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भारत और कनाडा आपसी निवेश और व्यापार बढ़ाने पर सहमत

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नयी दिल्ली 13 नवंबर, भारत और कनाडा ने आपसी भागीदारी मजबूत करने, व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौते की वार्ता में तेजी लाने और वस्तु एवं सेवा के व्यापार को संतुलित बनाने पर सहमति व्यक्त करते हुए आज कहा कि दोनों पक्षों को आपसी संबंधों को सुदृढ़ बनाने की व्यापक संभावनाओं पर जोर देना चाहिए। केंद्रीय वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय ने आज यहां बताया कि भारत और कनाडा की वार्षिक मंत्रिस्तरीय निवेश व्यापार बैठक में दोनों पक्षों ने स्वीकार किया कि दोनों देशों के बीच आपसी व्यापार संभावनाओं से कम है जबकि दाेनों पक्षों के बीच निवेश और व्यापार की व्यापक संभावनाएं हैं। बैठक में कनाडाई उच्च स्तरीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व कनाडा के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मंत्री फ्रांकोईश फिलिप शैंपेन ने किया और भारतीय पक्ष की अगुवाई वाणिज्य एवं उद्याेग मंत्री सुरेश प्रभु ने की। वार्ता के दौरान दोनों देशों के बीच आपसी व्यापार में तेजी लाने के तौर तरीकों पर चर्चा हुई। इसके अलावा व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौते की बातचीत को तेजी से पूरा करने, वस्तु एवं सेवा के व्यापार को संतुलित बनाने , व्यापार की नयी संभावनाएं तलाशने और विदेशी निवेश प्रोत्साहन एवं संरक्षण समझौते पर विचार विमर्श किया गया। चर्चा के दौरान कनाडा के अस्थायी विदेशी श्रमिक कार्यक्रम में भारतीय हितों की रक्षा की संभावनाओं पर भी बातचीत की गयी। बैठक के दौरान कनाडा ने भारत की जरुरत के अनुरुप दलहन की खेती की पेशकश की और इसके अनुरूप नीति बनाने का अनुरोध किया। दोनों देशों के आपसी संबंध बहुत पुराने हैं। कनाडा में 12 लाख से अधिक भारतीय मूल के लोग रहते हैं। कुल आबादी में इनकी हिस्सेदारी तीन प्रतिशत है। दोनों देशों का मानना है कि दोनों पक्षों के बीच आपसी व्यापार की व्यापक संभावनाएं है जिनका इस्तेमाल किया जाना चाहिए। 


अंततः रसोगुल्ला बंगाल का हुआ

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विजय सिंह ,आर्यावर्त डेस्क,15 नवंबर, 2017 । दो साल तक पश्चिम बंगाल और उड़ीसा के बीच चले रसगुल्ला की दावेदारी पर अंततः पश्चिम बंगाल की जीत हुयी और रसगुल्ला का भौगोलिक उद्भव  (ज्योग्राफिकल इंडिकेशन ) पश्चिम बंगाल के नाम हो गया. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री मंमता बनर्जी ने इसे बंगाल के लिए मीठी खबर बताया.दरअसल २०१५ में उड़ीसा ने रसगुल्ला का गई ज्योग्राफिकल इंडिकेशन टैग हासिल करने के लिए अपनी दावेदारी पेश की थी जिस पर बंगाल ने आपत्ति जताई थी.बंगाल ने अपने दावे में रसगुल्ला(रसोगुल्ला ) को बंगाल की उत्पत्ति बताते हुए पक्ष में सबूत पेश किये जिसके बाद जी.आई टैग बंगाल के नाम कर दिया गया.उड़ीसा की दावेदारी को जी.आई ने मजबूत नहीं माना. पश्चिम बंगाल ने अपने तर्क में बताया कि  १८६८ में कोलकाता में पहली बार नविन चंद्र दास नामक मिठाई बनाने वाले ने रसोगुल्ला बनाया था जिसे जी.आई ने सही पाया और बंगाल को रसगुल्ला का टैग प्रदान किया.उड़ीसा ने अपने दावे में १३वीं सदी में पहली बार जगन्नाथ पुरी  में रसगुल्ला के प्रयोग की बात कही थी जो असल में खीर मोहन पाया गया. इस निर्णय से जहाँ जगन्नाथ पुरी ,उड़ीसा से बीजू जनता दाल के विधायक महेश्वर मोहंती ने रसगुल्ला टैग प्राप्त करने की लड़ाई  जारी रखने की बात कही वहीँ पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री मंमता बनर्जी ने रसोगुल्ला को बंगाल का अन्तर्राष्ट्रीय फ़ूड ब्रांड बनाने की बात कही.

आलेख : फारुक अब्दुल्ला और पाक परस्ती बयान

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जम्मू कश्मीर के बारे में अभी तक वास्तविकता से अनभिज्ञ रहे देशवासी अब यह जानने लगे हैं कि कश्मीर के समस्या के मूल कारण क्या थे। अब यह भी कहा जाने लगा है कि राजनीतिक स्वार्थ के चलते ही जम्मू कश्मीर में समस्याएं प्रभावी होती गर्इं। भारत की जनता यह कतई नहीं चाहती थी, लेकिन पाकिस्तान परस्त मानसिकता के चलते जो लोग पाकिस्तान की भाषा बोलते दिखाई दिए, उन्हें प्रसन्न रखने की राजनीतिक प्रयास किए गए। हम जानते हैं कि कश्मीर पर इसी राजनीति ने अलगाव की आग में झोंकने का काम किया है। पहले जिस काम को राजनीतिक संरक्षण में अलगाववादी नेताओं द्वारा किया जाता था, आज उसी काम को हमारे कुछ राजनेता आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं। फारुक अब्दुल्ला का नाम इसी कड़ी का एक उदाहरण बनकर सामने आया है।

जम्मू कश्मीर में विवादित नेता के रुप में पहचान बनाने की ओर अग्रसर होने वाले पूर्व मुख्यमंत्री फारुक अब्दुल्ला कमोवेश आज भी उसी राह पर चलते दिखाई दे रहे हैं, जो उनको अभी तक विवादों के घेरे में लाती रही है। पाकिस्तान और अलगाववादी नेताओं के सुर में सुर मिलाने की प्रतिस्पर्धा करने वाले फारुक अब्दुल्ला वास्तव में कश्मीर की जनता को गुमराह करने के काम कर रहे हैं। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के मामले में अभी हाल ही में दिए गए उनके बयान के कारण सामाजिक प्रचार तंत्र पर उनकी जमकर खबर ली गई। सोशल मीडिया पर भले ही निरंकुशता का प्रवाह हो, लेकिन देश भक्ति के मामले में सोशल मीडिया आज सजग भूमिका का निर्वाह कर रहा है। इतना ही नहीं कई बार सोशल मीडिया के माध्यम से जनता को जगाने का काम भी किया गया है। इसी जागरण के चलते आज फारुक अब्दुल्ला देश के लिए आलोचना का पात्र बनते दिखाई दे रहे हैं। अब बिहार के एक देशभक्त अधिवक्ता ने इनके देशद्रोही बयान को लेकर बेतिया के न्यायालय में एक याचिका दायर की है, जिस पर न्यायालय ने फारुक अब्दुल्ला पर देशद्रोह के तहत प्राथमिकी दर्ज करने का आदेश दिया है। यह मामला सही तरीके से चला तो स्वाभाविक है कि फारुक अब्दुल्ला के सामने बहुत बड़ी मुसीबत आने वाली है। हम जानते हैं कि राष्ट्र द्रोह बहुत बड़ा अपराध है और फारुक अब्दुल्ला ने वह अपराध किया है।

हम यह भी जानते हैं कि कश्मीर में भी आज हालात बदले हुए हैं, वहां पर जहां पत्थरबाजी की घटनाएं कम हुर्इं हैं, वहीं अलगाव पैदा करने वाले नेताओं की गतिविधियां भी लगभग शून्य जैसी हो गर्इं हैं। ऐसे में फरुक अब्दुल्ला का बयान पाकिस्तान परस्त मानसिकता रखने वाले लोगों के मन को मजबूत करने का ही काम करता हुआ दिखाई दे रहा है। ऐसे में सवाल यह आता है कि जो फारुक अब्दुल्ला जम्मू कश्मीर में मुख्यमंत्री के पद का निर्वाह कर चुका है और भारत की सरकार में मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पर पर रह चुका है, वह पाकिस्तान की भाषा क्यों बोल रहा है। उसकी ऐसी कौन सी मजबूरी है कि वह अलगाव को बढ़ाने जैसे बयान दे रहा है। वर्तमान में जब आतंकी गतिविधियां बहुत ही कम होती जा रही है, फारुक का इस प्रकार का बयान देना अशोभनीय ही कहा जाएगा। आज फारुक अब्दुल्ला को अपने स्वयं के बयानों के कारण भारत की राजनीति में लगभग निवासित जीवन जीने की ओर बाध्य होना पड़ रहा है। कोई भी राजनीतिक दल उनके बयानों के समर्थन में नहीं है। देश के तमाम राजनीतिक दल उनके बयान की खुले रुप में आलोचना भी करने लगे हैं। शायद फारुक अब्दुल्ला ने भी ऐसा सोचा नहीं होगा कि उन्हें इस प्रकार से अलग थलग होना पड़ेगा। हालांकि फारुक के बारे में यह भी सच है कि वह पहले भी इस प्रकार के बयान देते रहे हैं और अलगाववादी नेताओं की सहानुभूति बटोरते रहे हैं, लेकिन यह भी सच है कि आज अलगाव जैसे बयानों को उतना समर्थन नहीं मिलता, जैसा पहले मिलता रहा है। वर्तमान में फरुक अब्दुल्ला के बारे में यह आसानी से कहा जा सकता है कि वह अवसरवाद की राजनीति करते रहे हैं और आज भी यही कर रहे हैं। उनको समझना चाहिए कि देश में अवसरवादी राजनीति के दिन समाप्त हो रहे हैं। ऐसे बयानों से उनकी राजनीति ज्यादा लम्बे समय तक नहीं चल पाएगी, इसलिए देश की जनता जो चाह रही है, फारुक को उसी रास्ते पर ही अपने कदम बढ़ाने होंगे, नहीं वह राजनीतिक दृष्टि से लगभग मृत प्राय: ही होते जाएंगे। हम यह भी जानते हैं कि आज से 40 वर्ष पहले नेशनल कांफ्रेंस ने कश्मीर की स्वायत्तता की मांग को पूरी तरह से छोड़ दिया था और फारुक अब्दुल्ला के पिता शेख अब्दुल्ला ने स्वयं को मुख्यमंत्री के रूप में बहाल किया था और आसानी से भारतीय संविधान के सभी प्रावधानों को स्वीकार कर लिया था। ऐसे में सवाल यह आता है कि जब शेख अब्दुल्ला ने स्वायत्तता की मांग को एक किनारे रख दिया था, तब फारुक ऐसी मांग को फिर से जिन्दा करके क्या हासिल करना चाहते हैं। क्या वह अपने आपको भारत से अलग समझ रहे हैं। क्योंकि भारत में रहने वाला कोई भी नागरिक कम से कम ऐसे अलगाववादी बयान तो नहीं देगा। पाकिस्तान परस्ती दिखाने के बजाय फारुक भारत परस्ती दिखाएं तो ही वह भारत समर्थक कहे जा सकते हैं। ऐसे में तो यही लगेगा कि फारुक अपने आपको पाकिस्तान का निवासी ही समझता है। वास्तव में अब वह समय आ गया है कि भारत में रहने वाले पाकिस्तान परस्त मानसिकता वाले लोगों को देश से बाहर निकाला जाए, नहीं तो ऐसे लोगा एक दिन पूरे भारत का वातावरण खराब भी कर सकते हैं।




सुरेश हिन्दुस्थानी
ग्वालियर मध्यप्रदेश
मोबाइल-9425101815, 9770015780

विशेष : कतार में जीवन ... !!

