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झारखण्ड विशेष : राजसत्ता और ग्रामसत्ता के बीच संघर्ष क्यों?

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झारखंड में राजससत्ता और ग्रामसत्ता के बीच संघर्ष पिछले लगभग 150 वर्षों से जारी है। इसकी शुरूआत अंग्रेजों के भारत आने के बाद हुई जब उन्होंने कानूनी जामा पहनाकर जीवन जीने के मूल संसाधन - जंगल और जमीन पर कब्जा करना प्रारंभ किया। इसके खिलाफ बाबा तिलका मांझी, सिदो-कान्हो और कई आदिवासियों ने बगावत की और राजसत्ता ने उन्हें फांसी पर लटका दिया। इसी क्रम में बिरसा मुंडा को जेल में डाल दिया गया जहां उनकी मृत्यु हो गयी। आजादी के बाद इन संसाधनों पर कब्जा करने की प्रक्रिया भारतीय शासकों के साथ-साथ व्यापारी वर्ग ने भी प्रारंभ की क्योंकि शासन को अप्रत्यक्ष रूप से व्यापारी वर्ग ही चलाने लगे। उन्होंने अपने फायदे के अनुसार कानून और नीतियां बनवायी लेकिन ग्रामसत्ता ने इसे स्वीकार नहीं की और न कभी हार मानी इसलिए संघर्ष जारी रहा। 

झारखंड राज्य गठन के बाद भी राजसत्ता और ग्रामसत्ता का संघर्ष थमने के बजाये और ज्यादा गहराता चला गया। खूंटी जिला स्थिति तपकारा में कोईल-कारो परियोजना का विरोध करने वाले आंदोलनकारियों पर पुलिस ने फायरिंग की जिसमें 8 लोग शहीद हुए। लेकिन राजसत्ता यहां के संसाधनों को बेचने का काम जारी रखा, जिसके लिए 104 एम.ओ.यू. पर हस्ताक्षर हुए। दूसरी ओर ग्रामसत्ता ने संसाधनों को बेचने के खिलाफ मोर्चा खोलकर रखा। फलस्वरूप, अधिकांश एम.ओ.यू. को जमीन पर नहीं उतारा जा सका। कोल्हान में जिंदल स्टील, भूषण स्टील और एस्सार का विरोध करने वालों के खिलाफ मुकदमा किया गया वही दुमका जिले के काठीकुंड में पावर प्लांट का विरोध करने वालों पर गोली चली, जिसमें 2 लोग शहीद हुए, कई घायल हैं और कई आंदोलनकारियों को महीनों तक जेल में बंद रखा गया। जब आदिवासियों ने जादुगोड़ा स्थित यूसीएल के खिलाफ मोर्चा खोला तो वहां भी राजसत्ता का दमन जारी रहा। इसलिए सवाल यह उठता है कि आखिर राजसत्ता और ग्रामसत्ता के बीच का संघर्ष का कोई अंत है? यह समझना बहुत जरूरी है कि इस संघर्ष के पीछे मौलिक कारण क्या है? और इसका अंत क्या होगा? 

संसाधन पर कब्जाः झारखंड में देश का कुल 40 प्रतिशत खनिज सम्पदा है, जो मुख्यतः आदिवासी बहुल क्षेत्रों में स्थित है। आदिवासी समुदाय का जीवन चक्र प्रकृतिक संसाधन - जल, जंगल और जमीन पर आधारित है। साथ ही यह समुदाय लाभ पर आधारित नहीं है तथा सामुदायिकता, समानता और स्वतंत्रता इसके प्रमुख चरित्र है, जिसकी वजह से इस समुदाय ने प्रकृतिक संसाधनों का आपने जरूरत के हिस्साब से उपयोग किया लेकिन निजी फायदे के लिए इसका दोहन नहीं किया। इन्हें यह पता है कि उनका जीवन धरती पर तभी तक है जबतक प्राकृतिक संसाधन बरकरार हैं। लेकिन राज्यसत्ता इन संसाधनों का आर्थिक विकास के नाम पर दोहन कर उससे भारी मुनाफा कमाना चाहती है इसलिए इसे किसी भी कीमत पर अपने कब्जे में करना चाहती है। लेकिन ग्रामसत्ता इससे देने को तैयार नहीं है क्योंकि ग्रामसत्ता का आधार भी ये संसाधन ही हैं।  

