गंगा किनारे, दीयों की मालाएं, चमकते-दमकते घाट व घंटों की आवाज के बीच शंखों की गूंज। ऐसा विहगंम व सुंदर दृश्य मानों देवता वास्तव में इस पृथ्वी पर दीवाली मनाने आ रहे हो। मानों गंगा के रास्ते देवताओं की टोली आने वाली है और उन्हीं के स्वागत में काशी के 84 घाटों पर टिमटिमाती दीयों की लौ इंतजारी में है। गंगातट पर पर अद्भूत नजारा, विश्वास, आशा एवं उत्सव के इस अनुपम दृश्य को देखने को आते है देश-विदेश के लाखों श्रद्धालु। 9 साल बाद बन रहा विशेष संयोग, 6 को ही सर्वास्थ सिद्धि योग, गंगा घाटों पर स्नान को उमड़ेंगे श्रद्धालु। इसी दिन गुरुनानक जयंती भी है। 5 नवंबर की रात्रि 12.34 बजे से स्नान का होगा शुभारंभ, 6 नवंबर को दिन में 2.50 बजे तक स्नान मध्यम फलदायी है। फिर 2.50 बजे से शाम 6.50 बजे तक स्नान का उत्तम प्रभाव है।
तीनों लोको में न्यारी धर्म एवं आध्यात्म की नगरी काशी की धरती पर सजने वाला है स्वर्ग। काशी के एतिहासिक सौ से अधिक घाटों पर देवता आने वाले हैं। एक-दो नहीं, बल्कि साक्षात 33 करोड़ देवी-देवता। कार्तिक पूर्णिमा की रात 6 नवम्बर यानि गुरुवार को काशी में देवलोक का नजारा देखने को मिलेगा। इस दिन स्नान को गंगा घाटों पर श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ेगी। कार्तिक पूर्णिमा पर स्नान-दान का महत्व इस बार और भी खास है। रेवती और अश्विनी नक्षत्र के संयोग से स्नान-पूजन अति फलदायी है। 9 साल बाद इस बार यह विशेष संयोग बन रहा है, क्योंकि रेवती और अश्विनी का मिलन हो रहा है। इसके पहले 2003 में इसी तरह का विशेष संयोग बना था। इस अद्भूत शुभ दिन को देव दीपावली के नाम से जाना जाता है। घाटों के नीचे कल-कल बहती गंगा की लहरें, घाटों की सीढि़यों पर जगमगाते लाखों दीपक एवं गंगा के समानांतर बहती हुई दर्शकों की जनधारा आधी रात तक अनूठा दृश्य, एक बार फिर होगा लोगों के आकर्षण का केन्द्र। रात में दीपों से गंगा की गोद ऐसी टिमटिमा उठती है जैसे आसमान से आकाश गंगा जमीन पर उतर आई हों। इसकी महत्ता का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस न्यारी छटा को देखने के लिए देश एवं विदेश के लाखों पर्यटक आते हैं। 6 को ही गुरुनानक जयंती भी है। 5 नवंबर की रात्रि 12.34 बजे से स्नान का होगा शुभारंभ, 6 नवंबर को दिन में 2.50 बजे तक स्नान मध्यम फलदायी है। फिर 2.50 बजे से शाम 6.50 बजे तक स्नान का उत्तम प्रभाव है।
मान्यता है कि काशी के राजा दिलेदास द्वारा काशी में देवताओं के प्रवेश पर लगा दी गई थी। उसके अहंकार से देवलोक में हड़कंप मच गया। कोई देवी-देवता काशी आने को तैयार नहीं होता। उसी दौरान त्रिपुर नामक दैत्य को भगवान भोलेनाथ ने वध किया और अहंकारी राजा के अहंकार को नष्ट कर दिया। राक्षस के मारे जाने के बाद देवताओं की विजय स्वर्ग में दीप जलाकर देवताओं ने खुशी मनाई। इस खुशी को देव दीपावली नाम दिया गया। उस दौरान काशी में भी रह रहे देवताओं ने दीप जलाकर देव दीपावली मनाई। तभी से इस पर्व को कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर काशी के घाटों पर दीप जलाकर मनाया जाने लगा। इसके बाद धीरे-धीरे पूरे देश में यह पर्व मनाया जाने लगा। अब तो गंगा घाट ही नहीं अब तो नगर के तालाबों, कुओं एवं सरोवरों पर भी देव दीपावली की परम्परा मनाई जाने लगी है। कहा यी भी जाता है कि देव दीपावली की रात देवता पृथ्वी पर उतरते हैं। इसलिए देव आराधना का यह पर्व आध्यात्मिक-धार्मिक लोगों की आस्था और आकर्षण का केंद्र बन गया। गंगा घाटों के साथ ही गंगा के उस पार रेत पर भी लाखों दीपक जलाएं जाते है। बीच में बहती गंगा में झिलमिलाती दीपों की छाया अविस्मरणीय एवं मनोहारी दृश्य का एहसास कराती है। गंगा की धारा में हजारों नावों और बजड़ों (दो मंजिली बड़ी नावों) पर बैठे दर्शनार्थी इस अद्भुत दृश्य को अपने आंखों एवं कैमरे में कैद करते देखा जा सकता है।
कहा यह भी है कि जाता है कि त्रिशंकु को राजर्षि विश्वामित्र ने अपने तपोबल से स्वर्ग पहुँचा दिया। देवतागण इससे उद्विग्न हो गए और त्रिशंकु को देवताओं ने स्वर्ग से भगा दिया। श्रापग्रस्त त्रिशंकु अधर में लटके रहे। त्रिशंकु को स्वर्ग से निष्कासित किए जाने से क्षुब्ध विश्वामित्र ने पृथ्वी-स्वर्ग आदि से मुक्त एक नई समूची सृष्टि की ही अपने तपोबल से रचना प्रारंभ कर दी। उन्होंने कुश, मिट्टी, ऊँट, बकरी-भेड़, नारियल, कोहड़ा, सिंघाड़ा आदि की रचना का क्रम प्रारंभ कर दिया। इसी क्रम में विश्वामित्र ने वर्तमान ब्रह्मा-विष्णु-महेश की प्रतिमा बनाकर उन्हें अभिमंत्रित कर उनमें प्राण फूँकना आरंभ किया। सारी सृष्टि डाँवाडोल हो उठी। हर ओर कोहराम मच गया। हाहाकार के बीच देवताओं ने राजर्षि विश्वामित्र की अभ्यर्थना की। महर्षि प्रसन्न हो गए और उन्होंने नई सृष्टि की रचना का अपना संकल्प वापस ले लिया। देवताओं और ऋषि-मुनियों में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। पृथ्वी, स्वर्ग, पाताल सभी जगह इस अवसर पर दीपावली मनाई गई। यही अवसर अब देव दीपावली के रूप में विख्यात है। पं रामदुलार उपाध्याय के मुताबिक रेवती और अश्विनी दोनों बहन हैं और राजा दक्ष की पुत्री। साथ ही दोनों चंद्रमा की पत्नी भी हैं। रेवती अश्विनी जब एक साथ हुईं, तो पुरुरवा का जन्म हुआ और इसके साथ ही मानव सृष्टि की शुरुआत हुई। उस दिन सर्वास्थ सिद्धि योग भी है। कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि देव दीपावली यानी देवताओं की दिवाली के रूप में जाना जाता है। 12 मासों में कार्तिक मास सबसे श्रेष्ठ माना जाता है। कार्तिक मास भगवान विष्णु, शिव, ब्रह्म आदि देवताओं को अत्यंत प्रिय है। इस दिन दान करने का फल कभी नाश नहीं होता है। जबकि अन्य मास का दान फल भोगने के बाद मिट जाता है। यह मानव जाति के लिए अत्यंत दुर्लभ है। इस दिन 33 कोटि देवताओं का पृथ्वी पर वास होता है। स्नान के बाद ब्राह्मणों को छोड़कर अन्य लोगों को दूसरे के घर भोजन नहीं करना चाहिए। इस बार कार्तिक पूर्णिमा पर माताओं का स्नान उनके पुत्र-पुत्रियों के लिए विशेष कल्याणकारी होगा। उस दिन भीष्म पंचक की निवृति हो रही है। यानी पचखा का प्रभाव भी नहीं रहेगा।