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आज कल मनः स्थिति कुछ ऐसी बन गई है कि यदि किसी को मुंह  चिंता में डूबा देखता हूं तो लगता है जरूर इसे अपने किसी खाते या दूसरी सुविधाओं को आधार कार्ड से लिंक कराने का फरमान मिला होगा। बेचारा इसी टेंशन में परेशान हैं। यह सच्चाई है कि देश में नागरिकों की औसत आयु का बड़ा हिस्सा कतार में खड़े रह कर मेज - कुर्सी लगाए बाबू तक पहुंचने में बीत जाता है।कभी राशन तो कभी केरोसिन की लाइन में खड़े रह कर अपनी बारी का इंतजार करने में। वहीं किसी को बल्लियों उछलता देखता हूं तो लगता है आज इसने जरूर अपनी तमाम सुविधाओं का आधार कार्ड से लिंक करवाने में कामयाबी हासिल कर ली है तभी इतना खुश और बेफिक्र नजर आ रहा है। क्योंकि पिछले कई दिनों से मैं खुद इस आतंक से पीड़ित हूं। अपनी पुरानी और खटारा मोबाइल को दीर्घायु बनाए रखने के लिए मैं रात में स्विच - आफ कर देता हूं। यह सोच कर कि इससे मोबाइल को भी दिन भर की माथा पच्ची से राहत मिलेगी और वह ज्यादा समय तक मेरा साथ निभा पाएगा। लेकिन सुबह उ नींदे ही मोबाइल का मुंह खोलते ही मुझे डरावने संदेश मिलने लगे हैं। अमूमन हर संदेश में आधार का आतंक स्पष्ट रहता है। फलां तारीख तक इस सुविधा का आधार से लिंक नहीं कराया बच्चू तो समझ लो... जैसे वाक्य। आधार के इस आतंक के चलते मैसेज का टोन ही अब सिहरन पैदा करने लगा है। ऐसे में किसी को बेफिक्र देख कर मन में यह ख्याल आना स्वाभाविक ही है कि यह आधार को लिंक कराने के टेंशन से जरूर मुक्त है तभी तो इतना निश्चिंत नजर आ रहा है। रोजमर्रा की जिंदगी में भी तमाम लोग यही सवाल पूछते रहते हैं कि भैया यह आधार को अमुक - अमुक सुविधा से लिंक कराने का क्या चक्कर है.. आपने करा लिया क्या। ऐसे सवालों से मुझे चिढ़ सी होने लगी है। सोचता हूं कि क्या देश में हर समस्या का एकमात्र यही हल है। हालांकि ऐसे आतंक मैं बचपन से झेलता आ रहा हूं। बचपन में अक्सर इस तरह के सरकारी फरमानों  से पाला पड़ता रहा है। मुझे कतार में खड़े होने से चिढ़ है। लेकिन तब किसी न किसी बहाने कतार में खड़े ही होना पड़ता था। कभी केरोसिन तो कभी सरसो के तेल के लिए । अभिभावकों की साफ हिदायत होती थी कि फलां चीज की विकट किल्लत है। कनस्तर लेकर जाओ और आज हर हाल में वह चीज लेकर ही आना। यही नहीं बाल बनाने के लिए भी हजामत की दुकान के सामने घंटों इंतजार करना पड़ता था, क्योंकि घर वालों का फरमान होता था कि बाल बनेगा तो बस फलां दिन को ही। यहां भी अॉड- इवन का चक्कर। विषम दिन में बाल बनवा लिए तो घर में डांट - फटकार की खुराक तैयार रहती।  कभी सुनता यह प्रमाण पत्र या कार्ड नहीं बनाया तो समझो हो गए तुम समाज से बाहर वगैरह - वगैहर...।  लेकिन दूसरी दुनिया में नजर डालने पर हैरान रह जाता हूं। एक खबर सुनी कि बुढापे में बाप बनने वाले एक अभिनेता अपने नवजात बच्चे का पहला जन्मदिन मनाने का प्लॉन तैयार कर रहे हैं। इस कार्य में उनका समूचा परिवार लिप्त है। लोगों को सरप्राइज देने के लिए बर्थ डे सेलिब्रेशन के प्लान को गुप्त रखा जा  रहा है। एक और खुशखुबरी कि यूरोप में हुए आतंकवादी हमले के दौरान हमारे बालीवुड की एक चर्चित अभिनेत्री बाल - बाल बच गई। वाकये के समय वह वहीं मौजूद थी। क्योंकि उसका एक मकान उस देश में भी है। वह इन दिनों यूरोप में छुट्टियां मना रही है। जिस समय हमला हुआ वह समुद्र से अठखेलियां कर रही थी, सो बच गई।  खुशखबरी की तस्तरियों में मुझे यह देख कर कोफ्त हुई कि जन्म दिन कुछ  प्रौढ़ अभिनेताओॆं का है लेकिन चैनलों पर महिमागान उनके बाप - दादाओं का हो रहा है। वैसे इसमें गलत भी क्या है। जरूर हमें उनका शुक्रगुजार होना चाहिए जिन्होंने इतने कीमती हीरे बॉलीवुड को दिए। वनार् पता नहीं बालीवुड और देश का क्या होता। एक के बाद फिल्मों के करोड़ी क्लबों में शामिल होने और फिल्म अभिनेताओं और खिलाड़ियों की कमाई लगातार बढ़ते जाने की खबरें भी अमूमन हर अखबार में पढ़ने तो चैनलों पर देखने को मिल ही जाती है। निश्चय ही यह वर्ग आधार के आतंक से मुक्त है, तभी इतना जबरदस्त रचनात्मक विकास कर पा रहा हैं। 



तारकेश कुमार ओझा, 
खड़गपुर ( प शिचम बंगाल) 
संपर्कः 09434453934, 9635221463

फिल्म पद्मावती को सिनेमा घर में चलने नहीं देगें- सौरभ सोनी युवासेना

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मध्यप्रदेश, संजय लीला भंसाली की  फिल्म पद्मावती को लेकर परेशानियां कम नहीं हो रहीं हैं। फिल्म का विरोध मध्यप्रदेश तक आ पहुंचा हैं।  मध्यप्रदेश के शिवसेना युवासेना के उपप्रमुख सौरभ सोनी ने कहा कि इस फिल्म को वो मध्यप्रदेश के किसी सिनेमा घर में चलने नहीं देगें।  युवासेना इस फिल्म का पूरा विरोध करेगी। सौरभ सोनी ने कहा कि फिल्म में इतिहास के साथ छेड़छाड़ की गई है । हम इस बात को बिल्कुल बर्दास्त नहीं कर सकते।  युवासेना मध्यप्रदेश के उपप्रमुख ने कहा कि संजय लीला भंसाली द्वारा बनाई जा रही फिल्म पद्मावती में रानी पद्मावती और अलाउद्दीन खिलजी से जुड़े ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश किया जा रहा है। जो हमारे देश की सभ्यता के खिलाफ है। शिवसेना इस तरह की कोई बात सहम नहीं कर सकती। जिससे हमारे देश की आस्था और संस्कृति को ठेस पहुंचाई जाए। गौरतलब हैं कि फिल्म पद्मावती का विरोध देश के हर कोने मेंं हो रहा है।

मधुबनी : आग लगने से चार मवेशी की मौत

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अंधराठाढ़ी/मधुबनी। रूद्रपुर थाना क्षेत्र स्थित हरिना गांव में आगजनी में एक परिवार के रिहायशी घर जलकर राख हो गया. इसके अलावे चार मवेसी की भी मौत जलने से हो गई। एक बकरी की झुलसने की जानकारी है. घटना रात के करिब 2 बजे की बतायी जाती है। प्राप्त जानकारी के अनुसार हरणा गांव निवासी गुलाम रसुल के घर में आग लग गयी. आग से घर में रखे समान जलकर राख हो गये। साथ ही घर में मौजूद दो गाय व दो बकरी की मौत हो गई। आग लगने के कारणों का पता नहीं चल पाया है. रात में जब सभी लोग गहरी नींद में सोये हुए थे। जब परिवार के सदस्य ने आग की लपटों को देखा तो जोड़ जोड़ से लोंगो को पुकारने लगे। आवाज सुनकर लोग आनन फानन दौड़ पड़े। तब तक मवेशी की मौत हो चुकी थी। ग्रामीणों के सहयोग से एक बकरी को जलने से बचा लिया। सुचना मिलने पर रूद्रपुर पुलिस के पदाधिकारी, प्रमुख सुभेश्वर यादव, मुखिया राजाराम यादव घटना स्थल पर परिजनों को सांत्वना दी है. साथ ही मुआवजा दिलाने की भी बात कही है. 

मधुबनी : बाइक समेत 300 एम एल की 150 बोतल शराब बरामद .तस्कर फरार

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अंधराठाढ़ी/मधुबनी. मंगलवार की अहले सुबह स्थानीय थाना पुलिस ने एक बाइक समेत भारी मात्र में नेपाली शराव बरामद किया . अंधराठाढ़ी थाना के सहायक अबर निरीक्षक राजेश कुमार सिंह सिपाही अजय कुमार बिनु कुमार और रुपेश कुमार को लेकर सोमवार की रात गस्ती में शिवा गाँव गये थे . करीब 4 बजे सुबह में गस्ती से लौटने के क्रम में धकजरी तीन मुहानी के पास गस्ती की जिप वहां पहुची . इसी बीच उत्तर की ओर से आरही मोटर साईकिल सवार ने पुलिस जिप देख कर गाड़ी छोड़ कर भागने लगा . पुलिस को संदेह हुयी और उसे खदेरने लगी . परन्तु शराव तस्कर ने अँधेरा का लाभ उठाते हुए कही जा छिपा . बाइक पर बंधे कार्टून व झोले में 300 एम एल की 150 बोतल नेपाली शराव बरामद किया गया .स्थानीय लोगो के समक्ष हीरो हौंडा डीलक्स बाइक एचआर 5719 एवं बरामद शराव को जब्त किया गया . अज्ञात लोगो के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गयी .थाना पुलिस छान बिन में जुट गयी है .

बिहार : आधारभूत संरचनाआंे के अभाव के कारण होता है पीएमसीएच में हंगामा.

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स्वाथ्य सेवाओं के प्रति बिहार सरकार संवेदनहीन.

वैशाली में जहरीली शराब से हुई मौत निंदनीय, सरकार जवाब दे शराब की बिक्री कैसे हो रही है?

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पटना 16 नवम्बर 2017, भाकपा-माले राज्य सचिव कुणाल ने पीएमसीएच में एक मरीज की मौत के बाद हुए हंगामे को भाजपा द्वारा विपक्ष की साजिश बताने के बयान की कड़ी निंदा की है. उन्होंने कहा कि दरअसल पीएमसीएच व अन्य अस्पतालों में इस प्रकार की अप्रिय स्थिति बारबार उत्पन्न हो रही है, इसके पीछे मुख्य वजह स्वास्थ्य सेवाओं व आधारभूत संरचनाओं के प्रति सरकार की घोर लापरवाही है. पीएमसीएच में डाॅक्टरों व अन्य साधनों की बेहद कमी है. जूनियर डाॅक्टरों पर बेहद दबाव होता है. जिसकी वजह से आए दिन मरीजों व जूनियर डाॅक्टरों के बीच अप्रिय स्थिति उत्पन्न होते रहती है. ऐसी स्थिति से तभी निपटा जा सकता है जब सरकार स्वास्थ्य सेवाओं पर गंभीरतापूर्वक विचार करते हुए आधारभूत संरचनाओं सहित सभी प्रकार की जरूरी आवश्यकताओं की पूर्ति करे.

उन्होंने यह भी कहा कि भाजपा नेता बिहार की जनता के प्रति घोर संवेदनहीन हैं. कुछ दिन पहले केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री अश्विनी चैबे ने बिहार की जनता के बारे में निंदनीय वक्तव्य दिया था, जिसमें उन्होंने कहा था कि मामूली बीमारी में भी यहां के लोग एम्स चले जाते हैं. उन्होंने एम्स के डाॅक्टरों से यहां तक कहा कि बिहारियों को बिना इलाज कराये वे वापस भेज दें. इससे जाहिर होता है कि स्वास्थ्य आदि मसलों कलेकर भाजपा नेता घोर संवेदनहीन है. माले राज्य सचिव ने वैशाली में जहरीली शराब से हुई तीन लोगों की मौत पर गहरा रोष जाहिर किया है. उन्होंने कहा कि शराबबंदी के बावजूद पूरे बिहार में लगातार जहरीली शराब से लगातार मौत हो रही है, लेकिन बिहार सरकार शराबबंदी पर अपनी पीठ थपथपा रही है. आखिर शराबबंदी के बावजूद शराब कैसे बिक रही है, इसका जबाव नीतीश सरकार को देना चाहिए. उन्होंने कहा कि पूरे बिहार में शराब का अवैध कारोबार चल रहा है और सरकार बैठकर तमाशा देख रही है. यहां तक कि शराब माफियाओं को संरक्षण दे रही है.

बिहार : छात्र-युवा अधिकार यात्रा पटना पहुंची, कल पटना काॅलेज में होगी सभा

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जेएनयूएसयू छात्र संघ की अध्यक्ष गीता कुमारी सहित संबोधित करेंगे अन्य छात्र-युवा नेता

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पटना 16 नवम्बर 2017 , आइसा-इनौस द्वारा देश के स्तर पर ‘नफरत नहीं अधिकार चाहिए, शिक्षा व रोजगार चाहिए’ नारे के साथ निकली छात्र-युवा अधिकार यात्रा आज बेगूसराय होते हुए पटना पहंुच गयी है. विदित है कि छात्र-युवाओं के सवाल को लेकर 7 नवम्बर को चंडीगढ़ से यह यात्रा निकली है, जो देश के विभिन्न हिस्सों से गुजरते हुए पटना पहंुच रही है. इंकलाबी नौजवान सभा के बिहार राज्य सचिव नवीन कुमार तथा आइसा के बिहार राज्य अध्यक्ष मोख्तार ने कहा कि इस यात्रा का नेतृत्व जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ की वर्तमान अध्यक्ष गीता कुमारी, आइसा के महासचिव संदीप सौरभ, इनौस की नेता नवकिरण, आइसा के नीरज कुमार आदि कर रहे हैं. इन नेताओं के अलावा बिहार के इनौस राज्य अध्यक्ष मनोज मंजिल, आइसा के बिहार राज्य सचिव शिवप्रकाश रंजन, भाकपा-माले के पोलित ब्यूरो सदस्य धीरेन्द्र झा सहित कई शिक्षक भी छात्र-युवा अधिकार सभा को संबोधित करेंगे. पटना काॅलेज के परिसर में 12 बजे से सभा आरंभ हो जाएगी. इस अवसर पर पटना काॅलेज व आसपास के इलाकों को तख्तियों व झंडों से सजाया गया है.

