यह कहानी भोपाल में रहने वाले बारह साल के सोहन (बदला हुआ नाम) की है। सोहन अपनी तायी के पास इन्दौर गया था। तायी के बेटे के साथ खेलते हुए दोनो में झगड़ा शुरू हो गया और बात इतनी बढ़ गयी कि इसी दौरान सोहन ने पास में रखे नेल कटर से तायी के बेटे पर वार कर दिया जो उसके हृदय में लग गया और उसकी मौके पर ही मौत हो गयी। किशोर न्याय बोर्ड द्वारा बालक के व्यवहार परिर्वतन के लिए बाल गृह में रखने के लिए चाइल्ड लाइन भोपाल के सुपुर्द किया गया। चाइल्ड लाइन भोपाल के साथी बताते हैं कि हादसे से पहले सोहन को छोटी-छोटी बात पर बहुत गुस्सा आता था लेकिन घटना के बाद से वह बहुत शांत और एकांत प्रिय हो गया है। चाइल्ड लाइन में सोहन की लगातार काउन्सलिंग की जाती रही, कुछ समय बाद उसे स्कूल में प्रवेश करवाया गया जहां वह धीरे- धीरे अपनी पढ़ाई पर ध्यान देने लगा और कक्षा में अव्वल आने लगा। पढाई के साथ साथ उसकी दूसरी प्रतिभाएं भी सामने आने आयीं। उसे चित्रकला प्रतियोगिता में कई सारे पुरस्कार मिले। सोहन चार साल तक “उम्मीद बाल गृह” में बच्चों के साथ रहा। वहां उसके व्यवहार में सकारात्मक बदलाव आए, वह बाल गृह में रह रहे छोटे बच्चों को गृहकार्य कराने में मदद करने लगा। आगे की जिंदगी के लिए उसे नई दिशा भी मिली, रंगो से दोस्ती करने के साथ साथ उसने अपने लिए लक्ष्य तय कर लिए है, वह कंप्यूटर इंजीनियर बनना चाहता है इसके लिए उसने कंप्यूटर की पढ़ाई पर विशेष ध्यान देना शुरू कर दिया। सोहन अब पूरी तरह से सामान्य है और उसे अपने परिवार के पास भेज दिया गया है । लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि अब हमारी सरकार और समाज का ज़ोर रचनात्मक सुधार की तरफ नहीं बल्कि सजा की ओर है।
गौरतलब है कि बीते 6 अगस्त को केंद्रीय कैबिनेट ने जुवेनाइल जस्टिस एक्ट में बदलाव के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है, अब इसकी जगह जुवेेनाइल जस्टिस बिल, 2014 अस्तित्व में आएगा। नए विधेयक के तहत 16 वर्श से अधिक उम्र के किषोर को व्यस्क मानने का प्रावधान है। बदलाव के बाद दुष्कर्म और हत्या जैसे जघन्य अपराधों के आरोपी किशोरों पर आईपीसी की धारा के तहत केस दर्ज होंगे और दोषी पाए जाने पर सजा भी होगी। हालांकि समाचार पत्रों में छपी खबरों के मुताबिक किस पर मुकदमा चले इसका फैसला जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड करेगा और किशोर न्याय अधिनियम या भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों के तहत चलाए गए किसी मुकदमे में जघन्य अपराध में संलिप्त किसी किशोर को सजा-ए-मौत या उम्रकैद की सजा नहीं दी जाएगी। इस बात के आसार जताए जा रहे हैं कि सरकार संसद के मौजूदा बजट सत्र में ही संशोधित मसौदे को पेश करने वाली है। जुवेनाइल जस्टिस एक्ट में बदलाव को लेकर लगभग सभी प्रमुख राजनीतिक दलों में आम राय है। इसलिए संशोधित मसौदा आसानी से पारित भी हो जायेगा। मौजूदा कानून के तहत अगर किसी आरोपी की उम्र 18 साल से कम होती है तो उसका मुकदमा अदालत की जगह जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड में चलता है। दोशी पाए जाने की सूरत में किषोर को अधिकतम तीन साल की अवधि के लिए किषोर सुधार गृह भेजा जाता है। लेकिन पिछले कुछ सालों में किषारों के ज़रिए जिस तरह से जघन्य अपराधों को अंजाम दिया है। ऐसे में जुवेनाइल जस्टिस बिल में बदलाव की मांग की जा रही थी।