घाटों पर उमड़ी देशी-विदेशी दर्शकों की भीड़ के कारण तिल रखने की भी जगह नहीं मिलती। शाम से ही घाटों पर घंटों पहले बैठकर उस ऐतिहासिक क्षण की प्रतीक्षा करते देखा जा सकता है, जब देव दीपावली के दीपों के प्रकाश से पूरा क्षेत्र आलौकित हो उठता है। खास बात यह है कि ऐसा भव्य आयोजन दुनिया की किसी भी नदी के किनारे नहीं आयोजित होता। ज्योतिषियों की मानें तो गंगातट पर उतरे देवलोक की छवि जैसी है काशी की देव दीपावली। इसी पृष्ठभूमि में शरद पूर्णिमा से प्रारंभ होने वाली दीपदान की परंपरा आकाशदीपों के माध्यम से काशी में अनूठे सांस्कृतिक वातावरण की द्योतक है। गंगा के किनारे घाटों पर और मंदिरों, भवनों की छतों पर आकाश की ओर उठती दीपों की लौ यानी आकाशदीप के माध्यम से देवाराधन और पितरों की अभ्यर्थना तथा मुक्ति-कामना की यह बनारसी पद्धति है। ये आकाशदीप पूरे कार्तिक मास में बाँस-बल्लियों के सहारे टंगे, टिमटिमाते तमसो मा ज्योतिर्गमय का शाश्वत संदेश देते हैं। इसी क्रम में ये दीप कार्तिक पूर्णिमा के पावन पर्व पर पृथ्वी पर गंगा के तट पर अवतरित होते हैं। देव दीपावली का यह तिलस्मी आकर्षण अब अंतर्राष्ट्रीय होता जा रहा है। दीपावली के 15 दिन बाद कार्तिक पूर्णिमा को काशी में गंगा के अर्द्ध चन्द्राकार घाटों की साफ-सफाई होने लगती है। दीपों का अदभुद जगमग प्रकाश देवलोक जैसा वातावरण प्रस्तुत करता है। पिछले 15-20 सालों से काशी का देव दीपावली महोत्सव पूरे देश एवं विदेशों में आकर्षण का केन्द्र बन चुका है। यह महोत्सव देश की सांस्कृतिक राजधानी काशी की संस्कृति की भी पहचान बन चुकी है। गंगा के करीब 10 किलोमीटर में फैले अर्द्धचन्द्राकार घाटों तथा लहरों में जगमगाते, इठलाते बहते दीप एक अलौकिक दृश्य उपस्थित करते हैं।
गंगा पूजन के बाद सभी 80 घाटों पर दीपों की लौ जगमग कर देती है। सभी घाट दीपों की रोशनी से नहा उठते है। वैसे भी काशी की गंगा आरती का सांस्कृतिक, धार्मिक एवं आर्थिक महत्व है। प्रतिवर्ष 50 लाख से ज्यादा देशी और विदेशी पर्यटक वाराणसी आते हैं। साफ-सफाई व स्वच्छता को ध्यान में रखकर अब सरसों तेल के दीपक की जगह मोम के दीप जलाया जाने लगा है। इससे घाटों पर दाग नहीं पड़ते और रोशनी ज्यादा देर तक टिकती है। परम्परा और आधुनिकता का अदभुत संगम देव दीपावली धर्म परायण महारानी अहिल्याबाई से भी जुड़ा है। अहिल्याबाई होल्कर ने प्रसिद्ध पंचगंगा घाट पर पत्थरों से बना खूबसूरत हजारा दीप स्तंभ स्थापित किया था जो इस परम्परा का साक्षी है। आधुनिक देव दीपावली की शुरुआत दो दशक पूर्व यहीं से हुई थी। देव दीपावली पर्व को देखने के लिए वाराणसी के सभी होटल दीवाली बाद से ही बुक होने शुरु हो जाते है। प्रमुख घाटों पर तिल रखने की जगह नहीं रहती।
