क्षमा व्यक्तिगत स्तर पर तो गुण है,किन्तु सामाजिक व् राष्ट्रीय स्तर पर एक दोष हैं.किसी के द्वारा व्यक्तिगत अपमान करने पर उसे क्षमा करना बड़प्पन की श्रेणी में आता है.उसी व्यक्ति द्वारा देश या समाज का नुकसान करने पर उसे दंड ना देना स्वयं अपने आप में अपराध है.१९४७ के खंडित भारत को ऐसे अपराधियो ने ही दशा और दिशा दी है जिसका पराकाष्ठा अब भारत की विदेश निति में दिखती है.खासकर शीत युद्ध के अवसान के बाद जिस तरीके से अमेरिकी हस्तक्षेप विश्व में बढ़ी वह विश्व में कटुता को प्रसार करने में अहम भूमिका का निर्वाह किया है.
भारत की आंतरिक और बाह्य दोनों मुद्दों पर समय-समय पर अमेरिकी दखल की खबरें मिडिया की सुर्खिया बनती आई है. १२० करोड़ का भारत ३७ करोड़ के अमेरिका के आगे गिडगिडाता है की १७ करोड़ के पाकिस्तान को रोको की हमारे यहाँ आतंकी ना भेजे ?हद तो तब हो जाती है की इस देश के कुछ सांसद अमेरिका को अपने देश के एक राज्य के निर्वाचित मुख्यमंत्री के मामले में दखल देने को गिडगिडाते हुए गौरवान्वित होते है यानी आज भी इस देश में जयचंद के वंशज इस देश की मिटटी पलीद करने में लगें हैं . नेहरु काल ने इस देश की विदेश निति को जिस नीव पर खडा किया था उसका परिणाम है की भूटान जैसा पडोसी देश भी गाहे-बगाहे भारत को धौंस दिखाने से नहीं चुकता फिर अमेरिका तो अपने आप को विश्व का पालन करने का ठीका ले रखा है ?
वर्ष १९७६ में आतंकवादियो ने फ्रांस एयरवेज का विमान अपहरन कर लिया,उस विमान में अधिकतर इस्राइल के नागरिक सवार थे ,आतंकियो ने विमान को यूगांडा के एंटेबी शहर में उतारा ,इस्राइल ने साढे तीन हजार किलोमीटर दूर हमला करने के लिए आपरेशन थंडरबोल्ट चलाया और आतंकियो को यूगांडा में ही मारकर अपने नागरिको को मुक्त कराया किन्तु हमने आतंकियो के समूह को उसके घर तक ले जाकर छोड़ा था क्योंकि हमारी विदेश निति बंधक निति से त्रस्त थी .
नेहरूवादी विदेश नीति (जो खुद कोढ़ से ग्रसित था उसपर मार्क्सवादी कृष्ण मेनन रूपी खाज) सतत इस देश को अन्तराष्ट्रीय स्तर पर पिटाता रहा.ये वही अमेरिका है जो १९४२-४३ में जब बंगाल में पड़े भीषण अकाल में मर रहे भारतियो को अनाज भेजने के बजाय यूरोप के जानवरों को अनाज खिलाना वेहतर समझा था आज उसी अमेरिका के आगे हमारे देश के कर्णधार नंगे होने में अपनी प्रगति मानते हैं ?
आज भी भारत के बारे में इन अमेरिकियो की जानकारी कुठाओं से ग्रसित है. जो जानकारी भारत के सन्दर्भ में अमेरिका को मिली है वो या तो सेवा के नाम पर मतांतरित करने आये अमेरिकी इसाई मिशनरी के लोगो से या इस देश को जोंक की भाँती चूसने बाले अंग्रेजो और मार्क्स-मुल्ला-मैकाले के मानस पुत्रों द्वारा लिखित मनगढ़ंत विकृत इतिहासकारों से.१८९२ में स्वामी विवेकान्द जी का शिकागो धर्म संसद में में भाग लेने के उपरान्त कुछ दूसरी छवि भारत के बारे में अमेरिका में बना. नेहरु जी का गुट निरपेक्ष नीति अम्रेरिकी तनाव का मुख्य कारण बना था क्योंकि तत्कालीन अमेरिकी विदेश मंत्री जोर्ज फास्टर डेविस ने स्पष्ट घोषणा की थी की- जो देश अमेरिका के साथ नही वह अमेरिका के लिए शत्रुवत देश है . भारत को अमेरिका ने शत्रुवत देश के रूप में ही देखा जिसका फायदा चीन और पाकिस्तान आजतक उठा रहा है .९/११ के बाद भी भारत ने अपने विदेश नीति देश हित के अनुकूल नही बना पाया . आज भी अधिकांश बुधिज़ीवि और पत्रकार डालर के मोहपाश में बन्ध अमेरिकी हित को भारत में बढ़ा रहें हैं .आज भी भारत के नेता अमेरिका के मंसुवे को नही समझ पाए हैं.
