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बिहार विशेष : भाई-बहन के सात्विक स्नेह का प्रतीक है सामा-चकेवा

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पटना 24 नवम्बर, भाई -बहन के प्यार का प्रतीक लोक पर्व सामा-चकेवा को लेकर पूरे मिथिलांचल में उत्सव जैसा माहौल है। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की तिथि सप्तमी से पूर्णिमा तक चलने वाले इस नौ दिवसीय लोकपर्व सामा-चकेवा में भाई-बहन के सात्विक स्नेह की की गंगा निरंतर प्रवाहित हो रही है जो कार्तिक पूर्णिंमा के साथ ही खत्म हो जायेगी सामा-चकेवा सिर्फ भाई-बहन की नहीं बल्कि पर्यावरण से संबद्ध भी माना जाता है। यह लोकपर्व छठ के दिन से शुरू होता है और कार्तिक पूर्णिमा तक मनाया जाता है। इस लोकपर्व के दौरान पिछले एक सप्ताह से शाम ढ़लते ही बहने अपने-अपने डाला में सामा चकेवा को सजा कर सार्वजनिक स्थान पर बैठ कर गीत गा रही है। छठ के सुबह के अर्घ्य खत्म होते ही गांव की सड़कों पर लोकगीत ‘सामा खेलबई हे ...’ के महिलाओं द्वारा स्वर सुनाई पड़ने के साथ बिहार के मिथिलांचल क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान के एक अनोखे पर्व का आगाज़ हो जाता है। भले ही पाश्चात्य संस्कृति के आक्रमण से देश-गांव अछूता नहीं है, फिर भी लोक-आस्था और लोकाचार की प्राचीन परंपरा से जुड़े भाई-बहनों के बीच स्नेह का लोकपर्व सामा-चकेवा मिथिलांचल में आज भी काफ़ी हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है। 

सामा-चकेवा के पौराणिक गीतों के बोल सामूहिक रूप से मिथिलांचल की परंपरा को जीवंत बनाते हैं। सप्तमी को छठ गीत के थमते ही और शाम होते ही गांव की फ़िज़ां सामा-चकेवा के गीतों से गुलज़ार हो जाती है। चूल्हा-चौका के बाद गांव की लड़कियां रात में चौराहे पर जुटकर सामा-चकेवा के गीत .... “सामचक-सामचक अइया हे .... ” ... गाना शुरु कर देती हैं। साथ ही शुरु होता है विवाहित महिलाओं द्वारा जट-जटिन का खेल। बहनें अपनी पारंपरिक वेशभूषा में लालटेन के प्रकाश में गाती दिखती हैं। कितना मनोरम दृष्य होता है! जहां एक ओर भाई-बहन के स्नेह की अटूट डोर है, वहीं दूसरी तरफ़ ननद-भौजाई की हंसी-ठिठोली भी कम नहीं। इस पर्व की एक बड़ी रोचक परंपरा है। पर्व के दौरान भाई-बहन के बीच दूरी पैदा करने वाले चुगला-चुगली को सामा खेलने के दौरान जलाने की परंपरा है। इसका मकसद बड़ा ही प्यारा है। चुगला-चुगली तो प्रतीक हैं – उद्देश्य तो है सामाजिक बुराइयों का नाश। इस पर्व के दौरान बहन अपने भाई के दीर्घ जीवन एवं सम्पन्नता की मंगल कामना करती है। सामा, चकेवा के अलावा डिहुली, चुगला, भरिया खड़लिस, मिठाई वाली, खंजन चिरैया, भभरा वनततीर झाकी कुत्ता ढोलकिया तथा वृन्दावन आदि की मिट्टी की मूर्ति का प्रयोग होता है। पौराणिकता और लौकिकता के आधार पर यह लोक पर्व न तो किसी जाति विशेष का पर्व है और न ही मिथिला के क्षेत्र विशेष का ही। यह पर्व हिमालय की तलहट्टी से लेकर गंगातट तक और चंपारण से लेकर पश्चिम बंगाल के मालदा-दीनाजपुर तक मनाया जाता है। दीनाजपुर मालदाह में बंगला भाषी महिलाएं भी सामा-चकेवा के मैथिली गीत ही गाती हैं। जबकि चंपारण में भोजपुरी मिश्रित मैथिली गीत गाए जाते हैं। नौ दिवसीय इस पर्व का कल यानी कार्तिक पूर्णिमा के दिन भले ही समापन हो जायेगा लेकिन बहनों के लिए अपने भाई के प्रति प्रेम की धारा पूरे साल अविरल बहती रहेगी। 

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