अन्यायपूर्ण नीतिः राजसत्ता ने प्रारंभ से ही अन्यायपूर्ण नीति बनायी और उसको लागू किया। संसाधन समुदाय के कब्जे में था लेकिन अंग्रेज सरकार ने 1793 में स्थायी बंदोबस्त कानून लाकर समुदाय को ही तितर-बितर कर दिया। इसके बाद 1865 में जंगलों को कानूनी जामा पहनाकर अपने कब्जे में कर लिया। पुनः विकास के नाम पर 1894 में भूमि अधिग्रहण कानून, इंडस्ट्रिज डेवलपमेन्ट एंड रेग्यूलेशन एक्ट 1951 एवं कोल व्यारिंग एक्ट 1957 बनाया गया। वन्यजीवन संरक्षण के नाम पर 1972 में और वन संरक्षण के नाम पर 1980 में कानून बनाया गया। इस तरह से कानूनी जामा पहनाकर राजसत्तापूरी तरह से प्रकृतिक संसाधनों पर कब्जा जमा लिया। वहीं ग्रामसत्ता के भारी विरोध को देखते हुए राजसत्ता ने संताल परगना काश्तकारी अधिनियम, विलकिल्सन रूल्स, छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम, वन अधिकार कानून एवं पुनर्वास नीति बनायी, लेकिन इसको ईमानदारी पूर्वक लागू ही नहीं किया गया। ये क्रांतिकारी कानून और नीतियां सिर्फ जनाक्रोस को दबाने के लिए बनाया गया। लोगों के आजीविका के संसाधन विकास, वन एवं वन्यजीवन संरक्षण एवं राष्ट्रहित के नाम पर छिन लिया गया लेकिन उन्हें न ही उचित मुआवजा दिया गया और न ही किसी तरह की पुनर्वास की गई।

ग्रामसत्ता को नाकारनाः अंग्रेज सरकार को ग्रामसत्ता के ताकत का एहसास था और ग्रामसत्ता के विरोध को झेल नहीं पाने के कारण ही अंग्रेजो ने संताल परगना काश्तकारी अधिनियम, विलकिल्सन रूल्स एवं छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम बनाये थे। लेकिन आजादी के बाद भारत सरकार ने आदिवासियों के ग्रामसत्ता को ही नाकार दिया। इसका कारण यह था कि अगर ग्रामसत्ता को मजबूत बनाया गया होता तो राजसत्ता प्राकृतिक संसाधनों का दोहन नहीं कर पाती। लेकिन आदिवासियों के भारी विरोध के बाद केन्द्र सरकार ने भी 1996 में पेसा कानून के माध्यम से आदिवासी ग्रामसत्ता को कुछ हद तक संवैधानिक अधिकार दे दिया। लेकिन झारखंड राज्य के गठन के बाद राज्यसत्ता ने फिर से झारखंड पंचायत राज अधिनियम 2001 के द्वारा ग्रामसत्ता को छलते हुए उसकी असली ताकत को समाप्त खत्म कर दिया गया है। फलस्वरूप, राज्यसत्ता और ग्रामसत्ता के बीच संघर्ष जारी है। इसकी वजह यह है कि राज्यसत्ता को मालूम है कि अगर ग्रामसत्ता मजबूत हो गया तो उनसे प्राकृतिक संसाधन छिनकर बाजार में बेचना बहुत मुश्किल हो जायेगा। इसलिए ग्रामसत्ता को नाकार कर उसे कमजोर कर दिया जाये ताकि अंत में ग्रामसत्ता स्वयं को राजसत्ता के हवाले कर दे। लेकिन ग्रामसत्ता अभी भी कुछ हद तक ताकतवर है फलस्वरूप राजसत्ता के खिलाफ संघर्ष जारी है।  