इस मौके पर दुनिया के कोने-कोने से पहुंचे देशी-विदेशी पर्यटकों से शहर के होटल एवं धर्मशालाएं पूरी तरह भर जाती है। इस अदभुत नजारों को दिखाने का फायदा नाविक भी उठाते हैं और किराये कई गुना बढ़ा देते हैं। हालांकि नाविक बैटरी से अपनी नावों को रंगीन झालरों से सजाकर माहौल को और आकर्षक बनाते है। शायद यही वजह है कि नाविक किराया ज्यादा लेते है। दशाश्वमेध एवं राजेन्द्र प्रसाद घाट पर दीपदान एवं गंगा आरती के दौरान तो काफी संख्या में श्रद्धालु मौजूद रहते है। दशाश्वमेध घाट के अतिरिक्त काशी अर्धचंद्राकार रूप में विस्तृत प्रायः सभी घाटों पर दीप प्रज्जवलित किए जाते है। इस अवसर पर दीपों के माध्यम से पुरखों और पितरों को भी श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है। पं रामदुलार उपाध्याय का कहना है कि शरद ऋतु को भगवान श्रीकृष्ण की महा रासलीला का काल माना गया है। श्री मदभागवत् गीता के अनुसार शरद पूर्णिमा की चांदनी में श्रीकृष्ण का महारास सम्पन्न हुआ था। कार्तिक पूर्णिमा के दिन ही काशी के गंगा घाटों पर लाखों लोग स्नान कर पुण्य लाभ कमाते हैं एवं गंगा में दीपदान कर सुख समृद्धि की कामना करते है।
काशी के प्रमुखघाट
छह मील की परिधि में फैले काशी के अस्सी घाट से लेकर वरुणा घाट तक के 84 घाट प्रेक्षागृह की तरह शोभायमान होते हैं। प्रातःकाल, सुनहरी धूप में चमकते गंगा तट के मंदिर, मंत्रोच्चार और गायत्री जाप करते ब्राह्मणों और पूजा-पाठ में लीन महिलाओं के स्नान-ध्यान के क्रम के साथ ही दिन चढ़ता जाता है। पुष्प और पूजन सामग्रियों से सजे गंगा तट तथा पानी में तैरते फूलों की शोभा मनमोहक होती है। कई घाट तो ऐसे है जो मराठा साम्राज्य के अधीनस्थकाल में बनवाये गए थे। वर्तमान वाराणसी के संरक्षकों में मराठा, शिंदे (सिंधिया), होल्कर, भोंसले और पेशवा परिवार रहे हैं। अधिकतर घाट स्नान-घाट हैं, कुछ घाट अन्त्येष्टि घाट हैं। कई घाट किसी कथा आदि से जुड़े हुए हैं, जैसे मणिकर्णिका घाट, जबकि कुछ घाट निजी स्वामित्व के भी हैं। पूर्व काशी नरेश का शिवाला घाट और काली घाट निजी संपदा हैं। इन घाटों में प्रमुख रुप से अस्सी घाट, गंगामहल घाट, रीवां घाट, तुलसी घाट, भदैनी घाट, जानकी घाट, माता आनंदमयी घाट, जैन घाट, पंचकोट घाट, प्रभु घाट, चेतसिंह घाट, अखाड़ा घाट, निरंजनी घाट, निर्वाणी घाट, शिवाला घाट, गुलरिया घाट, दण्डी घाट, हनुमान घाट, प्राचीन हनुमान घाट, मैसूर घाट, हरिश्चंद्र घाट, लाली घाट, विजयानरम् घाट, केदार घाट, चैकी घाट, क्षेमेश्वर घाट, मानसरोवर घाट, नारद घाट, राजा घाट, गंगा महल घाट, पाण्डेय घाट, दिगपतिया घाट, चैसट्टी घाट, राणा महल घाट, दरभंगा घाट, मुंशी घाट, अहिल्याबाई घाट, शीतला घाट, प्रयाग घाट, दशाश्वमेघ घाट, राजेन्द्र प्रसाद घाट, मानमंदिर घाट, त्रिपुरा भैरवी घाट, मीरघाट घाट, ललिता घाट, मणिकर्णिका घाट, सिंधिया घाट, संकठा घाट, गंगामहल घाट, भोंसलो घाट, गणेश घाट, रामघाट घाट, जटार घाट, ग्वालियर घाट, बालाजी घाट, पंचगंगा घाट, दुर्गा घाट, ब्रह्मा घाट, बूँदी परकोटा घाट, शीतला घाट, लाल घाट, गाय घाट, बद्री नारायण घाट, त्रिलोचन घाट, नंदेश्वर घाट, तेलिया-नाला घाट, नया घाट, प्रह्मलाद घाट, रानी घाट, भैंसासुर घाट, राजघाट, आदिकेशव या वरुणा संगम घाट प्रमुख है।