दरअसल 2012 दिल्ली में हुए ‘‘निर्भया’’ कांड तथा इस तरह की और गंभीर घटनाओं के बाद पूरे देश में इस कानून में परिवर्तन के लिए एक माहौल बना। जनमत बनाने में मीडिया की भी बड़ी भूमिका रही है। बदलाव के पक्ष में कई तर्क दिए जा रहे हैं जैसे, आजकल बच्चे बहुत जल्द बड़े हो रहे हैं, बलात्कार व हत्या जैसे गंभीर मामलों में किशोर होने की दलील देकर “अपराधी” आसानी से बच निकलते हैं, पेशेवर अपराधी किशोरों का इस्तेमाल जघन्य अपराधों के लिए करते हैं, उन्हें धन का प्रलोभन देकर बताया जाता है कि उन्हें काफी सजा कम होगी और जेल में भी नहीं रखा जाएगा आदि। इन्ही तर्कों के आधार पर यह मांग जोरदार ढंग से रखी गयी कि किशोर अपराधियों का वर्गीकरण किया जाए, किशोर की परिभाषा में उम्र को 16 वर्ष तक किया जाए ताकि नृशंस अपराधियों को सख्त से सख्त सज़ा मिल सके। बाद में जनाक्रोश को देखते हुए नयी सरकार की महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गाँधी ने इन मांगों के सुर में सुर मिलाते हुए इसे आगे बढाया। लोकतंत्र और भीड़तंत्र में अंतर होता है, एक प्रगतिशील राष्ट्र में जनाक्रोश के दबाव और जनभावनाओं के तुष्टिकरण के लिए किसी कानून को बनाना खतरनाक संकेत है क्योंकि यह जरूरी नहीं है कि जनता की भावना हमेशा प्रगतिशील और विवेकपूर्ण ही हो, आखिरकार तालिबान और खाप-पंचायत वाले भी तो भीड़ तंत्र का हिस्सा ही हैं।
गंभीर अपराधों में शामिल किशोरों को कड़ी सजा देने से ही यह मसला हल नहीं होगा। बाल अपराध एक सामाजिक समस्या है, अतः इसके अधिकांश कारण भी समाज में ही विद्यमान हैं। एक राष्ट्र और समाज के तौर में हमें अपनी कमियों को भी देखना पड़ेगा और जरूरत के हिसाब से इसका इलाज भी करना पड़ेगा। कभी कभी तो हमारे संविधान द्वारा अपने नागिरकों को एक व्यक्ति के रूप में दिए गये अधिकारों और हमारे सामाजिक मूल्यों में भारी अन्तर्विरोध देखने को मिलता हैं। आज हमारे समाज में इस बात को लेकर बहस चल रही है कि किशोरों से संबंधित अपराध कानूनों को दंडात्मक होना चाहिए या सुधारात्मक, जबकि किशोर न्याय (बच्चों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम 2000 के अनुसार अगर कोई बच्चा कानून के खिलाफ चला जाता है तो आम आरोपियों की तरह न्यायिक प्रक्रिया से गुजरने अथवा अपराधियों की तरह जेल या फांसी नहीं बल्कि बाल गृहों में सुधार के लिए भेजा जाएगा।
दरअसल किशोर न्याय (बच्चों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम 2000 तक पहुँचने में हमें करीब एक सदी का वक्त लगा है। 1919 में बनी ए. जी. कार्ड्यू की अध्यक्षता में बनी “भारतीय जेल कमिटी” की रिपोर्ट में बाल अपराधियों को बड़े अपराधियों से अलग रखने को लेकर सुझाव दिए गए थे। इसके बाद 1920 में मद्रास, बंगाल, बम्बई, दिल्ली, पंजाब ,1949 में उत्तरप्रदेश और 1970 में राजस्थान में बाल अधिनियम बनाये गये। इन बाल अधिनियमों में समाज विरोधी व्यवहार करने वाले बालकों के लिये दण्ड के स्थान पर सुधार की बात की गयी। 1960 में यह स्वीकार किया गया कि बच्चों को दण्ड देने के बजाय उनमें सुधार किया जाए एवं उन्हें वयस्क अपराधियों से पृथक रखा जाए। इसी सोच के साथ भारतीय दण्ड संहिता के भाग 399 व 562 में बाल अपराधियों को जेल के स्थान पर सुधार गृहों में भेजने का प्रावधान किया गया था। 1985 में संयुक्त राष्ट्र की आम सभा द्वारा किशोर न्याय के लिए मानक न्यूनतम नियम का अनुमोदन किया गया जिसे “बीजिंग रूल्स” भी कहते हैं। इसी के आधार पर भारत में 1986 में किशोर न्याय कानून बनाया गया, जिसमें 16 वर्ष से कम उम्र के लड़के और 18 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों को किशोर माना गया। 1989 में बच्चों के अधिकार पर संयुक्त राष्ट्र का दूसरा अधिवेशन हुआ जिसमें लड़का-लड़की दोनों को 18 वर्ष में किशोर माना गया। भारत सरकार ने 1992 में इसे स्वीकार किया और सन् 2000 में 1986 के अधिनियम की जगह एक नया किशोर न्याय कानून बनाया गया। 2006 में इसमें संशोधन किया गया। इस तरह से करीब एक सदी में हम सुधार पर आधारित एक किशोर न्याय कानून बना पाए। समय का चक्र देखिये इसे पीछे लौटने की मांग की जा रही है ।
