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विशेष आलेख : सैकड़ों बच्चों को निगल रहा एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम

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आज मीडिया से लेकर अखबार¨ं, बस¨ं, मेट्र¨ ट्रेन¨ं, दफ्तर¨ं हर जगह पर नाइजीरिया से आए नए वायरस इब¨ला की चर्चा चल रही है। वह वायरस जिसे भारत पहुंचे हुए अभी गिनती के दिन हुए हैं लेकिन आने से पहले ही उसने अपना भय ल¨ग¨ं के दिल¨ं में बैठा दिया है। तमाम स्वास्थ्य अधिकारी इस वायरस की भारत में बढ़त क¨ र¨कने में जी-जान से जुटे हुए हैं। लेकिन इसी देश के एक राज्य बिहार में लगभग हर साल एक महामारी उभरती है बच्च¨ं क¨ अपना शिकार बनाती है अ©र चली जाती है। साल-दर-साल यह सिलसिला चलता रहता है लेकिन किसी भी मीडिया या स्वास्थ्य अधिकारी का इसकी तरफ ध्यान नहीं जाता। 
          
बिहार राज्य के मुजफ्फरपुर जिले का कोठिया गांव 1995 में पहली बार सुर्खियों में आया था। कांटी प्रखंड के इसी गांव में पहली बार अज्ञात बीमारी से 10 मासूम बच्चों की मौत हो गयी थी। जलेश्वरी देवी वह बदनसीब मां थी, जिसके कलेजे के टुकड़े को इस बीमारी ने अपना पहला शिकार बनाया था। 10 साल की बेटी विभा को बड़े प्यार-दुलार से पाला था, लेकिन उसे क्या पता था कि एक दिन गरीबों का यह रोग उसे जीवन भर आंसू बहाने के लिए छोड़ जायेगा। जलेश्वरी जैसी हजारों बदनसीब मांओं की आंखों से आज आंसू नहीं थम रहे हैं। लाल-पीली बŸाी गाडि़यों में सरकार आती है, साहब आते हैं। बड़े-बड़े दावे, लंबी-चैड़ी घोषणाएं करके चले जाते हैं और इधर गरीबों के लाल एक-एक कर मौत के शिकार बनते जाते हैं। 
         
विशेषज्ञों-चिकित्सकों ने इस अज्ञात बीमारी को एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम (एइएस) नाम दिया। एइएस दो दशक से मुजफ्फरपुर व आसपास के जिलों पूर्वी चंपारण, सीतामढ़ी, शिवहर, समस्तीपुर, वैशाली, बेगूसराय आदि में कहर बरपा रहा है। मई-जून में फन उठाने वाली यह बीमारी मुजफ्फरपुर के करीब 236 गांवों में महामारी की तरह आती है और माॅनसून के दस्तक देने के साथ चली जाती है। 1996 में इंसेफलाइटिस से करीब एक हजार बच्चे पीडि़त हुए थे, जिनमें 350 बच्चों की मौत हो गयी थी। 2012 में फिर 184 नौनिहाल मौत की आगोश में समा गये। इस साल अबतक 800 से अधिक बच्चे पीडि़त हुए, जिनमें डेढ़ सौ से अधिक बच्चों की मौत हो चुकी है। करीब 20 साल से इस बीमारी के कारणों की खोज में दर्जनों डाॅक्टर, विशेषज्ञ लगे हैं, लेकिन अबतक किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच पाये हैं। 
            
