किसी भी राश्ट्र के विकास में षिक्षा के योगदान को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। जिन देषों ने षिक्षा के महत्व को समझा और अपनाया वह देष विकास की दृश्टि से उन देषों से कहीं ज़्यादा आगे निकल गए जो आज भी षैक्षिक तौर पर पिछड़े हुए हंै। आज़ादी के 66 सालों के बाद हमारे देष की षिक्षा व्यवस्था में काफी सुधार हुआ है, लेकिन अगर ग्रामीण इलाकों में षिक्षा की बात की जाए तो हालात बहुत अच्छे नज़र नहीं आते हैं। खासतौर से लड़कियों की षिक्षा तो और ज़्यादा बदतर है। राष्ट्रीय ग्रामीण विकास संस्थान की एक रिप¨र्ट के अनुसार भारत के ग्रामीण क्षेत्र¨ं में अभी भी महिला साक्षरता की दर मात्र 58.75 प्रतिशत है। जिसका मतलब है कि अभी भी महिलाअ¨ं का आधा हिस्सा असाक्षर है। तकनीक अ©र तरक्की के इस द©र में हमारे देश की ग्रामीण महिलाएं शिक्षा के क्षेत्र में आज भी हाशिए पर खड़ी हैं। सरकार द्वारा महिला सशक्तीकरण के तमाम दावे करने के बावजूद ज़मीनी सच्चाई यही है कि शिक्षा आज भी महिलाअ¨ं की एक बड़ी आबादी का अधिकार नहीं बन पाया है। अगर एक सभ्य समाज का निर्माण करना है तो हमें लड़कों के साथ-साथ लड़कियों की षिक्षा पर भी खास ध्यान देना होगा। कहते हैं कि परिवार समाज की इकाई ह¨ता है अ©रे जिस तरह से एक देष को चलाने के लिए एक कुषल राजनीतिक नेतृत्व की ज़रूरत होती है ठीक उसी तरह से एक परिवार को चलाने के लिए एक समझदार और सुलझी हुई गृहिणीे की ज़रूरत होती है। एक षिक्षित महिला अपने घर को एक अषिक्षित महिला के मुकाबले ज्यादा बेहतर ढंग से चला सकती है। लड़कियों की पढ़ाई का मकसद सिर्फ नौकरी करना नहीं होता है बल्कि इसका मकसद होता है कि वह अपनी पढ़ाई के ज़रिए समाज में तब्दिली लाएं। कहते हैं परिवार बच्चे की पहली पाठषाला होती है और इस पाठषाला में सबसे अहम रोल उसकी मां का होता है। अगर किसी बच्चे की मां अषिक्षित है तो ऐसे में उसके उज्जवल भविश्य की कामना करना थोड़ा मुष्किल हो जाता है। इसलिए आज के दौर में लड़कियों और युवतियों की षिक्षा को बढ़ावा देना बेहद ज़रूरी है।
जम्मू एवं कष्मीर के जि़ला पुंछ की तहसील मेंढ़र के गांव सागरापुर में बुनियादी सुविधाओं का बड़ा अभाव है। आज़ादी के 66 वर्शों के बाद भी यह इलाका मूलभूत सुविधाओं से वंचित है। इस इलाके में षिक्षा की उचित व्यवस्था न होने की वजह से यह इलाका षिक्षा के नजरिए से काफी पिछड़ा हुआ है। इस क्षेत्र के लोग अपनी परेषानियों में इस कदर उलझे हुए हैं कि उन्हें दुनिया की कोई खबर ही नहीं है कि दुनिया में क्या हो रहा है? यहां के लोग इतना भी नहीं जानते हैं कि आज के दौर में औरतों को षिक्षित किया जाना कितना ज़रूरी है? यहां के लोग षिक्षा हासिल करने के बजाय बकरियां पालकर उन्हें बेचने में अपना फायदा समझते हैं। यहां की अ©रत¨ं का जीवन जेल में बंद एक कैदी के समान है। कहीं षिक्षा हासिल करने के लिए नहीं जा सकतीं। यहां की ज़्यादातर लड़कियां दसवीं और बारहवीं के बाद पढ़ाई छ¨ड़कर घर बैठ जाती हैं। इसमें इनकी कोई खता नहीं है क्योंकि स्कूल दूर होने की वजह से इनका वक्त आने-जाने में ही बर्बाद हो जाता है। क्षेत्र में षिक्षा की स्थिति का जायज़ा लेने के लिए ‘‘चरखा फीचर सर्विस’’ के ग्रामीण लेखक सैयद अनीस उल हक ने अपने एक साथी के साथ तहसील मेंढ़र के सरहदी इलाके धराटी का दौरा किया। यहां उन्होंने एक प्राईवेट स्कूल के छात्र-छात्रओं से बातचीत करके क्षेत्र में षिक्षा की स्थिति का