दशाश्वमेध घाट पर गंगाजी की होती है अद्भूत आरती
दशाश्वमेध घाट काशी विश्वनाथ मंदिर के निकट ही स्थित है। कहा जाता है कि ब्रह्मा जी ने इसका निर्माण भगवान भोलेनाथ के स्वागत में किया था। ब्रह्माजी ने यहां दस अश्वमेध यज्ञ किये थे। प्रत्येक संध्या पुजारियों का एक समूह यहां अग्नि-पूजा करता है, जिसमें भगवान शिव, गंगा नदी, सूर्यदेव, अग्निदेव एवं संपूर्ण ब्रह्मांड को आहुतियां समर्पित की जाती हैं। यहां देवी गंगा की भी भव्य आरती की जाती है। गंगा आरती के दर्शन देशी-विदेशी सैलानियों के पर्यटन स्थलों की सूची में शामिल हैं। प्रतिदिन सूर्यास्त के पश्चात गोधुलि बेला में काशी के अधिकतर घाटों पर ‘गंगा आरती’ का आयोजन होता है, परन्तु दशाश्वमेघ घाट पर होने वाली गंगा आरती अद्भुत है। रोजाना बड़ी संख्या में श्रद्धालु ऐतिहासिक दशाश्वमेध घाट पर गंगा आरती के दर्शन के लिए जुटने शुरू हो जाते हैं। गंगा आरती की अद्भुत छटा को देखकर श्रद्धालु भावविभोर हो उठते हैं और विदेशी पर्यटक इस दृश्य को पूरी तन्मयता से अपने कैमरों में कैद करने में जुटे रहते हैं। इस आरती के नजारों को पर्यटक बड़े चाव से देखते हैं एवं आस्था में डूब जाते हैं। गंगा आरती करने वाले ब्राह्मणों की एक-एक गतिविधि देखकर लोग आश्चर्य में पड़ जाते हैं। गंगा आरती के दौरान अगरबत्ती से आरती करने का तरीका, चंवर डुलाने का अंदाज एवं शंखध्वनि श्रद्धालुओं का ध्यान अपनी तरफ खींचती है। यह आराधना पूरे विश्व में ‘गगा आरती’ के रूप में विख्यात है। आरती के लिये घाट की सिढि़यों पर विशेष तौर से चबूतरो का निर्माण कराया गया है। चबूतरों पर पाँच-सात-ग्याहर की संख्या में प्रशिक्षित पण्डों द्वारा घण्टा-घडि़याल एवं शंखों के ध्वनि के साथ गंगा की आरती एक साथ सम्पन्न की जाती है। इन पण्डों की समयबद्धता इतनी सटीक होती है कि झाल आरती पात्र (हर पात्र में 108 दीप होते हैं), से आरती, पुष्प वर्षा एवं अन्य क्रिया एक समय में एक साथ होता है। दर्शक घाट की सिढि़यों एवं नौकाओं से इस आराधना का साक्षी बनने के लिये उत्सुक रहते हैं। आरती के समय दर्शक भाव विभोर होकर माँ गंगा की वन्दना की धारा में प्रवाहमान होते हैं।
मणिकर्णिका घाट
कहा जाता है कि भगवान विष्णु ने शिव की तपस्या करते हुए अपने सुदर्शन चक्र से यहां एक कुण्ड खोदा था। उसमें तपस्या के समय आया हुआ उनका स्वेद भर गया। जब शिव वहां प्रसन्न हो कर आये तब विष्णु के कान की मणिकर्णिका उस कुंड में गिर गई थी। कहा यह भी जाता है कि भगवाण शिव को अपने भक्तों से छुट्टी ही नहीं मिल पाती थी। देवी पार्वती इससे परेशान हुईं, और शिवजी को रोके रखने हेतु अपने कान की मणिकर्णिका वहीं छुपा दी और शिवजी से उसे ढूंढने को कहा। शिवजी उसे ढूंढ नहीं पाये और आज तक जिसकी भी अन्त्येष्टि उस घाट पर