सरकारी षिक्षा व्यवस्था की आलोचनाओं से अखबारों को अटा पाता हंू। सामाजिक मान्यता में भी सरकारी स्कूल एक पायदान कमतर ही है। आखिर लोगों का नजरियां ऐसा क्यों बना? यह सवाल अपनी जगह ठीक है लेकिन नज़रिये अच्छे भी होते हैं जरूरत हैं उनको देखने की। आम तौर पर सरकारी स्कूलों के प्रति यही सोच रहती है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती। सरकारी स्कूलों के अध्यापकों की सैलरी भारी-भरकम होने के बावजूद भी वह ठीक से नहीं पढ़ाते। बच्चों में अनुषासन की कमी होती है। कंप्यूटर आदि की व्यवस्था भी ठीक नहीं होती। स्कूलों में अध्यापकों की कमी रहती है। इस तरह के कई अन्य आरोपों से सरकारी स्कूलों में दी जाने वाली षिक्षा चैतरफा घिरी रहती है। प्रथम दृष्टया में सरकारी षिक्षा बड़ी तंग हाल दिखती है। अगर सरकारी स्कूल के षिक्षकों की जि़म्मेदारी का विष्लेशण करें तो अध्यापक और षिक्षा व्यवस्था के बीच राजनैतिक सरगर्मियां भी होती हैं। सरकारी षिक्षक बच्चों को पढ़ाने से ज़्यादा चुनाव ड्यूटी, परीक्षा ड्यूटी, मिड-डे-मील, जनगणना, जागरूकता रैली आदि दूसरे कामों में ज़्यादा व्यस्त रहते हैं। षिक्षकों को सरकारी फरमान का पालन हर हाल में करना ही होता है। इतनी जि़म्मेदारियों के बीच षिक्षक बेचारा पढ़ाए तो कैसे पढ़ाए। षिक्षकों की इतनी जि़म्मेदारियों के चलते षिक्षण जैसा महत्तपूर्ण कार्य द्वितीयक स्तर पर रखने की मजबूरी ने सरकारी षिक्षा पर सवालिया निषान लगा दिए हैं। इन सब खामियों के बावजूद कुछ षिक्षकों ने अपनी दिनचर्या को ऐसे डिज़ाइन किया हुआ है कि उन्हें षिक्षण कार्य के अलावा और भी दूसरे कार्यकलाप बोझिल नहीं लगते हैं।
स्कूल एक जीवंत प्रयोगषाला है जहां प्रयोगधर्मिता इन षिक्षकों का धर्म और रचनात्मकता इनका कर्म है। ऐसे ही कुछ प्रयोगधर्मी षिक्षकों की कहानी लिखने की मंषा और उनके प्रयोगों को समझने की दृश्टि से मैं उत्तराखंड के दूरस्थ राजकीय प्राथमिक स्कूल बैंसखेत में पहुंचा । यह स्कूल अल्मोड़ा जनपद के हवालबाग विकासखण्ड का एक प्राचीन स्कूल है। षिक्षक खोलिया जी को 18 साल अल्मो़ड़ा के बैंसखेत स्कूल में हो गए हैं। बच्चों के अलावा गांव वालों के साथ इनके रिष्ते काफी अच्छे हैं। बंैसखेत प्राइमरी स्कूल में 40 बच्चे हैं और एक अध्यापक के सहारे स्कूल चलता है। षि़क्षक के अपने तरीके हैं पढ़ाने के। षिक्षण में पीयर लर्निंग के तरीके आज़माते देख इस षिक्षक को देखकर लगता है कि इस सरकारी स्कल के षिक्षण प्रयोगों को दूसरे सरकारी स्कूलों में भी प्रयोग में लाया जाना चाहिए। स्कूल में स्वच्छता, बेहतर मिड डे मील की व्यवस्था, खेल का मैदान, साफ-सुथरे लिबास में सलीके से बैठे हुए बच्चों को देखकर मन प्रसन्न हो गया। बच्चों में प्रष्न करने की ललक, उनकी दमदार आवाज, षिक्षक ने स्कूल में स्वायत्तापूर्ण माहौल तैयार करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी।
स्कूल की महत्वपूर्ण भूमिका होती है कि बच्चों में आत्मविष्वास जगाए। प्राथमिक स्कूल बैंसखेत में मैंने एक आदर्ष स्कूल की झलक देखी। स्कूल से निकलते वक्त कुछ अभिभावाकों से बात-चीत करने का अवसर मिला। जब मैंने इनसे पूछा गया कि आपको स्कूल में क्या खास लगता है ? तो इनका सीधा सा जवाब था कि स्कूल के सारे अध्यापक बच्चों को अपने बच्चों की तरह समझते हैं। यह बहुत महत्वपूर्ण बात थी। अल्मोड़ा नगर से 15 किलोमीटर की दूरी पर ढ़ौरा माध्यमिक स्कूल भी आदर्ष स्कूल की श्रेणी में जाता हुआ दिखता है। एक दृष्य-स्कूल में एसएससी की बैठक होने वाली है। यहां तीन षिक्षक हैं। पाॅच अभिभावक आ चुके हैं और बाकियों का इंतेज़ार हो रहा है। अनौपचारिक चर्चा षुरू हो जाती है। गांव में लोग रोज़ाना काम धंधे की तलाष में निकलते हैं, खेती-बाड़ी का काम भी होता है तो