भगवत्पाद आद्यशंकराचार्यजी का जिस युग में प्राकट्य हुआ था उसमें धर्म-संस्कृति और परंपराओं के ह्रास और मनमाने व अनुशासनहीन परिवर्तन का दौर व्याप्त हो चुका था, धर्म का अर्थ विकृतियों को प्राप्त हो चुका था और कुत्सित स्वार्थों, भोग-विलास और ऎषणाओं की वैयक्तिक पूर्ति का ऎसा भीषण और भयावह माहौल पैदा हो चला था कि धर्मसंगत और नीतिसंगत व्यवहार पलायन की अवस्था को पा चुका था।
जो परिस्थितियां शंकराचार्य के अवतरण के समय थी, जिनके कारण भगवान शंकर को जगत पर धर्म रक्षा और तत्वज्ञान के रहस्यों को समझाने के लिए धरा पर अवतरण लेना पड़ा था, तकरीबन वैसी ही स्थितियां आज फिर हमारे सामने हैं। धर्म और मानवी व्यवस्थाओं को अपने स्वार्थों के अनुरूप ढालने के जो षड़यंत्र चल रहे हैं, सिर्फ कुछ घरानों और समूहों को हमेशा शीर्ष पर बिठाये रखने के लिए धनबल, भुजबल और षड़यंत्र बल के आधार पर क्षेत्रों, भाषाओं और जातियों के नाम पर विभाजनवादी मानसिकता भरी महामारी को हवा मिल रही है, व्यक्ति, परिवार, समाज और देश अपने कत्र्तव्य कर्म को भुलते जा रहे हैं, मानवीय संवेदनशीलता और इंसानियत की गंध गायब होती जा रही है, अखण्ड राष्ट्र के सारे पैमाने बिखर चुके हैं और व्यक्तिवादी मानसिकता ने व्यक्तिपूजा को बढ़ावा देकर समाज और राष्ट्र की अवधारणा को द्वितीयक श्रेणी में ला दिया है।
विश्व गुरु का दर्जा रखने वाले भूभाग के लोगों के भीतर से गुरुत्व के प्रति आदर-सम्मान का क्षरण हो रहा है और हम उन कामों में दिलचस्पी ले रहे हैं जो न भगवान को कभी पसंद रहे हैं, न कभी शंकराचार्य ने इन्हें तवज्जो दी। बल्कि जिन खराब हालातों को सुधारने के लिए शंकराचार्य का अवतरण हुआ, उन्हीं के बराबर की स्थितियां आज हैं लेकिन हम सारे के सारे नपुंसक बने हुए विवशता को बयां करने के सिवा कुछ नहीं कर पा रहे हैं। धर्म की अवधारणा समाप्त प्रायः हो गई है और सभी जगह धर्म ने रिलीजन इण्डस्ट्री का स्वरूप ग्रहण कर लिया है जहाँ पुजारियों से लेकर बाबाओं, महंतों, ध्यानयोगियों, पण्डितों, महामण्डलेश्वरों और कर्मकाण्डियों, ज्योतिषियों, तांत्रिकों, मांत्रिकों, साधकों सभी का ध्यान मुद्रार्चन, ऎषणाओं को पूरा करने, अपने घर-आश्रम भरने, भोग-विलासिता के सारे संसाधन जुटाने, शराबियों, मांसाहारियों, गौहत्यारों और पापियों को आशीर्वाद प्रदान करने, उनके यशस्वी दीर्घ जीवन तथा चुनावों में जिताने के लिए धंधेबाज कर्मकाण्डियों के माध्यम से पूजा-पाठ कर दलाली करने, नालायकों, निकम्मों को आशीर्वाद देने जैसे उन कर्मों में सिमटता जा रहा है जिसका समुदाय और देश से दूर-दूर तक का कोई रिश्ता नहीं रहा।
अखण्ड राष्ट्र को एक सूत्र में बाँधने के लिए शंकराचार्य ने जैसा तीर्थाटन किया, वैसा कोई नहीं कर सका है। उन्होंने चारों दिशाओं में मठों की स्थापना कर सामाजिक व क्षेत्रीय समरसता को स्थायित्व देने का काम किया। इसी प्रकार विभिन्न पूजा पद्धतियों, साधनाओं को सुव्यवस्थित व सार्वजनीन एकीकृत स्वरूप प्रदान किया। उन्होंने चारों कोनों में शंकराचार्य पीठ स्थापित की और धर्म तथा परंपराओं के मूल स्वरूप को उद्घाटित कर शास्त्रार्थ में विश्वविजयी बनकर सनातन धर्म को परिपुष्ट किया और उन सारी विकृतियों तथा धर्म के नाम पर घुस आए घृणित कर्मों और विधर्मियों को सबक सिखाया जो दिशाहीनता दे रहे थे। आज लगभग हालात ऎसे ही हैं जहाँ न कोई धर्म का मूल स्वरूप समझ पा रहा है, न भगवान के प्रति अगाध श्रद्धा और आस्था है, न हमारी सनातन परंपराओं में विश्वास का कोई भाव है। शंकराचार्य द्वारा स्थापित मठ परंपरा का परवर्ती बाबाओं ने कबाड़ा करके रख दिया है।