आइसा-इनौस नेताओं ने कहा कि छात्र-युवाओं के साथ दिल्ली-पटना का विश्वासघात लगातार जारी है. सालाना दो करोड़ रोजगार और ‘अच्छे दिनों’ के वादे के साथ मोदी सरकार सत्ता में आई थी. उसने 3 साल से अधिक का कार्यकाल पूरा भी कर लिया है. लेकिन रोजगार देने की बजाए उसने उलटे रोजगार कटौती का रिकार्ड कायम कर दिया है और शिक्षा पर भी चैतरफा हमला बोल दिया है. ‘देशभक्ति’ पर अपनी छाती ठोकने वाली केंद्र सरकार अपने ही देश के छात्रा-युवाओं को तबाह करने पर तुली हुई है. सरकार चाहती है कि हमारे युवा बेरोजगारों की फौज में तब्दील हो जाएं ताकि ग्लोबल कैपिटल और काॅरपोरेट घरानों के लिए सस्ते मजदूर मिल सकें. इसलिए वह एक तरफ शिक्षा-रोजगार के अधिकारों पर हमला कर रही है, तो दूसरी ओर समाज में सांप्रदायिक जहर और नफरत की राजनीति भी शुरू कर चुकी है. शिक्षा-रोजगार छीनकर ‘गोरक्षा’, ‘राममंदिर’, ‘हिंदू राष्ट्र’, ‘लव जिहाद’, ‘ताजमहल तोड़ो’, ‘माॅब लिंचिंग’ जैसे अभियानों द्वारा युवाओं के हाथ में त्रिशुल थमा देने की साजिश रच रही है. इन्हीं परिस्थितियों में आइसा-इनौस ने ‘नफरत नहीं रोजगार चाहिए, शिक्षा और रोजगार चाहिए’ के नारे के तहत  छात्र-युवा अधिकार यात्रा निकालने का फैसला किया है.

नीतीश जी ने कभी सम्मानजनक रोजगार और बेरोजगारी भत्ता का वादा किया था, लेकिन वो अपने वादे से मुकर गये हैं. ‘स्टूडेंट क्रेडिट कार्ड’ व ‘सहायता भत्ता’ की घोषणा सिर्फ घोषणा रह गयी. छात्रवृत्ति में भी जबरदस्त कटौती की गयी, जिसके कारण छात्रों की इंजिनीयरिंग, मेडिकल की पढ़ाई बीच में ही रूक गयी. मेधा, बीएसएससी, इंटर आदि घोटाले, 6 लाख से अधिक पद-रिक्तियों के बावजूद ठेके पर नौकरियां और शोषण जारी है.‘समान काम के लिए समान वेतन’ की अवज्ञा लगातार जारी है और स्थायी नौकरी के वादे से सरकार मुकर रही है. ये सारे मुद्दे छात्र-युवा अधिकार सभा के मुद्दे होंगे.

विशेष : सरकार की प्रथम जबाबदेही जनता के प्रति है लोकसेवकों के प्रति नहीं

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सरकार की प्रथम  जबाबदेही जनता के प्रति है लोकसेवकों के प्रति नहीं

वैसे तो भारत एक लोकतांत्रिक देश है। अगर परिभाषा की बात की जाए तो यहाँ जनता के द्वारा जनता के लिए और जनता का ही शासन है लेकिन राजस्थान सरकार के एक ताजा अध्यादेश ने लोकतंत्र की इस परिभाषा की धज्जियां उड़ाने की एक असफल कोशिश की। हालांकी जिस प्रकार विधानसभा में बहुमत होने के बावजूद वसुन्धरा सरकार इस अध्यादेश को कानून बनाने में कामयाब नहीं हो सकी, दर्शाता है कि भारत में लोकतंत्र की जड़ें वाकई में बहुत गहरी हैं जो कि एक शुभ संकेत है ।लोकतंत्र की इस जीत के लिए न सिर्फ विपक्ष की भूमिका प्रशंसनीय है जिसने सदन में अपेक्षा के अनुरूप काम किया बल्कि हर वो शख्स हर वो संस्था भी बधाई की पात्र है जिसने इसके विरोध में आवाज उठाई और लोकतंत्र के जागरूक प्रहरी का काम किया।

राजस्थान सरकार के इस अध्यादेश के द्रारा यह सुनिश्चित किया गया था कि बिना सरकार की अनुमति के किसी भी लोकसेवक के विरुद्ध मुकदमा दायर नहीं किया जा सकेगा साथ ही मीडिया में भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना करने वाले सरकारी कर्मचारियों के नामों का खुलासा करना भी एक दण्डनीय अपराध माना जाएगा। जहाँ अब तक गजेटेड अफसर को ही लोक सेवक माना गया था अब सरकार की ओर से लोक सेवा के दायरे में पंच सरपंच से लेकर विधायक तक को शामिल कर लिया गया है। इस तरह के आदेश से जहाँ एक तरफ सरकार की ओर से लोक सेवकों (चाहे वो ईमानदार हों या भ्रष्ट ) को अभयदान देकर उनके मनोबल को ऊँचा करने का प्रयास किया गया वहीं दूसरी तरफ देश के आम आदमी के मूलभूत अधिकारों और प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने का भी प्रयत्न किया गया।

भाजपा की एक सरकार द्वारा इस प्रकार के फैसले न सिर्फ विपक्ष को एक ठोस मुद्दा उपलब्ध करा दिया है बल्कि देश की जनता के सामने भी  वो स्वयं ही कठघड़े में खड़ी हो गई है। आखिर लोकतंत्र में लोकहित को ताक पर रखकर लोकसेवकों के हितों की रक्षा करने वाले ऐसे कानून का क्या औचित्य है। इस तुगलगी फरमान के बाद राहुल गाँधी ने ट्वीट किया कि हम 2017 में जी रहे हैं 1817 में नहीं। आखिर एक आदमी जब सरकारी दफ्तरों और पुलिस थानों से परेशान हो जाता है तो उसे न्यायालय से ही इंसाफ की एकमात्र आस रहती है लेकिन इस तरह के तानाशाही कानून से तो उसकी यह उम्मीद भी धूमिल हो जाती।

इससे भी अधिक खेदजनक विषय यह रहा कि जिस पार्टी  की एक राज्य सरकार ने इस प्रकार के अध्यादेश को लागू करने की कोशिश की उस पार्टी की केन्द्रीय सरकार द्वारा इस प्रकार के विधेयक का विरोध करने के बजाय उसका बचाव किया। केंद्र सरकार की ओर से केन्द्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद और उनके राज्य मंत्री पी पी चौधरी का कहना था कि इस विधेयक का उद्देश्य ईमानदार अधिकारियों का बचाव, नीतिगत निष्क्रियता से बचना और दुर्भावनापूर्ण शिकायतों पर रोक लगाना है। इन शिकायतों की वजह से अधिकारी कर्तव्यों के निर्वहन में परेशानी महसूस कर रहे थे। राजस्थान सरकार द्वारा एक अध्ययन की ओर से बताया गया कि लोकसेवकों के विरुद्ध दायर मामलों में से 73% से अधिक झूठे प्रकरणों के होते हैं। जब देश के प्रधानमंत्री अपने हर भाषण में भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टालरेन्स की बात करते हों, प्रेस की आजादी के सम्मान की बातें करते हों, देश में पारदर्शिता के पक्षधर हों, जवाबदेही के हिमायती हों, और अपनी सरकार को आम आदमी की सरकार कहते हों, तो उन्हीं की सरकार द्वारा ऐसे बेतुके अध्यादेश का समर्थन करना देश के जहन में अपने आप में काफी सवाल खड़े करता है।

सत्ता तो शुरू से ही ताकतवर के हाथों का खिलौना रही है शायद इसीलिए आम आदमी को कभी भी सत्ता से नहीं बल्कि  न्यायपालिका से न्याय की आस अवश्य रही है। लेकिन जब न्यायपालिका के ही हाथ बाँध दिए जाएं तो? अगर सरकार की नीयत साफ है और वो ईमानदार अफसरों को बचाना चाहती है तो क्यों नहीं वो ऐसा कानून लाती कि सरकार का कोई भी सेवक अगर ईमानदारी से अपने कर्तव्य का निर्वाह नहीं करता है तो उसके खिलाफ बिना डरे शिकायत करें त्वरित कार्यवाही होगी क्योंकि सरकार देश के नागरिकों के प्रति जवाबदेह हैं लोकसेवकों के प्रति नहीं। लोकसेवक अपने नाम के अनुरूप जनता के सेवक बनके काम करने के लिए ही हैं। लेकिन अगर शिकायत झूठी पाई गई तो शिकायत कर्ता के खिलाफ इस प्रकार कठोर से कठोर कानूनी प्रक्रिया के तहत ऐक्शन लिया जाएगा कि भविष्य में कोई भी  किसी लोकसेवक के खिलाफ झूठी शिकायत दर्ज  करने की हिम्मत नहीं कर पायेगा । इस प्रकार न सिर्फ झूठी शिकायतों पर अंकुश लगेगा और असली दोषी को सजा मिलेगी बल्कि पूरा इंसाफ भी होगा। इस देश में न्याय की जीत तभी होगी जब हमारी न्याय प्रणाली का मूल  यह होगा  कि क़ानून की ही आड़ में  देश का   कोई भी गुनहगार गुनाह करके छूटने न पाए और कोई भी पीड़ित न्याय से वंचित न रहे।



(डाँ नीलम महेंद्र)

आलेख : बाल विवाह रोकने हैं तो काजी और पुरोहित को पाबन्द किया जाये!

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Child-marrege
बिहार के मुख्यमंत्री ने आदेश दिया है कि बिहार में अगर शादी करनी है तो आपको पहले शपथ पत्र में लिखकर देना होगा कि यह विवाह बाल विवाह नहीं है और इसमें दहेज का कोई लेन-देन नहीं है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बाल विवाह और दहेज प्रथा के खिलाफ चलाए जा रहे अभियान के तहत यह शपथ पत्र देना जरूरी होगा। हालांकि शपथ पत्र भरवाने का जिम्मा मैरेज हॉल के प्रबंधकों का होगा। बिना शपथ पत्र भरे मैरिज हॉल की बुकिंग नहीं हो सकती है। उल्लेखनीय है कि बिहार में आज भी 40 प्रतिशत बाल विवाह होते हैं और दहेज हत्या में बिहार का देश में दूसरा स्थान है।

मुख्यमंत्री की पहल नि:संदेह प्रशंसनीय होकर भी नाकाफी है। विचारणीय सवाल यह है कि बाल विवाह करने वाले लोग क्या मैरिज हॉल बुक करने में सक्षम होते हैं? यदि वाकई बिहार के मुख्यमंत्री सहित अन्य राज्यों के मुख्यमंत्री भी बाल विवाहों को रोकने के लिये संजीदा हैं तो ऐसे फौरी तथा दिखावटी प्रयास करने के बजाय ऐसे व्यावहारिक कानूनी प्रावधान बनाकर लागू करें, जिनसे वाकई वाल विवाह रुक सकें। सरकार को सबसे पहले बाल विवाह के सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक कारणों को समझना होगा और उन कारणों का निवारण का वास्तविक निवारण जरूरी है। जिससे कोई भी माता-पिता बाल विवाह करे ही नहीं।

सभी राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार को मेरा एक सुझाव: बिहार के मुख्यमंत्री बाल विवाह के बारे में जो शपथ-पत्र भरवाने की जिम्मेदारी मैरेज हॉल के प्रबंधकों पर डाल रहे हैं, यदि ऐसा ही शपथ-पत्र भरकर उसकी तस्दीक करके विधिवत विवाह सम्पन्न करवाने की जिम्मेदारी विवाह सम्पन्न करवाने वाले पुराहितों और काजियों पर डाली जाये तो अधिक सकारात्मक परिणाम सामने आयेंगे। अत: बाल विवाह रोकने हैं तो काजी और पुरोहित को पाबन्द किया जाये और उल्लंघन करने पर हो कठोर सजा का प्रावधान। अन्यथा चोंचलेबाजी बंद हो।

-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश', राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन और राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (BAAS)-9875066111

विशेष आलेख : प्रदूषण की खतरनाक अनदेखी क्यों?

