बात आध्यात्मिक हो या सांसारिक, हर प्रकार के कर्म में भीतरी और बाहरी सुझावों, निर्देशों, मार्गनिर्देशन से लेकर राय, सुझाव, हिदायत, सलाह आदि का वजूद हर युग में रहा है और युगों तक रहेगा। इस मामले में कई तरह के मनोविज्ञान काम करते हैं। जो जैसा कर रहा है उसे करने दें, अभ्यास करते हुए अपने आप सब कुछ ज्ञान हो ही जाएगा।
आमतौर पर यह देखा जाता है कि इंसान जिज्ञासु प्रवृत्ति का होता है और ऎसे में अच्छा या बुरा वह तब तक स्वीकार नहीं करता जब तक उन हालातों से खुद रूबरू न हो जाए। कुछ लोग अपने कामों में ही इतने व्यस्त और तल्लीन रहते हैं कि उन्हें एक समय बाद अपने आप यह समझ आ ही जाती है कि क्या अच्छा है और क्या बुरा।
ऎसे लोगों में कुछ तो दूसरों की बातों को मानते हैं और कुछ दूसरों की बातों पर कान तक नहीं धरते। इन सभी के अलावा आदमियों की एक तीसरी प्रजाति आजकल खूब पसरने लगी है और वह है राय देने वालों की। ये लोग हर क्षेत्र, हर माध्यम और हर विधा में भारी मात्रा में मौजूद हैं और वे इसी फिराक में रहते हैं कि औरों को किस तरह कोई न कोई राय देते रहें। इनकी राय सकारात्मक ही हो यह भी जरूरी नहीं है, ये लोग नकारात्मक से लेकर हर प्रकार की राय दे सकते हैं।
अपने आपको सिद्ध, त्रिकालज्ञ और भविष्यवक्ता होने के साथ ही दुनिया की हर चीज और हर विषय में विद्वान और हुनरमंद मानने वाले ये लोग आजकल सर्वत्र बहुतायत में विचरण करते हुए पाए जाते हैं। ये जहाँ कहीं होंगे, जाएंगे या परिभ्रमण करेंगे, वहाँ बिना माँगे अपनी विद्वत्ता, विलक्षण मेधा-प्रज्ञा और हुनरों का लोहा मनवाने के लिए कुछ न कुछ बात ऎसी कह ही देंगे जिससे सामने वालों का संबंध हो
काफी लोग इनकी मानते हैं और इनके कहने पर ही चलते हैं और समय-समय पर अपनी विचारधारा तथा काम-काज और व्यवहार से लेकर दूसरी सारी आदतों को बदल-बदल का आजमाते रहते हैं, और जिंदगी भर पेण्डुलम बने रहते हैं।
आजकल इंसान अपने स्वकर्म और स्वधर्म के प्रति ईमानदारी से जिम्मेदार हो न होकर दूसरों को उपदेश और सलाह देने के मामले में सबसे आगे ही आगे रहने लगा है। ज्ञान और अनुभवों का कितना ही बड़ा खजाना अपने पास क्यों न हो, इसका दूसरों के लिए तब तक कोई उपयोग नहीं हो सकता जब तक कि सामने वाला हमसे कुछ जानने की जिज्ञासा प्रकट न करे।
तंत्र-मंत्र और अध्यात्म में तो इसे वर्जित ही माना गया है कि बिना पूछे किसी को न तो राय दें और न ही उसके लिए कुछ उपाय करें, चाहे वह कितने ही संकट या आपदा में क्यों न हो। परा विद्याओं का प्रभाव तभी शुरू होता है जबकि सामने वाला हमसे इस बारे में मदद मांगे। इसके बिना मंत्र, तंत्र, यंत्र और उपदेशों या ऊर्जाओं से भरे शब्दों का कोई असर सामने नहीं आ पाता है।
बात घरों, दफ्तरों से लेकर समाज के किसी भी क्षेत्र की हो, बिन मांगे सलाह देने वाले हर तरफ भरपूर मात्रा में हैं और इनकी जिंदगी का एक ही मकसद होकर रह गया है, और वह है सलाह देना। मानें या न मानें यह सामने वालों की मर्जी पर निर्भर है लेकिन इनका काम सलाह देना ही रह गया है और इसे वे समाजसेवा के तौर पर ही लेते हैं।