ताकतवर बनने की नीति: आज दुनियां में जिनके पास जितना ज्यादा संसाधन है वह उतना ही ताकतवर है। इसीलिए भारत सरकार देश के पूरे संसाधनों को अपने कब्जे में लेकर दुनियां को अपने ताकत का एहसास कराना चाहती है। चूंकि देश में संसाधनों की प्रचुरता के बावजूद सरकार ताकतवर नहीं बन पायी है। लेकिन वहीं दूसरी ओर अधिकतर राज्य ऐसे हैं, जिनकी निर्भरता 70 से 80 प्रतिशत केन्द्र सरकार पर ही रहती है। लेकिन खासकर आदिवासी बहुल राज्य, जिनके पास प्राकृतिक संसाधन प्रचुर मात्रा में है वे केन्द्र से ज्यादा स्वतंत्र है तथा आत्मनिभर बनना चाहते हैं। इसलिए वे इन संसाधनों को पूरी तरह से जनता से छिनकर अपने कब्जे में करना चाहते है, जिससे कि वे इससे बेचकर आर्थिक रूप से आत्मनिभर बने तथा केन्द्र सरकार को अपने ताकत का एहसास करा सके। लेकिन अभी तक प्राकृतिक संसाधन ग्रामसत्ता के अधीन है और ग्रामसत्ता इन संसाधनों को किसी भी कीमत पर राज्य के कब्जे में देने को तैयार नहीं है क्योंकि ये संसाधन ही ग्रामसत्ता के ताकत का मुख्य आधार हैं।

राजसत्ता का दमनः राजसत्ता जिसका प्रमुख दायित्व लोगों के संवैधानिक प्रदत्त अधिकारों को सुनिश्चित करना है। लेकिन झारखंड में यह हमेशा से ही विपरीत दिशा में चलती दिखती है। जब-जब लोगों ने अपने संवैधानिक अधिकारों का उपयोग कर सरकार के अन्यायपूर्ण नीतियों का अहिंसक तरीके से विरोध किया है तब-तब उन्हें राजसत्ता का दमन झेलना पड़ा है। लोग कई गोलीकांड में मारे गये, उनके खिलाफ मुकदमा किया गया, उन्हें जेल में डाला गया और उन्हे यातना दी गई। इतना ही नहीं अन्यायपूर्ण विकास प्रक्रिया का विरोध करने वालों को विकास विरोधी, देशद्रोही और नक्सलवाद का समर्थक तक कहा गया। लगभग 1000 लोग पुलिस फायरिंग और फर्जी मुठभेड़ में मारे जा चुके हैं और 6000 लोगों विभिन्न जेलों में बंद हैं। इसलिए अगर इस तरह से राजसत्ता का दमन जारी रहेगा तो स्वाभाविक है कि राज्यसत्ता और ग्रामसत्ता के बीच संघर्ष होगा। इसलिए राज्यसत्ता को आत्मविश्लेषन करना चाहिए कि क्या वह अपने संवैधानिक दायित्वों का सही तरीके से निर्वाहण कर पा रहा है?

ऐसी स्थिति में राज्यसत्ता और ग्रामसत्ता के बीच सदियों से चल रहे संघर्ष को समाप्त करने के लिए राजसत्ता को ही कुछ ठोस कदम उठाना होगा। इसके लिए सबसे पहले ग्रामसत्ता को स्वीकार करते हुए पेसा कानून के तहत राज्य के योजना निमार्ण, कार्यान्वयन एवं अनुपालन में भागीदार बनाना, राजसत्ता का दमन रोकना, लोगों के संवैधानिक अधिकारों को ईमानदारी पूर्वक सुनिश्चित करना, आजीविका के संसाधना से बेदखल किये गये लोगों को संसाधन मुहैया कराना तथा अन्यापूर्ण तरीके से लोगों का संसाधन छिनना बंद करना होगा। ग्रामसत्ता को प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार देना ही इसमें सबसे बड़ा क्रांतिकारी कदम होगा जो राज्यसत्ता और ग्रामसत्ता के टकराव को समाप्त कर देगा। लेकिन अनुत्तारित प्रश्न यह है कि क्या राज्यसत्ता इसके लिए तैयार भी होगा?



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लेखक मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। 

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