जायज़ा लेने की कोषिष की। षिक्षा में आ रही कठिनाईयों का जिक्र करते हुए बारहवीं कक्षा की एक छात्रा ताहिरा जबीं कहती हैं ,’’हम पढ़ना चाहते हैं, मगर हमारी इच्छा अधूरी रह जाती है। उन्होंने अपनी परेषानी के बारे में विस्तार से बताते हुए कहा कि जब भी सरहद पर दोनों देषों के बीच फायरिंग होती है तो हमें फेंस के उस पार जाने नहीं दिया जाता। इसलिए हमें सब कुछ फेंस के अंदर चाहिए जिससे हमारी पढ़ाई का कोई नुकसान न हो। इनके मुताबिक फेंस का गेट सुबह सात बजे खुलता है और षाम को छह बजे बंद हो जाता है। जितनी पढ़ाई स्कूल में हो जाए उतनी ठीक, बाकी पढ़ाई करने का मौका ही नहीं मिलता है क्योंकि ज़्यादातर समय आने-जाने में ही बर्बाद हो जाता है।
इन लड़कियों की ख्वाहिष है कि वह भी षहरी क्षेत्रों की लड़कियों की तरह पढ़ लिखकर कुछ बने लेकिन सरहदी इलाके में कोई सेकेंडरी लेवल का स्कूल न होने की वजह से यह लड़कियां उच्च षिक्षा हासिल नहीं कर सकतीं। ऐसे में उच्च षिक्षा हासिल करने का सपना यहां की लड़कियों के लिए एक सपना ही बना हुआ है। इससे अंदाज़ा लगाना पाठकों के लिए ज़रा भी मुष्किल न होगा कि यहां की लड़कियां पढ़ाई करने के बजाय घरों में क्यों बैठी हैं? इसके अलावा बनलोई छुआरा गली में तो कोई स्कूल ही नहीं है। यहां की स्थानीय निवासी ताहिरा जान ( 19 ) पांचवी कक्षा तक ही पढ़ी हैं और उसके बाद इन्होंने स्कूल छोड़ दिया। इनसे जब आगे की पढ़ाई न करने का कारण पूछा तो इन्होंने बताया कि मेरा इरादा था कि पढ़ लिखकर कुछ बन जाऊंगी। जिस तरह से लोग पढ़े लिखे लोगों की इज्जत करते हैं उसी तरह मेरी भी इज्ज़त करेंगे। लेकिन स्कूल न होने की वजह से मेरीे सारी महत्वाकांक्षाओं पर पानी फिर गया। मैं अब क्या कर सकती हंू स्कूल न होने की वजह से मेरी पढ़ाई बीच में ही छूट गयी। जिस तरह मेरी मां ने मुझे पांचवी के बाद बकरियां चराना सिखाया था, वही हाल मेरे बच्च¨ं का भी ह¨गा। मुल्क के दूसरे हिस्सों में रहने वाले लोग षायद हमारा गम नहीं समझ सकते। हमें तो इसी हाल में अपनी जिंदगी गुज़ारनी है। सरहद पर होने की वजह से दुष्मनों के गोले हम पर बरसते हैं। हमारे गांव में ऐसा कोई आदमी नहीं है जिसका पूरा का पूरा परिवार खुषहाल हो। दुष्मनों के बरसने वाले गोलों ने हर दिल को ठेस पहुंचायी है। हमारी सरकार को हमारा कोई ध्यान ही नहीं है। हम गरीब लोग अगर अपने बच्चों को अच्छे स्कूलों में भेजेंगे तो खाने को कहां से लाएंगे। इस इलाके के स्थानीय निवासी हाजी मंज़ूर अली का कहना है कि यहां के मिडिल स्कूल में सिर्फ तो ही अध्यापक हैं। दो अध्यापक आठ कक्षाओं को कैसे पढ़ा सकते हैं। स्कूल में अध्यापकों की कमी की वजह से बच्चों की पढ़ाई नहीं हो पाती है, यही वजह है कि बच्चे फेल होकर घर बैठ जाते हैं। बनलोई की रहने वाली फिरदौस अंजुम कहती हैं कि माता-पिता हमें पढ़ाने में कोई दिलचस्पी नहीं लेते हैं, क्योंकि स्कूल बहुत दूर है। इसके अलावा जो लड़कियां पढ़ने जाती भी हैं तो उन्हें फैंस पार करके जाना पड़ता है। लिहाज़ा माता पिता लड़कियों की पढ़ाई बीच में ही छुड़वा देते हैं। सरकार को सरहदी इलाकों में षिक्षा की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए ज़रूरी कदम उठाने होंगे। सरहद पर मूलभूत सुविधाओं के साथ षिक्षा की व्यवस्था में भी सुधार लाना होगा। महज़ सरहद पर होने की वजह से अगर लड़कियां षिक्षा से दूर हो रही हैं तो यह निहायत ही षर्मनाक है।
आसिया फिरदौस
(चरखा फीचर्स)