समुदाय और क्षेत्र में खूब सारे लोग इसी धंधे में लगे हुए अपने आपका वजूद दर्शा रहे हैं। इनके लिए न हुनर की सीमा है, न विषयों की, दुनिया-जहान का हर विषय इनका अपना होता है और ये किसी भी विषय पर अपनी बेबाक राय दे सकते हैं। राय और उपदेश प्रदाताओं की एक खासियत यह भी होती है कि ये खुद कुछ भी नहीं करते, ये चाहते हैं कि वे निर्देशक या मार्गदर्शक की भूमिका में रहें, और उनके सोचे हुए काम दूसरे लोग करें।
यही कारण है कि आज समाज में काम करने वालाें के मुकाबले बातूनी और रायचन्दों की बाढ़ आयी हुई है। जो गगरियां बेमौके छलकने लगती हैं वे कभी पूरी भरी हुई नहीं होती हैं। जो लोग अपने विषयों में वास्तविक विद्वान और निष्णात होते हैं वे अपने हर काम के प्रति गंभीर होते हैं और इनके कार्य तथा व्यवहार से कभी नहीं झलकता कि ये लोग विद्वत्ता और हुनर में बेमिसाल हैं। ये लोग कहीं भी अपनी विद्वत्ता का बखान नहीं करते, न किसी को राय देते हैं। इस किस्म के लोग राय देने और समझाईश के लिए भी सामने वालों की पात्रता पहले देखते हैं और पात्रता की कसौटी पर खरा उतरने के बाद ही दूसरों को कोई बात कहते हैं और वह भी पूछे जाने पर।
हमारा इतिहास साक्षी रहा है कि शिष्य ही कण्टकाकीर्ण मार्ग को तय करते हुए, दुर्गम रास्तों से होते हुए गुरुओं के दर पर पहुंचे हैं और वहाँ पहुंच कर भी तभी ज्ञान या मार्ग मिल पाया, जब वे गुरु द्वारा ली गई परीक्षा में खरे उतरे, इसके बिना उनका कोई ठिकाना नहीं।
आजकल गुरुओं, सिद्धों, साधकों , महागुरुओं और गुरुघण्टालों की जानें कितनी रेवड़ें निकल पड़ी हैं शिष्यों के दर पर, अपना वजूद कायम करने, शिष्यों की भीड़ बढ़ाने। इसके बावजूद हम पिछड़ते ही जा रहे हैं, भारतीय संस्कृति और मूल्यों में कोई इजाफा नहीं हो रहा बल्कि समस्याओं से घिरते जा रहे हैं।
इन सभी हालातों से समाज को उबारने का एकमात्र उपाय यही है कि लोग सलाह देने से बाज आएं और उस समय का सदुपयोग किसी अच्छे रचनात्मक काम में करें, खुद परिश्रम करें और बदलाव लाने में अपने हाथ-पाँव हिलाएँ, संचित करते रहने में ही न लगे रहें बल्कि समाज के लिए खर्च करें और अपने कार्यों को अनुकरणीय बनाएं, इससे बड़ा और कोई प्रेरक तत्व संसार में न हुआ है, न होगा।
बिना मांगे या पूछे न राय दें, न औरों के कर्म के बारे में टिप्पणी करें। जो लोग जो कुछ कर रहे हैं करने दें, एक समय बाद वह घड़ी आ ही जाएगी जब सत्य का भान होगा। असली ज्ञान वही है जो इंसान के कर्मयोग की यात्रा में प्रत्यक्ष सामने आए। सलाह देने की बजाय कर्म को अनुकरणीय बनाना आज की पहली आवश्यकता है जिसके लिए किसी प्रचार या आत्मप्रशंसा की कोई जरूरत कभी नहीं होती।
---डॉ. दीपक आचार्य---
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