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Pollution-ignorance
पिछले कुछ सालों के दौरान दिवाली में पटाखों की वजह से होने वाले भयावह प्रदूषण के चलते इस बार सर्वोच्च न्यायालय ने एनसीआर यानी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में पटाखों की खरीद-बिक्री पर पाबंदी लगा दी थी। भले ही पटाखों का धुआं कम हुआ हो लेकिन न्यायालय के आदेश का धुआं खूब जमकर उड़ा। पिछले साल की तुलना में इस बार प्रदूषण का स्तर कम दर्ज किया गया, दिल्ली में पटाखे बेचने पर बैन की वजह से दिल्ली की जनता को थोड़ी राहत की जरूर मिली, लेकिन दिल्ली, नोएडा, गुरुग्राम, गाजियाबाद, फरीदाबाद के लोगों ने जुगाड़ करके खूब पटाखे जलाए। हिन्दू धर्म के प्रमुख त्यौहार पर न्यायालय के दखलअंदाजी को कुछ लोगों ने अनुचित माना लेकिन प्रदूषण के नाम पर आम से लेकर खास तक हर कोई चिन्तित दिखा, यह एक स्वास्थ्य के प्रति लोगों की जागरूकता को ही दर्शाता है। सर्वोच्च न्यायालय ने जो फैसला दिया है, उसके पीछे भावना काफी अच्छी है, क्योंकि पिछले साल दीवाली के दिनों में दिल्ली का प्रदूषण सामान्य स्तर से 29 गुना बढ़ गया था। कई बीमारियां फैल गई थीं लेकिन यह खतरा तो साल में तीन-चार दिन ही कायम रहता है जबकि फसलों के जलने का धुंआ, कारों का धुंआ, उड़ती हुई धूल का प्रदूषण तथा अन्य छोटे-मोटे कारणों से फैलनेवाले सतत प्रदूषण पर हमारी नजर क्यों नहीं जाती।

दिल्ली के लिये प्रदूषण एक नया खलनायक की तरह है, जिसकी अनदेखी जानलेवा साबित हो रही है। न्यायालय का निर्णय हो या दिल्ली सरकार के प्रयास प्रदूषण के मामलें में जिस तरह की सख्ती चाहिए, वैसी दिखाई नहीं दे रही है। ऐसा होता तो पुराने वाहनों पर नियंत्रण होता, कल-कारखानों के उत्पन्न प्रदूषण पर कार्रवाही होती, नदियों की सफाई की जाती, कचरे के ढेरों में लगने वाली आग का कोई समाधान निकाला जाता, कचरे के निष्कासन की समुचित व्यवस्था की जाती, प्रदूषण नियंत्रण कार्यालय की सक्रियता दिखाई देती, ऐसा कुछ न होने जनता के स्वास्थ्य के प्रति सरकार की उदासीनता को ही दर्शाता है। साथ ही आम लोगों की पर्यावरण के प्रति लापरवाही एवं उदासीनता भी परेशान करने वाली है। लोग जानते हैं कि पटाखों के धमाकों और धुएं की वजह से कैसे सांस लेना तक मुश्किल हो जाता है, आंखों में जलन की वजह से कुछ भी देखना सहज नहीं रहता। इसके बावजूद पटाखे बेचने और खरीदने पर पाबंदी के अदालत के आदेश का आशय समझने की जरूरत नहीं समझी गई। इस अनुभव को देखते हुए अगली बार से प्रशासन को सख्त होना ही पड़ेगा। 

विश्व स्वास्थ्य संगठन डब्ल्यूएचओ की एक ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रदूषण के कारण दिल्ली में सालाना 10,000 से 30,000 जानें जा रही हैं। प्रदूषण हर दिन भारत की राजधानी में औसतन 80 लोगों की जान ले रहा है। इस नई रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में 13 भारत के शहर हैं। इनमें राजधानी दिल्ली सबसे ऊपर है। इसके बाद पटना, रायपुर और ग्वालियर का नंबर आता है. बाकी बचे शहरों में तीन पाकिस्तान के, दो बांग्लादेश के, एक कतर और एक ईरान का शहर है। इस ताजा रिपोर्ट ने एक बार फिर दिल्ली में प्रदूषण की समस्या की ओर ध्यान खींचा है। एनवायरनमेंटल साइंस एंड टेक्नॉलॉजी पत्रिका में छपी इस रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली में अधिकतर मौतें दिल की बीमारी और स्ट्रोक के कारण होती हैं। दिल्ली की हवा में पार्टिकुलेट मैटर पीएम 2.5 की मात्रा प्रति घन मीटर 150 माइक्रोग्राम है। यह देश में निर्धारित सीमा का चार गुना और डब्ल्यूएचओ की तय सीमा का 15 गुना है। रिपोर्ट के अनुसार पीएम 2.5 पर काबू पा कर दिल्ली में प्रदूषण के कारण होने वाली मौतों को 45 से 85 फीसदी तक कम किया जा सकता है।

दुनियाभर में वायु प्रदूषण का ब्योरा लेती इस रिपोर्ट में चीन और भारत पर खास ध्यान दिया गया है। रिपोर्ट में चेतावनी भरे स्वर में कहा गया है कि अगर ये दोनों देश प्रदूषण पर नियंत्रण कर पाएं, तो बड़ी संख्या में लोगों की जान बचाई जा सकती है। रिपोर्ट के अनुसार दोनों ही देश संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित नियमों का पालन नहीं करते और इस कारण प्रदूषण की समस्या बढ़ती जा रही है। साथ ही यह भी कहा गया है कि वाहनों की बढ़ती संख्या, बिजली के लिए कोयले से चलने वाले संयंत्रों पर निर्भरता और सड़कों पर लकड़ी और कूड़ा जलाने जैसी आदतों के कारण हालात में सुधार की कोई उम्मीद भी नहीं है, लेकिन अगर स्थिति को और बिगड़ने ना दिया जाए, तो कम-से-कम भविष्य में प्रदूषण से होने वाली बीमारियों के कारण मरने वाले लोगों की संख्या को और बढ़ने से रोका जा सकता है। ऐसा किया जाना जरूरी भी है। लोगों को मरने भी तो नहीं दिया जा सकता। एक अन्य रिपोर्ट भी हमें सावधान करती है। स्वास्थ्यजगत की पत्रिका मेडिकल जर्नल द्वारा इसी गुरुवार को जारी रिपोर्ट हमें और भी डराती है और सर्तक होने की चेतावनी देती है। जिसमें बताया गया है कि वर्ष 2015 में प्रदूषण से होने वाली  बीमारियों से पूरी दुनिया में 90 लाख लोग मारे गये, जिनमें 25 लाख भारत के थे। भारत के लेकर ऐसे खतरनाक आंकड़े आ रहे हैं। कई भारतीय एजेन्सियां भी वायु प्रदूषण के घातक एवं जानलेवा बन जाने की बात कह रही है। विडम्बनापूर्ण तो यह है कि भारत में सरकार और जनता, दोनों के लिये यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं बन पाया है। दुखद तो यह भी है कि राजनीतिक दलों के लिये तो इस तरह के मुद्दे कभी भी प्राथमिकता बनते ही नहीं। हां, न्यायालय का दीपावली पर आतिशबाजी न करने का फैसला जरूरी साम्प्रदायिक एवं धार्मिक रंग लेकर राजनीतिक मुद्दा बन जाता है। उनके लिये जीवन नहीं, जीवन-निर्वाह का मसले महत्वपूर्ण है। वे अपने राजनीतिक हितों एवं वोट बैंक पर ही नजर रखते हैं, वे कैसे पर्यावरण सुरक्षा को बढ़ावा दे सकते हैं? इसलिये जनता को ही जागना होगा। 

हाल के वर्षों में अनगिनत वाहनों सहित दूसरे तमाम कारणों से हवा में जहरीले तत्त्वों में इजाफा दर्ज किया गया है। इसमें दिवाली के दौरान पटाखों की वजह से और बढ़ोतरी हो जाती है। यह बेहद अफसोस की बात है कि पिछले साल दिवाली के दिन और उसके बाद भी कई दिनों तक दिल्ली का वातावरण जैसा दमघोंटू बना रहा उसे जानते हुए भी कुछ लोगों ने सर्वोच्च अदालत के आदेश के औचित्य पर सवाल उठाए और उसे नाहक धार्मिक चश्मे से देखने की कोशिश की। पर्यावरण की फिक्र वक्त का तकाजा है। त्योहार की दलील पर असीम प्रदूषण की इजाजत नहीं दी जा सकती। प्रदूषण से मरने वालों की संख्या मलेरिया से होने वाली मौतों से तीन गुणा और एचआईवी एड्स के कारण होने वाली मौतों से करीब 14 गुणा अधिक है। हालांकि प्रदूषण को वैश्विक समुदाय से थोड़ा ही महत्व मिलता है। प्योर अर्थ ब्लैकस्मिथ इंस्टीट्यूट ने इस विश्लेषण को तैयार किया है। यह स्वास्थ्य और प्रदूषण (जीएएचपी) पर विश्वव्यापी गठबंधन का हिस्सा है। जीएएचपी द्विपक्षीय, बहुपक्षीय और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों, राष्ट्रीय सरकारों, शिक्षाविदों और समाज की सहयोगी संस्था है। इंस्टीट्यूट के अध्यक्ष रिचर्ड फुलर के मुताबिक, ‘वायु और जल प्रदूषण के साथ टॉक्सिक साइटें विकासशील देशों की स्वास्थ्य प्रणाली पर भारी बोझ थोपती हैं।’ जीएएचपी के विश्लेषण में विश्व स्वास्थ्य संगठन और दूसरे अन्य डाटा को एकीकृत कर यह निर्धारित किया गया है कि 74 लाख लोगों की मौत की वजह वायु और जल से होने वाले प्रदूषण स्रोत हैं। गरीब देशों में दस लाख अतिरिक्त और मौतें छोटे और मध्यम आकार के उत्पादकों के औद्योगिक कचरे और जहरीले रसायन, वायु, जल, मिट्टी और भोजन में मिलने के कारण हुई। ब्लैकस्मिथ इंस्टीट्यूट के तकनीकी सलाहकार और न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय में पर्यावरणीय स्वास्थ्य के प्रोफेसर जैक कैरावानोस के मुताबिक इन देशों में संक्रामक रोग और धूम्रपान के मुकाबले, पर्यावरण प्रदूषण का स्वास्थ्य पर ज्यादा बुरा प्रभाव है। एक तरह से स्वास्थ्य के प्रश्न पर पूरी दुनिया में सन्नाटा है, हर कोई विकास की बात कर रहा है। इस तथाकथित विकास ने स्वास्थ्य एवं इंसान के जीवन को गौण कर दिया है। करीब 20 करोड़ लोग सीधे तौर पर प्रदूषित पर्यावरण में जीने को मजबूर हैं। भारी धातुओं से दूषित मिट्टी, हवा में घुलने वाले रासायनिक कचरे या फिर नदी के पानी में इलेक्ट्रॉनिक कबाड़ को बहाना, त्यौहारों के नाम पर आतिशबाजी-खतरे की घंटी बजाने वाले ये कुछ खतरनाक उदाहरण हैं एवं ऐसी विनाशकारी स्थितियां हैं, जिनका आम लोगों के स्वास्थ्य पर घातक प्रभाव पड़ता है, जिस पर ध्यान देना देना जरूरी है, अन्यथा तब तक भयानक परिणाम सामने आते रहेंगे। भविष्य धुंधला होता रहेगा। दिल्ली और देश में ऐसा कोई बड़ा जन-आन्दोलन भी नहीं है, जो पर्यावरण के लिये ही जनता में जागृति लाता है, जो हर नागरिक को प्रेरणा दें कि वह दो-चार पेड़-पौधे लगाए। राजनीतिक दल और नेता लोगों को वोट और नोट कबाड़ने से फुर्सत मिले, तब तो इन मनुष्य जीवन से जु़ड़े बुनियादी प्रश्नों पर कोई ठोस काम हो सके। 




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(ललित गर्ग)
60, मौसम विहार, तीसरा माला, डीएवी स्कूल के पास, दिल्ली-110051
फोनः 22727486, 9811051133

विशेष : दीपावली पर लुप्त होते कुम्हार के दिये।

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भारत देश में यूं तो कई त्यौहार आते है । पर सबसे ज्यादा हर्षोल्लास वाला त्यौहार दीपावली का होता है। इस त्यौहार को भारत मे रावण पर राम  की जीत कहा जाता है अर्थात बुराई पर अच्छाई की जीत। दीपावली के इतिहास से तो सभी लोग भली भाँती परिचित है और शायद इस बात से भी परिचित होंगे कि आज से लेकर उस सतयुग के समय तक भारत मे दीपावली का त्यौहार दीपों से मनाया जाता था।  हर घर का द्वार दीपक से जगमगाता था।  हालांकि आज भी यह परंपरा बनी हुई है पर उस हद तक नही जिस हद तक पहले हुआ करती थी। आज तो हर घर चीनी झल्लरो से बल्बों से चमकता हुआ दिखाई देता है ।  आज भारतीय बाजार में हर जगह चीनी  माल ही छाया हुआ है। और लोग उसे खरीद भी रहे है। क्या कभी हमने यह सोचा है कि ऐसा करके हम अपने देश का और देश के उस कुम्हार वर्ग का कितना नुकसान कर रहे है । 

पहली गलती हमने यह कि, की अपने घर को ज्यादा सुसज्जित करने के लिए चीनी चीजो का इस्तेमाल किया, ऐसा करके हम अपने देश की  उस कुम्हार वर्ग की जाती का अस्तित्व खत्म कर रहे है । क्योंकि एक यही त्यौहार है जिसमे वह अपनी आजीविका के लिए कुछ कमा सकते है और हमारे एक कदम से उनकी यह छोटी सी आमदनी भी खत्म हो रही है।और तो और हमने अपने देश के लिए कुछ न करते हुए  दूसरे देश को लाभ पहुचाया है। क्या हमारे अपने राष्ट्र के प्रति कोई कर्तव्य नहीं है ।हम लोग खुद ही कर्तव्यविमुख हो जाते है और फिर हर चीज का आरोप सरकार पर लगाते है। चाहे वो कोई भी मुद्दा क्यो न हो उदाहरण के तौर पर अगर हमारे यहां बेरोजगारी बढ़ती है तब भी हम सरकार पर आरोप लगाते है  की रोजगार नही है । लेकिन हम कभी गहराई से सोचते ही नही है की बेरोजगारी क्यों बड़ी क्योंकि जनसँख्या बड़ी ।  और यह सरकार की नही लोगो की गलती है । तो कहने का आशय यही है कि हम पहले अपने कर्तव्य तो अच्छे से निभाये सरकार तो निभाएगी ही।   