आज हमारे यहाँ शंकराचार्यों की भारी भीड़ है, कई भूतपूर्व, निवर्तमान शंकराचार्यों का अस्तित्व है जबकि शंकराचार्य वह पद है जो धर्म का सर्वोच्च शिखर है जहाँ धर्ममूर्ति ही विराजित हो सकता है। पर पिछले कुछ वर्ष से असली शंकराचार्यों को दरकिनार कर जगह-जगह ढोंगी और भोग-विलासी नालायक बाबाओं ने अपने आपको शंकराचार्य घोषित कर रखा है और बेशकीमती एयर कण्डीशण्ड कारों में परिभ्रमण करने लगे हैं, कई शंकराचार्यों ने अपनी रक्षा के लिए कमाण्डो तैनात कर रखे हैं, इनके आश्रमों और उन्मुक्त भोग-विलासी वैभवों का तो कोई पार ही नहीं है।
फिर इन शंकराचार्यों से लेकर बाबाओं, महामण्डलेश्वरों और महंतों के शौक देखिये, मीडिया में समाचारों और तस्वीरों, वीडियो और टीवी कवरेज न हो तो इनका दिन न उगे। कितने ही शंकराचार्य और बाबा ऎसे हैं जो ऎसे-ऎसे लोगों के तलवे चाट रहे हैं जो धर्म के लिए सबसे ज्यादा घातक हैं। धर्म के नाम पर धनसंग्रह और लोगों की भावनाओं को भुना कर चेले-चपाटियों की संख्या बढ़ाने में इन शंकराचायोर्ं और कथावाचकों का कोई सानी नहीं। इन लोगों ने धर्म को जितना रसातल में पहुंचाया है उतना किसी ने नहीं। करपात्रीजी महाराज और उन जैसी विभूतियों ने गौहत्या रोकने के लिए जो कुछ किया, उसे आज के ये बाबे भुला चुके हैं। इन लोगों को अपनी प्रतिष्ठा, पैसों और विलासिता से ही सरोकार है, समाज और देश जाए भाड़ में, गाये रहे न रहें, धर्म का चाहे जो हश्र हो, इन लोगों को इससे कोई सरोकार नहीं है।
शंकराचार्य ने अपनी कम आयु में ही जो काम कर दिखाया है वह हम जैसे स्वार्थी, घर घूस्सू और नालायक लोग सदियों में भी नहीं कर पाएंगे। एक युवा संन्यासी जितना कुछ कर पाया वह लाखों वर्ष तक यादगार रहेगा। शंकराचार्य के नाम पर जो लोग आयोजन करते हैं, धर्म और शंकराचार्य के जयकारे लगाते हैं, वे सारे के सारे आज कटघरे में हैं। साल भर में एक बार शंकराचार्य का नाम स्मरण कर लेने और उनके व्यक्तित्व व कार्यों का स्मरण करने की औपचारिकता पूरी करने से तो ज्यादा बेहतर यह होगा कि हम धर्म के असली मर्म को समझें और अपने आपको स्वार्थों, मंचों, लंचों, नापाक गोरखधंधों, नालायकों और टुच्चे लोगों के तलवे चाटने और अधार्मिक कही जाने वाली सभी प्रदूषित प्रवृत्तियों से दूर रखें और शंकराचार्य के जीवन से प्रेरणा पाकर धर्म की स्थापना, मानवतावाद के विस्तार तथा धार्मिक ऊर्जाओं को एक सूत्र में बांधकर सामाजिक समरसता, वैभवशाली राष्ट्र और ‘बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय’ के ध्येय को रखकर काम करें।
शंकराचार्य जयन्ती पर हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं ...
---डॉ. दीपक आचार्य---
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