दान-पुण्य और पूजा-पाठ हों या फिर कोई सा अनुष्ठान, इन सभी का पूर्ण फल तभी प्राप्त हो सकता है जब इसमें हमारे मन-मस्तिष्क और शरीर तीनों का योगदान हो, स्वयं के द्वारा परिश्रम किया गया हो। इन सभी कर्मों का पूरा-पूरा फल पाने के लिए स्वयं परिश्रम करें क्योंकि दैव आराधना से लेकर पुण्य के सारे कामों में अपने शरीर का परिश्रम जरूरी है।
हममें से खूब सारे लोग धर्म-कर्म के मामले में ठेकेदारी कल्चर को अंगीकार कर चुके हैं जिसमें खुद के परिश्रम का तनिक भी योगदान नहीं रहता, किसी को भी दान-पुण्य और पूजा-पाठ का ठेका दे दो और वो हमारे लिए अनुष्ठान करता रहे, हम उसका फल भोगने को उत्सुक बने रहें और अपने सांसारिक कर्मों में लगे रहें।
पूजा-पाठ और अनुष्ठानों तथा दान-पुण्यादि सत्कर्माें का एक मतलब यह भी है कि व्यक्ति संसार और स्वार्थ से थोड़े समय दूर रहकर परमार्थ और आत्मकल्याण के लिए समय निकाले और इस सत्कर्म के समय संसार से मुक्त होकर दैवाराधन या श्रेष्ठ कर्मों में रमा रहे ताकि ईश्वरीय दिव्य शक्तियों का सान्निध्य पाकर उसके आभामण्डल में नवीन प्रेरणा का संचार हो, उसके लायक ऊर्जाओं को उसमें प्रवेश करने का समय मिले और व्यक्ति ऊर्जित हो सके। और इस कालावधि में व्यक्ति उन सारे कर्मों से अपने आपको पृथक रखे जिनसे पाप या स्वार्थ प्रवृत्तियों का दोष लगे।
एक तरफ संसार से पूर्ण मुक्तावस्था और दूसरी ओर आत्मकल्याण या ईश्वरीय चिंतन में पूर्ण मनोयोग, इस अवस्था में व्यक्ति सिर्फ ईश्वरीय या सत्कर्म के ध्रुव की ओर ही लगा रहता है इसलिए उसकी पूरी कर्मेन्दि्रयां और ज्ञानेन्दि्रयां अच्छे और कल्याणकारी चिंतन की धारा में बहने लगती हैं और उसे इसका पूरा लाभ मिलता है।
समझदार लोग जो कुछ करते हैं वह खुद करते हैं खासकर ईश्वरीय आराधना, दान-पुण्य और अनुष्ठान, पूजा-पाठ आदि से लेकर दुनिया में सभी प्रकार के पारमार्थिक आदि कर्मों को दूसरे के भरोसे किए जाने का उतना फल प्राप्त नहीं होता जितना हम खुद करें, भले ही वह थोड़े समय के लिये ही क्यों न हो।
जिस सत्कर्म में हमारा परिश्रम न हो, उसका आंशिक फल ही हम प्राप्त कर पाते हैं। बात पूजा-पाठ की हो तब हम जो कुछ स्वयं करते हैं उसका सीधा और प्रत्यक्ष लाभ हमें प्राप्त होता है क्योंकि जो कुछ मिलता है वह ईश्वरीय तत्वों से सीधा मिलता है, दूसरों के द्वारा किया जाने वाला कर्म हम तक पहुंचते-पहुंचते छीजत का शिकार हो जाता है और उससे मिलने वाले फल में कमी आनी स्वाभाविक ही है। विशेषकर दान-पुण्य के मामले में हममें से अधिकांश लोग दूसरों के भरोसे रहते हैं। कभी कोई दान-पुण्य करना हो, तब अपनी ओर से पैसा दे देते हैं, बाकी सारे काम सामने वालों के भरोसे।
धर्म के मामले में भी ठेकेदारी परंपरा आजकल खूब चल रही है । दान-पुण्य के मामले में एक बात सभी को सच्चे मन से स्वीकार कर लेनी चाहिए कि उसी पूजा-पाठ या दान-पुण्य का फल मिलता है जिसमें हमारी पुरुषार्थ की कमायी लगी होती है, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी और गलत रास्तों से आए पैसों से किए जाने वाले दान-धर्म का कोई फल प्राप्त नहीं होता, इसमें सिर्फ मनी ट्रांसफर का कर्म पूरा होता है।
