सर्वप्रथम पूज्य गणपति देवता के प्राकट्योत्सव गणेशचतुर्थी और इससे लेकर चतुर्दशी तक हम सारे के सारे लोग गणेशोत्सव के नाम पर जो कुछ कर रहे हैं वह सारा का सारा दिखावे और शोरगुल की भेंट चढ़ चुका है। कहाँ तो भगवान मंगलमूर्ति की उपासना की परंपरागत विधियां और प्रथाएं प्रचलित रहा करती थीं जिनमें न शोरगुल का कोई स्थान होता था न धींगामस्ती भरा कोई लोकदिखाऊ माहौल। जो कुछ था उसमें हर कर्म में श्रद्धा और आस्था थी और सामने हुआ करते थे अपने आराध्य गणेशजी।
आजकल हमने कई नई प्रथाएं शुरू कर ली हैं। गणपति के नाम पर शोरगुल, अशांति, उद्विग्नता से लेकर वे सारे कार्यक्रम हम करने लगे हैं जिनका गणेश भगवान से दूर-दूर का रिश्ता नहीं है। हर क्षेत्र में अपनी पृथक-पृथक परंपराएं हैं जिनका अनुगमन वहीं के स्थानीय क्षेत्रों तक सीमित हुआ करता था।
अब हमने दूसरों की देखादेखी सब कुछ गुड़ गोबर करके रख दिया है। गणेशमूर्तियों के निर्माण ने भी औद्योगिक स्वरूप प्राप्त कर लिया है। हर तरफ श्रद्धा को भुनाने के लिए अब हमने प्लास्टर ऑफ पेरिस से गणपति निर्माण की जाने कितनी बड़ी-बड़ी इण्डस्ट्रीज स्थापित कर ली हैं।
समाज की तमाम गतिविधियों और परंपराओं को अपने हक में भुनाने वाले लोगों को पता है कि श्रद्धा और आस्था के नाम पर जो धंधे होंगे वे नॉन स्टॉप हजार की स्पीड़ में चल निकलेंगे। अब गणपति मूर्ति निर्माण का उद्योग भी खूब चल पड़ा है। किसी भी शास्त्र में प्लास्टर ऑफ पेरिस की गणेशमूर्तियां बनाने का कोई उल्लेख नहीं है फिर भी हर साल करोड़ों मूर्तियां बनती हैं।
समुद्री इलाकों में इनका विसर्जन संभव हो भी जाए मगर देश के बहुसंख्य इलाकों में लोगों के लिए पीने का पानी तक नसीब नहीं होता, बारिश के कुछ महीनों बाद ही जलाशय सूख जाते हैं, भीषण गर्मियों के दिनों में जलसंकट बना रहता है, पानी परिवहन और जल प्रबन्धन के नाम पर अरबों रुपए की धनराशि खर्च करनी पड़ती है, इसके बावजूद साल दर साल जल संकट बना ही रहता है।
इन हालातों में गणेशमूर्तियों के विसर्जन के नाम पर परंपरागत जलाशयों को बर्बाद करना, उनमें रहने वाले असंख्य जीव-जन्तुओं की हत्या को प्रश्रय देना, पानी में रसायनों को घुलने देना और बाद में महीनों तक पछताते रहना आदि कहां का न्याय है।
कई जगहों पर का पानी दूषित हो जाता है और पीने लायक नहीं रहता, केमिकल युक्त प्रदूषित पानी से चमड़ी के रोग होने लगते हैं। इन सारी समस्याओं को पैदा करने के लिए कोई और नहीं बल्कि हम स्वयं जिम्मेदार हैं। हम लोगों ने धर्म को धंधा बना लिया है और आस्थाओं को भुनाकर धर्मान्ध और अंधविश्वासी लोगों को भ्रमित कर अपने उल्लू सीधे करने को ही धर्म मान बैठे हैं। गणेशमूर्तियों का निर्माण खुद के हाथों करने तथा अपने इलाके की शुद्ध मिट्टी से ही छोटी प्रतिमा बनाने का विधान है ताकि पृथ्वी तत्व पुनः विराट पृथ्वी तत्व में विलीन हो जाए। पर ऎसा कहाँ हो पा रहा है।
यह प्लास्टर ऑफ पेरिस जलाशयों को तो बर्बाद करता ही है वहीं जीव-जंतुओं और मनुष्यों तक के लिए घातक है। जिस कर्म में हम आत्मघाती काम करने लगें, वह धर्म नहीं होकर अधर्म ही है। गणेशमूर्तियों की इतनी भारी संख्या की बजाय हर गांव और शहर की दो-तीन मूर्तियां रखें, हो सके जो धात्विक प्रतिमाओं का प्रयोग करें ताकि जलाशय खराब न हों।
मूर्तियां बेचने वाले लोग बाहर से आकर मूर्तियां बेच कर चले जाते हैं और हम स्थानीय लोग साल भर तक प्रदूषित पानी की वजह से परेशान रहते हैं। असंख्य जलीय जंतुओं की हत्या का पाप हमारे सर चढ़ जाता है सो अलग। और विसर्जन के बाद महीनों तक गणपति प्रतिमाओं का जो दृश्य सामने आता है उसे देख कर तो लगता है कि हम किस युग में जा रहे हैं, और ये कैसी आस्था है हमारी गणेश प्रतिमाओं के प्रति।