पिछले साल बच्चों के ब्रेन टिश्यू की जांच की घोषणा की गयी थी, पर आज तक टिश्यू को जांच के लिए कैलिफोर्निया नहीं भेजा जा सका है। गत वर्ष ही प्रभावित इलाकों में जैपनीज इंसेफलाइटिस (जेई) का टीका लगाये जाने के लिए अभियान चलाया गया, लेकिन टीकाकरण अभियान की पोल तब खुल गयी, जब केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डाॅ हर्षवर्द्धन ने अभी हाल में कोठिया गांव पहुंच कर स्थिति का जायजा लिया। डाॅ हर्षवर्द्धन ने कहा कि 92 फीसदी बच्चों को टीके नहीं दिये गये। 22-23 जून को भी दो दिन का विशेष टीकाकरण अभियान चलाया गया। 43,269 बच्चों को जेई का टीका दिया गया। मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी पहले सीएम हैं, जो 1996 के बाद एइएस पीडि़त बच्चों को देखने मुजफ्फरपुर पहुंचे। इससे बड़ी संवेदनहीनता और क्या होगी कि दो दशक में इतने बच्चे मर गये और यहां के एक भी मुख्यमंत्री अभी तक द©रे के लिए नहीं आए ? यह आश्चर्यजनक है कि जहां हर साल सैकड़ों बच्चों की जानें जाती हैं, वहां की चिकित्सा व्यवस्था इतनी लचर है। सदर अस्पताल व एसकेएमसीएच की व्यवस्था देख खुद मुख्यमंत्री झल्ला गये। सदर अस्पताल, मुजफ्फरपुर का शिशु वार्ड वर्षों से बंद पड़ा है। कोमा में गये बच्चों के ब्रेन की जांच व इलाज के लिए न्यूरोलाॅजिस्ट नहीं हैं। अस्पताल में एमआरआई जांच की भी सुविधा आज तक उपलब्ध नहीं करायी गयी। बच्चों को रेफर किये जाने की स्थिति में सरकारी स्तर पर एंबुलेंस की मुकम्मल व्यवस्था नहीं है। मेहसी के दसई पासवान को छह वर्ष के बेटे के शव को ले जाने के लिए एंबुलेंस नहीं मिला और घंटों शव फर्श पर ही पड़ा रहा। 

केजरीवाल मातृसदन अस्पताल में भर्ती पारू के मोहजमा निवासी प्रिया की मां डेजी ने बताया कि बेटी की तबीयत खराब होने के बाद पारू पीएचसी प्रभारी को मोबाइल पर फोन किया। पूरी जानकारी लेने के बाद भी जब, एंबुलेंस नहीं आया तो उसके पिता बेटी को कंधे पर लेकर ही पैदल अस्पताल भागे। इस बीमारी की चपेट में वे ही बच्चे आ रहे हैं, जो मुफलिसी में जी रहे हैं। जिनके तन पर पूरे कपड़े नहीं होते हैं और जो आधी व बासी भोजन कर रात काटते हैं। कुपोषण व गरीबी से लड़ते हुए एक-एक दिन काटना जैसे उनकी नियति बन गयी है। जिनकी मांओं को पता नहीं कि बच्चों को टीके भी लगवाने हैं। परिवारों तक आशा व ममता दीदी, नर्सों व गांव के पीएचसी की पहुंच कागजों पर जरूर है, लेकिन हकीकत में नहीं? यूनीसेफ व राज्य सरकार के कुपोषण दूर करने के लिए चलाये जाने वाले कार्यक्रम भी लाभकारी सिद्ध नहीं हो रहे हंै। पेशे से डाॅक्टर पूर्व केंद्रीय मंत्री डाॅ सीपी ठाकुर कहते हैं कि इंसेफलाइटिस मरीजों में एक बात आम है, वह है कुपोषण। इसके अलावा टीकाकरण में गड़बड़ी व जीवन शैली को ले उदासीनता भी एक बड़ी वजह है। 
         