किशोरावस्था में व्यक्तित्व के निर्माण तथा व्यवहार के निर्धारण में वातावरण का बहुत हाथ होता है। इसलिए एक प्रगतिशील राष्ट्र के रूप में हम ने ऐसा कानून बनाया जो यह स्वीकार करता है कि किशोरों द्वारा किए गए अपराध के लिये किशोर बालक स्वयं नहीं बल्कि उसकी परिस्थितियां उत्तरदायी होती हैं। इसलिए कानून का मकसद किशोर-अपराधियों को दंड नहीं सुधार का है। फोकस अपराधी पर नहीं अपराध के कारणों पर होता है ताकि अपराधी बालक बड़ा होकर समाज का संवेदनशील सदस्य तथा देश का उत्तरदायी नागरिक बन सके। लेकिन दुर्भाग्य से कैबिनेट का फैसला और देश के जनभावना दोनों ही इस विचार के खिलाफ है। दरअसल सरकार ने जनभावना के दबाव में आकर शार्टकट रास्ता अपनाया है और अपनी कमियों और कोताहियों की उपेक्षा की है। निश्चित रूप से वर्तमान कानून में खामियां हो सकती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इसमें बच्चों तथा किशोरों की सुरक्षा और देखभाल सुनिश्चित करने को लेकर जो व्यवस्थाएं है उनसे छेड़-छाड़ की जाए। हकीकत तो यह है कि सरकार किशोर न्याय अधिनियम के प्रावधानों को लागू करने में बुरी तरह असफल रही है। सच्चाई यह है कि किशोर न्याय अधिनियम, 2000 के अधिकतर प्रावधानों को लागू ही नहीं किया जा सका है। इस कानून के बारे में पुलिस, अभियोजन पक्ष, वकीलों और यहाँ तक कि जजों को भी कानून के प्रावधानों की पूरी जानकारी ही नहीं है। किशोरों के विरुद्ध दर्ज हो रहे लगभग तीन चैथाई मुकदमे फर्जी हैं। किशोरों को सरकारी संरक्षण में रखने के लिए कानून में बताई गई व्यवस्था की स्थिति दयनीय है और इसके कई सारे प्रावधान जैसे सामुदायिक सेवा, परामर्श केंद्र और किशोरों की सजा से संबंधित अन्य प्रावधान जमीन पर लागू होने के बजाये कागजों में ही है।
दूसरी ओर बच्चों की परिभाषा घटा देने से इस बात की भी आशंका है कि इसको आधार बनाकर सरकार बच्चों के प्रति अपनी जवाबदेही से पीछे हटने का रास्ता तलाश सकती है। हमारे देश के विभिन्न सरकारी एजेंसियों में बच्चे की परिभाषा को लेकर पहले से ही एकरुपता नही है। एक ओर जहाँ किशोर न्याय अधिनियम के अनुसार नाबालिगों की परिभाषा 18 साल से कम उम्र मानी गयी है, वहीं केवल 14 वर्ष तक के बच्चों को ही आर. टी. ई. के तहत शिक्षा का अधिकार दिया गया है। इसी तरह से 14 आयु वर्ष से ऊपर के बच्चों को बाल श्रमिक नहीं माना जाता है । केंद्र की नई सरकार द्वारा बाल अपराधियों को कठोर दंड दिलवाने के लिए हड़बड़ी में उठाया गया कदम समझ से परे है। मध्यकाल में कड़ी सजा देकर अपराधों को रोकने का चलन रहा है, जो कि इक्कीसवीं सदी के मूल्यों से मेल नहीं खाती है। एक प्रगतिशील देष होने के नाते हम अपराध में संलिप्त अपने किशोरों को कड़ी सजा देकर उन्हें व्यस्क अपराधियों के साथ जेल में नहीं डाल सकते। यह उनके भविष्य को नष्ट करने जैसा होगा, तरीका कोई भी हो हमें उन्हें सुधार प्रक्रिया से गुजार कर समाज की मुख्यधारा में शामिल होने का मौका और माहौल देना होगा, कुछ उसी तरह से जैसे सोहन की मिला था।
जावेद अनीस
(चरखा फीचर्स)