं के बीच बांट दिया जाता है। सीट कवर, दस्ताने, मफलर अ©र म¨जे जैसे उत्पाद भी बनाए जाते हैं। बची हुई ऊन से रजाईयां अ©र तकिए बनाए जाते हैं। फिजा बान¨ ने बताया, ‘‘बहुत से सदस्य अपनी आर्थिक जरूरत¨ं के लिए मेरे पास आते हैं। चाहे उनकी बेटी की शादी ह¨ या फिर क¨ई अ©र जरूरत। अ©र चूंकि पहाड़ी महिलाएं एक साथ कई काम करने की आदी ह¨ती हैं, इसलिए अपने घरेलू काम के पहाड़ क¨ निपटाने के साथ-साथ वह सिलाई,कताई बुनाई जैसी अपनी कलाअ¨ं क¨ निखारने का क¨ई म©का नहीं छ¨ड़ती हैं।
लेकिन इतनी स्वायŸाा अ©र सुविधाजनक कार्यस्थल ह¨ने के बावजूद बहुत सी महिलाअ¨ं ने सिर्फ इसलिए यह संस्था छ¨ड़ दी क्य¨ंकि समाज में लडि़कय¨ं का बाजार में घूमना पसंद नहीं किया जाता है। फिज़ा कड़े शब्द¨ं में कहती हैं,‘‘र¨जगार क¨ कभी भी ‘‘बेकार’’ नहीं समझा जाना चाहिए, खासकर महिलाअ¨ं के लिए, वह भी तब जब सैकड़¨ं ‘‘बेकार’’ की बाधाएं अ©र मनाहियां उसके स्वालंबन के राह में र¨ड़ा बनकर खड़े रहते हैं। फिजा ने खुद भी इस तिरस्कार क¨ झेला है, न केवल पुरुष समाज से बल्कि अपनी तरफ तनी महिलाअ¨ं की भव¨ं का भी। ये तनी भवें महिलाएं क¨ उनके लिए नियत पारंपरिक जकड़न¨ं में जकड़ा हुआ ही देखना चाहती हैं। वे चाहती हैं कि महिलाएं अपने पिंजरे क¨ त¨ड़ कर खुले आसमान में उड़ने का माद्दा रखने के बावजूद अपनी क्षमताअ¨ं क¨ छुपा कर रखें। इसीलिए घूमना-फिरना महिलाअ¨ं के लिए उस समय अच्छा नहीं माना जाता था। उत्साह अ©र गर्व के मिले-जुले एहसास के साथ फिजा बताती हैं,‘‘मेरी ताकत मेरा परिवार अ©र मेरे पति हैं। उनकी मदद से ही यह संभव ह¨ पाया कि मैं अपनी संस्था अ©र जागरुकता अभियान आज¨यित करने के लिए जम्मू तक जा पाई।’’ महिलाअ¨ं क¨, न सिर्फ एक आत्मनिर्भर जीवन की खातिर काम करने के लिए बल्कि एक समूह में काम करते हुए एकता अ©र परस्पर समझदारी कायम करने के लिए, एक साथ लाने के फिजा के अथक प्रयास¨ं क¨ देखते हुए संस्था के ब्लाॅक अध्यक्ष ने उन्हें मानसिक तथा आर्थिक द¨न¨ं प्रकार से सहय¨ग दिया। उनक¨ जागरुकता अभियान¨ं क¨ चलाने के लिए 20,000 रु. की राशि मिली। ये जागरुकता अभियान ने स्वच्छता, बालिका शिक्षा, कन्या भ्रूण हत्या का विर¨ध के अलावा जम्मू अ©र कारगिल जिले की बाहरी सीमाअ¨ं में प्रकृति की ग¨द में बसे- सुरु, अक्चामल अ©र पिय¨न जैसे गांव¨ं में ध्रूमपान का विर¨ध जैसे मुद्दे शामिल हैं। फिर भी उनकी आज की सबसे बड़ी कमी धन का अभाव है। संबंधित अधिकारिय¨ं से बार-बार निवेदन करने के बाद भी क¨ई परिणाम नहीं मिला जिसकी वजह से वह अपनी इकाई क¨ सुचारित रूप से साधन संपन्न ह¨कर नहीं चला पाती हैं।
फिजा का मानना है कि एक लड़की के पास अपनी खुद की अनेक¨ं ख्वाहिशें अ©र व्यक्तिगत जरूरतें ह¨ती हैं। अ©र हर चीज के लिए वह अपने पिता से नहीं कह सकती हैं। इसलिए उसके खुदे के हाथ में पैसे ह¨ने बहुत जरूरी है। उनसे उनके प्रेरणा स्र¨त पूछे जाने पर फिजा खुशी अ©र उत्साह से बताती हैं कि उनके प्रेरणा स्र¨त टीवी के धारावाहिक हैं। वह काम करते रहने में यकीन करती हैं...‘‘बेकार नहीं बैठना है’’..वे कहती हैं अ©र हर काम किए जा सकने वाली परिस्थिति का इस्तेमाल करने के लिए प्र¨त्साहित करती हैं। क्य¨ंकि उनका मानना है कि काम उन्हें असीम संतुष्टि देता है अ©र जीवित ह¨ने का एहसास कराता है। उनके व्यक्तित्व की इसी जिंदादिली की वजह से आज वह 10 केंद्र चलाती हैं अ©र कारगिल जिले में स्वयं सहायता समूह की ब्लाॅक अध्यक्ष हैं। उन्हें गांव का पंच बनने का प्रस्ताव भी आया था लेकिन उन्ह¨ंने उसमें ह¨ने वाली गंदी राजनीति अ©र महिलाअ¨ं के विरुद्ध लगने वाले अभद्र आर¨प¨ं के डर से मना कर दिया। हालांकि अभी इस डर से लड़ना बाकी है। उनके पास आने वाले बहुत से यात्रिय¨ं के लिए, ज¨ उनके पास आते हैं उन्हें पैस¨ं अ©र अन्य तरह की सुविधाअ¨ं से सहायता करने के वायदे करते हैं अ©र फिर क¨ई जवाब नहीं देते हैं, फिजा कहती हैं,‘‘ल¨ग आते हैं, तस्वीरें खींचते हैं अ©र कुछ नहीं करते।’’ इस उत्साह अ©र उमंग के साथ की महिला समाज के लिए उनके द्वारा किए जा रहे प्रयास कभी भी व्यर्थ नहीं जाएंगे, फिजा ने अपनी बात समाप्त की।
अज़रा खातून
(चरखा फीचर्स)