की जाती है, वे उससे पूछते हैं कि क्या उसने देखी है? प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार मणिकर्णिका घाट का स्वामी वही था, जिसने सत्यवादी राजा हरिशचंद्र को खरीदा था। उसने राजा को अपना दास बना कर उस घाट पर अन्त्येष्टि करने आने वाले लोगों से कर वसूलने का काम दे दिया था। इस घाट की विशेषता ये है, कि यहां लगातार हिन्दू अन्त्येष्टि होती रहती हैं व घाट पर चिता की अग्नि लगातार जलती ही रहती है, कभी भी बुझने नहीं पाती।
सिंधिया घाट
सिंधिया घाट, जिसे शिन्दे घाट भी कहते हैं, मणिकर्णिका घाट के उत्तरी ओर लगा हुआ है। यह घाट काशी के बड़े तथा सुंदर घाटों में से एक है। इस घाट का निर्माण 150 साल पूर्व 1830 में ग्वालियर की महारानी बैजाबाई सिंधिया ने कराया थी। इससे लगा हुआ शिव मंदिर आंशिक रूप से नदी के जल में डूबा हुआ है। इस घाट के ऊपर काशी के अनेकों प्रभावशाली लोगों द्वारा बनवाये गए मंदिर स्थित हैं। ये संकरी घुमावदार गलियों में सिद्ध-क्षेत्र में स्थित हैं। मान्यतानुसार अग्निदेव का जन्म यहीं हुआ था। यहां हिन्दू लोग वीर्येश्वर की अर्चना करते हैं और पुत्र कामना करते हैं। 1948 में इसका जीर्णोद्धार हुआ। यहीं पर आत्माविरेश्वर तथा दत्तात्रेय के प्रसिद्ध मंदिर हैं। संकठा घाट पर बड़ौदा के राजा का महल है। इसका निर्माण महानाबाई ने कराया थी। यहीं संकठा देवी का प्रसिद्ध मंदिर है। घाट के अगल- बगल के क्षेत्र को देवलोक कहते हैं।
मान मंदिर घाट
जयपुर के महाराजा जयसिंह द्वितीय ने ये घाट 1770 में बनवाया था। इसमें नक्काशी से अलंकृत झरोखे बने हैं। इसके साथ ही उन्होंने वाराणसी में यंत्र मंत्र वेधशाला भी बनवायी थी जो दिल्ली, जयपुर, उज्जैन, मथुरा के संग पांचवीं खगोलशास्त्रीय वेधशाला है। इस घाट के उत्तरी ओर एक सुंदर बारजा है, जो सोमेश्वर लिंग को अर्घ्य देने के लिये बनवाया गई थी।
ललिता घाट
स्वर्गीय नेपाल नरेश ने ये घाट वाराणसी में उत्तरी ओर बनवाया था। यहीं उन्होंने एक नेपाली काठमांडु शैली का पगोडा आकार गंगा-केशव मंदिर भी बनवाया था, जिसमें भगवान विष्णु प्रतिष्ठित हैं। इस मंदिर में पशुपतेश्वर महादेव की भी एक छवि लगी है।
अस्सी घाट
अस्सी घाट अस्सी नदी के संगम के निकट स्थित है। कहा जाता है कि इसी घाट पर रामचरित मानस के रचयिता तुलसीदास जी ने रामचरित मानस के कुछ अंश यही लिखी थी और घाट पर ही एक कुटिया बनाकर रहते थे, जो आज भी मौजूद है। इस घाट पर स्थानीय उत्सव एवं क्रीड़ाओं के आयोजन होते रहते हैं। ये घाटों की कतार में अंतिम घाट है। ये चित्रकारों और छायाचित्रकारों का भी प्रिय स्थल है। यहीं स्वामी प्रणवानंद, भारत सेवाश्रम संघ के प्रवर्तक ने सिद्धि पायी थी। उन्होंने यहीं अपने गोरखनाथ के गुरु गंभीरानंद के गुरुत्व में भगवान शिव की तपस्या की थी। आंबेर के मान सिंह ने मानसरोवर घाट का निर्माण करवाया था। दरभंगा के महाराजा ने दरभंगा घाट बनवाया था। बचरज घाट पर तीन जैन मंदिर बने हैं, और ये जैन मतावलंबियों का प्रिय घाट रहा है। 1795 में नागपुर के भोसला परिवार ने भोसला घाट बनवाया। घाट के ऊपर लक्ष्मी नारायण का दर्शनीय मंदिर है। राजघाट का निर्माण लगभग दो सौ वर्ष पूर्व जयपुर महाराज ने कराया।