गणेश मूर्तियों के निर्माण का विधान यह है कि गणेश भक्त स्वयं अपने हाथों में अपने क्षेत्र की शुद्ध मिट्टी से छोटी प्रतिमा बनाएँ, उसकी रोजाना विधि-विधान के साथ पूजा करें, भोग लगाएं और फिर विसर्जित करें। यह विसर्जन भी इतनी अपार जलराशि में विधिविधान के साथ ऎसा होना चाहिए कि पूरी मिट्टी घुल जाए और प्रतिमा बचे ही नहीं। प्रतिमा का पूरा न घुलना गणेश साधकों व भक्तों के लिए अनिष्ट का संकेत है और इससे उन लोगों के शरीर का पृथ्वी तत्व दूषित होने लगता है जो गणेश प्रतिमाएं स्थापित करते हैं तथा विसर्जन करते हैं। इससे कई प्रकार की गंभीर बीमारियां हो सकती हैं।
जो लोग प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्तियां स्थापित करने, खरीदवाने में पैसा लगाते हैं, उनके द्वारा स्थापित मूर्तियों का पूर्ण विगलीकरण दो दिन में नहीं होने की स्थिति में कैंसर और चर्मरोग जैसी भयंकर बीमारी का खतरा भी हो सकता है। आजकल प्लास्टर ऑफ पेरिस की बनी मूर्तियां कई माहों तक पानी में गलती नहीं, और ऎसे में गणेशभक्तों को पृथ्वी तत्व से संबंधित बीमारियों के साथ ही कई समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।
इस स्थिति में मंगलमूर्ति भगवान श्री गणेश भक्तों का मंगल करने की बजाय अनिष्ट करने वाले हो जाते हैं। यही कारण है कि बरसों से हम गणेश भक्ति के नाम पर धींगामस्ती करते आ रहे हैं मगर कुछ हासिल नहीं हो पाया है, न हमारे विघ्नों पर अंकुश लग पाया है, न हमारी तरक्की को पर ही लग पाए हैं।
गणेशजी की भक्ति जरूर करें मगर यह ध्यान रखें कि भक्ति वही सार्थक है जो धर्म सम्मत, शास्त्र सम्मत हो तथा इससे किसी भी प्रकार की समस्याएं सामने न आएं। भेड़चाल अपनाते हुए आगे बढ़ने से खुद को भी नुकसान होता है, समाज को भी, और क्षेत्र को भी।
ऎसी भक्ति और धींगामस्ती किस काम की जो हमारे लिए हर साल समस्याएं पैदा करें, आत्मघाती साबित हो और बाद में हमें पछतावा हो। भक्ति के नाम पर जल प्रदूषण, असंख्यों जलीय जीव-जंतुओं की हत्या का महापाप, जलसंकट, पानी में प्रदूषण और बीमारियों को न्योता देने वाली यह अंध भक्ति अधर्म से अधिक कुछ नहीं।
दुनिया में खूब सारे धंधे दूसरे हैं, कम से कम गणेशोत्सव से धंधों को न जोड़ें। गणेश की उपासना सभी को करनी चाहिए। बरसों से परंपरा चली आ रही है उन्हीं का निर्वाह करें और इस प्रकार की भक्ति करें जिसमें शोरगुल, दिखावा, भड़काऊ आयोजन, चंदा संग्रहण, पराये पैसों पर त्योहार मनाने की धंधेबाजी मानसिकता का परित्याग करें और ऎसी भक्ति करें जिसमें हम स्वयं और गणेश ही हों।
पूरे मन से भगवान मंगलमूर्ति की पूजा-उपासना करें, अनुष्ठान करें, उन्हें मोदक अर्पित करें और शांति के साथ जप-तप करें। भगवान इसी से प्रसन्न होते हैं। मंगलमूर्ति को कैलाश की तरह एकान्त पसंद है, शोरगुल नहीं। जो लोग दिखावोंं और शोरगुल के साथ गणेश को प्रसन्न करने के जतन करते हैं वे सारे के सारे लोग गणेश की कृपा से वंचित हो जाते हैं। इन लोगों को गणेश का शत्रु कहा जाए तो कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
मंगलमूर्ति को प्रसन्न करने के लिए एकान्तिक भक्ति और शांति का आश्रय पाएं तथा जो कुछ करें वह भगवान गणपति को दिखाने के लिए करें, संसार को दर्शाने के लिए नहीं। यह तय कर लें कि हम गणेशोत्सव के नाम पर जो कुछ कर रहे हैं वह गणेश भगवान की प्रसन्नता के लिए कर रहे हैं अथवा संसार की खुशी के लिए। साथ ही यह भी जान लें कि इन दिनों हम जो कुछ कर रहे हैं उससे गणपति के नाराज होने के खतरे अधिक हैं।
---डॉ. दीपक आचार्य---
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