स्कूल की बैठकों के लिए समय निकालने का मतलब है उनका आधा दिन गया। लेकिन ढौरा गांव के बच्चे और अभिभावक दोनो ही अपनी जि़म्मेदारी बखूबी समझते हैं। अब बैठक षुरू हो चुकी है। करीब 20-22 अभिभावक आ चुके हैं महिलाओं की संख्या अधिक है। बैठक षुरू होती है स्कूल में पेयजल की व्यवस्था की व्यवस्था से। स्कूल से दूर जंगल में पाइप लाइन टूटी है किस तरह उसे ठीक किया जाये ? कितना बजट स्कूल के पास है ? इन सारे सवालों पर षिक्षक अपनी बात रखते हैं। गाॅव के लोग भी आर्थिक सहयोग करने को तैयार हैं। पेयजल मुद्दे के बाद स्कूल में बाल मेला आयोजित करने पर सबकी बात सुनी जा रही है। बैठक में चाय-पानी की व्यवस्था भी है। एक षिक्षक साथी और एक अभिभावक चाय सर्व कर रहे हैं। दो घण्टे तक चली इस व्यवस्था में दोनों ही पक्ष संवाद की स्थिति मंे दिखे। इस बैठक में गिले-षिकवे ही नहीं वरन समस्या समाधान की बात भी होती रही। स्कूल और समुदाय के आपसी सम्बन्धों का क्या असर स्कूली व्यवस्था में होता है, यह ढौरा माध्यमिक स्कूल में नजर आया।
बैठक के बाद बच्चों ने खुद का तैयार किया गया एक नाटक प्रस्तुत किया जो हिन्दी के एक पाठ को आधार बना कर बनाया गया था। नाटक में किरदार निभा रहे बच्चों की अभिनय क्षमता को देखकर मैं आष्चर्यचकित हो गया। गांव के किसी भी स्कूल के बच्चे इतने अच्छे अभिनेता हो सकते हैं अगर षिक्षक और समुदाय चाहे तो। सरकारी स्कूलों के प्रति मेरी तमाम मान्यताएं ढौरा और बैंसखेत स्कूल भ्रमण के बाद टूट रही थी। जब मैंने एक अभिभावक सुरेन्द्र जी से पूछा कि इस स्कूल में क्या खास बात है तो उन्होंने मुझे बताया कि स्कूल में षिक्षक की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। सुरेन्द्र जी गांव में बच्चों के घर जाकर उनके व्यवहार को देखते हैं। बच्चों के अभिभावकों से लगातार संपर्क में रहते हैं। सुरेन्द्र जी की इन कोषिष का असर बच्चों के व्यवहार में साफ दिखाई देता है। स्कूल एक महत्वपूर्ण संस्थान है। सरकार ने काफी हद तक स्कूल को सबकी पकड़ में रखने के लिए आरटीई जैसे सफल प्रयास भी किये ताकि सबको षिक्षा मुहैया हो पाये। कमियां बहुत सारी होती हैं लेकिन कमियों के साथ जीने से समाधान नहीं मिलते। कमियों का हल निकाल कर समस्या का समाधान करें तो बदलाव की आस दिखती है।
षिक्षा का मूल तो बदलाव और बेहतर जीवन में निहित है। आज जिस षिक्षा के विभिन्न रूप और माॅडल बाजार में उपलब्ध हैं यह नौकरी तो दिला रहे हैं लेकिन एक मूल्यपरक इंसान बनाने में कितने सफल हैं इसका विष्लेशण किया जा सकता है। सार्थकता विहीन षिक्षा समाज में असमानता का विस्तार करेगी इस बात को समझने के लिए बहुत अधिक मेहनत करने की जरूरत नहीं है। षिक्षाविदों ने अपना जीवन खपा दिया षिक्षा को समझने में। सरकारी षिक्षा व्यवस्था को कोसने से पहले जनसाधारण में उसकी उपलब्धता पर सोचना चाहिए। हर गांव में स्कूल हो, बच्चों को घर के पास ही मजबूत बुनियादी षिक्षा मिले। इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है? सरकारी षिक्षा तंत्र बहुत बड़ा है। उच्च प्रषिक्षण प्राप्त षिक्षक सरकार के पास हैं, भवन आदि की उचित व्यवस्था है। जितना है उतने से एक बेहतर गुणवत्ता परक षिक्षा का प्रसार हो सकता है। बहुत सारी गैर सरकारी संस्थाएं सरकार के साथ मिलकर षिक्षा व्यवस्था को दुरूस्त करने में लगी हैं। सरकारी स्कूलों के प्रति लोगों के नज़रिए में बदलाव की षुरूआत हो चुकी है लेकिन यह षुरूआत अभी धीमी है। लेकिन वक्त के साथ लोगों का नजरियां बदल रहा है। षिक्षक और समाज दोनों की सोच बदलेगी और एक बेहतर व्यवस्था लागू होगी। तब हम बैंसखेत और ढौरा स्कूलों का उदाहरण नहीं दे रहे हांेगे बल्कि हमारे पास इससे भी बेहतर स्कूलों की एक लंबी सूची होगी।
विपिन जोशी
(चरखा फीचर्स)