लोकसभा चुनाव में जब भारत के राजनितिक दल व्यस्त हैं वैसे में अमेरिकी राजदूत नेंसी पावेल का इस्तीफा देना भारत में बदलते राजनितिक माहौल का परिणाम है .स्मरण हो भारत में चल रहे सतत एक राज्य के निर्वाचित मुख्यमंत्री के विरोध में अमेरिकी राजदूत नेन्सी पावेल भी एक स्तम्भ थी.झूठ की बुनियाद पर खड़ी यूपीए सरकार का उस निर्वाचित मुख्यमंत्री के विरोध के चक्रव्यूह में फंसी नेंसी पावेल को वर्तमान परिस्तिथि में हटाने के सिवा अमेरिका के पास कोई दुसरा विकल्प नही था. यूपीए सरकार की कुंठित मानसिकता और नीतिगत अपंगता में फंसी नेंसी पावेल ने एक निर्वाचित मुख्यमंत्री के प्रति जो नज़रिया अपनाया वह अमेरिकी विदेश नीति को कलंकित किया है.
राजनितिक निर्णयों में इतिहास के घोड़े की दूर से आती पदचाप को सुनने की क्षमता होनी चाहिए और सुनने की इस क्षमता को चीन ने सबसे पहले सुना .आज देश की जो राजनितिक माहौल है उस माहौल में भारत की तार-तार होती नेहरूवादी विदेश नीति अंतिम साँसे गिन रही है.२०१४ लोकसभा चुनाव के संदर्भ में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर जो विश्लेषण आ रहे हैं उसमे वर्तमान दिग्भ्रमित भ्रष्टाचार पोषक यूपीए सरकार को जाना निश्चित है ऐसे में नेंसी पावेल के कारण जो राजनितिक माहौल बना उसके दुष्परिणाम से बचने के लिए अमेरिका ने कवायद करना शुरू कर दिया. यूएस- इंडिया कौन्सिल ने दोनों देशों की रिश्तो को पटरी पर लाने के लिए कैपिटल हिल में भारतीय राजदूत एस.जयशंकर की उपस्तिथि में जो संवाद किया उसे इसी दृष्टि में देखा जाना चाहिए.
नेंसी पावेल के ज़बरदस्ती इस्तीफा को अमेरिका ने सेवा निवृति का मुलम्मा चढाने का जो प्रयास किया वह तो अमेरिकी फितरत का चिर परिचित अंदाज़ है. अमेरिका ने अपनी गलती को सुधारने का प्रयास गत १३ फरबरी को गांधीनगर से शुरू किया किन्तु नेंसी पावेल अमेरिकी चाहत पर खरीं नही उतरी और भारत के चुनावी बयार ने नेंसी पावेल को वापस लेने पर अमेरिका को मजबूर किया.अमेरिका ने वर्ष २००२ से झूठ के सहारे जो नज़रिया निर्वाचित मुख्यमंत्री के प्रति अपनाया था वह दादागिरी ही तो था और इस दादागिरी में भारत की जनता ने जो पटखनी अमेरिका को दी वह अमेरिका ने स्वप्न में भी नही सोचा था. भारत की जनता ने समवेत स्वर में कहा-
आंधियो की जिद है जहां बिजलियाँ गिराने की ! मुझमे भी जिद है वहाँ आशियाँ बनाने की !!
और उसे कर दिखाया जिसकी झलक नेंसी पावेल की भारत से बिदाई में दिखी. यूपीए सरकार की देश घातक नीति के व्यामोह में फंसा अमेरिका आज अपने आपको निकालने की ज़द्दोजेहाद में दिख रहा है, जिस तरह ठंडा पानी और गर्म आयरन कपड़े की सलवटें को ठीक कर उसमे नवीनता और आकर्षण लाती है उसी प्रकार ठंडा दिमाग और गर्म दिल हमारे जिंदगी में नवीनता और आकर्षण लाती है और २००२ के बाद से लाख कुत्सित अप-प्रचारों के बाद भी राष्ट्रवादी शक्तिओं ने ठंडा दिमाग और गर्म दिल से जिस भारत का सपना देखा वह पूर्ति होता स्पष्ट दिख रहा है.१६ मई के बाद एक बार फिर भारत की आवाज विश्व के लिए मार्गदर्शक होगा इसमें रंचमात्र संदेह नही है.
---संजय कुमार आजाद---
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