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कबीर जयंती : जरूरत तो अब है कबीर की

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kabir das jayanti
जिस कबीर को हम गाते हैं, गुनगुनाते हैं और उन पर शोध अध्ययन, पीएच. डी करते और करवाते हैं उस कबीर की आज के माहौल में नितान्त आवश्यकता आन पड़ी है।

कबीर का वो युग तो और भी अधिक शालीन और संस्कारी कहा जा सकता है। उस युग में अच्छे लोगों का प्रतिशत भी कुछ ज्यादा ही था और बुरे लोगों की संख्या आज के मुकाबले कम ही रही होगी। फिर भी कबीर को सारी विषमताओं, अराजकताओं, भेदभाव, छुआछूत, अधर्म और सभी प्रकार की पापपूर्ण परंपराओं और रिवाजों के खिलाफ बोलना पड़ा।

इंसान से लेकर समुदाय और परिवेश की मैली परिस्थितियों पर मुँह खोलना पड़ा और सत्य के संघर्ष में खुद को झोंकना पड़ा। लाख विरोधों के बावजूद समाज और इंसान की दुरावस्था से परिचित कराकर सत्य का अहसास उन्होंने  कराया और युगीन सत्य का प्राकट्य कर अंधकार के माहौल को दूर करने में उन्हें  अपना पूरा जीवन होम देना पड़ा।

आज तो कलियुग का प्रभाव पहले से कहीं अधिक विस्तार पा चुका है। अच्छाइयां हाशिये पर आ गई हैं और बुराइयों का प्रतिशत बढ़ने लगा है। सज्जनों पर संकट ही संकट छाये रहने लगे हैं और दुष्टों के भाग में गुलाबजामुन और रसमलाई ही आ रहे हैं। गंगा से लेकर गलियारों तक में प्रदूषण फैला हुआ है। आदमी से लेकर आसमान तक में मैले विचारों और मलीनता भरी हवाओं का बोलबाला है।

उस जमाने में लोग ही कितने थे। आज तो जनसंख्या विस्फोट अपने चरम पर है। पाप करने और कराने के अत्याधुनिक साधन-संसाधन सर्वत्र व्याप्त हैं। अच्छी-बुरी कैसी भी बात हो, कोई सा नवाचार या नया आविष्कार हो, कैसी भी घटना-दुर्घटना हो, इसकी खबर पूरी दुनिया में चंद मिनटों में पसर जाती हैं। सांस्कृतिक पतन के लिए प्रेरित होने और प्रेरणा संचार के सारे रास्ते और माध्यम खुले हुए हैं जहाँ सब कुछ बेपरदा है। वो भी ऎसा कि देखने वालों को परदे में रहकर ही देखना पड़े वरना खुद ही हो जाएं बेपरदा।

सामाजिक, वैयक्तिक, आर्थिक, धार्मिक और मानवीय मर्यादाएं स्वाहा होने लगी हैं। आदमी के लिए अपने स्वार्थ सर्वोपरि हो गए हैं, सारे के सारे आदर्श, सिद्धान्त और नैतिक मूल्यों का करीब-करीब खात्मा हो गया है, जो लोक-दिखावन और आकर्षक है वही दुनिया में छाने लगा है।

कुरीतियों और बुराइयों के मौजूदा भयावह दौर में कबीर को शिद्दत से याद किया जाने लगा है। कबीर की जरूरत तो आज है जबकि समाजसुधार का हर कार्य अपने आप में बड़ी चुनौती बना हुआ है। और कबीर कोई एक नहीं, हर महानगर,  शहर, कस्बे और गांव के लिए कम से कम एक कबीर चाहिए तब भी पूरा न पड़े।

आज तो हालात ये गए हैं कि कबीर भी होते तो वर्तमान दुरावस्था को देखकर हार मान लेते। सचमुच आज स्थितियां ऎसी ही हो गई हैं। घर-परिवार से लेकर समाज,  अपने क्षेत्र या देश की बात क्यों न हो, हर कहीं ढेरों शक्ति केन्द्र बने हुए हैं जो समाज की छाती पर मनमानी करते हुए मूंग दल रहे हैं और दूसरे लोग तमाशबीनों की तरह खड़े होकर झूठन चाटने और अधर्म-असत्य भरे नालायकों को संप्रभु मानकर भेड़ों, लोमड़ों और श्वानों-गिद्धों को लज्जित कर रहे हैं।

पूंजीवाद की पूंगी पर सारे के सारे लोभी और लालची लोग नृत्य करने को आमादा हैं और हर कोई इस फिराक में है कि दूसरों का गला घोंट कर भी अपनी किस्मत को सँवारने के सारे अवसरों का भरपूर लाभ कैसे हड़प ले।
धर्म के नाम पर बाबाओं, महंतों, कथावाचकों, बहुरुपियों, ढोंगियों, आडम्बरियों और पाखण्डियों, शंकराचार्यों और भिखारियों के स्वाँग को दुनिया देख रही है। हम अपने आपको भीड़ से कुछ ज्यादा नहीं बना पाए हैं और जाने कब से औरों के पिछलग्गू होकर दुम हिलाकर प्रसन्नता व्यक्त करने को ही जीवन का सबसे बड़ा गौरव मानकर खुद पर गर्व करने लगे हैं। 

हालात कबीर के युग से भी अधिक भयावह है और चुनौतियाँ भी कोई कम नहीं। कबीर को लेकर हमारी स्थिति भी विचित्र है। देश में खूब सारे लोग हैं जो कबीर की  बातें तो करते हैं मगर कबीर को जीवन में अब तक नहीं उतार पाए हैं। कबीर और उनके साहित्य पर शोध-अध्ययन, समीक्षा, पुस्तक लेखन और परिचर्चा सहित विभिन्न आयोजन करने में कभी पीछे नहीं रहते लेकिन बात उनके व्यक्तिगत जीवन की हो या सार्वजनीन जीवन की, कहीं से कबीर नहीं झलकता। तब लगता है कि कबीर के नाम पर यह सब क्या कुछ हो रहा है। कबीर ने इसी के लिए तो संघर्ष नहीं किया था? उसका सब कुछ किया-कराया बेकार लग रहा है।  इसे न कबीर के प्रति हमारी श्रद्धा कहा जा सकता है, न हमारी संवेदनशीलता। हम जो कुछ कर रहे हैं वह कबीर के नाम पर प्रोफेशनेलिज्म से ज्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता। हमसे तो वे कबीर पंथी साधु-संत और भक्त अच्छे हैं जो कबीर का नाम लेते हैं, कबीरवाणी का गान करते हैं और सादगी, मानवीय संवेदनाओं और प्राणी मात्र के प्रति संवेदनशीलता, करुणा एवं मैत्री भाव से जुटे हुए हैं। कबीर जैसा मन से सोचता था वैसा कहता और करता भी था।

 आज कबीर हमारी वाणी में हैं, अभिनय में है लेकिन हृदय में प्रतिष्ठित नहीं है। हम सभी को चाहिए कि कबीर को आत्मसात करें और वह भी नहीं कर सकें तो ईश्वर से प्रार्थना करें कि हम सब नालायक और नाकारा हो चुके हैं इसलिए समाजसुधार के लिए फिर कबीर को धरा पर भेजे, पर इस बार एक कबीर से काम नहीं चलेगा, आज खूब सारे कबीर हर क्षेत्र के लिए जरूरी हो चले हैं।



कबीर जयंती पर उन सभी को हार्दिक मंगलकामनाएँ .... जो आज के दिन कबीर को याद तो करते हैं ....





---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com


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