सूर्य की पहली किरण पड़ती है काशी के घाटों पर
मान्यता है कि जब पृथ्वी का निर्माण हुआ तो प्रकाश की प्रथम किरण काशी की धरती पर पड़ी। तभी से काशी ज्ञान तथा आध्यात्म का केंद्र माना जाता है। धर्म आध्यात्म और मोक्ष की नगरी काशी गंगा के तट पर बसी है। भारत में बहुत से पवित्र तीर्थ स्थल गंगा नदी के किनारे पर बसे हैं। जिनमें वाराणसी और हरिद्वार सबसे प्रमुख हैं। गंगा हमारी सांस्कृतिक माता है तथा हमारी पवित्रता, मुक्ति एवं सांस्कृतिक प्रवाह की निरंतरता की प्रतीक है। वैसे भी तीर्थ के रुप में वाराणसी का नाम सबसे पहले महाभारत में मिलता है। महाभारत में कहा गया है कि जिस प्रकार शरीर के कुछ अवयव पवित्र माने जाते हैं। उसी प्रकार पृथ्वी के कतिपय स्थान पुण्य प्रद तथा पवित्र होते हैं। इनमें से कोई तो स्थान की विचित्रता के कारण कोई जन्म के प्रभाव और कोई ऋषियों-मुनियों के सम्पर्क से पवित्र हो गया है। मान्यता यह भी है कि काशी नगरी देवादिदेव महादेव के त्रिशूल पर बसी है। पुराणों मे स्पष्ट है कि काशी क्षेत्र में पग-पग पर तीर्थ है। यहां एक तिल भी स्थान ऐसा नहीं है, जहां महादेव जी का लिंग न हो। काशी में भोलेनाथ के चमत्कारों की अनेक कहानियां प्रचलित हैं। भगवान शिव के विराट और बेहद दुर्लभ रूप के दर्शनों के सौभाग्य के साथ-साथ गंगा में स्नान करने से सभी पापों का क्षय होता है। महादेव के 12 ज्योतिर्लिंगों में काशी विश्वनाथ नौवां ज्योतिर्लिंग है। माना जाता है कि जो श्रद्धालु विश्वनाथ के दर्शन करता है उसे जन्म-जन्मांतर के चक्रों से मुक्ति मिलती है और उसके लिए मोक्ष के द्वार खुल जाते हैं। ग्रह दशा के कारण परेशानीयां आ रही हों या ग्रहों की चाल ने जीना दूभर कर दिया हो तो यहां आकर दर्शन करने के उपरांत रुद्राभिषेक करा दिया जाए तो भक्तों को ग्रह बाधा से मुक्ति मिल जाती है। बूढ़े, औरतें और बच्चे सूर्य निकलने से पहले ही गंगा के किनारे पहुंच जाते हैं। सूर्य की पहली किरण निकलते ही ये लोग गंगा में डुबकी लगाते हैं। प्रातः निकलते सूर्य को देखना एक उत्तम दृश्य होता है। हजारों तीर्थ यात्रियों, श्रद्धालुओं, सैलानियांे, विदेशियों को एक साथ नहाते हुए देखना एक भव्य दृश्य उपस्थित करता है। बच्चे, बूढ़े, अमीर, गरीब, जवान लोग, मर्द, औरतें, अपने सामाजिक स्तर को भुला कर, अपने कपड़े अलग रख कर, नहाते हुए एक दूसरे पर पानी उछालते हुए, हाथ जोड़ कर सूर्य को नमस्कार करते हुए, देखते बनता है, मानो सारा विश्व उमड़ पड़ा है। खास बात यह है कि सूर्य की पहली किरण को देखने के लिए घाटों पर सुबह से लोगों की कतारें लग जाती है। शायद इसीलिए पूरे भारत में सुबह-ए-बनारस का भी अलग महिमा और सुबह-ए-बनारस का नजारा देखने विदेशी शैलानी भी जुटते है।
सुरेश गांधी
वाराणसी