हालांकि इस साल सोशल डेवेलपमेंट फाउंडेशन के सर्वे के मुताबिक भारत मे 2017 में दीपावली पर चीनी उत्पादों की बिक्री पर बड़ी कमी आ सकती है। चूँकि दीपावली पर लाइटों से लेकर गिफ्ट्स एवम सारे समान का आयात चीन से ही होता है । अतः इस बार इनमे 40 से 50% तक कि कमी देखने को मिल सकती है। इसे हम राष्ट्रहित के लिए एक अच्छी सफलता मान सकते है । लेकिन साथ ही भारत के लोगो का यह समझना नितांत आवश्यक है कि वह ऐसे चीजे खरीदकर दूसरे देश का प्रभुत्व अपने देश मे कायम न होने दे। जिससे बाद में नुकसान हो।  आज पूरे भारतीय बाजारों पर नजर डाले तो पूरे बाजार में चीन की सत्ता ही दिखाई देगी। चाहे वो मोबाइल फोन हो या अन्य कोई सामान।  इसके साथ ही एक प्रश्न जो सभी लोगो  के मन मे बराबर चलता है की दूसरे देश की चीजो का इस्तेमाल करने में क्या बुराई है।  इसको भी एक उदाहरण से समझे कि क्या चीन ने किसी दूसरे देश का प्रभुत्व अपने यहां स्थापित होने दिया । नहीं। क्योंकि चीन ऐसा देश है जो अपने देश की मूलभूत   आवश्यकताओं की पूर्ति खुद ही पूरी करता है।  इसको हम ऐसे भी समझ सकते है कि भारत की राजभाषा हिंदी है। और सामान्यतः हिंदी भाषी लोग ही है। और अंग्रेजी को विशिष्ट कार्यो के लिए प्रयोग में लाया जाता है। लेकिन हमने क्या किया ? हमने दोनों भाषाओं का तालमेल या दोनों भाषाओं की उपयोगिता न देखकर एक को सर्वोपरी और एक को नगण्य कर दिया। लेकिन क्या चीन ने कभी अपनी मूल भाषा को नगण्य किया। नहीं। 

सिर्फ हम ही ऐसा क्यों करते है हम राष्ट्रहित के बारे में कभी सोचते ही नही। अपने देश के उन भाई बहनो के बारे में कभी सोचते  ही नही जो शायद कहीं न कहीं हम पर ही निर्भर है। और चूंकि मुद्दा हमारा उस कुम्हार वर्ग के अस्तित्व को लेकर है अतः हमारा प्रयास उसके अस्तित्व को बचाने के लिए होना चाहिए। इस दिशा में कुछ लोगों द्वारा कदम उठाया भी जा चुका है एक अनुमान के अनुसार 2016 में भारत मे चीनी उत्पादों की बिक्री लगभग 4 हजार करोड़ थी। लेकिन इस साल दीपावली पर लोग भारतीय उत्पादों की मांग कर रहे है। इसे  राष्ट्रहित में एक अच्छा बदलाव कह सकते है। कम से कम लोगों में इस भावना का निर्माण तो हुआ कि देशहित क्या है। और इस प्रकार का कदम उठाने के लिए हमे एक चीज करनी बहुत आवश्यक है वो यह है की "हममें"आजकल "में "की भावना विकसित हो गयी है । हमे इस में को छोड़कर हम की भावना की और अग्रसर होना चाहिए। चूंकि भारत विविध जातियों से परिपूर्ण देश है और सभी जातियों का अपना अलग ही अस्तित्व है। हर एक कि अपनी अलग ही विशेषता है। और लोगो को इसमें यह योगदान करना चाहिए कि किसी भी कारणवश किसी भी जाति का अस्तित्व यूँ विलुप्त न हो।  भारत की दीपावली का त्यौहार बहुत ही खूबसूरत त्योहार है और हमारा प्रयास इसको और खूबसूरत बनाने का होना चाहिए।  घरों को उन नकली चीज़ो से न सजाकर उन चीजों से सजाएं। जिससे किसी के चेहरे पर मुस्कान   आये । उस कुम्हार से मिट्टी के दीपक खरीदे जिससे उसके घर की  भी दीपावली खूबसूरत हो।


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ज्योति मिश्रा 
Freelance journalist gwalior (dabra)
Jmishra231@gmail.com
7999842095

व्यंग्य : विकास का मतलब मूर्ति खड़ी करना

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भारत एक विकासशील देश है। और भारत एक विकासशील देश ही रहेगा ! क्योंकि भारत में नेताओं की अक्ल भैंस चराने गयी है। अब देखते है अक्ल की घर वापसी कब होती है ? बरहाल, मूर्ति सरीकी सरकार को मूर्तियों से इत्ता मोह है कि मूर्तियों के निर्माण के लिए वह किसी भी हद तक जा सकती है। वैसे भी भारत में लोग ही पागल नहीं होते, भारत में नेता विकास को भी पागल होने का सर्टिफिकेट देनी की काबिलियत रखते है। कितने महान नेताओं की जन्मस्थली है अपना देश। ऐसे में विकास का विकास धरा का धरा ही रह जाता है। बीमार विकास के इलाज की असल दवा सरकार करना ही नहीे चाहती। बस ! बाहर से मरहमपट्टी करवाकर विकास को दुरुस्त दिखाने का खेल रचकर अपना काम बनाने की जुगत में रहती है। हुजूर ! भारत का विकास बीते कई सालों से भूखा है, उसे भरपेट नहीं तो सही पेटभर खाना तो चाहिए। भारत का विकास नंगा भी है, उसे दो जोड़ी कपडे चाहिए। भारत का विकास बेरोजगारी में बावला होता जा रहा है, उसे रोजगार चाहिए। भारत का विकास सरकारी अस्पतालों में सांस-सांस के लिए तड़प रहा है, उसे जीवनदायिनी ऑक्सीजन की सख्त जरूरत है। भारत का विकास बेघर है, उसे सर्दी, गर्मी, बरसात इत्यादि से बचाव के लिए सिर पर छत चाहिए। हुजूर ! विकास को चाहिए कुछ ओर होता है और आप दे कुछ ओर देते है। जो चाहिए उसे वो क्यों नही दे देते ? आपने तो धार लिया है कि भारत के विकास को यहां तो शौचालय चाहिए है या मूर्तियां। तभी तो आप दो ही काम पर आमदा है। हुजूर ! यह राजतंत्र नहीं है, यह लोकतंत्र है। आप शायद यह भूलते जा रहे है ! राजतंत्र में राजा अपनी मूर्तियां बनाने की परंपरा का निर्वहन करते थे। ऐसे कहे तो राजा मूर्तियां बनवाने के लिए पैदा होते थे। यहां तक खजुराहो की कामुक मूर्तियां बनवाकर अपनी कामुक शक्ति का नग्न नृत्य इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों में दर्ज करने में उन्होंने कोई कमी नहीं रखी। कामुक मूर्तियां भी ऐसी कि हर किसी को आसाराम बनने पर विवश कर दे। खैर ! वो राजतंत्र का रूतबा था। लेकिन, अब लोकतंत्र में कोई यदि हाथियों के साथ अपनी मूर्ति बनवाकर अपना कद बड़ा करना चाहे तो यह अनुचित ही कहा जायेगा। हां ! यह बात भी है कि जनता नेताओं को भगवान मानने की भूल जरूर कर देती है, तो इसका मतलब यह तो नहीं होता कि आप अपनी ही मूर्ति मंदिर में विराजित कर सुबह-शाम आरती करवाना शुरू करवा दे। सरकार के भेजे में तो बस यही बात घुसी हुई है, विकास का मतलब मूर्ति खड़ी करना है। इसलिए तो सरदार पटेल की 180 मीटर ऊंची तो शिवाजी की 192 मीटर ऊंची मूर्ति के बाद भगवान राम की 100 मीटर ऊंची मूर्ति खड़ी करने के ख्याल को जमीन दी जा रही है। यदि सरकार की संवेदनशीलता थोड़ी-सी भी मूर्तियों के नीचे बोरियां बिछाकर रात काटने वाले के प्रति होती तो उनको जमीन दे देती और विकास के उदास चेहरे पर हल्की-सी ही सही मुस्कान जरूर ला देती। पर सरकार की संवेदना को मूर्तियां खाती जा रही है। दरअसल, सरकार दिनोंदिन अंसवेदनशील होकर मूर्तियों में ढलती जा रही है।




- देवेंद्रराज सुथार -
पता - गांधी  चौक, आतमणावास, बागरा, जिला-जालोर, राजस्थान। पिन कोड - 343025

मधुबनी : भारत-नेपाल संयुक्त समिति की बैठक

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भारत-नेपाल संयुक्त समिति की बैठक शुक्रवार दिनांक 17.11.2017 को जनकपुरधाम स्थित होटल वेलकम के सभागार बैठक आयोजित की गयी। श्री दिलीप कुमार चापागाई,सीडीओ धनुषा के द्वारा भारतीय टीम का गर्मजोशी से स्वागत किया गया। बैठक में 07.12.2017 को नेपाल में होनेवाले चुनाव के मद्देनजर विधि-व्यवस्था, बोर्डर सीलिंग, एवं असामाजिक तत्वो की गतिविधियों को रोकने हेतु चर्चा की गयी। उक्त बैठक में नेपाल की ओर से सीडीओ/एसपी, धनुषा,सिरहा,सप्तरी एवं महोत्तरी भाग लिए। इसके अतिरिक्त कॉन्सुलेट जेनरल, वीरगंज(नेपाल) भी भाग लिए। भारत की ओर से श्री शीर्षत कपिल अशोक,जिला पदाधिकारी,मधुबनी श्री दीपक वरनवाल,आरक्षी अधीक्षक,मधुबनी के अतिरिक्त  अनुमंडल पदाधिकारी/अनुमंडल पुलिस पदाधिकारी बेनीपट्टी,जयनगर एवं फुलपरास के साथ-साथ एसएसबी जयनगर एवं राजनगर के सहायक समादेष्टा भी भाग लिए। बैठक में चुनाव के मद्देनजर 72 घण्टे पूर्व बॉर्डर सीलिंग करने पर निर्णय लिया गया। तथा मानव व्यापार,जाली नोट, नो-मेंस लैंड पर अतिक्रमण हटाने एवं क्षतिग्रस्त एवं गायब  बोर्डर पीलर का संयुक्त सत्यापन विषय पर भी चर्चा की गयी।

सवाल पूछोगे, तो मोदी सरकार देशद्रोही बता देगी : गीता

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  • छात्र-युवा अधिकार सभा में पटना विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय बनाने की मांग पुरजोर तरीके से उठी.
  • आइसा-इनौस नेताओं के अलावा शिक्षक-बुद्धिजीवियों ने भी किया सभा को संबोधित.
  • इकबाल छात्रावास के छात्रों ने किया अधिकार यात्रा में शामिल छात्र-युवा नेताओं का स्वागत
  • डाॅ. अंबेदकर, जेपी और भगत सिंह की मूर्ति पर किया गया माल्यार्पण

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पटना 17 नवम्बर 2017, पटना काॅलेज परिसर में आइसा-इनौस द्वारा आयोजित छात्र-युवा अधिकार सभा को संबोधित करते हुए जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ की अध्यक्ष व आइसा नेत्री गीता कुमारी ने कहा कि मोदी सरकार से यदि सवाल करोगे तो देशद्रोही होने का तमगा पहना दिया जाएगा. न केवल छात्रों को, बल्कि आज सीमा पर यदि हमारे जवान भी अच्छे भोजन की मांग करते हैं, तो उन्हें भी मोदी सरकार बहुत बुरी तरह प्रताड़ित करती है. उन्होंने छात्र-युवा अधिकार सभा के मंच से पटना विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय बनाने की मांग का पुरजोर तरीके से समर्थन किया और कहा कि यदि पटना विश्वविद्यालय को आज तक केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा नहीं मिला, तो यहां के नेता भी इसके लिए जिम्मेवार हैं. जेएनूएसयू अध्यक्ष ने कहा कि यह जुमलो की सरकार है, जो पिछले साढ़े तीन साल से देश के छात्र-नौजवानों, मजदूर-किसानों को ठगने का काम कर रही है. और यदि लोग विरोध में उतरते हैं, तो उन्हें कहीं गोलियों की सौगात दी जाती है, तो कहीं चंद्रशेखर जैसे दलित आंदोलनकारी को रासुका के तहत जेल में डाल दिया जाता है.

यह सरकार हमारे रोजमर्रा के संघर्षों को झुठलाने का पूरा प्रयास कर रही है. यह छात्र-युवा, महिलाओं, किसानों, मजदूरों की बजाए अंबानी-अडानी की सरकार है, जो अंबानी-अडानी को बर्थडे विश करना नहीं भूलती लेकिन नोटबंदी की लाइन में 200 से अधिक मार दिए गए लोगों के प्रति थोड़ी भी संवेदना प्रकट नहीं करती है. सरकार ने कहा था कि प्रत्येक साल दो करोड़ रोजगार दिया जाएगा, लेकिन स्थिति ठीक उलटी है. नोटबंदी ने व्यापक पैमाने पर नौकरियां ले ली और हर जगह लोगों के रोजगार में कटौती हो रही ह, लेकिन स्किल इंडिया की बात हो रही है. दरअसल मोदी सरकार कारपोरेट घरानों के लिए सस्ते मजदूर पैदा करने की नीति पर चल रही है. मेक इन इंडिया, अच्छे दिन आदि के नारे देशी-विदेशी कंपनियों के लिए हैं, जिन्हें सरकार कह रही है कि उनपर देश का श्रम कानून लागू नहीं होंगे, मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी नहीं देनी होगी. वे आएं और इस देश के संसाधनों को दोनों हाथों से लूटे.