कुछ डाॅक्टरों का कहना है कि शरीर में शुगर का संतुलित स्तर नहीं होने की वजह से एइएस की चपेट में आये बच्चों की मौत होती है। किंतु इसका कारण समझ से बाहर है। बच्चों में ग्लूकोज चढ़ाने के बाद ब्लड शुगर 100 से अधिक हो जाता है। पर कुछ समय बाद पुनः शुगर का स्तर गिरने लगता है। जानकार बताते हैं कि ब्लड शुगर नियंत्रित हो जाये तो बच्चों को बचाया जा सकता है। उधर, अटलांटा स्थित सेंटर फाॅर डिजीज कंट्रोल व दिल्ली के नेशनल सेंटर फाॅर डिजीज कंट्रोल के एक्सपर्ट इस अज्ञात बीमारी का कारण हाइपोग्लेशिमिया (शरीर में ग्लूकोज का कम होना) बताते हैं। पिछले दिनों वेल्लोर के वायरोलाॅजी एक्सपर्ट डाॅ टी जैकब जाॅन व लखनऊ स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट आॅफ टाॅक्सोलाॅजी के विशेषज्ञ डाॅ मुकुल दास ने अपने शोध में लीची पर संदेह किया है। मई 2014 में प्रकाशित करेंट साइंस के वाॅल्यूम 106, नंबर 9 व 10 में यह जिक्र किया है कि लीची की गुठली में मौजूद मिथाइल इन साइकलोप्रोपाइल (एमसीपीए) टाॅक्सिन होता है। यह शरीर में चीनी के लेबल को तेजी से कम करता है। इस शोध पर सवाल खड़ा करते हुए मुजफ्फरपुर स्थित एसकेएमसीएच के शिशु रोग विशेषज्ञ बताते हैं कि लीची नहीं खाने वाले व भरपेट भोजन करनेवाले बच्चे भी इस बीमारी की चपेट में आ रहे हैं। इस बार तीन बच्चों के शरीर में ग्लूकोज की मात्रा 400 से ज्यादा थी, जबकि कई बच्चों में 200 से अधिक ग्लूकोज की मात्रा पायी गयी। गत वर्ष 8 अप्रैल को पहला केस सामने आया था, जबकि लीची बहुत बाद में बाजार में आयी थी। 
             
लीची के लिए प्रसिद्ध मुजफ्फरपुर में हर साल पैर पसारते इस बीमारी के लिए लीची को विशेषज्ञ एक कारण मानते आये हैं। शोध का एक कोण इसी ओर घुमता रहा है। इस बार भी चर्चा में लीची आयी, लेकिन पीडि़त बच्चों में पाये गये अलग-अलग लक्षणों से विशेषज्ञों का दिमाग चकरा गया। ग्लूकोज, पोटाशियम एवं सोडियम का बढ़ना-घटना आदि कई लक्षण बच्चों में पाये गये। ये भी बातें सामने आईं कि जो बच्चा रात में खाली पेट सोया, वह भी एइएस की चपेट में आया। कई बच्चों ने रात में भरपेट भोजन किया था, फिर भी उन्हें चमकी के साथ बुखार आया। राष्ट्रीय लीची अनुसंधान केंद्र के प्रधान वैज्ञानिक डाॅ राजेश कुमार कहते हैं कि बिहार का गौरव लीची एंटी आॅक्सीडेंट एवं एंटी वायरल है। इससे किसी भी बीमारी का कारण मान लेना भ्रामक है। लीची में विटामिन सी 70 से 75 मिलीग्राम प्रति 100 ग्राम खाद्य योग्य पदार्थ में होता है, जो शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है। इस साल अमेरिका से भी विशेषज्ञों का दल मुजफ्फरपुर पहुंचा। विशेषज्ञों की और भी कई टीमें आयीं। डाॅ हर्षवर्द्धन समेत तीन-तीन केंद्रीय मंत्री बच्चों को देखने पहुंचे और उम्मीदें जगा कर गये हैं नतीजे तक पहुंचने की, तमाम सुविधाएं मुहैया करवाने की। देखना यह है कि इन वायद¨ं पर अमल कितना ह¨ता है। 






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संतोष सारंग
(चरखा फीचर्स)

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