कई चोर-डकैत, बेईमान, कमीशनबाज और भ्रष्ट-रिश्वतखोर इस आशा में पूजा-पाठ और दान-पुण्य कराते रहते हैं कि इससे उनके पापों का प्रभाव खत्म होगा। यह उनका भ्रम ही है। हम पाप कर्म करते हैं वे हमारे पापों के खाते में और पुण्य कर्म हमारे पुण्यों के खाते में दर्ज होते हैं। दोनों में कोई एक-दूसरे में कटौती नहीं कर सकता। दोनों का ही फल दुःख और सुख के रूप में भोगना ही पड़ता है। लेकिन हराम की कमाई से किए जाने वाले दान-धर्म का अंकन पुण्य के खाते में कभी नहीं होता, यह पैसा हमारा बेकार ही जाता है। इसलिए भ्रष्ट लोगों को यह भ्रम सदा के लिए निकाल देना चाहिए कि वे अपराध और पाप कर्म करते रहें, और दान-पुण्य से पापों में कमी आ जाएगी।
आम तौर पर पूजा-पाठ, सामूहिक यज्ञ अनुष्ठानों और धार्मिक कर्मों में जो पैसा लगता है उसका अधिकांश हिस्सा उन लोगों का ही होता है जो पापकर्म करते हैं और यही कारण है कि धर्म और कर्मकाण्ड के नाम पर साल भर में इतना कुछ होते रहने के बाद भी प्रकृति और देवता हम पर प्रसन्न नहीं हो पाते और क्षेत्र तथा समुदाय किसी न किसी समस्या या प्राकृतिक आपदा से घिरे रहते हैं।
वास्तव में सभी प्रकार के धार्मिक कार्यों का मूलाधार वे लोग हैं जो परिश्रम से कमाते हैं, जीवन में ईमानदारी बरतते हैं और सच्चे मन से ईश्वरीय कार्यों के लिए किंचित मात्र भी अर्पण करते हैं और इसका प्रतिफल या पब्लिसिटी पाने की कोई इच्छा नहीं रखते। असल में ऎसे पुरुषार्थी लोगों के कारण से ही धर्म टिका हुआ है।
कई लोग गौसेवा के नाम पर गायों के चारे के लिए गौशालाओं में पैसा दे देते हैं, कई लोग चारा खरीद कर सड़कों पर डालकर चले जाते हैं और यह सोच लेते हैं कि उन्होंने बड़ा पुण्य कर्म कर लिया है। यदि वाकई गौसेवा का पुण्य पाना हो तो गौसेवा करें, गायों को अपने हाथ से प्रेमपूर्वक चारा खिलायें।
इसी प्रकार भूखों को पैसे न दें, खुद के हाथ से खाना खिलायें, प्यासों को स्वयं के हाथ से पिलायें, तभी पुण्यार्जन संभव है। असल में पुण्य का लाभ तभी प्राप्त होता है जब श्रेष्ठ कर्म को दूसरों के भरोसे न छोड़ें बल्कि खुद के हाथों करें। पैसा अपना भले ही हो, जो अपने हाथों से कर्म करता है उसी के खाते में पुण्य दर्ज होते हैं। किसी भी पुण्य का प्रत्यक्ष लाभ तभी है जब हमारे परिश्रम से किया गया हो। जो कुछ करें, स्वयं के हाथ से करें, भले ही परिमाण में कम ही क्यों न हो। खुद कम भी करेंगे तो लाभ पूरा पाएंगे, और दूसरे करेंगे तो पुण्य में आधी से ऊपर कटौती हो जाएगी।
इसके साथ ही यह भी सोचने की आवश्यकता है कि जो पुण्य हों वे तात्कालिक तृप्ति देने वाले और जीवंत हों। अपने आस-पास के लोग भूखे-प्यासे और अभावग्रस्त हों और हम मन्दिरों, बाबों, सत्संग-कथाओं, मठों और धर्म के नाम पर अनुष्ठानों में पैसा लगाएं, इसका कोई अर्थ नहीं है।
आज मन्दिरों और बाबों की बजाय इंसानों और समाज की जरूरतों को पूरा करने के लिए पैसा लगाने, सेवा करने की आवश्यकता है। जहाँ जरूरतमंदों को जिस चीज या काम की जरूरत है, उसे पूरी करना ही सच्चा धर्म-कर्म और सेवा है और इसी से ईश्वर प्रसन्न होता है। पाषाणों और जड़ संसाधनों पर खर्च सारा धन बेकार है और इसका कोई पुण्य नहीं मिलता। मानवधर्म और पीड़ित मानवता की सेवा से ही भगवान को प्रसन्न किया जा सकता है, मन्दिरों में घण्टे-घड़ियाल बजाकर या धर्म के नाम पर नौटंकियों से नहीं।
---डॉ. दीपक आचार्य---
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