उन्होंने आगे कहा कि उच्च शिक्षा में लगातार कटौती और लेफ्ट प्रभावित कैम्पस को देशद्रोही बताया जा रहा है, लेकिन अब पंजाब, इलाहाबाद, बीएचयू आदि तमाम विश्वविद्यालयों को भी निशाना बनाया जा रहा है. इन कैंपसों में आरएसएस के लिए खुली जगह है लेकिन प्रोगे्रसिव जमात के लिए कोई जगह नहीं है. छात्र अधिकारों पर लगातार हमला हो रहा है. नेट की परीक्षा एक बार कर दी गई है. सेल्फ फाइनेंस को बढ़ावा दिया जा रहा है और अब नेट की परीक्षा में मात्र 6 प्रतिशत लोगों का सिलेक्शन होगा. महिलाओं को आजादी नहीं है. वे बाहर निकेलगी तो उनके साथ छेड़छाड़ की जाती है, उनका बलात्कार होता है.  बिहार की नीतीश सरकार आज पूरी तरह आरएसएस की गोद में खेल रही है. दलित छात्रा डीका की हत्या व बलात्कार ने दिखाया  कि नीतीश जी के ‘न्याय के साथ विकास’ के राज में दलितों को कैसे अपमानित किया जा रहा है, प्रताड़ित किया जा रहा है., बिहार में कई जगह दंगे हो रहे हैं. नफरत की राजनीति को आरएसएस बढ़ावा दे रही है. हमें तो नौकरी नहीं दे रही है लेकिन गौरक्षकों को पैसा दिया जा रहा है. गुजरात में दलितों को पीटा गया. जुनैद, पहलू खान जैसे लोग मारे जा रहे हैं. मूल समस्याओं से हमारा ध्यान भटकाने के लिए तरह-तरह के नफरत की राजनीति के कार्ड खेले जा रहे हैं.

मोदी सरकार कहती है बुलेट ट्रेन चलायेंगे, लेकिन अपनी ट्रेन तो संभल नहीं रही है. न्यू इंडिया ऐसा नहीं चाहिए. हम ऐसे भारत के लिए यह अभियान निकाल रहे हैं, जहां जवानों को खाना मिल सके और गाय के नाम पर लोगों की हत्या न हो. हम शिक्षा में फीस बढ़ोतरी के खिलाफ, सांप्रदायिकता से मुक्त भारत के लिए, महिलाओं के मान-सम्मान व अधिकार के लिए यह यात्रा निकाल रहे हैं. हमारे न्यू इंडिया में न तो आॅक्सीजन के अभाव में बच्चों की मौतें होंगी और न ही गौशालाओं में गायें बेमौत मारी जाएंगी. सभा को संबोधित करते हुए पटना विश्वविद्यालय के शिक्षक शरदेंदु कुमार ने कहा कि मोदी ने पटना आकर हमें धोखा दिया, पटना विश्वविद्यालय को सेंट्रल विश्विविद्यालय का दर्जा देने की बजाए, उन्होंने हमारा मजाक उड़ाया, जिससे आज पूरा बिहार आहत है. इनौस के बिहार राज्य अध्यक्ष मनोज मंजिल ने कहा कि भाजपाइयों ने ही रोहित वेमुला को मार दिया और अंबेदकर की मूर्ति पर माला भी चढा रहे हैं. लेकिन बाबा साहेब ने प्रमुखता से हिंदु राष्ट्र का विरोध किया था. इसे  झुठलाने की कोशिश हो रही है. बिहार की नीतीश सरकार ने कहा था कि शिक्षा में सुधार उसका प्रधान एजेंडा होगा, लेकिन जब आइसा के छात्र पटना विवि को केंद्रीय विवि बनाने की मांग उठाते हैं तो उनका दमन किया जाता है.

प्रख्यात अर्थशास्त्री डीएम दिवाकर ने कहा कि नया भारत बनाने वाली युवा शक्ति को तोड़ने की कोशिश आज हर तरह से हो रही है. शिक्षा की रीढ़ तोड़ी जा रही है. समान अवसर का नारा आज पीछे छूट गया. सत्ता की ताकतों ने लगातार इस सपने को तोड़ा है और आज तो वह और उग्र हो गया है. समान स्कूल प्रणाली और शिक्षा की मूल अवधारणा को हमारी सरकारें खत्म करने में लगी हुई हैं.  इन वक्ताओं के अलावा सभा को आइसा के राष्ट्रीय महासचिव संदीप सौरभ, इकबाल छात्रावास के नेता महफुज, आइसा के पटना विवि सह संयोजक सुधाकर आदि ने भी संबोधित किया. जबकि विषय प्रवेश आइसा के बिहार राज्य अध्यक्ष मोख्तार ने किया और चंडीगढ़ से चलकर कोलकाता तक जाने वाली छात्र-युवा अधिकार यात्रा का संपूर्ण परिप्रेक्ष्य रखा. सभा का संचालन पटना विवि आइसा के सह संयोजक विकास कुमार तथा धन्यवाद ज्ञापन पटना विवि आइसा के संयेाजक रामजी यादव ने किया. इस मौके पर अखिल भारतीय किसान महासभा के महासचिव राजाराम सिंह, दिल्ली आइसा के सचिव नीरज कुमार, इनौस की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष नवकिरण नट, इलाहाबाद विश्विवि़द्यालय व आइसा के नेता शक्ति रजवार, इनौस के बिहार राज्य सचिव नवीन कुमार, आइसा के बिहार राज्य सचिव शिवप्रकाश रंजन, आकाश कश्यप, बाबू साहेब, राहुल आदि आइसा नेता उपस्थित थे.

कार्यक्रम के पूर्व नेताओं ने डाॅ. अंबेदकर, जेपी और भगत सिंह की मूर्ति पर माल्यार्पण भी किया. आइसा नेता शनि के नेतृत्व में इकबाल छात्रावास के छात्रों ने नेताओं का पटना काॅलेज परिसर में स्वागत किया. हिरावल के साथियों ने अपने क्रांतिकारी गीतों से अधिकार सभा में नया जोश भर दिया. नालंदा विश्वविद्यालय के संघर्षरत कर्मचारियों ने गीता कुमारी को अपनी मांगों से संबंधित ज्ञापन भी सौंपा.

विशेष : जेहनी जहरखुरानी

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बस या रेल-यात्रा के दौरान जब कोई अनजान व्यक्ति लुभावनी और मीठी-मीठी बातें करके आत्मीयता दर्शाये और खाने-पीने में बेहोशी या नशे का पदार्थ मिलाकर आपका सब कुछ लूट ले तो इसे 'जहरखुरानी'कहा जाता है। जिसके लिये दोषी व्यक्ति के विरुद्ध पुलिस द्वारा दण्डात्मक कार्यवाही की जाती है।

इसके विपरीत जब कोई चतुर-चालाक व्यक्ति, राजनेता, ढोंगी संत, कथित समाज उद्धारक और, या इनके अंधभक्त झूठे-सच्चे और मनगढंथ किस्से-कहानियों, लच्छेदार भाषण, लुभावने नारे तथा सम्मोहक जुमलों के जरिये आम सभाओं या कैडर-कैम्पस में भोले-भाले लोगों को कुछ समय के लिये या जीवनभर के लिये दिमांगी तौर पर सम्मोहित या गुमराह करके उनका मत और समर्थन हासिल कर लें तो इसे मैं डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश''जेहनी जहरखुरानी'या दिमांगी बेहोशी का अपराध मानता हूं।
यह जहरखुरानी से भी अधिक गम्भीर अपराध है। मगर इसके लिये कानून में कोई सजा मुकर्रर नहीं है। अत: सबसे पहले इस जेहनी जहरखुरानी से बचें-बचायें। द्वितीय यदि सच बोलने की हिम्मत हो तो और जेहनी जहरखुरानी के अपराधियों को सजा दिलवाने के लिये दण्डात्मक कानूनी प्रावधान बनाने की मांग करें।


-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश', राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन और राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (BAAS)-9875066111, 22.10.2017, Jaipur, Rajasthan.

विशेष आलेख : न जयप्रकाश आंदोलन कुछ कर पाया न ही अन्ना आंदोलन

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वीआईपी कल्चर खत्म करने के उद्देश्य से जब प्रधानमंत्री मोदी द्वारा मई 2017 में वाहनों पर से लालबत्ती हटाने सम्बन्धी आदेश जारी किया गया तो सभी ने उनके इस कदम का स्वागत किया था लेकिन एक प्रश्न रह रह कर देश के हर नागरिक के मन में उठ रहा था, कि क्या हमारे देश के नेताओं और सरकारी विभागों में एक लाल बत्ती ही है जो उन्हें 'अतिविशिष्ठ'होने का दर्जा  या एहसास देती है? हाल ही में रेल मंत्री श्री पीयूष गोयल ने अपने अभूतपूर्व फैसले से 36 साल पुराने प्रोटोकॉल को खत्म करके रेलवे में मौजूद वीआईपी कल्चर पर गहरा प्रहार किया। 1981 के  इस सर्कुलर को अपने नए आदेश में तत्काल प्रभाव से जब उन्होंने रद्द किया तो लोगों का अंदेशा सही साबित हुआ कि इस वीआईपी कल्चर की जड़ें बहुत गहरी हैं और इस दिशा में अभी काफी काम शेष है।

मंत्रालय के नए आदेशों के अनुसार  किसी भी अधिकारी को अब कभी गुलदस्ता और उपहार भेंट नहीं दिए जाएंगे। इसके साथ ही रेल मंत्री पीयूष गोयल ने वरिष्ठ अधिकारियों से एक्सेक्यूटिव श्रेणी के बजाय स्लीपर और एसी थ्री टायर श्रेणी के डब्बों में यात्रा करने को कहा है।रेलवे में मौजूद वीआईपी कल्चर यहीं पर खत्म हो जाता तो भी ठीक था लेकिन इस अतिविशिष्ट संस्कृति की जड़ें तो और भी गहरी थीं। सरकारी वेतन प्राप्त रेलवे की नौकरी पर लगे कर्मचारी रेलवे ट्रैक के बजाय बड़े बड़े अधिकारियों के बंगलों पर अपनी ड्यूटी दे रहे थे। लेकिन अब रेल मंत्री के ताजा आदेश से सभी आला अधिकारियों को अपने घरों में घरेलू कर्मचारियों के रूप में लगे रेलवे के समस्त स्टाफ को मुक्त करना होगा। जानकारी के अनुसार वरिष्ठ अधिकारियों के घर पर करीब 30 हजार ट्रैक मैन काम करते हैं, उन्हें अब रेलवे के काम पर वापस लौटने के लिए कहा गया है। पिछले एक माह में तकरीबन 6 से 7 हजार कर्मचारी काम पर लौट आए हैं और शीघ्र ही शेष सभी के भी ट्रैक पर अपने काम पर लौट आने की उम्मीद है।
क्या अभी भी हमें लगता है कि रेलवे में स्टाफ की कमी है ?
क्या हम अभी भी ट्रैक मेन्टेनेन्स के अभाव में होने वाले रेल हादसों की वजह जानना चाहते है।

एक आम आदमी और उसकी सुरक्षा के प्रति कितने उत्तरदायी हैं ये अधिकारी इसका उत्तर जानना चाहते हैं? इस प्रकार की वीआईपी संस्कृति या फिर कुसंस्कृति केवल एक ही सरकारी विभाग तक सीमित हो ऐसा भी नहीं है। देश के एक प्रसिद्ध अखबार के अनुसार मप्र के एक लैंड रिकॉर्ड कमिश्नर के बंगले पर 35 से ज्यादा सरकारी कर्मचारी उनका घरेलू काम करने में लगे थे जबकि इनका काम आरआई के साथ सीमांकन में मदद करना होता है। कोई आश्चर्य नहीं कि उस राज्य में सीमांकन का काफी काम लम्बित है। क्या इन अधिकारियों का यह आचरण 'सरकारी काम में बाधा'की श्रेणी में नहीं आता? भारत की नौकरशाही को ब्रिटिश शासन के समय में स्थापित किया गया था जो उस वक्त विश्व की सबसे विशाल एवं सशक्त नौकरशाही थी। स्वतंत्र भारत की नौकरशाही का उद्देश्य देश की प्रगति,जनकल्याण,सामाजिक सुरक्षा,कानून व्यवस्था का पालन एवं सरकारी नीतियों का लाभ आमजन तक पहुँचाना था। लेकिन सत्तर अस्सी के दशक तक आते आते भारतीय नौकरशाही दुनिया की  'भ्रष्टतम'में गिनी जाने लगी। अब भ्रष्टाचार,पक्षपात,,अहंकार जैसे लक्षण नौकरशाही के आवश्यक गुण बनते गए। न जयप्रकाश आंदोलन कुछ कर पाया न ही अन्ना आंदोलन। जो कानून, मानक विधियां और जो शक्तियां इन्हें कार्यों के सफल निष्पादन के लिए दी गई थीं, अब उनका उपयोग 'लालफीताशाही 'अर्थात फाइलों को रोकने के लिए, काम में विलम्ब करने के लिए किया जाने लगा। नेताओं के साथ इनके गठजोड़ ने इन्हें  "वीआईपी"बना दिया। और आज की सबसे कड़वी सच्चाई यह है कि जो लोग देश में नौकरियों की कमी का रोना रो रहे हैं वे सरकारी नौकरियों की कमी को रो रहे हैं क्योंकि प्रइवेट सेक्टर में तो कभी भी नौकरियों की कमी नहीं रही,लेकिन इन्हें वो नौकरी नहीं चाहिए जिसमें काम करने पर तनख्वाह मिले इन्हें तो वो नौकरी चाहिए जिसमें हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा ही चोखा। कोई आश्चर्य नहीं कि  हमारे समाज के नैतिक मूल्य इतने गिर गए हैं आज लोग अपने बच्चों को नौकरशाह बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं,देश की सेवा अथवा उसकी प्रगति में अपना योगदान देने के लिए नहीं बल्कि अच्छी खासी तनख्वाह के अलावा मिलने वाली मुफ्त सरकारी  सुविधाओं के बावजूद किसी भी प्रकार की जिम्मेदारी और जवाबदेही न होने के कारण।

आखिर पहले पांचवां वेतन आयोग फिर छठा वेतन आयोग और अब सातवाँ वेतन आयोग, इन सभी में सुनिश्चित किया गया कि इनके वेतन और सुविधाएं इस प्रकार की हों कि इनके ईमानदारी से काम करने में कोई रुकावट न हो लेकिन क्या इनकी जवाबदेही भी निश्चित की गई? पहले लाल बत्ती हटाना और अब रेल मंत्री का यह कदम स्वागत योग्य है किन्तु तब तक अधूरा है जब तक हर सरकारी पद पर बैठे  नेता या फिर अधिकारी की जवाबदेही तय नहीं की जाती। इन सभी को टारगेट के रूप में काम दिए जाएं जिनमें समय सीमा का निर्धारण कठोरता हो। तय समय सीमा में कार्य पूरा करने वाले अधिकारी को तरक्की मिले तो समय सीमा में काम न कर पाने वाले अधिकारी को डिमोशन। कुछ ऐसे नियम इनके लिए भी तय किए जाएं ताकि जबतक वे उन नियमों का पालन नहीं करेंगे तबतक उन्हें कोई अधिकार भी न दिए जाएं। जिस प्रकार देश के व्यापारी से सरकार हर साल असेसमेन्ट लेती है और अपने व्यापार में वो पारदर्शिता अपनाए इसकी अपेक्षा ही नहीं करती बल्कि कानूनों से सुनिश्चित भी करती है, नेताओं को भी हर पांच साल में जनता के दरबार में जाकर परीक्षा देनी पड़ती है, उसी प्रकार हर सरकारी कर्मचारी की सम्पत्ति का भी सालाना एसेसमेन्ट किया जाए, उनके द्वारा किए जाने वाले मासिक खर्च का उनकी मासिक आय के आधार पर आंकलन किया जाए, उनके बच्चों के देसी या विदेशी स्कूलों की फीस, उनके ब्रांडेड कपड़े और फाइव स्टार कल्चर, महंगी गाड़ियों को कौन स्पान्सर कर रहा है इसकी जांच हर साल कराई जाए। कुछ पारदर्शिता की अपेक्षा सरकारी अधिकारियों से भी की जाए तो शायद वीआईपी संस्कृति का जड़ सहित नाश हो पाए।



डाँ नीलम महेंद्र

विशेष आलेख : अब रेल्वे में वीआईपी संस्कृति पर अंकुश

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रेल मंत्री ने रेलवे में वीआईपी संस्कृति को खत्म करने के लिए जो आदेश जारी किया वे सराहनीय एवं स्वागत योग्य है, देश में वीवीआईपी कल्चर को खत्म करने के नरेंद्र मोदी के संकल्प की क्रियान्विति की दिशा में यह एक उल्लेखनीय कदम है। इस निर्णय से रेल्वे प्रशासन की एक बड़ी विसंगति को न केवल दूर किया जा सकेगा, बल्कि ईमानदारी एवं प्रभावी तरीके से यह निर्णय लागू किया गया तो समाज में व्याप्त वीआइपी संस्कृति के आतंक से भी जनता को राहत मिलेगी। अभी देश में वीआइपी संस्कृति कोरे आदेशों में समाप्त हुई है, व्यवहार में जिस दिन यह समाप्त होगी, देश का कायाकल्प दिखाई देगा। भले ही कीमती कारों से लालबत्ती गायब हो गयी हो, लेकिन आज भी धौंस जमाते तथाकथित छुटभैये नेता जिस तरह से कहर बनकर जनता को दोयम दर्जा का मानते रहे हैं, उससे मुक्ति मिलना अभी बाकि है। ऐसा होने से ही राजनीति में अहंकार, कदाचार एवं रौब-दाब की विडम्बनाओं एवं दुर्बलताओं से मुक्ति का रास्ता साफ होगा। इससे साफ-सुथरी एवं मूल्यों पर आधारित राजनीति एवं प्रशासन-व्यवस्था को बल मिलेगा।

रेल मंत्री पीयूष गोयल के इस आदेश से यह भी स्पष्ट होता है कि विशिष्ट व्यक्तियों के वाहन में लालबत्ती के इस्तेमाल को रोकने के फैसले से वीआईपी संस्कृति का पूरी तौर पर खात्मा नहीं हुआ है। इसके अनेक प्रमाण भी रह-रहकर सामने आते रहते हैं। कभी कोई मंत्री हवाई यात्रा के दौरान विशिष्ट सुविधा की मांग करता दिखता है तो कभी कोई सुरक्षा के अनावश्यक तामझाम के साथ नजर आता है। इस सबसे यही इंगित मिल रहा है कि वीआईपी संस्कृति को खत्म करने के लिए अभी और कई कदम उठाने होंगे। ऐसे कदम उठाने के साथ ही यह भी देखना होगा कि कहीं पिछले दरवाजे से वीआइपी संस्कृति वाले तौर-तरीके फिर से तो नहीं लौट रहे हैं। ऐसा इसलिए आवश्यक है, क्योंकि हमारे औसत शासक अभी भी सामंती मानसिकता से ग्रस्त नजर आते हैं। 

जैसे ही नेतागण सत्ता की ऊंची कुर्सी हासिल करते हैं, वे खुद को विशिष्ट दिखाने के लिए तरह-तरह के जतन करने में लग जाते हैं। कुछ ऐसी ही स्थिति शीर्ष नौकरशाहों की भी है। नये भारत में इस तरह के अनुशासित, अहंकारमुक्त, स्वयं को सर्वोपरि मानने की मानसिकता से मुक्त जनप्रतिनिधियों एवं प्रशासनिक अधिकारियों की प्रतिष्ठा अनिवार्य है। अंग्रेजों द्वारा अपनी अलग पहचान बनाये रखने की गरज से ऐसी व्यवस्था लागू की गई थी जिसका आंखें मूंदकर हम स्वतन्त्र भारत में पालन किये जा रहे थे। यह समझना कठिन है कि रेलवे बोर्ड के चेयरमैन अथवा सदस्यों के दौरे के समय रेलवे महाप्रबंधकों के लिए उनकी अगवानी के लिए उपस्थित होना क्यों आवश्यक था? यह आश्चर्यजनक है कि इससे संबंधित नियम पिछले 36 सालों से अस्तित्व में था और इसके पहले किसी ने भी उसे खत्म करने की जरूरत नहीं समझी। यह अच्छी बात है कि रेलमंत्री ने इस अनावश्यक व्यवस्था को खत्म करने के साथ ही अन्य अनेक अनुकरणीय फैसले भी लिए हैं । इन फैसलों के तहत अब किसी अधिकारी को कभी भी गुलदस्ता और उपहार नहीं दिए जाएंगे। रेलवे के वरिष्ठ अधिकारियों को केवल दफ्तर में ही नहीं बल्कि घर पर भी इस तरह की पाबंदी का पालन करना होगा। इसके साथ ही करीब तीस हजार वे कर्मचारी अब रेलवे की सेवा में लगेंगे जो अभी तक रेल्वे के अधिकारियों के यहां घरेलू सहायक के तौर पर काम कर रहे थे। 
एक रेल्वे ही नहीं ऐसे अनेक केन्द्र एवं राज्य सरकारों के विभाग है जिनके लाखों कर्मचारी अपने अधिकारियों के यहां घरेलू सहायकों के रूप में कार्य करते हैं, उनके यहां भी इस तरह की वीआईपी संस्कृति को समाप्त किया जाना नितान्त अपेक्षित है। अच्छा यह होगा कि केंद्र सरकार और साथ ही राज्य सरकारों के स्तर पर सुनिश्चित किया जाए कि किसी भी विभाग के अधिकारी कर्मचारियों को घरेलू सहायक के रूप में इस्तेमाल न करें। चूंकि वीआईपी संस्कृति के तहत खुद को आम लोगों से अलग एवं विशिष्ट दिखाने की मानसिकता ने कहीं अधिक गहरी जड़ें जमा ली हैं इसलिए उन्हें उखाड़ फेंकने के लिए हर स्तर पर सक्रियता दिखानी होगी। कई लोग सत्ता एवं सम्पन्नता के एक स्तर तक पहुंचते ही अफण्ड करने लगते हैं और वहीं से शुरू होता है प्रदर्शन का ज़हर और आतंक। समाज में जितना नुकसान परस्पर स्पर्धा से नहीं होता उतना प्रदर्शन से होता है। प्रदर्शन करने वाले के और जिनके लिए किया जाता है दोनों के मन में जो भाव उत्पन्न होते हैं वे निश्चित ही सौहार्दता एवं समता से हमें बहुत दूर ले जाते हैं। अतिभाव और हीन-भाव पैदा करते हैं और बीज बो दिये जाते हैं शोषण, कदाचार और सामाजिक अन्याय के। अब यदि आजादी के बाद से चली आ रही वीआईवी संस्कृति की इन विसंगतियों एवं विषमताओं को दूर करने की ठानी है तो जनता को शकुन तो मिलेगा ही और इसके लिये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बधाई के पात्र है।

वीआईपी संस्कृति ने जनतांत्रिक और समतावादी मूल्यों को ताक पर ही रख दिया था। हर व्यवस्था कुछ शीर्ष पदों पर आसीन व्यक्तियों को विशिष्ट अधिकार हासिल होते हैं, इसी के अनुरूप उन्हें विशेष सुविधाएं भी मिली होती हैं। जिस अधिकारी या व्यक्ति को वीआईपी की सुविधा मिली थी, उनके पारिवारिकजन एवं मित्र आदि इस रौब या वीआईपी होने का दुरुपयोग करने लगे। आम जनता से हटकर एक खास मनोवृत्ति को प्रतिबिंबित करने का जरिया बन गई यह र्वीआपी संस्कृति। अपने रुतबे का प्रदर्शन और सत्ता के गलियारे में पहुंच होने का दिखावा- इस तरह सत्ता का अहं अनेक विडम्बनापूर्ण स्थितियां का कारण बनती रही। अपने को अत्यंत विशिष्ट और आम लोगों से ऊपर मानने का दंभ- एक ऐसा दंश या नासूर बन गया जो तानाशाही का रूप लेने लगा। जनता को अधिक-से-अधिक सुविधा एवं अधिकार देने की मूल बात कहीं पृष्ठभूमि में चली गयी और राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी कई बार अपने लिये अधिक सुविधाओं एवं अधिकारों से लैस होते गये। शासन एवं राजनीति की इस बड़ी विसंगति एवं गलतफहमी को दूर करने का रास्ता खुला है जो लोकतंत्र के लिये एक नयी सुबह है। क्योंकि राजनीति एवं प्रशासन में आम लोगों के विश्वास को कायम करने के लिये इस तरह के कदम जरूरी है। सत्ता का रौब, स्वार्थ सिद्धि और नफा-नुकसान का गणित हर वीआईपी पर छाया हुआ है। सोच का मापदण्ड मूल्यों से हटकर निजी हितों पर ठहरता रहा है। यही कारण है राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रीय चरित्र निर्माण की बात उठना ही बन्द हो गयी। जिस नैतिकता, सरलता, सादगी, प्रामाणिकता और सत्य आचरण पर हमारी संस्कृति जीती रही, सामाजिक व्यवस्था बनी रही, जीवन व्यवहार चलता रहा वे आज लुप्त हो गये हैं। उस वस्त्र को जो राष्ट्रीय जीवन को ढके हुए था आज हमने उसे तार-तारकर खूंटी पर टांग दिया था। मानों वह हमारे पुरखों की चीज थी, जो अब इतिहास की चीज हो गई। लेकिन अब बदलाव आ रहा है तो संभावनाएं भी उजागर हो रही हैं। लेकिन इस सकारात्मक बदलाव की ओर बढ़ते हुए समाज की कुछ खास तबकों को भी स्वयं को बदलना होगा। राजनेताओं की भांति हमारे देश में पत्रकार, वकील आदि ऐसे वर्ग है जो स्वयं को वीआईपी से कम नहीं समझते। इन लोगों के लिये भी कुछ नियम बनने चाहिए।

वस्तुतः वीआईपी संस्कृति नहीं, एक कुसंस्कृति हो गयी है और एक बुरी संस्कृति के रूप में इसका विस्तार हो जाने का ही यह दुष्परिणाम है कि शीर्ष पदों पर बैठे नेता एवं नौकरशाह आम लोगों की समस्याओं के समाधान करने को लेकर आवश्यक संवेदनशीलता का परिचय देने से इन्कार करते हैं। जब तक शासक वर्ग स्वयं को आम जनता से अलग एवं विशिष्ट मानता रहेगा तब तक जनसमस्याओं के समाधान की प्रक्रिया शिथिल ही रहने वाली है। यह आवश्यक हो जाता है कि रेल मंत्री ने अपने विभाग में वीआइपी संस्कृति को खत्म करने के लिए जैसे कदम उठाए वैसे ही कदम अन्य सभी मंत्री भी उठाएं। असली मुद्दा राजनीति एवं प्रशासन में सेवा, सादगी एवं समर्पण के लिये आने वाले लोगों का नहीं बल्कि ऐसे अति विशिष्ट बने व्यक्तियों का है जो राजनीति में आते ही प्रदर्शन, अहंकार एवं रौब गांठने के लिये है और ऐसे ही लोग जोड़-तोड़ करके वीआईपी सुविधाएं जुटा लेते थे और फिर समाज, प्रशासन व पुलिस में अपना अनुचित प्रभाव जमाते थे। ऐसे लोग तो सड़कों पर आतंक एवं अराजकता का माहौल तक बनाने से बाज नहीं आते थे। इसकी आड़ में असामाजिक तत्व भी ऐसे कारनामे कर जाते थे जिनसे कानून-व्यवस्था की रखवाले पुलिस तक को बाद में दांतों के नीचे अंगुली दबानी पड़ती थी। ऐसे ही वीआईपी कभी टोलकर्मी को थप्पड़ मार देते हंै, तो कोई एयरपोर्ट अधिकारी को थप्पड़ मारकर ही अपने आपको शंहशाह समझ रहा है, इन हालातों में कैसे वीआईपी की मानसिकता से इन राजनेताओं को मुक्ति दिलाई जा सकती है? यह शोचनीय है।




(ललित गर्ग)
60, मौसम विहार, तीसरा माला, डीएवी स्कूल के पास, दिल्ली-110051
फोनः 22727486, 9811051133

गैर-आदिवासी को आदिवासी बनाने की कुचेष्टा क्यों? -ः गणि राजेन्द्र विजय:-

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इन दिनों समाचार पत्रों एवं टी​​वी पर प्रसारित समाचारों से यह जानकर अत्यंत दुख हुआ कि गुजरात में लंबे समय से गैर आदिवासियों को आदिवासी सूची में शामिल करने की कुचेष्टाएं चल रही हैं। राजनीति लाभ के लिये इस तरह आदिवासी जनजाति के अधिकारों एवं उनके लिये बनी लाभकारी योजनाओं को किसी गैर आदिवासी जाति के लोगों को असंवैधानिक एवं गलत तरीकों से हस्तांतरित करना न केवल आपराधिक कृत है बल्कि अलोकतांत्रिक भी है। इस तरह की कुचेष्टाओं के कारण आदिवासी जन-जीवन में भारी आक्रोश है और इसका आगामी गुजरात विधानसभा चुनाव पर व्यापक प्रभाव पड़ने वाला है। सत्ता पर काबिज भाजपा को इसका भारी नुकसान झेलना पड़ सकता है। गुजरात में श्री नरेन्द्र मोदी के मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद से ही भाजपा की स्थिति निराशाजनक बनी हुई है। जिस प्रांत से प्रधानमंत्री एवं भाजपा अध्यक्ष आते हो, उस प्रांत पर सभी राजनीतिक दलों की निगाहे लगी हुई है और वहां की स्थिति डांवाडोल होना एक गंभीर चुनौती है। आदिवासी जन-जाति के साथ हो रहा सत्ता का उपेक्षापूर्ण व्यवहार ही नहीं, दलितों, पाटीदारों, कपड़ा व्यवसायियों की नाराजगी ऐसे मुद्दे हंै जो भाजपा की 22 वर्षों से चली आ रही प्रतिष्ठा एवं सत्ता को धूमिल कर सकते हैं। 

आदिवासी जन-जाति के अधिकारों के हनन की घटना तो राजनीति तूल पकड़ ही रही है, इधर गुजरात में दलित उत्पीड़न की घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रहीं। गाय को लेकर ऊना में दलितों के साथ हुई मारपीट के बाद आणंद जिले में एक दलित युवक को सिर्फ इसलिए मार डाला गया क्योंकि वह गरबा देख रहा था।  पिछले हफ्ते ही गांधीनगर के एक गांव में दो दलित युवकों पर इसलिए हमला किया गया क्योंकि उन्होंने मूंछें रखी हुई थीं, इन घटनाओं से दलित गुस्से में हैं। गुजरात में पाटीदार आरक्षण के मुद्दे पर नाराज हैं। 2 साल पहले हार्दिक पटेल की अगुवाई में शुरू हुए आंदोलन की आग ने बीजेपी की सत्ता को झुलसा दिया था, जिसके चलते आनंदी बेन पटेल को अपनी कुर्सी तक गंवानी पड़ गई थी। गुजरात की राजनीति में वहां के आदिवासी समुदाय की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका है, वह समुदाय भी लगातार हो रही उपेक्षा से नाराज है। इन सब स्थितियों एवं मुद्दों को कांग्रेस भुनाना चाहती है और ये ही मुद्दे बीजेपी के लिये भी भारी पड़ रहे हैं।

 भाजपा के ही अनेक आदिवासी नेता नाराज है, यह नाराजगी गैरवाजिब नहीं है। सन् 1956 से लेकर 2017 तक के समय में सौराष्ट्र के गिर, वरडा एवं आलेच के जंगलों में रहने वाले भरवाड, चारण, रबारी एवं सिद्धि मुस्लिमों को इनके संगठनों के दवाब में आकर गलत तरीकों से आदिवासी बनाकर उन्हें आदिवासी जाति के प्रमाण-पत्र दिये गये हैं और उन्हें आदिवासी सूची में शामिल कर दिया गया है। यह पूरी प्रक्रिया बिल्कुल गलत, असंवैधानिक एवं गैर आदिवासी जातियों को लाभ पहुंचाने की कुचेष्टा है, जिससे मूल आदिवासियों के अधिकारों का हनन हो रहा है, उन्हें नौकरियों एवं अन्य सुविधाओं से वंचित होना पर रहा है। यह मूल आदिवासी समुदाय के साथ अन्याय है और उन्हें उनके मूल अधिकारों से वंचित करना है। आदिवासी जनजीवन के साथ हो रहे अनुचित एवं अन्यायपूर्ण अधिकारों के हनन की घटनाओं को सरकार ने नहीं रोका तो इसके लिये भाजपा को भारी नुकसान हो सकता है। संस्कृति, परंपरा और धर्म के नाम पर पलने वाली राजनीति इन रुग्ण प्रवृत्तियों को क्यों ताकत दे रही है? आदिवासी-दलितों के उत्पीड़न के पीछे उन्हें उनकी औकात याद दिलाने का भाव काम कर रहा है, क्योंकि ऐसा करने वालों को लगता है कि सत्ता का हाथ उनके साथ है। अफसोस और चिंता की बात यह है कि उन्हें गलत साबित करने की कोई तत्परता सत्तारूढ़ दायरों में नहीं दिख रही, जो हम जैसे लोगों के लिये गहरी चिन्ता का विषय है।

मैं स्वयं आदिवासी क्षेत्र में जन्मा एवं जैन परम्परा में दीक्षित हूं। मेरे जीवन का ध्येय आदिवासी जीवन का उत्थान है। मेरे लिए यह बड़ा दुखद है कि पिछले 60 वर्षों से मूल आदिवासी जाति के अधिकारों को जबरन हथियाने और उनके नाम पर दूसरी जातियों को लाभ पहुंचाने की अलोकतांत्रिक प्रक्रियाएं चल रही हैं जिन्हें तत्काल रोका जाना आवश्यक है अन्यथा इन स्थितियों के कारण आदिवासी जनजीवन में पनप रहा आक्रोश एवं विरोध विस्फोटक स्थिति में पहुंच सकता है। मूल आदिवासियों की एक समृद्ध संस्कृति एवं जीवनशैली है, उनका समग्र विकास करने के लिए सरकार ने जो कल्याणकारी योजना एवं व्यवस्थाएं बनायी उनका लाभ अनुचित लोगों एवं जातियों को मिले, यह विडम्बनापूर्ण है। झूठे एवं जालसाजी तरीके से इन आदिवासी जंगलों से बाहर रहने वाले लोगों एवं जातियों को भी प्रमाण पत्र देकर उन्हें आदिवासी सूची में शामिल किया जा रहा है और आदिवासियों को मिलने वाले लाभों से उन्हें लाभान्वित किया जा रहा है, यह एक तरह का षडयंत्र है जिस पर अविलंब अंकुश लगना जरूरी है। 

झूठे और गलत प्रमाण पत्रों की वजह से गैर आदिवासी लोग एवं जातियां आदिवासी सूची में शामिल हो रही है और इसके आधार पर उन्हें सरकारी नौकरियां भी प्रथम श्रेणी से निचले श्रेणी तक प्राप्त हो रही है। न केवल भारत सरकार बल्कि गुजरात सरकार की भर्ती में हजारों की संख्या में ये तथाकथित आदिवासी नौकरी प्राप्त कर रहे हैं, आदिवासी कोटे का दुरुपयोग कर रहे हैं। सरकार और व्यवस्था को गुमराह कर रहे हैं जिससे मूल आदिवासी नौकरी से तो वंचित हो रहे हैं अन्य सुविधाएं एवं अधिकारों का भी उन्हें लाभ प्राप्त नहीं हो पा रहा है। इन स्थितियों से गुजरात में आदिवासी समुदाय बहुत नाराज है, दुखी है और उनमें विरोध का स्वर उभर रहा है। यदि समय रहते इन गलत एवं गैरवाजिब स्थितियों पर नियंत्रण नहीं किया गया तो बाहरी एवं अन्य जाति के लोग आदिवासी बनते रहेंगे और मूल आदिवासियों की संख्या तो कम होगी ही साथ-ही-साथ उनके अधिकार भी समाप्त हो जायेंगे। एक सोची समझी रणनीति एवं षडयंत्र के अंतर्गत गैर आदिवासियों को आदिवासी सूची के शामिल किया जा रहा है। जिससे मूल आदिवासियों की संख्या कम हो रही है एवं घुसपैठिया आदिवासी पनप रहे हैं। इन तथाकथित भरवाड, चारण, रवाडी, सिद्धि मुस्लिम जातियों को गलत प्रमाण पत्र के आधार पर आदिवासी सूची में शामिल किये जाने की घटनाओं को लेकर भाजपा पर आरोप लगना, एक गंभीर स्थिति को दर्शा रहा है। जिस प्रांत में नरेन्द्र मोदी आदिवासी विकास के लिये सक्रिय रहे हैं, मेरे ही नेतृत्व में संचालित सुखी परिवार अभियान के अन्तर्गत आदिवासी कल्याण की अनेक योजनाओं को स्वीकृति दी, एकलव्य माॅडल आवासीय विद्यालय खोला, आदिवासी लोगों के अस्तित्व एवं अस्मिता को नयी ऊर्जा दी, ऐसा क्या हुआ कि भीतर ही भीतर उन्हें आदिवासी जन-जाति की जड़ों को ही काटा जा रहा है। 

अब जबकि चुनाव का समय सामने है यही आदिवासी समाज जीत को निर्णायक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली है। हर बार चुनाव के समय आदिवासी समुदाय को बहला-फुसलाकर उन्हें अपने पक्ष में करने की तथाकथित राजनीति इस बार असरकारक नहीं होगी। क्योंकि गुजरात का आदिवासी समाज बार-बार ठगे जाने के लिए तैयार नहीं है। इस प्रांत की लगभग 23 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की हैं। देश के अन्य हिस्सों की तरह गुजरात के आदिवासी दोयम दर्जे के नागरिक जैसा जीवन-यापन करने को विवश हैं। यह तो नींव के बिना महल बनाने वाली बात हो गई। राजनीतिक पार्टियाँ अगर सचमुच में प्रदेश के आदिवासी समुदाय का विकास चाहती हैं और ‘आखिरी व्यक्ति’ तक लाभ पहुँचाने की मंशा रखती हैं तो आदिवासी हित और उनकी समस्याओं को हल करने की बात पहले करनी होगी। 

इन दिनों गुजरात के आदिवासी समुदाय का राजनीति लाभ बटोरने की चेष्टाएं सभी राजनीतिक दल कर रहे हैं। पिछले दिनों भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने गुजरात के एक आदिवासी परिवार के साथ दोपहर का भोजन किया। लेकिन इन सकारात्मक घटनाओं के साथ-साथ आदिवासी समुदाय को बांटने और तोड़ने के व्यापक उपक्रम भी चल रहे हैं जिनमें अनेक राजनीतिक दल अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए इस तरह के घिनौने एवं देश को तोड़ने वाले प्रयास कर रहे हैं। जबरन गैर-आदिवासी को आदिवासी बनाने के घृणित उपक्रम को नहीं रोका गया तो गुजरात का आदिवासी समाज खण्ड-खण्ड हो जाएगा। आदिवासी के उज्ज्वल एवं समृद्ध चरित्र को धुंधलाकर राजनीतिक रोटियां सेंकने वालों से सावधान होने की जरूरत है। तेजी से बढ़ता आदिवासी समुदाय को विखण्डित करने का यह हिंसक दौर आगामी चुनावों के लिये गंभीर समस्या बन सकता है। एक समाज और संस्कृति को बचाने की मुहीम के साथ यदि इन चुनावों की जमीन तैयार की जाये, आदिवासी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले नेताओं को प्रोत्साहन मिले, उनको आगे करके इस चुनाव की संरचना रची जाये तो ही भाजपा अपनी राजनीतिक जमीन को बचा सकती है। 



(बरुण कुमार सिंह)
-ए-56/ए, प्रथम तल, लाजपत नगर-2
नई दिल्ली-110024,  मो. 9968126797

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